बुधवार, 23 दिसंबर 2015

अब तो काई-सी जमी है बस

ग़ज़ल

वो महज़ इक आदमी है बस
और उसमें क्या कमी है बस

उम्रे-दरिया के तजुर्बों पर
अब तो काई-सी जमी है बस

आंसुओं का बह चुका दरिया
आंख में थोड़ी नमी है बस

हर बरस आता है इक तूफ़ां
जोश सारा मौसमी है बस

इन डरे लोगों के हिस्से में
इक मरी-सी ज़िंदगी है बस

-संजय ग्रोवर



गुरुवार, 17 दिसंबर 2015

बादलों की तर्ज़ पे...

ग़ज़ल 

ज़िंदगी की जुस्तजू में ज़िंदगी बन जा
ढूंढ मत अब रोशनी, ख़ुद रोशनी बन जा

रोशनी में रोशनी का क्या सबब, ऐ दोस्त!
जब अंधेरी रात आए, चांदनी बन जा

गर तक़ल्लुफ़ झूठ हैं तो छोड़ दे इनको
मैंने ये थोड़ी कहा, बेहूदगी बन जा

हर तरफ़ चौराहों पे भटका हुआ इंसान-
उसको अपनी-सी लगे, तू वो गली बन जा

कुंओं में जीते हुए सदियां गई ऐ दोस्त
क़ैद से बाहर निकल, फिर आदमी बन जा

गर शराफ़त में नहीं पानी का कोई ढंग
बादलों की तर्ज़ पे आवारगी बन जा

-संजय ग्रोवर


बुधवार, 2 दिसंबर 2015

एक फ़ोटो निकालते हैं चलो

ग़ज़ल

ख़ुदको फिर से खंगालते हैं चलो,
आज क़ाग़ज़ संभालते हैं चलो

गर लगे, हो गए पुराने-से
ख़ुदको रद्दी में डालते हैं चलो

क्यूं अंधेरों को अंधेरा न कहा
रौशनी इसपे डालते हैं चलो

ज़हन जाना तो मार डालोगे
बात को कल पे टालते हैं चलो

सुन न पाओगे, कह न पाएंगे
एक फ़ोटो निकालते हैं चलो
30-11-2015

आदमी जैसी किसमें है श्रद्धा!
आदमी को ही पालते हैं चलो
02-12-2015


सच को मांगेगा! कौन पूछेगा?
फिर भी सिक्का उछालते हैं चलो

कोई मुद्दा उछालते हैं चलो
यूंही अरमां निकालते हैं चलो

03-12-2015

-संजय ग्रोवर






सोमवार, 19 अक्तूबर 2015

पुरस्कार प्रकरण: खोखले सवाल पोपले जवाब

पुरस्कार क्यों लिए-दिए जाते हैं, इसपर किसीने भी सवाल नहीं उठाया, कोई उठाएगा इसकी उम्मीद भी न के बराबर ही है।

इस देश में लेखकों की रचनाएं, संपादक और प्रकाशक, चाहे वे वामपंथीं हों या संघी, किस आधार पर छापते हैं, इसपर भी सवाल कम ही उठते हैं, कम ही उठेंगे।

एक बहस में देखा कि यह सवाल उठानेवाले लोग तो थे कि चौरासी के दंगों पर किसीने क्यों पुरस्कार नहीं लौटाया (और यह बिलकुल जायज़ सवाल है) मगर दलित वर्ग जिनके ऊपर आए दिन अत्याचार होता है, का कोई प्रतिनिधि वहां दिखाई नहीं दिया। बुलाया ही नहीं गया होगा।

यह सवाल भी नहीं उठा कि एक सरकार से लिए गए पुरस्कार दूसरी सरकार को कैसे लौटाए जा सकते हैं !?
क्या आप मानते हैं सभी सरकारें एक जैसी होतीं हैं ? एक ही होती हैं ? फ़िर तो सभी सरकारों को एक ही माना जाए, और तब तो स्पष्ट है कि पुरस्कार किसी भी सरकार से नहीं लेने चाहिए। तब तो पूरे देश में इन्हें सार्वजनिक घोषणा करनी चाहिए कि हम सरकार से पुरस्कार नहीं लेंगे।


वैसे तो साहित्यकार को किसीसे भी पुरस्कार क्यों लेने चाहिए ? क्या कोई इनके घर अपील करने गया था कि आप ज़रुर लेखक बनना, वरना हम जी नहीं पाएंगे, आत्महत्या कर लेंगे !? बहुत सारे लोग हैं भारत में जो दिन-भर काम करते हैं, मज़दूरी करते हैं, मैला ढोते हैं, क्लर्क हैं, सब्ज़ी बेचते हैं, खेती करते हैं...... कोई भी तो पुरस्कार नहीं मांगता, फ़िर साहित्यकार ऐसा क्या किए दे रहे हैं !? विदशी लेखकों को कोट कर-करके अख़बारों से हज़ारों के चेक ले लेते हैं, मेरी समझ में तो अगर स्वाभिमान और ईमान है तो वो पैसा भी वापिस करना चाहिए जो दूसरों के लेखन को अपना बना या बताकर ऐंठा गया है। और आप जो नौकरियां और व्यवसाय करते हैं वो आपको पूरा नहीं पढ़ता क्या ? आपको क़लम-पैन-निक्कर-कमीज़ सब सरकार से क्यों चाहिए !?


ये सवाल कोई नहीं उठाएगा। ज़ाहिर है कि पुरस्कार और मुफ़्त में मिलनेवाली सभी सुविधाओं का लालच सभी दलों के लिक्खाड़ों का बिलकुल एक जैसा है। ज़ाहिर है कि इन्हें आगे भी पुरस्कार और बाक़ी सभी सुविधाएं लेनी हैं और ये उसी अंदाज़ में बात भी कर रहे हैं। इनमें से कुछ लोग धर्म पर कुछ बोलने वालों पर लाठी लेकर दौड़ पड़ते हैं तो कुछ धर्मनिरपेक्षता पर कुछ बोलने पर। दोनों (या तीनों या चारों.....) की अपने नेताओं, महापुरुषों, आयकनों आदि को लेकर भक्ति का स्तर बिलकुल एक जैसा है। यहां सोचने की बात है कि धर्म की तो सभी चालाक़ियों से हम परिचित हैं (और नास्तिक ग्रुप में हमने इसके खि़लाफ़ नये से नये तर्क दिए हैं) मगर धर्मनिपेक्षता पर पर्याप्त बातचीत हमने क़तई नहीं की है। अगर मार्क्स ने कहा कि धर्म अफ़ीम का नशा है तो क्या किसी एक धर्म के लिए कहा होगा !? नशे का अर्थ बेहोशी और बुराई के अलावा और क्या हो सकता है ? अगर सभी धर्म बुरे हैं, हास्यास्पद हैं तो धर्मनिरपेक्षता की क्या ज़रुरत हुई !? फिर तो एक बुराईनिरपेक्षता भी होनी चाहिए, एक गुंडानिरपेक्षता भी होनी चाहिए, एक अंधविश्वासनिरपेक्षता भी होनी चाहिए, एक कट्टरपंथनिरपेक्षता भी होनी चाहिए, एक कालाजादूनिरपेक्षता भी होनी चाहिए, एक कचरानिरपेक्षता भी होनी चाहिए....

