Sushant Singhal said...
संवादघर ( www।samwaadghar।blogspot।com) में नारी की दैहिक स्वतंत्रता व सामाजिक उपयोगिता पर जो बहस चल रही है वह रोचक तो है ही, बहुत महत्वपूर्ण भी है । एक ऐसा एंगिल जिससे अभी तक किसी ने इस विषय पर बात नहीं की है, मैं सुधी पाठकों के सम्मुख रख रहा हूं ! बहस को और उलझाने के लिये नहीं बल्कि सुलझाने में मदद हो सके इसलिये ! नारी देह के डि-सैक्सुअलाइज़ेशन (de-sexualization) की दो स्थिति हो सकती हैं । पहली स्थिति है - जहरीला फल चखने से पहले वाले आदम और हव्वा की - जो यौन भावना से पूर्णतः अपरिचित थे और शिशुओं की सी पवित्रता से ईडन गार्डन में रहते थे। ऐसा एक ही स्थिति में संभव है - जो भी शिशु इस दुनिया में आये उसे ऐसे लोक में छोड़ दिया जाये जो ईडन गार्डन के ही समकक्ष हो । वहां यौनभावना का नामो-निशां भी न हो । "धीरे धीरे इस दुनिया से भी यौनभावना को पूरी तरह समाप्त कर दिया जाना है" - यह भी लक्ष्य हमें अपने सामने रखना होगा ।यदि यह संभव नहीं है या हम इसके लिये तैयार नहीं हैं तो दूसरी स्थिति ये हो सकती है कि हम न्यूडिस्ट समाज की ओर बढ़ें और ठीक वैसे ही रहें जैसे पशु पक्षी रहते हैं । सुना है, कुछ देशों में - जहां न्यूडिस्ट समाज के निर्माण के प्रयोग चल रहे हैं, वहां लोगों का अनुभव यही है कि जब सब पूर्ण निर्वस्त्र होकर घूमते रहते हैं तो एक दूसरे को देख कर उनमें यौन भावना पनपती ही नहीं । "सेक्स नग्नता में नहीं, अपितु कपड़ों में है" - यही अनुभव वहां आया है । इस अर्थ में वे पशु-पक्षियों की सेक्स प्रणाली के अत्यंत निकट पहुंच गये हैं । प्रकृति की कालगणना के अनुसार, मादा पशु-पक्षी जब संतानोत्पत्ति के लिये शारीरिक रूप से तैयार होती हैं तो यौनक्रिया हेतु नर पशु का आह्वान करती हैं और गर्भाधान हो जाने के पश्चात वे यौनक्रिया की ओर झांकती भी नहीं । पूर्णतः डि-सैक्सुअलाइज़ेशन की स्थिति वहां पाई जाती है । पशु पक्षी जगत में मादा का कोई शोषण नहीं होता, कोई बलात्कार का भी जिक्र सुनने में नहीं आता । मादा या पुरुष के लिये विवाह करने का या केवल एक से ही यौन संबंध रखने का भी कोई विधान नहीं है। उनकी ज़िंदगी मज़े से चल रही है । ये बात दूसरी है कि पशु - पक्षी समाज आज से दस बीस हज़ार साल पहले जिस अवस्था में रहा होगा आज भी वहीं का वहीं है । कोई विकास नहीं, कोइ गतिशीलता नहीं - भविष्य को लेकर कोई चिंतन भी नहीं ।हमारे समाज के संदर्भ में देखें तो कुछ प्राचीन विचारकों, समाजशास्त्रियों का मत है कि यौनभावना का केवल एक उपयोग है और वह है - 'संतानोत्पत्ति' । उनका कहना है कि प्रकृति ने सेक्स-क्रिया में आनन्द की अनुभूति केवल इसलिये जोड़ी है कि जिससे काम के वशीभूत नर-नारी एक दूसरे के संसर्ग में आते रहें और सृष्टि आगे चलती चली जाये । विशेषकर स्त्री को मां बनने के मार्ग में जिस कष्टकर अनुभव से गुज़रना पड़ता है, उसे देखते