सोमवार, 27 जुलाई 2009

उदयप्रकाश प्रकरण: कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना !?


उदयप्रकाश प्रकरण पर लगातार कुछ न कुछ छप रहा है। मैंने इस संदर्भ में ‘मोहल्ला’ पर एक पोस्ट लगाई थी। उसमें कुछ सवाल रखे थे जो लगातार मेरे मन में उठते रहे हैं। जैसे-जैसे यह बहस आगे बढ़ रही है सवाल भी गहरा रहे हैं, कुछ नए प्रश्न भी जुड़ रहे हैं। पहले मैं पिछले प्रश्नों को दोहरा दूं:-
1.किसी भी अखबार में उदय का काॅलम शुरु होता है तो हमेशा 2-3 किस्तों के बाद बंद क्यों हो जाता है ? क्या सारे के सारे कालमिस्ट उदय से बेहतर हैं ?
2.क्या हिंदी साहित्य-जगत में उदय, राजेंद्र यादव और उनके दस-पाँच मित्रों के अलावा सब दूध के धुले हैं ? कोई कभी किसी राजनेता के साथ किसी मंच पर नहीं जाता ? किसी ने कभी अपनी पत्नी/पति के अलावा अन्यत्र संबंध नहीं रखे ! क्या हिंदी के सारे दिग्गज पुरस्कारों/सम्मानों को ठोकर मारते आए हैं !
3.कौन है वो शूरवीर जिसने पत्नी-बच्चों-परिवार के नाम पर अपने समझौतों को जस्टीफाई न किया हो ?
4.पिछले कुछ सालों में उदयप्रकाश और राजेंद्र यादव के अलावा अन्य किन लेखकों से इस तरह की जवाब-तलबी की गयी है और किन वजुहात से ?
5. केदारनाथ जी के अलावा अशोक वाजपेई का ‘मुर्दों के साथ मरने को तैयार न होना’ और भारतीजी का ‘केडिया प्रकरण’ और प्रभाषजी का ‘सती-प्रसंग’ भी मुझे याद है। लेकिन इनमें से कोई भी उस दलित-प्रसंग से जुड़ा नहीं था जिसके द्वारा राजेंद्र यादव ने हिंदी जगत की ‘कोरी-सहानुभूतियों’ के मुखौटे उखाड़ फेंके हैं। दोस्ती से लेकर रोज़ी-रोटी तक बंद कर देने के लिए जैसी घेरेबंदी राजेंद्र यादव और उदय की की जाने लगती है, वैसी क्या उक्त में से किसी को ‘नसीब’ हुई होगी !
6.दलितों-वंचितों के लिए उदय जैसी पीढ़ा और विद्रोह उदय के विरोधिओं के लेखन में क्यों नहीं दिखाई पढ़ती ?
7.क्यों उनमें से कुछ पहला मौका मिलते ही मायावती और लालू यादव के लिए तू तड़ाक की भाषा पर उतर आते हैं ?
8.मोहल्ला. काम को उदयप्रकाश के तरह-तरह के रंगीन फोटो कौन उपलब्ध करा रहा है ?
9.कुछ लोगों के लिए ‘उदयप्रकाश, हमारे समय के बेहद महत्वपूर्ण लेखक‘ तब-तब ही क्यों हो जाते हैं जब-जब उनपर कुछ उछालने-फेंकने का मौका आता है। वैसे उदयप्रकाश उनके लिए जहां-तहां से सामग्री चुराकर लिखने वाले लेखक रहते हैं।
यहां से नए सवाल जो रोज़ाना की बहस को देखकर उठ रहे हैं:-
1.दरअसल किसने वामपंथ को विचारधारा की तरह नहीं मुखौटे और दुकान की तरह इस्तेमाल किया ?
2.अगर वामपंथ वर्ण-विशेष की बपौती नहीं था तो मायावती और बसपा के करीब आने में इतने साल क्यों लगे ? और दोबारा दूर जाने में इतना कम समय क्यों लगा ?
3.वैसे तो शत्रुता की बात ही अजीब लगती है मगर करनी ही थी तो ‘वर्गशत्रु’ के बजाय ‘वर्णशत्रु’ जैसे शब्द और सोच क्यों नहीं अपनाए गए ? आखिर हिंदुस्तान में ग़रीबी और विषमता का बड़ा कारक वर्ग था या वर्ण ?
4.आप जा-जाकर अपने जानकारों, रिश्तेदारों और आम जनता से पूछिए और फिर परसेंटेज़ निकालिए कि कितने प्रतिशत लोगों को पता है कि शहीद भगत सिंह नास्तिक थे !? अगर 100 में से 10 को भी पता हो तो बहुत समझिएगा। आखिर कौन लेगा इसकी जिम्मेदारी ? क्यों किसी की रुचि नहीं है कि लोग इस बात को जानें !?
5.जब बाबा रामदेव-वृंदा करात प्रकरण हुआ तो बाबा ने कहा ‘इनकी क्या है, ये तो भगवान को ही नहीं मानते’ तो जवाब में कम्युनिस्टों ने क्यों नहीं छाती ठोक कर कहा कि हां, हैं हम नास्तिक, और नास्तिक होना और होकर रहना बाबा होकर रहने से कई गुना ज़्यादा मुश्किल काम है।