सही बात यह है कि जिस तरह साकार भगवान से आगे की चालाक़ी निराकार भगवान है उसी तरह धर्म से आगे की चालाक़ी धर्मनिरपेक्षता है। 

इस नज़रिए से सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि जो लोग आर एस एस को कट्टरपंथी (जोकि आर एस एस सौ प्रतिशत है) कहकर प्रगतिशील बनना चाहते हैं, क्या ख़ुद वे वाक़ई प्रगतिशील हैं ?
ये बहसें किसी शादी में जमा हुए रिश्तेदारों की अंत्याक्षरी जैसी क्यों लग रहीं हैं !?

इन सारी बहसों में एक ही पक्ष को बुलाया जा रहा है जो कि पुरस्कार का समर्थक है। दूसरा पक्ष जो पुरस्कार का विरोधी हो सकता है, उसका तो दूर-दूर तक नामोनिशान तक नहीं है। 

19-10-2015

2.
सवाल यह है कि हमारे तथाकथित प्रगतिशीलों को प्रगतिशीलता के नाम पर बार-बार आर एस एस का संदर्भ क्यों लाना पड़ता है!? जहां तक मुझे याद आता है, जब तक मैं विवाह और इसी तरह के अन्य समारोहों में जाता था, लोग अपनी मर्ज़ी से सारे रीति-रिवाज़ किया करते थे। मैंने तो कभी नहीं देखा कि कोई आर एस एस या कोई राजनेता किसी पर दहेज लेने के लिए दबाव डाल रहा हो। क्या अंगूठा काटनेवाले द्रोणाचार्य को नायक की तरह हमारी पढ़ाई की क़िताबों में आर एस एस ने घुसाया ? उस वक़्त तो कांग्रेस और वामपंथ के ही हाथों में सब कुछ था। उन्हें क्यों नहीं हैरानी या आपत्ति हुई जब कबीरदास की जीवनी में लाश पर से कपड़ा हटाने पर फूल निकल आए ? 

उस वक़्त मैं वामपंथ और वामपंथी बुद्धिजीवियों से प्रभावित हुआ करता था जब बाबा रामदेव मशहूर हुए। कम्युनिस्ट नेत्री वृंदा करात ने रामदेव के खि़लाफ़ कोई मामला उठाया। जब सभी न्यूज़-चैनलों पर बहस गर्म थी और रामदेव कह रहे थे कि इनका क्या है, ये तो हैं ही नास्तिक...तो मैं सोच रहा था कि अब कम्युनिस्ट दमदार तार्किक जवाब देंगे, अच्छा मौक़ा है सारे राष्ट्र को अपने बारे में बताने का...। मगर मुझे यह देखकर भारी निराशा हुई कि वे टीवी स्क्रीन से ऐसी ग़ायब हुईं कि महीनों तक नज़र नहीं आईं। अब तो ख़ैर मेरा चीज़ों को समझने 
का ढंग काफ़ी बदल गया है मगर उस वक़्त दुखी होना स्वाभाविक था।

वामपंथियों ने नास्तिकता के संदर्भ में कोई ढंग की कोशिश की हो, मुझे तो नहीं लगता। पं. बंगाल में 20-30 साल ज्योति बसु मुख्यमंत्री रहे, उस दौरान वहां धर्म और अंधविश्वास को लेकर समाज/लोगों की सोच में कितना परिवर्तन आया, पता लगाना चाहिए। 


एक वक़्त तक बहुत-सारे न्यूज़- चैनलों पर वामपंथ का प्रभाव बताया जाता रहा मगर कहीं भी नास्तिकता का नाम तक सुनने में नहीं आता था तो यह किसकी ग़लती रही ? यह किस तरह की प्रगतिशीलता रही ?


प्रगतिशीलता का इनका दायरा तो इसीसे समझा जा सकता है कि पीके नाम की मनोरंजक फ़िल्म को भारत के तथाकथित प्रगतिशीलों ने एक महान क्रांतिकारी फ़िल्म की तरह पेश किया जबकि प्रगतिशीलता, बदलाव और अंधविश्वास कम करने के संदर्भ में फ़िल्म का अंत क़तई शर्मनाक़ था।


अब आप लोग ख़ुद सोचें कि ये लोग प्रगतिशीलता के नाम पर एक भ्रम को ही चलाए रखना चाहते हैं या असली प्रगतिशीलता से डरते हैं ? समस्या क्या है ? क्या आर एस एस की आड़ लेने और लेते रहने से समस्याएं हल हो जाएंगी ?


प्रगतिशीलता को लेकर इनकी नीयत क्या इसीसे नहीं समझी जा सकती कि इनके पसंदीदा केजरीवाल मंच पर चढ़ते ही भगवान-भगवान, चमत्कार-चमत्कार करना शुरु कर देते हैं। ऐसे में आर एस एस से तुलना कर-करके आप कब तक अपनी तसल्ली करते रहोगे ? 


अभी-अभी पढ़ा कि श्री ग़ुलज़ार ने कहा है कि लेखक क्यों राजनीति करेंगे, लेखक तो समाज के ज़मीर को संभालते हैं।


क्या आपको लगता है कि ग़ुलज़ार की इस बात में किसी तरह का तर्क भी है !? क्या ग़ुलज़ार यह मानते हैं कि सभी लेखक बिलकुल एक जैसे होते हैं !? फ़िर तो सभी लेखकों को ग़ुलज़ार की तरह फ़िल्मों में ही लिखना चाहिए, उतना ही पैसा कमाना चाहिए। तर्क और आकाशवाणी में आखि़र कुछ तो फ़र्क होना चाहिए ? क्या ग़ुलज़ार साहब ने लेखकों के वे संस्मरण नहीं पढ़े हैं जिनमें वे ख़ुद ही एक-दूसरे की टांग-खिंचाई, धकेला-धकेली के बारे में लिखते रहते हैं। अगर सभी लेखक एक जैसे महान होते हैं तो उदयप्रकाश ने ‘पीली छतरीवाली लड़की’ और ‘मोहनदास’ में किन ब्राहमणवादी महानुभावों का वर्णन/ज़िक्र किया है ?


अगर सभी लेखक एक ही जैसे हैं तो संघी लेखकों और वामपंथी लेखकों का झगड़ा क्या है !?

(अगर कोई कहता कि मौक़ापरस्ती और मुफ़्त की सुविधाओं/पुरस्कारों के, मशहूरी की हवस के मामले में लेखक एक जैसे ‘महान’ हैं तो ज़रुर विचार किया जा सकता था।)

24-10-2015

3.
लेखक भी लालची होते हैं, कट्टरपंथी होते हैं, बेईमान होते हैं, राजनीति करते हैं...... ठीक वैसे ही जैसे व्यापारी होते हैं, राजनेता होते हैं या अन्य कोई भी इंसान होता है।

बिना किसी तार्किक आधार के आप लेखकों को मसीहा, देवता, महान बनाएंगे और फ़िर यह भी जताएंगे कि लेखकों को सरस्वतीपुत्र बतानेवाले ब्राहमणवाद, कट्टरपंथ और आर एस एस से आप अलग हैं!? क्या बात है !?  

