बुधवार, 27 जून 2018

एक मुर्दा कहीं से ले आओ

photo by Sanjay Grover
ग़ज़ल


भीड़, तन्हा को जब डराती है
मेरी तो हंसी छूट जाती है

सब ग़लत हैं तो हम सही क्यों हों

भीड़ को ऐसी अदा भाती है

दिन में इस फ़िक़्र में हूं जागा हुआ

रात में नींद नहीं आती है

भीड़, तन्हा से करती है नफ़रत
और हक़ प्यार पे जताती है

एक मुर्दा कहीं से ले आओ

भीड़ तो पीछे-पीछे आती है

पूरी औरत को करके अंगड़ाई

शायरी कैसा सितम ढाती है

आज इक और बात कह डाली

देखिए किसको समझ आती है

-संजय ग्रोवर
27-06-2018


2 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (29-06-2018) को "हम लेखनी से अपनी मशहूर हो रहे हैं" (चर्चा अंक-3016) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन टोपी, कबीर, मगहर और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...

    जवाब देंहटाएं

कहने को बहुत कुछ था अगर कहने पे आते....

देयर वॉज़ अ स्टोर रुम या कि दरवाज़ा-ए-स्टोर रुम....

ख़ुद फंसोगे हमें भी फंसाओगे!

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ढूंढो-ढूंढो रे साजना अपने काम का मलबा.........

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