हुए प्रकृति को यह बहुत आवश्यक लगा कि यौनक्रिया अत्यंत आनंदपूर्ण हो जिसके लालच में स्त्री भी फंस जाये । एक कष्टकर प्रक्रिया से बच्चे को जन्म देने के बाद मां अपने बच्चे से कहीं विरक्ति अनुभव न करने लगे इसके लिये प्रकृति ने पुनः व्यवस्था की - बच्चे को अपना दूध पिलाना मां के लिये ऐसा सुख बना दिया कि मां अपने सब शारीरिक कष्ट भूल जाये । विचारकों का मानना है कि मां की विरक्ति के चलते बच्चा कहीं भूखा न रह जाये, इसी लिये प्रकृति ने ये इंतज़ाम किया है । सच तो ये है कि सृष्टि को आगे बढ़ाये रखने के लिये जो-जो भी क्रियायें आवश्यक हैं उन सभी में प्रकृति ने आनन्द का तत्व जोड़ दिया है। भूख लगने पर शरीर को कष्ट की अनुभूति होने लगती है व भोजन करने पर हमारी जिह्वा को व पेट को सुख मिलता है। अगर भूख कष्टकर न होती तो क्या कोई प्राणी काम-धाम किया करता ! क्या शेर कभी अपनी मांद से बाहर निकलता, क्या कोई पुरुष घर-बार छोड़ कर नौकरी करने दूसरे शहर जाता ?पर लगता है कि हमें न तो ईडन गार्डन की पवित्रता चाहिये और न ही पशु-पक्षियों के जैसा न्यूडिस्ट समाज का आदर्श ही हमें रुचिकर है । कुछ लोगों की इच्छा एक ऐसा समाज बनाने की है जिसमे यौन संबंध को एक कप चाय से अधिक महत्व न दिया जाये । जब भी, जहां पर भी, जिससे भी यौन संबंध बनाने की इच्छा हो, यह करने की हमें पूर्ण स्वतंत्रता हो, समाज उसमे कोई रोक-टोक, अड़ंगेबाजी न करे । यदि ऐसा है तो हमें यह जानना लाभदायक होगा कि ये सारी रोक-टोक, अड़ंगे बाजी नारी के हितों को ध्यान में रख कर ही लगाई गई हैं । आइये देखें कैसे ?पहली बात तो हमें यह समझना चाहिये कि समाज को किसी व्यक्ति के यौन संबंध में आपत्ति नहीं है, निर्बाध यौन संबंध में आपत्ति है और इसके पीछे वैध कारण हैं ! हमारे समाजशास्त्रियों ने दीर्घ कालीन अनुभव के बाद ये व्यवस्था दी कि यौन संबंध हर मानव की जैविक आवश्यकता है अतः हर स्त्री - पुरुष को अनुकूल आयु होने पर यौन संसर्ग का अवसर मिलना चाहिये । चूंकि सेक्स का स्वाभाविक परिणाम संतानोत्पत्ति है, इसलिये दूसरी महत्वपूर्ण व्यवस्था यह की गयी कि संतान के लालन पालन का उत्तरदायित्व अकेली मां का न होकर माता - पिता का संयुक्त रूप से हो । यह व्यवस्था केवल मानव समाज में ही है । बच्चे का लालन पालन करना, उसे पढ़ाना लिखाना, योग्य बनाना क्योंकि बहुत बड़ी और दीर्घकालिक जिम्मेदारी है जिसमें माता और पिता को मिल जुल कर अपनी अपनी भूमिका का निर्वाह करना होता है, इसलिये विवाह संस्था का प्रादुर्भाव हुआ ताकि स्त्री पुरुष के संबंध को स्थायित्व मिल सके, समाज उनके परस्पर संबंध को पहचाने और इस संबंध के परिणाम स्वरूप जन्म लेने वाली संतानों को स्वीकार्यता दे। स्त्री-पुरुष को लालच दिया गया कि बच्चे का लालन-पालन करके पितृऋण से मुक्ति मिलेगी, बच्चे को योग्य बना दोगे तो गुरु ऋण से मुक्ति मिलेगी, ऐसी अवधारणायें जन मानस