तथ्य और तर्क के बिना लेखकों, कलाकारों, गायकों, संगीतकारों को पवित्र और महामानव बनाने की कोशिशें, बाबाओं के भगवान बनकर मौज करने या फ़िल्मस्टारों की एक गढ़ी गई इमेज के ज़रिए ऐश करने की मानसिकता से किस तरह अलग हैं ? लेखकों को ख़ामख़्वाह सबके सर पर बिठाने के प्रयत्न जातिवादी और श्रेष्ठतावादी मानसिकता का ही एक नमूना है, और कुछ भी नहीं है।

और बाबाओं पर निशाना साधने में भी पूरी चालाक़ी बरती जाती है। कुछ ख़ास वर्गों से संबंधित बाबाओं पर वह ब्राहमणवाद आधुनिकता/प्रगतिशीलता का चोला पहनकर हमले करता है जिसके द्वारा रचित तथाकथित अध्यात्म से ही बाबावाद का जन्म हुआ। जिनके लोग चाहे आर एस एस में हों चाहें वामपंथ में, हर वक़्त चालू धर्मों और वर्णों को बचाने में सारी जान लगाए रहते हैं। वरना एक वह भी फ़ोटो जगह-जगह देखा गया जिसमें सफ़ेदवस्त्रधारी साईंबाबा की मृतदेह शीशे के चमकते बक्से में रखी थी और श्रीमती सोनिया गांधी, सचिन तेंदुलकर, सुनील गावस्कर जैसे ‘प्रगतिशील‘ और ‘एडुकेटेड’ लोग वहां श्रद्धारत बैठे थे। ये वे साईंबाबा थे जो लोगों को आर्शीवाद स्वरुप सफ़ेद पाउडर और सफ़ेद गोले अपनी बाहों और मुंह से निकाल-निकालकर बांटते थे। इन्होंने अपने मुंह से कभी एक शब्द नहीं बोला था। क्या सफ़ेद कपड़ों और ‘एडुकेटेड’ भक्तों की वजह से इन्हें प्रगतिशील माना जाए ? क्या बाबाओं और उनकी कट्टरताओं और अंधविश्वासों में फ़र्क़ उनके कपड़ों के रंग या भक्तों की इलीटनेस में फ़र्क़ के आधार पर किया जाएगा ? क्या दाढ़ी और बालों से आदमी के चरित्र का पता लगाया जा सकता है ? क्या इस समाज में क्लीनशेवन बाबा और बाबियां घर-घर और चैनल-चैनल नहीं बैठे हुए हैं ? ये सबके सब अपना अब तक का सारा किया-धरा छुपाकर सारा दोष एक-दो लोगों पर मढ़ने की कोशिश कर रहे हैं जैसे एकाध आदमी ने इस देश में चला आ रहा सारा पाखंड पैदा किया हो!? करवाचौथ भी उसी ने बनाया हो और एकलव्य का अंगूठा भी उसीने काटा हो। यह सिवाय मौक़ापरस्ती, ग़ैरज़िम्मेदारी और अपना दोष दूसरे के सर मढ़ने के अलावा कुछ भी नहीं है। क्या कांग्रेसी, वामपंथी, समाजवादी इस देश में दहेज नहीं लेते-देते, शादियों व अन्य कर्मकांडों में फ़िज़ूलख़र्ची और वक़्त की बरबादी नहीं करते ? फ़ेसबुक की ही तसवीरें ठीक से देख ली जाएं तो सब समझ में आने लगेगा।  

आपकी लार पुरस्कार पर टपकेगी तो आप कहेंगे कि मुझे ‘क्रश’ आ गया है, दूसरे को ‘क्रश‘ आ जाए तो आप कहेंगे कि लार टपक रही है अगले की !? क्या भाषा और मुद्रा ( पोज़, जेस्चर ) की चालाक़ियों से प्रगतिशीलता और कट्टरता के फ़र्क़ तय किए जाएंगे !?

इस देश के तथाकथित प्रगतिशीलों की बातें सुनकर हंसी आती है ? कोई पुरस्कारों की हंसी उड़ाए तो पहले तो वे उस आदमी को इस या उस वाद से जोड़ने लगते हैं। उसके बाद उनके मुंह से तर्क के रुप में कुछ फूटता भी है तो इस तरह की शर्मनाक़ बातें कि अगला/अगली पुरस्कार का विरोध इसलिए कर रहा होगा/होगी कि इसको ख़ुदको कभी पुरस्कार नहीं मिला होगा ! तो ये रहे हमारे प्रगतिशील लोग! पुरस्कार के विरोधियों को फ्रस्ट्रेटेड और सनकी वग़ैरह बताने में ये एक मिनट भी तो नहीं लगाते! इनसे पूछिए कि एक आदमी एक मिट्टी की मूर्ति को नहलाता-धुलाता है, पूजा करता है, आप कहते हैं कि कट्टरपंथी है। ठीक कहते हैं। मगर आप अपने ड्राइंगरुम में पड़ी ट्रॉफ़ियों को रोज़ आंखों से नहलाते-धुलाते हैं तो आप क्या कर रहे होते हैं !? अगर आपके लिखने से समाज में कोई बदलाव आया है, समाज को कोई फ़ायदा हुआ है तो वह आपको अपने अनुभव से पता होना चाहिए, कि पुरस्कार उसके बारे में बताएगा !? अगर आपके लेखन से कुछ नहीं हुआ तो चाहे जितने पुरस्कार जमा करते रहिए, इनसे आपकी आत्ममुग्धता के अलावा और किसी भी चीज़ का पता नहीं चलेगा। इससे तो यही पता चलेगा कि आपमें इतना भी आत्मविश्वास नहीं कि ख़ुद अपने किए-धरे का सही-सही आकलन कर सकें। 

क्या गंगा-जमुना, गंगा-जमुना रटते रहना ही प्रगतिशीलता है !? चलो पिछले एक-डेढ़ साल में बड़ा फ़ासीवाद आ गया है, मगर उससे पहले कितने शेर आपने ब्राहमणवाद पर लिखे और कितने दलित-दमन पर लिखे ? क्या शायरी की सारी उपलब्ध क़िताबों में से 250 शेर दलित-दमन पर और 500 शेर ब्राहमणवाद पर आप ढूंढकर दे सकते हैं ? 


इतना भयानक फ़ासीवाद आ गया है तो विरोधी लेखकों की इतनी बड़ी-बड़ी रंगीन तसवीरें और पुराने मुशायरों की रिकॉर्डिंग कैसे हर चैनल पर दिखाई जा रहीं हैं ?