6.व्यक्तिगत और नैतिक तौर पर मैं पूरी तरह से हिमांशु सभरवाल के साथ हूं पर यह देखकर अजीब भी लगता है और दुख भी होता है कि ग़रीबों-मजदूरों की हमदर्द कहलाने वाली पार्टी और उनसे जुड़े लोग अपने आंदोलनों में (शायद) सिर्फ फेसबुक और पेज़ थ्री से जुड़े लोगों को साथ लेते हैं। अपने नारों में नीतिश कटारा, मट्टू और जैसिका लाल के अलावा चैथा नाम नहीं इस्तेमाल करते !? ऐसे वक्त पर ऐसी बात कहते हुए मैं हिमांशु सभरवाल, नीलम कटारा व इन मामलों से संबद्ध सभी लोगों से हाथ जोड़कर माफी चाहूंगा मगर यह बात कहना उनकी लड़ाई के भी हक़ में ही है।
7.कुछ लोग कह रहे हैं कि भाजपा से फायदे ले लिए तो क्या, मंच शेयर करके किसी योदी-मोगी से पुरस्कार तो नहीं लिया ! अब चूंकि यह टेंªड पुराना हो गया तो इस पर क्यों कोई एतराज़ करे ! तो ठीक है भय्या करिए सेंटिग कि योदी-मोगी से कि देखिए पुरस्कार आपसे लेने में तो हमें कोई एतराज़ था ही नहीं पर मंच पर आप न आईए। मंच पर हमें राधामोहन किसान के हाथ पुरस्कार दिलवा दीजिए जिससे कि हमारा भी नाम रह जाएगा, आपका तो रहेगा ही क्यों कि पता तो सबको रहता ही है कि पुरस्कार का उद्गम कहां से हुआ है, साथ ही यह भी रहेगा कि देखिए आप ग़रीब किसान का कितना मान करते हैं। और राधामोहन तो मंच पर आने से खुश हो जाएगा, हाथ कुछ लगे न लगे।
8. क्यों हम पुरस्कारों के पीछे इतना पगलाए रहते हैं !? जब ये सारे पुरस्कार/कमेटियां/समितियां/अगैरह/वगैरह इसी धरती के इन्हीं इंसानों द्वारा बनाई जाती हैं जो कि गलतियों का पुतला है और राजनीतियों का ढेर है तो कोई भी पुरस्कार निर्विवाद कैसे हो सकता है ? भारतीय फिल्म/पुरस्कार समारोहों में जाने से बचने वाले आमिर खान क्यों आस्कर के लिए लाबिंग में एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा देते हैं ? कबीर, बुद्ध, एकलव्य या गैलीलियो को पुरस्कार नहीं मिलता था तो वे भी इनफीरियरटी काॅम्पलैक्स से ग्रस्त हो जाते थे क्या ? क्या इतिहास उन्हें भूल गया या उनका किया महत्वहीन हो गया ? क्या यह सच नहीं कि लगभग हर पुरस्कार देने वाली संस्था के पीछे कोई न कोई राजनीतिक दल, राजनीति, विचारधारा या पूर्वाग्रह मौजूद रहते हैं ? फिर इनके फैसले निष्पक्ष कैसे हो सकते हैं ?
इन बातों पर विचार करें। आगे बात करने का फायदा है बशत्र्ते कि हम सब अपने अंदर झांकने को, किसी नतीजे पर पहुंचने को तैय्यार हों,। सिर्फ गाली-गलौज, पुराने हिसाब-किताब करने हों, हार-जीत के खेल खेलने हों तो सादर नमस्ते।
[जहां तक मेरा व्यक्तिगत अनुभव है, जो लोग आत्मालोचना करते हैं, माफियां मांगते हैं, हमेशा घाटे में रहते हैं। सारे दोष उनपर मढ़ दिए जाते हैं। (उनमें से कुछेक को सौ-पचास साल बाद किसी गैलीलियो की तरह मान्यता मिल जाए, अलग बात है।) दोष मढ़ने वाले ज़्यादातर वे लोग होते हैं जिन्हें अपने बारे में न तो कुछ ठीक से पता होता है न वे पता करना चाहते हैं न उनमें हिम्मत होती है। उनके लिए राहत और जस्टीफिकेशन की सबसे बड़ी वजह यही होती है कि जिस समाज में वे रह रहे होते हैं उसमें ज़्यादातर लोग उन्हीं की तरह होते हैं। अन्यथा बिना कुण्ठाओं, कमियों, कमज़ोरियों के भी दुनिया में कोई आदमी, विचारधारा, सम्प्रदाय आदि हो सकते हैं, यह सोचना भी मुझे तो हास्यास्पद, मूर्खतापूर्ण और अहंकार का द्योतक ही लगता है।]

