मंगलवार, 16 सितंबर 2014

पैंतरे

छोटी कहानी


जंगल में सब ठीक-ठाक चल रहा था।
शेर बकरियों को खा रहे थे। हिरनों को खा रहे थे। जो भी खाने का मन हो, खाए जा रहे थे।
भेड़िए भेड़ों को चबा रहे थे।
मतलब शांति ही शांति थी, अनेकता में एकता थी।
एकाएक पता नहीं क्या हवा चली!
एक बकरी ने शेर का हाथ पकड़ लिया,‘‘बहुत हुआ, अब तुम मुझे नहीं खा सकते.’’
शेर पहले तो एकदम सकपका गया, उसे लगा कुछ प्रकृति-विरुद्ध हो रहा है। जंगल के धर्म के विरुद्ध कुछ हो रहा है।
उसने ज़ोर-ज़बरदस्ती की कोशिश जारी रखी।
‘यह नहीं चलेगा’....
शेर ने मुड़कर देखा ; पीछे एक और बकरी खड़ी थी।
‘जानवर जानवर को कैसे खा सकता है!‘ सामने से कुछ भेड़ें आ रहीं थीं।
और फ़िर ख़रगोश.....फ़िर हिरन....फ़िर दूसरे निरीह जानवर और पक्षी.....
‘‘यह नहीं चलेगा, नहीं चलेगा.....’’
शेर चकरा गया। यह तो उसने कभी सोचा ही नहीं था।
थोड़ा घबरा भी गया....
‘तुम सबको हुआ क्या है..... पहली बार उसकी आवाज़ में नरमी देखी गई, ‘‘आओ बैठकर बात कर लेते हैं’.....पहली बार उसे तर्क की ज़रुरत महसूस हुई।
‘‘कैसी निगेटिव बातें कर रहे हो आज तुम लोग!? अगर मैं तुम्हे नहीं खाऊंगा तो सृष्टि कैसे चलेगी, जंगल कैसे चलेगा?’’ उसने दलील रखी।
‘‘जंगल आप चला रहें हैं ? लगता आपको कुछ ग़लतफ़हमी हुई है! बाई द वे आप क्या करते हैं जंगल को चलाने के लिए?’’ एक छोटे-से मेमने ने पूछा।
‘‘हर्रामज़ा.....! इसकी इतनी हिम्मत!!‘‘शेर के तनबदन में आग़ लग गई, ‘‘बहुत अच्छा सवाल उठाया तुमने’’ प्रकटतः उसने कहा।
‘‘एक जानवर दूसरे को खाए यह कौन-सा धर्म है?‘‘एक ख़रगोश बोला।
‘‘कल तक मेरे सामने मूतता था मगर आज....यह इन सबको हुआ क्या है!...‘‘वैरी गुड, इंटेलीजेंट क्वेश्चन....ऊपर-ऊपर उसने कहा,‘‘फ़िर मैं खाऊंगा क्या....क्या मैं भूखा मरुंगा....
‘‘हमें क्या पता क्या खाओगे, तुमने कब हमारे खाने की चिंता की?,’’ एक छोटी भेड़ ने पूछ लिया।
‘‘तुम्हें मालूम है जंगल में शहर से कुछ आदमी आते हैं जो तुम्हे पकड़-पकड़कर ले जाते हैं, मैं मर गया तो उनसे तुम्हे कौन बचाएगा?’’शेर ने पैंतरा फेंका।
‘‘वो तो तुम्हे भी पकड़कर ले जाते हैं। जाने कितने भालू-चीते उन्होंने पिंजरों में बंद कर रखे हैं’’,,ऊपर पेड़ पर एक छोटा बंदर लटका था ; वही बोल रहा था,‘‘क्या मज़ाक़ कर रहे हो अंकल?’’
शेर ने पहली बार अपने बदन पर पसीना महसूस किया,‘‘ठीक है, मुझे थोड़ा वक्त दो.....तुम भी सोच लो हम भी सोच लें....आज मैं तुम्हारे लिए भूखा रहूंगा...तुम्हारे लिए ही सोचूंगा.....रात बहुत हो गई है, अब तुम जाओ......’’


दूसरे दिन जंगल के जानवरों ने देखा कि जंगल के बीचोंबीच एक स्टेज बना है जिसपर शेर, चीता, भालू, भेड़िए, सांप जैसे हिंसक और ख़तरनाक जानवर शांत मुद्रा में बैठे हैं। तरह-तरह के बैनर लगे हैं जिनपर क़िस्म-क़िस्म के नारे लिखे हैं-

भ्रष्टाचार मिटाएंगे, नई रोशनी लाएंगे!
जतिवाद मुर्दाबाद! मुर्दाबाद! मुर्दाबाद!
समाज नहीं टूटने देंगे! जंगल नहीं लूटने देंगे!
जानवरों पर अत्याचार, बंद करो! बंद करो!
अहिंसा खोज हमारी है, शेर की ईमानदारी है!
समझ में उनकी दोष है, हम भी तो ख़रग़ोश हैं!
...........
इधर मेमने, ख़रगोश, हिरन, बकरी वगैरह एक-दूसरे का मुंह देख रहे थे।


-संजय ग्रोवर
16-09-2014


देयर वॉज़ अ स्टोर रुम या कि दरवाज़ा-ए-स्टोर रुम....

ख़ुद फंसोगे हमें भी फंसाओगे!

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ढूंढो-ढूंढो रे साजना अपने काम का मलबा.........

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