यह तो बड़ा मज़ेदार फ़ासीवाद है।

-संजय ग्रोवर

25-10-2015

(जारी)  



सोमवार, 12 अक्तूबर 2015

वो राज़ एक-दूसरे के खोल रहे थे

ग़ज़ल

बिलकुल ही एक जैसी बातें बोल रहे थे
वो राज़ एक-दूसरे के खोल रहे थे

तहज़ीब की तराज़ू भी तुमने ही गढ़ी थी
ईमान जिसपे अपना तुम्ही तोल रहे थे

अमृत तो फ़क़त नाम था, इक इश्तिहार था
अंदर तो सभी मिलके ज़हर घोल रहे थे

वो तितलियां भी तेज़ थीं, भंवरे भी गुरु थे
मिल-जुलके, ज़र्द फूल पे जो डोल रहे थे

-संजय ग्रोवर
12-10-2015



शुक्रवार, 2 अक्तूबर 2015

गाय से तो पूछ लो

व्यंग्य

क्या आपने कभी ऐसी गाय देखी है जो कहती हो कि आदमी मेरा बेटा है ? मैंने तो नहीं देखी। बचपन से सुना ख़ूब है कि गाय हमारी माता है, गाय हमारी माता है। कमाल की माता है कि माता को ख़ुद ही नहीं पता कि वह माता है, है तो किसकी माता है! कभी आपने कोई क़िताब ही पढ़ी हो जिसमें लिखा हो मैं फ़लां-फ़लां तरह के आदमियों की माता हूं-लेखिका सुश्री गाय देवी इत्यादि। अब ऐसी भी क़िताब आ जाए तो बड़ी बात नहीं, क्योंकि वर्त्तमान को भी इतिहास की तरह लिखने और जीने में  हम मनुष्य ऐक्सपर्ट रहे हैं। इतिहास में ही घुसने और घुसे रहने की हमें ऐसी बीमारी है जिसे अभी मनोचिकित्सा कोई नाम नहीं दे पाई है। हमने कई जानवरों से ज़बरदस्ती के रिश्ते बना रखे हैं। हम आदमी को ही नहीं छोड़ते तो गाय, भैंस, हाथी, कुत्ता, सुअर, बिल्ली, चूहा, सांप वगैरह क्या बेचते हैं !?

गाय हमारी माता होती तो कभी तो हमारा हाल़चाल पूछने आती-कि बेटे कैसे हो, सुबह का नाश्ता लिया कि नहीं, रात खांसी की आवाज़ बाहर तक आ रही थी, कुछ लेते क्यों नहीं ? मगर हाल पूछना तो दूर, बाज़ार में कहीं मिल जाए तो देखती तक नहीं, पता नहीं पहचानती भी है या नहीं। न गाय की शक्ल किसी आदमी से मिलती है। कई आदमी ज़रुर कई बार घर के चाबी के छेद से झांकते मिल जाते हैं। गाय हमारी माता होती तो कुछ आदतें तो उसकी हमसे मिलती-जुलती होतीं ? गाय तो मैंने कभी खिड़की से झांकती भी नहीं देखी। कभी आपने सुना हो, गाय का किसी बैंक मैनेजर को फ़ोन आया हो कि मेरे बच्चों ने मेरे नाम से जो खाते खुला रखे हैं, उनका बैलेंस कितना हुआ है ?

अगर गाय हमारी मां है तो हमें उसे उतना सब तो देना ही चाहिए जो मां को देते हैं। घर में एक कमरा, एक डबल या सिंगल बैड, सुविधानुसार टॉयलेट और बाथरुम वगैरह। अगर हमारा घर ऊपर के किसी फ्लोर पर है तो आकारानुसार लिफ्ट वगैरह भी बनवानी चाहिए।

मगर सही बात तो यह है कि मां के बारे में अच्छी-अच्छी शायरी भी हम तभी तक करते हैं जब तक मां चुपचाप रसोई में पोंछा मारती है और हमारे लिए हलवा-परांठा वग़ैरह सेंकती है। जिस दिन मां भी हमारी तरह ज़िंदगी को ‘इंजॉय’ करने लगेगी, हमारी क़लम लड़खड़़ा जाएगी।

हे आदमी! हे तथाकथित महान आदमी! हे इतिहास में दर्ज़ होने के लालच में वर्त्तमान की ऐसी-तैसी करने में लगे, आदमी! कुछ तो असली काम भी करो। हर चीज़ को तमाशा, हर बात को कर्मकांड, हर क्रिया को अभिनय में मत बदलो! आदमी हो या गाय-भैंस-सुअर-बकरी.......किसी से भी ज़बरदस्ती या एकतरफ़ा रिश्ता बनाना लोकतंत्र और इंसानियत, किसीकी भी सेहत को माफ़िक नहीं आता।

जानवर और मनुष्य के रिश्ते की बात चली तो मुझे एक मशहूर मुहावरा याद आ गया - ‘मतलब के लिए तो हम गधे को भी बाप बना लेते हैं’।

-संजय ग्रोवर
02-10-2015


गुरुवार, 25 जून 2015

शातिर है तू ख़ातिर तिरी होगी जगह-जगह

ग़ज़ल

ग़ायब का तू वक़ील है तो मुझको माफ़ कर
साज़िश तेरी दलील है तो मुझको माफ़ कर
24-06-2015

चेहरे पे तेरे होगी कबूतर-सी इक अदा
आंखों में तेरी चील है तो मुझको माफ़ कर

औरों की तरह गिरने को मैं भी कहूं उठना!
ऐसी तेरी अपील है तो मुझको माफ़ कर

बदनामी से बचने को बेईमान बन गया!
अब डर से ख़ुद ज़लील है तो मुझको माफ़ कर

माना पतंग तेरी बहुत ऊंची उड़ गई
उसमें लगी कंदील है तो मुझको माफ़ कर

शातिर है तू ख़ातिर तिरी होगी जगह-जगह
लोगों की दी ये ढील है तो मुझको माफ़ कर

लोगों ने तुझपे चोट की, तू मुझमें धंस गया!
ऐसी अगर तू कील है तो मुझको माफ़ कर



-संजय ग्रोवर
25-06-2015

ग़ायब=छुपा हुआ, निराकार, अप्रकट,invisible
दलील=तर्क, कारण, युक्ति,
साज़िश=षड्यंत्र, बदनीयत, कमज़ोर, दोमुंहे और घुन्ने लोगों द्वारा किसीकी ग़ैरजानकारी में उसे गिराने, मारने या बदनाम करने का सामूहिक प्रयत्न, 
ज़लील=अपमानित, 
शातिर=धूर्त्त, काईयां,cunning

बुधवार, 3 जून 2015

ब्लैकमेल और हम

छोटे थे तो फ़िल्मों से पता चलता था कि ब्लैकमेल नाम की भी एक क्रिया होती है और बहुत ही घिनौने लोग इसे
अंजाम देते हैं। बड़े होते-होते, समझ आते-आते समझ में आया कि इस महानता में तो जगह-जगह, तरह-तरह से लोग हाथ बंटा रहे हैं। ‘इमोशनल ब्लैकमेलिंग’ के मुहावरे से तो आज बहुत-से लोग परिचित हैं। सही बात तो यह है कि ब्लैक-मेलिंग सिर्फ़ ब्लैक-मेल करनेवाले व्यक्ति या समाज के बारे में ही नहीं बताती, होनेवाले के बारे में भी बताती है।

मुझे जहां तक समझ में आता है, पाखंडी समाजों में और पाखंडी व्यक्तियों के साथ ब्लैक-मेल की संभावनाएं दूसरों की तुलना में अधिक होतीं हैं। एक व्यक्ति अगर दूसरों से कहता है कि मर्यादा वाले पुरुष बनो, मगर ख़ुद वह मर्यादा तोड़ने से मिलनेवाले सभी आनंद लेना चाहता है तो ज़ाहिर है कि ऐसा करते जब वह पकड़ा जाएगा तो डरेगा ही कि सबको पता चल गया तो क्या होगा ?