शुक्रवार, 24 जुलाई 2009

ग़ज़ल जो अब तक छपी नहीं..पढ़ो कहीं तो पढ़ो यहीं..

ग़ज़ल

एक तरफ दुनिया है एक तरफ तू
लोग मुझे पूछे हैं किसकी तरफ तू

साथ में गर तू है तो दुनिया से क्या डर
दुनिया तो उसी की है जिसकी तरफ तू

मेरी तरफ होने की यह भी एक शक्ल
छोड़ मुझे, होजा बस अपनी तरफ तू

ख़ुदको ही मिटा डाला तूने जिस तरह
लगता है फैलेगा चारों तरफ तू

तेरी इस अदा को मैं फन कहूं कि ऐब
हर कोई ये समझे है उसकी तरफ तू




-संजय ग्रोवर

शुक्रवार, 17 जुलाई 2009

‘‘वेलकम टू बिच्छू.काम ’’! पर आप हैं कौन !?

संजय ग्रोवर को गूगल में डालकर सर्च करता हूं। चैथे पृष्ठ पर एक पंक्ति दिखाई पड़ती है ‘दरबारी दमनकारियों के लिए पांच ग़ज़लें’। लिंक पर क्लिक करता हूं। एक पृष्ठ खुलता है। एक सज्जन का फोटो है और मेरी 5 ग़ज़लें मेरे नाम के साथ अपने संपादकीय के रुप में दी गयी हैं। ऊपर वाले बार में लिखा है ‘वैलकम टू बिच्छू. काम’। मगर उसके बाद का कोई लिंक नहीं खुलता। जैसे कि ‘काँटेक्ट अस’, ‘अबाउट अस’। उन साहब का नाम पता भी कहीं दिखाई नहीं देता। इस साइट में ही कुछ प्राॅबलम है या मेरा पी.सी. बिगड़ गया है !?क्या आप मेरी मदद करेंगे ? लिंक है:-
http://74.125.153.132/search?q=cache:wg3ja_nMYrsJ:www.bichhu.com/index.php%3Fnews%3D1208+%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%9C%E0%A4%AF+%E0%A4%97%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%8B%E0%A4%B5%E0%A4%B0&cd=36&hl=en&ct=clnk&gl=in
हिम्मत से सच बात कहो तो बुरा मानते हैं लोग, रो-रो के कहने की हमें आदत नहीं रही। "बिच्छू डॉट कॉम" द्वारा लगातार सत्ता एवं व्यवस्था विरोधी खबरें एवं संपादकीय लिखने से सत्ता के दलालों और सत्ता के साकेत में बैठे लोगों के भाट और चारण लगातार मेरे बारे में विष वमन कर रहे हैं। कुछ लोगों को अखबार की आर्थिक व्यवस्था को लेकर चिंता है, तो कुछ महानुभावों को मेरे एवं मेरे परिवार के बारे में जानने की इच्छा है। मुख्यमंत्री निवास के एक अफसर को तो सिर्फ और सिर्फ मेरे बारे में जानने की जिज्ञासा है। ऐसे सभी महानुभावों के लिए संजय ग्रोवर की पांच गजलें प्रस्तुत हैं संपादकीय के रूप में...