ऐसे समाजों की स्त्रियां भी ऐसे ही पुरुषों को पसंद करेंगीं जो उनके और अपने ‘परिवारों की प्रतिष्ठाओं’ को बचाते-छुपाते हुए संबंधों को ‘गरिमापूर्वक’ निभाए। और पुरुष भी यही चाहेंगे। प्रतिष्ठा (!) और गरिमा(!) अगर झूठ से पैदा होतीं हों तो आदमी सच का गला काटने में एक मिनट नहीं लगाता। पाखंडी समाज का बहुमत पाखंडी के पक्ष में जाएगा ही। पाखंडी समाज में यह बहुत आसानी से संभव है कि रात को आप नास्तिकता पर कविताएं सुनाएं और सुबह ढोल बजा-बजाकर किसी प्रार्थना-स्थल पर चले जाएं और दोनों तरफ़ से पैसा और प्रतिष्ठा पीट लें। जो इस पाखंड को पूरी तरह नहीं साध पाता या साधना नहीं चाहता या उसकी सामाजिक स्थिति ऐसी नहीं बन पाई है, उसे अकसर क़दम-क़दम पर ख़तरे और नुकसान उठाने पड़ते हैं।

पाखंडी व्यक्ति की मानसिकता अगर ऐसी है कि वह फ़ायदे तो लेना चाहता है पर नुकसान या ख़तरे नहीं झेलना चाहता तो स्थिति फंसने जैसी बन सकती है। पाखंडी पुरुष या स्त्री, अगर उसे लगता है कि आठ, दस या बीस स्त्रियो या पुरुषों से संबंध दिखाने से उसकी छवि ‘विद्रोही’, ‘आवारा’ या ‘प्रगतिशील’ की बनेगी और इससे उसे फ़ायदा होगा तो वह चिल्ला-चिल्लाकर इसे बताना चाहता है। मगर जैसे ही उसे लगता है कि इससे उसके परिवार, प्रतिष्ठा, छवि, कैरियर आदि को नुकसान होगा तो वह छुपाने के लिए हाथ-पैर मारने लगता है। पाखंडी समाजों में पाखंडियों द्वारा अपनी सुविधाओं के अनुसार बनाया गया ‘सामाजिक’ और व्यक्तिगत’ का फ़ासला भी इसकी वजह हो सकता है।

सभी जानते हैं कि आपके घर का शयनकक्ष आपके सोने के लिए है, बाथरुम नहाने के लिए है, पाख़ाना टट्टी करने के लिए है। आप अपने शयनकक्ष में सो रहे हैं, कोई इसकी तसवीर उतार ले तो इसमें आपको डरने की क्या ज़रुरत है भला !? आप मेरे टॉयलेट में मेरे टट्टी करने का वीडियो बना लें और इंटरनेट पर डाल दें, मुझे तो रत्ती-भर फ़र्क नहीं पड़ता। लोग न जाने कैसी-कैसी बातों पर ब्लैकमेल हो जाते हैं !! अगर कोई मेरे बाथरुम में मेरे नहाने की तसवीर देखकर हंसता है तो यह उसकी मानसिक समस्या है, मेरी नहीं। ऐसे दस करोड़ लोग भी हंसें तो मुझे तो अक़्ल होनी चाहिए कि अपने बाथरुम में नहाना कोई अपराध नहीं है। बाथरुम में भी  आदमी कपड़े पहनकर नहाएगा क्या!?

अगर कोई किसीसे कहता है कि मरने के बाद कहीं (न जाने कहां!) पहुंचकर तुम्हारे साथ बहुत बुरा व्यवहार हो सकता है, उससे बचना है तो मेरी पेटी में कुछ पैसे डालो, तो यह भी ब्लैकमेलिंग का ही एक रुप है। अगर कोई तथाकथित प्रेमी या प्रेमिका किसीसे कहता है कि मेरी बात नहीं मानी तो मैं तुम्हारे पत्र (आजकल ईमेल या एस एम एस) लोगों को दिखा दूंगा/दूंगी, तो यह तो ब्लैकमेलिंग है ही। एक और संभावना यह भी होती है कि प्रेमसंदेशों के आदान-प्रदान के दौरान ऐसे व्यक्ति ने दूसरे पक्ष को ऐसे द्विअर्थीय/बहुअर्थीय संदेश भेजे हों जिनके बाद में उसकी सुविधानुसार अर्थ निकाले जा सकें। ऐसे लोग आदतन ब्लैकमेलर हो सकते हैं या किसी व्यवस्थित (और प्रतिष्ठित भी) रैकेट का हिस्सा भी हो सकते हैं। अपने मन की बात साफ़ शब्दों में कहनेवाला व्यक्ति अपेक्षाकृत ज़्यादा विश्वसनीय है। वह या तो अपने किए की ज़िम्मेदारी लेने को तैयार ही है, नही तो मजबूरी में तो उसे लेनी ही पड़ेगी। और ऐसे लोग तो जगह-जगह मिलते हैं जो, जब तक दूसरा उनके अनुकूल चले, उसकी ग़लतियों पर भी शाबाशियां देते हैं, जिस दिन विरुद्ध जाए, डराना शुरु कर देते हैं कि अगर नहीं मानोगे तो बता दूंगा, खोल दूंगा, ऐसा-वैसा कुछ कर दूंगा। मगर फ़िर भी, जो व्यक्ति अपने किए के प्रति समझपूर्ण है या अपने किए की ज़िम्मेदारी लेने को तैयार है, उसे आसानी से ब्लैकमेल नहीं किया जा सकता।

मगर जिस समाज में पाखंड को ही चरित्र में बदल देनेवाले लोग कुछ नए पाखंडों की रचना करके, पुराने पाखंडों से छुटकारा दिलाकर उसे ‘सुधारने’ की कोशिशों में लगे होंगे, वहां ब्लैकमेलिंग के बढ़ते जाने की संभावनाएं ही ज़्यादा होंगीं।

-संजय ग्रोवर

15-10-2013
(on FaceBook)



रविवार, 19 अप्रैल 2015

तो यह वह चीज़ है प्यारे!