एक...
कोई भी तयशुदा किस्सा नहीं हूं
किसी साजिश का मैं हिस्सा नहीं हूं

किसी की छाप अब मुझ पर नहीं है
मैं ज्यादा दिन कहीं रुकता नहीं हूं

तुम्हारी और मेरी दोस्ती क्या
मुसीबत में, मैं खुद अपना नहीं हूं

मुझे मत ढूंढना बाजार में तुम
किसी दुकान पर बिकता नहीं हूं

मुझे देकर न कुछ तुम पा सकोगे
मैं खोटा हूं मगर सिक्का नहीं हूं

तुम्हें क्यूं अपने जैसा मैं बनाऊं
यकीनन जब मैं खुद तुम सा नहीं हूं

लतीफा भी चलेगा गर नया हो
मैं हर इक बात पर हंसता नहीं हूं

जमीं मुझको भी अपना मानती है
कि मैं आकाश से टपका नहीं हूं
दो...
जाने मैं किस डर में था
फिर देखा, तो घर में था

जो ढब कट्टर लोगों का है
वही कभी बंदर में था

लोग नए थे बात पुरानी
क्या मैं किसी खण्डहर में था

बच निकला उससे, तो जाना
वो भी इसी अवसर में था

उनके जख्म सजे थे तन पर
मेरा दर्द जिगर में था
तीन...
जिस समाज में कहना मुश्किल है बाबा
उस समाज में रहना मुश्किल है बाबा

तुम्हीं हवा के संग उड़ो पत्तों की तरह
मेरे लिए तो बहना मुश्किल है बाबा

जिस गरदन में फंसी हुई हों आवाजें
उस गरदन में गहना मुश्किल है बाबा

भीड़ हटे तो हम भी देखें सच का बदन
भीड़ को तुमने पहना, मुश्किल है बाबा

अंधी श्रद्धा को, भेड़ों को, तोतों को
गर विवेक हो, सहना मुश्किल है बाबा

गिरे उठें, फिर चलें कि चलते ही जाएं
रुकें, सड़े तो सहना मुश्किल है बाबा
चार...
लड़के वाले नाच रहे थे लडक़ी वाले गुमसुम थे
याद करो उस वारदात में अक्सर शामिल हम-तुम थे

बोलचाल और खाल-बाल जो झट से बदला करते थे
सोच-समझ की बात करें तो अभी भी कुत्ते की दुम थे

बाबा, बिक्री, बड़बोलेपन, चमत्कार थे चौतरफा
तर्क की बातें करने वाले सच्चे लोग कहां गुम थे!

उनपे हंसो जो बुद्ध कबीर के हश्र पे असर हंसते हैं
ईमां वाले लोगों को तो अपने नतीजे मालुम थे

अपनी कमियां झुठलाने को तुमने हमें दबाया था
जब हम खुद को जान चुके तब हमने जाना या तुम थे
पांच..
तुम देखना पुरानी वो चाल फिर चलेंगे
जिसकी लुटी है इज्जत उसको ही सजा देंगे

इक बेतुकी रवायत ऊपर से उनकी फितरत
तकलीफ भी वो देंगे, बदला भी वही लेंगे

वरना वो तुझको हंसके कमजोर ही करेंगे
उन पर जरूर हंसना जो आदतन हंसेंगे

जब आएगी मुसीबत टीवी के शहर वाले
झांकेंगे खिड़कियों से, घर से नहीं निकलेंगे

ये शे"र क्या हैं प्यारे, सब भर्ती का सामां हैं
गर पांच नहीं होंगे तो कैसे ये छपेंगे

वो ही है नूर वाले जो अक्ल के है अंधे
जलवा भी वही लेंगे फतवा भी वही देंगे।

सोमवार, 13 जुलाई 2009

ग़ज़ल,काफ़िया,माफ़िया.....


ग़ज़ल

अपनी तरह का जब भी उन्हें माफ़िया मिला
बोले उछलके देखो कैसा काफ़िया मिला

फ़िर नस्ल-वर्ण-दल्ले हैं इंसान पे काबिज़
यूँ जंगली शहर में मुझे हाशिया मिला

मुझ तक कब उनके शहर में आती थी ढंग से डाक
यां ख़बर तक न मिल सकी, वां डाकिया मिला

जब मेरे जामे-मय में मिलाया सभी ने ज़ह्र
तो तू भी पीछे क्यों रहे, आ साक़िया, मिला

मुझको जहाँ पे सच दिखा, हिम्मत दिखी, ग़ज़ब-
उनको वहीं पे फ़ोबिया.....सिज़ोफ्रीनिया मिला

-संजय ग्रोवर

देयर वॉज़ अ स्टोर रुम या कि दरवाज़ा-ए-स्टोर रुम....

ख़ुद फंसोगे हमें भी फंसाओगे!

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ढूंढो-ढूंढो रे साजना अपने काम का मलबा.........

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