एक बड़ा-सा मैदान, चारों तरफ़ भीड़, शोर ही शोर, चीख़-चिल्लाहट।

कहीं एक कोने से दो आदमी निकलते हैं। आराम-आराम से चलते हुए। लगता नहीं कि भीड़ और शोर का उनपर कुछ असर हो रहा है। ख़ासे शांत और एकाग्रचित्त मालूम होते हैं। बीच मैदान में पहुंचकर आपस में कुछ बुदबुदाने लगते लगते हैं। फिर झुक-झुककर ज़मीन को देखते हैं, कहीं-कहीं हाथ भी मारते हैं, लगता है जैसे इनका कुछ खो गया है, ढूंढ रहे हैं। इस ढूंढा-ढांढी के बाद फिर सीधे खड़े हो जाते हैं। अब वे हवा में हाथ हिला रहे हैं, लगता है जैसे दूर कहीं किसीको कुछ सिगनल दे रहे हैं।

अब एक कोने से एक आदमी निकलता है। उसके पीछे एक और आदमी निकलता है। उसके पीछे कई आदमी निकलते हैं। ये कुल मिलाकर बहुत ज़्यादा तो नहीं हैं पर उतने ज़रुर हैं जितना राजनीति में नये-नये आए, असमंजस में पड़े नेता का छोटा-मोटा मंत्रिमंडल होता है। इनमें से एक आदमी ने हाथों और पैरों में कुछ भारी-भारी चीज़ें पहन रखीं हैं, जैसे पुराने सामानों के साथ नये ज़माने की कोई लड़ाई लड़ने जा रहा हो। एक और आदमी है जिसके आसपास बाक़ी सब घूम रहे हैं, उससे कुछ सुन रहे हैं, कुछ-कुछ कह भी रहे हैं। ये सब उस तरफ़ जा रहे हैं जहां वे दोनों पहले से मौजूद हैं। चलते-चलते ये अचानक उछलने लगते हैं, हाथ-पैर हवा में हवा में घुमाने-पटकने लगते हैं। ये सब करते-कराते ये भी वहीं पहुंच जाते हैं जहां वे दोनों खड़े हैं। अब ये सब मिलजुल कर कुछ बुदबुदा रहे हैं, कुछ कूदा-फ़ादी कर रहे हैं। वक़्त बीत रहा है। ये कूदा-फ़ांदी न भी करें तो भी उसे तो बीतना ही है।

फिर एक कोने से दो और आदमी निकलते हैं। दोनों ने अपने हाथों में कुछ उठा रखा है, लगता है जैसे कोई पाषाणकालीन हथियार हों। ये दोनों उन हथियारनुमां चीज़ों से बीच-बीच में ज़मीन को ठोंकते जाते हैं। ‘जल’ नाम की फ़िल्म याद आ जाती है जिसमें एक आदमी ज़मीन पीट-पीटके अंदाज़ा लगाता है कि पानी कहां से निकलेगा। इन दोनों ने भी वैसे ही कुछ सामान अपने तन पर लाद रखे हैं जैसे उनमें से एक ने लाद रखे हैं। ये दोनों अपना सर झुकाए हैं, बात भी करते हैं तो एक-दूसरे को देखते हैं, इधर-उधर नहीं देखते। ऐसा लग रहा है जैसे इन्हें मालूम ही नहीं है कि यहां इनके अलावा भी कोई और है। जबकि पहलेवाले लोग इन दोनों को देखकर इधर-उधर खि़सकना शुरु हो गए हैं। ख़रामा-ख़रामा चलते हुए ये दोनों भी उन दोनों के पास पहुंच जाते हैं जो सबसे पहले आए थे। अब ये मिलकर कई आदमी हो गए हैं। ये क्या करनेवाले हैं!? वैसे अभी तक होने जैसा कुछ हुआ नहीं है। दो और दो आपस में कुछ बातचीत कर रहे हैं। बाक़ी पूरे मैदान में फ़ैल गए हैं और उछल-कूद जारी रखे हैं।

अब आप कहेंगे कि मैं आपको बोर कर रहा हूं। जी नहीं, मैंने तो जो देखा, वही बता रहा हूं। आप ठीक समझे, यह आपका एक पसंदीदा खेल है। अभी तो इसमें और बहुत कुछ होना है, हालांकि मेरा धैर्य चुक गया हैं। मगर आप तो देखेंगे। अभी लकड़ी के बल्लेवाला आदमी बल्ले को कभी एक टांग के आगे रखेगा, कभी लकड़ी की तीन डंडियों के आगे रख-रखकर अंपायर से सहमति मांगेगा। अंपायर जब सहमति देगा तो किस बात पर देगा, यह आपको समझ में न आए तो भी आप पूछेंगे नहीं। फिर दो बनाम ग्यारह का खेल शरु होगा। फिर बॉलर नाम का आदमी बॉलिंग मार्क लगाएगा, छः बार उछल-कूद करेगा, अपने ही किसी साथी को तीन बार फेंक के देखेगा। अब यह उधर को जाएगा जहां इसे बॉल नहीं फेंकनी। फिर यह ज़ोर-ज़ोर से अपनी हिप पर बॉल को रगड़ेगा, इतनी ज़ोर से कि पतलून अगर महंगे कपड़े की न हो तो उसमें से खिड़िकयां निकल आएं। फिर जितनी लंबी इसे बॉल फेंकनी है उससे ज़्यादा लंबाई से ये भागता हुआ आएगा। उससे पहले ये अंपायर को अपना टोपा, पसीनेवाला रुमाल, पसीनेदार स्वेटर, कुछ भी पकड़ा सकता है। अब ये एक तरफ़ से छै बार गेंद फेंकेगा। तब जाकर ओवर ख़त्म होगा। उसके बाद छै गेंदें दूसरे छोर से फेंकी जाएंगीं। सारे ग्यारह खिलाड़ी अपनी-अपनी पोज़ीशन बदलेंगे, इधर से उधर जाएंगे। और यह हर छै गेंदो के बाद होगा। जितनी देर में यह होगा उससे कम देर में तो लोग नई पार्टी बना लेते हैं।

आप अभी भी देख रहे हैं! मेरा तो लिखते-लिखते दिमाग़ दुख गया।

बुरा मत मानिएगा, मैं तो जो है वही लिख रहा हूं। जी हां, यह वही चीज़ है जिसपर आप जान देते हैं-क्रिकेट। इसे कहते रहे हैं जेंटलमैंन्स्‘गेम। इस शरीफ़ खेल के जजों को अंपायर कहा जाता है। पहले ये जज उसी देश के हुआ करते थे जहां टेस्ट मैच खेले जा रहे हों। बाद में जाकर समझ में आया कि पवित्रता (यह जो भी होती हो) का संबंध खेलों, बिल्डिंगों और संस्थाओं से नहीं, व्यक्तियों से होता है। तब तीसरे देश के जज बुलाने शुरु किए गए। अब तो कपड़े रंगीन हो गए हैं, चीयर-गर्ल्स आ गईं हैं (चीयर-ब्वॉएज़ भी आ ही जाएंगे), सट्टा पारंपरिक हो गया है, खिलाड़ियों पर बोली लगती है।

आप देखते रहिए। मैं जाते-जाते इतना ज़रुर कहूंगा कि आदमी ही शरीफ़ नहीं हो पा रहा तो खेल कैसे हो जाएंगे?

वे तो आदमी तक नहीं हैं।


-संजय ग्रोवर
19-04-2015


मंगलवार, 31 मार्च 2015

बचकाने बच्चे और पुरस्कार की टॉफ़ियां

पुरस्कार टॉफ़ियों की तरह होते हैं, देनेवाले अंकल की तरह होते हैं, लेनेवाले बच्चों की तरह। बल्कि बचकाने।


अंततः तसल्ली यही बचती है कि हमने कौन-से वाले अंकल से टॉफ़ी ली, तथाकथित अच्छे अंकल से या तथाकथित बुरे अंकल से। ज़्यादा लालची बच्चे यह सावधानी भी नहीं रख पाते, कई बार वे झोंक में आकर उन अंकलों से भी टॉफ़ी ले लेते हैं जिन्हें वे सार्वजनिक रुप से बुरा घोषित कर चुके होते हैं। ऐसे बच्चे एक-दूसरे का लालच छुपा लेते हैं। इनके लिए यह विषय व्यंग्य का नहीं होता।

जो भी अंकल टॉफ़ी देते हैं वे थोड़ा सिर पर हाथ फिराते हैं, बाल सहलाते हैं, गोद में उठाते हैं, कई बार कुछ काम भी बता देते हैं करने को।

जो बचकाने बच्चे टॉफ़ी के पीछे पगलाए रहते हैं, उन्हें इसकी या उसकी में से एक गोद चुननी होती है।

उनकी सारी लड़ाई ‘तेरेवाले अंकल अ़च्छे या मेरेवाले अंकल अच्छे’ की होती है। गोद में बैठने का शौक़ दोनों को बराबर होता है।

कभी-कभी कोई बच्चा ऐसा आ जाता है जो कहता है कि मुझे किसी भी अंकल से टॉफ़ी नहीं लेनी तो दोनों तरह के बच्चे हैरान और परेशान हो जाते हैं। पहले ये पूरी कोशिश करते हैं कि उसको भी किसी न किसी अंकल से टॉफ़ी दिला दें। अगर वह नहीं लेता तो ये कोशिश करते हैं कि किसी भी तरह यह प्रचारित कर दें कि वह भी टॉफ़ी लेता है। या कि उसे टॉफ़ी नहीं मिली इसलिए वह टॉफ़ी के खि़लाफ़ है।

समझनेवाले समाज की हालत देखकर ही समझ जाते हैं कि टॉफ़ियां भले बदल जाएं मगर बचकाने बच्चे और उनके अंकल लोग ज़रा नहीं बदलते।

किसीने ठीक ही कहा है कि आत्मविश्वास से हीन और अपनी ही नज़र में संदिग्ध लोग पुरस्कार लेकर ख़ुदको ख़ुदके लिए विश्वसनीय बनाने की कोशिश करते हैं।

किसीने क्या मैंने ही कहा है।


-संजय ग्रोवर

31-03-2015



बुधवार, 25 मार्च 2015

विचार की चोरी और इंटरनेट की नयी नैतिकता



फ़ेसबुक/इंटरनेट पर बीच-बीच में ऐसी बातें उठती रहतीं हैं कि किसीके विचार/रचना/स्टेटस चुराने में बुरा क्या
है, आखि़र हम उसके विचार फ़ैला रहे हैं, समाज को फ़ायदा पहुंचा रहे हैं, रचनाकार का काम ही तो कर रहे हैं, तो रचनाकार/विचारक को इसपर आपत्ति क्यों हो।

इंटरनेट के विस्तार से एक बहुत अच्छा काम यह हुआ/हो रहा है कि लोग दूसरों की बातें सुनते हैं और छोटी से छोटी बात पर भी विचार करने को तैयार रहते हैं। किसीकी बात बिलकुल निराधार या तर्कहीन भी हो तो उसे यह समझाने में कोई हर्ज़ नहीं कि आपकी बात तर्कहीन है।

मुझे इस बात का आज तक एक भी कारण समझ/नज़र में नहीं आया कि दूसरों की बात/विचार/रचना बिना उसके नाम के क्यों देनी चाहिए !? आपकी ऐसी कामना/लालसा/वासना जिसमें आप दूसरे को भी शामिल/इस्तेमाल कर रहे हैं, उसके लिए आप कोई वाज़िब वजह तो देंगे कि नहीं देंगे !?

आखि़र रचना/विचार से जुड़े व्यक्ति का नाम देने में समस्या क्या है ? क्या उसका नाम देने के लिए आपको हिमालय की चोटी पर चढ़ना पड़ेगा ? क्या उसके लिए आपको स्पाँसर ढूंढना पड़ेगा ? क्या उसके लिए आपको कुश्ती लड़नी पड़ेगी ? क्या उसका नाम देने से आपको स्पाँडिलाइटिस हो जाएगी ? क्या उसके लिए संसद में बिल पास कराना पड़ता है ? क्या उसके लिए आपको बैंक से क़र्ज़ा लेना पड़ेगा ? क्या उसका नाम देने से महंगाई बढ़ जाएगी ? क्या उसका नाम देने से इस बार की फ़सल नष्ट हो जाएगी ? क्या नाम न देने से समाज को वह बात जल्दी समझ में आ जाएगी ?क्या उसका नाम देने के लिए आपको अगले चौक से ऑटो लाना पड़ेगा ?

आखि़र समस्या क्या है ? आखि़र रचना/विचार चुराने के लिए भी आपको एक मोबाइल/स्मार्टफ़ोन/टेबलेट/लैपटॉप/पीसी तो चाहिए ही न ? उसीमें ज़रा-सी उंगली हिलाएंगे और स्टेटस शेयर हो जाएगा। फिर यह ज़िद क्यों ?

इससे होगा यह कि एक तो असली आदमी का नाम नहीं जाएगा ; दूसरे, आपका नाम चला जाएगा। विचारक का नाम ज़रुरी नहीं है और चुरानेवाले का नाम ज़रुरी है ? चुपड़ी और दो-दो ? क्या विचार करना और चाय पीना आप एक ही बात समझते हैं ?

फिर तो चोरी, छेड़ख़ानी, लूटपाट, सेंधमारी और ज़बरदस्ती में भी क्या दिक़्क़त है ?

आपको अपने साथ कुछ भी करने की स्वतंत्रता है, मगर सबके लिए नियम आप कैसे बना सकते हैं, वो भी ऐसे मामलों में जहां दूसरा शामिल है और जहां ज़बरदस्ती हो रही है !? और आप मूल लेखक की स्वीकृति तक नहीं लेना चाहते !?

अपने साथ आदमी जो चाहे कर सकता है। किसीके पास अतिरिक्त संपत्ति है या दूसरों में बांटना चाहता है तो वह घर ख़ुला छोड़कर जा सकता है, ताले-चाबी फ़ेंक सकता है, कबाड़ी को दे सकता है ; फिर भी काम न हो तो सूचना लिखकर टांग सकता है, विज्ञापन दे सकता है कि हमारे यहां चौबीस घंटे चोरी करने की छूट है, सुविधा है, आने से पहले फ़ोन करलें तो और भी अच्छा, मैं हूंगी/हूंगा तो भी टहलने निकल जाऊंगी/गा.......

आप अपने स्टेटस लुटाने के लिए बिलकुल स्वतंत्र हैं। आप अपनी पुस्तकों के प्रकाशक से कह सकते हैं कि आपकी क़िताब आपके पड़ोसी के नाम से छाप दे, रॉयल्टी ज़रुरतमंदो को दे दे। आपको अपनी बात अपने नाम के बिना कहने में इतना आनंद होता है तो आप परदे के पीछे खड़े होकर भाषण दे सकते हैं, मास्क लगा सकते हैं, अपने विचार किसी दूसरे परफ़ॉर्मर/रनर को लिखकर दे सकते हैं ; कौन आपत्ति करेगा ?

मगर आप सारी कॉलोनी/समाज के लिए ऐसे नियम/मान्यताएं/परंपराएं बनाने की कोशिश करेंगे तो यह संभवतः कम ही लोगों को जायज़ या तर्कसंगत लगेगा।

आप क्या सोचते हैं ?

-संजय ग्रोवर
25-03-2015

बुधवार, 4 मार्च 2015

निराकार

‘क्या लाए ?’

‘जी, जो भी बन पड़ा ले आया हूं।’

‘गुड, देखो हमारे यहां अपना पक्ष चुनने की पूरी स्वतंत्रता है, चाहो तो इसे मेरी दायीं जेब में डाल दो, चाहो तो बायीं में।’

‘जी, मैं जानता हूं कि रास्ते अलग़-अलग़ हैं पर गंतव्य एक ही है।’

‘शाबाश! बाहर लोगों को बताना मत भूलना कि मुझे अपना पक्ष चुनने का पूरा मौक़ा दिया गया।’

‘जी मैं ज़रुर बताऊंगा जैसे आपने मुझे बताया।’

-संजय ग्रोवर
04-03-2015


शनिवार, 14 फ़रवरी 2015

भगवान, भ्रष्टाचार और चमत्कार

व्यंग्य

पता नहीं भगवान, भ्रष्टाचार और चमत्कार का क्या रिश्ता है पर पिछले कुछ सालों से इन तीनों का नाम कई बार एक साथ सुनने में आया है। आप भी सुनना चाहते हैं तो यह वार्त्तालाप सुनिए-

‘देखिए, मैं ज़रुर भ्रष्टाचार दूर कर दूंगा, यह अच्छा मौक़ा है, भगवान भी अब यही चाहता है, लगता है कि उसीने मुझे इसके लिए चुना है, ज़रुर कोई चमत्कार होने वाला है।’

‘यह तो बहुत अच्छी बात है, सभी परेशान हैं, लेकिन मुझे एक बात समझ में नहीं आई।’ भगवान क्या आपके बड़े होने का इंतज़ार कर रहा था ?’

‘यह क्या बात हुई ?’

‘मतलब इतने सालों से अपने यहां भ्रष्टाचार भगवान की इच्छा से था ? भगवान क्या भ्रष्टाचार दूर करने के लिए आप पर डिपेंड करता है? वह ख़ुद भी तो दूर कर सकता था। या किसी और को चुन सकता था ?‘

‘यह भी कोई प्रश्न है ?’

‘नहीं, मतलब इतने सालों से भगवान को भ्रष्टाचार बुरा नहीं लग रहा था, आपके बड़े होते ही बुरा लगने लगा ? लगता है भगवान आपसे डरता है !’

‘हा हा हा, आप भी क्या बात कर रहे हैं, हम तो बहुत साधारण आदमी हैं।’

‘आपकी इसी विनम्रता का मैं क़ायल हूं, आप बुरा न मानें तो कृपया बताएं कि इतने सालों से भगवान भ्रष्टाचार के साथ मज़े से रह रहा था तो एकाएक उसे हुआ क्या ? कहीं आपने तो उसे भ्रष्टाचार दूर करने के लिए नहीं राज़ी किया !?’

‘क्या यार.....आप भी कमाल करते हैं....’

‘नहीं नहीं, अब तो आपको बताना ही पड़ेगा कि आपकी टीम ने भगवान को कैसे तैयार किया ? प्लीज़ अपनी टीम से बात करवाएं, लोग आपकी स्ट्रेटजी जानना चाहेंगे, लीजिए माइक लीजिए, सब आप ही के तो हैं.....’

‘नहीं नहीं, सब जनता के हैं, देखिए अभी टीम के सदस्य थके हुए हैं, एक-दो की तबीयत भी ख़राब है....’

‘ओह! तो भगवान उनकी तबियत कब तक ठीक करेगा ? क्या भगवान की तबियत आप पता करेंगे कि कब उसकी तबियत आएगी और वह उनकी तबियत ठीक करेगा ?’

‘हा हा हा, आप भी ना......, चलिए दूसरे लोगों को भी टाइम दे रक्खा है....’

‘चलिए, नमस्कार, भगवान को भी मेरी नमस्ते दीजिएगा।’

‘हा हा हा।‘

-संजय ग्रोवर 
14-02-2015


देयर वॉज़ अ स्टोर रुम या कि दरवाज़ा-ए-स्टोर रुम....

ख़ुद फंसोगे हमें भी फंसाओगे!

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ढूंढो-ढूंढो रे साजना अपने काम का मलबा.........

#girls #rape #poetry #poem #verse # लड़कियां # बलात्कार # कविता # कविता #शायरी (1) अंतर्द्वंद (1) अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस (1) अंधविश्वास (1) अकेला (3) अनुसरण (2) अन्याय (1) अफ़वाह (1) अफवाहें (1) अर्थ (1) असमंजस (2) असलियत (1) अस्पताल (1) अहिंसा (3) आंदोलन (4) आकाश (1) आज़ाद (1) आतंकवाद (2) आत्म-कथा (2) आत्मकथा (1) आत्मविश्वास (2) आत्मविश्वास की कमी (1) आध्यात्मिकता (1) आभास (1) आरक्षण (3) आवारग़ी (1) इंटरनेट की नयी नैतिकता (1) इंटरनेट पर साहित्य की चोरी (2) इंसान (4) इतिहास (2) इमेज (1) ईक़िताब (1) ईमानदार (1) ईमानदारी (2) ईमेल (1) ईश्वर (5) उत्कंठा (2) उत्तर भारतीय (1) उदयप्रकाश (1) उपाय (1) उर्दू (1) उल्टा चोर कोतवाल को डांटे (1) ऊंचा (1) ऊब (1) एक गेंद करोड़ों पागल (1) एकतरफ़ा रिश्ते (1) ऐंवेई (2) ऐण्टी का प्रो (1) औरत (2) औरत क्या करे (3) औरत क्या करे ? 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