में बैठा दी गयीं। विवाह विच्छेद को बुरा माना गया क्योंकि ऐसा करने से बच्चों का भविष्य दांव पर लग जाता है । जो स्त्री-पुरुष इस दीर्घकालिक जिम्मेदारी को उठाने का संकल्प लेते हुए, एक दूसरे के साथ जीवन भर साथ रहने का वचन देते हुए विवाह के बंधन में बंधते हैं, उनको समाज बहुत मान-सम्मान देता है, उनके विवाह पर लोग नाचते कूदते हैं, खुशियां मनाते हैं, उनके प्रथम शारीरिक संबंध की रात्रि को भी बहुत उल्लासपूर्ण अवसर माना जाता है । उनको शुभकामनायें दी जाती हैं, भेंट दी जाती हैं । उनके गृहस्थ जीवन की सफलता की हर कोई कामना करता है ।दूसरी ओर, जो बिना जिम्मेदारी ओढ़े, केवल मज़े लेने के लिये, अपने शारीरिक संबंध को आधिकारिक रूप से घोषित किये बिना, क्षणिक काम संतुष्टि चाहते हैं उनको समाज बुरा कहता है, उनको सज़ा देना चाहता है क्योंकि ऐसे लोग सामाजिक व्यवस्था को छिन्न विच्छिन्न करने का अपराध कर रहे हैं ।अब प्रश्न यह है कि ये व्यवस्था व्यक्ति व समाज की उन्नति में, विकास में सहयोगी है अथवा व्यक्ति का शोषण करती है ? दूसरा प्रश्न ये है कि कोई पुरुष बच्चों के लालन-पालन का उत्तरदायित्व उठाने के लिये किन परिस्थितियों में सहर्ष तत्पर होगा ? कोई स्त्री-पुरुष जीवन भर साथ साथ कैसे रह पाते हैं ? जो स्थायित्व और बच्चों के प्रति जिम्मेदारी की, वात्सल्य की भावना पशु-पक्षी जगत में कभी देखने को नहीं मिलती, वह मानव समाज में क्यों कर दृष्टव्य होती है? जब कोई स्त्री पुरुष एक दूसरे की जरूरतों को पूरा करते हुए, एक दूसरे के साथ सहयोग करते हुए, साथ साथ रहने लगते हैं तो उनके बीच एक ऐसा प्रेम संबंध पनपने लगता है जो उस प्यार मोहब्बत से बिल्कुल अलग है - जिसका ढिंढोरा फिल्मों में, किस्से-कहानियों में, उपन्यासों में पीटा जाता है। एक दूसरे के साथ मिल कर घर का तिनका-तिनका जोड़ते हुए, एक दूसरे के सुख-दुःख में काम आते हुए, बीमारी और कष्ट में एक दूसरे की सेवा-सुश्रुषा करते हुए, स्त्री-पुरुष एक दूसरे के जीवन का अभिन्न अंग बन जाते हैं । वे एक दूसरे को "आई लव यू" कहते भले ही न हों पर उनका प्यार अंधे को भी दिखाई दे सकता है । यह प्यार किसी स्त्री की कोमल कमनीय त्वचा, सुगठित देहयष्टि, झील सी आंखों को देख कर होने वाले प्यार से (जो जितनी तेज़ी से आता है, उतनी ही तेज़ी से गायब भी हो सकता है) बिल्कुल जुदा किस्म का होता है। इसमे रंग रूप, शारीरिक गुण-दोष कहीं आड़े नहीं आते। इंसान का व्यवहार, उसकी बोलचाल, उसकी कर्तव्य-परायणता, सेवाभाव, समर्पण, निश्छलता, दया-ममता ही प्यार की भावना को जन्म देते हैं। ये प्रेम भावना पहले स्त्री-पुरुष के गृहस्थ जीवन को स्थायित्व देती है, फिर यही प्रेम माता-पिता को अपने बच्चों से भी हो जाता है। यह प्यार बदले में कुछ नहीं मांगता बल्कि अपना सर्वस्व दूसरे को सौंपने की भावना मन में जगाता है। ये सामाजिक व्यवस्था तब तक सफलतापूर्वक कार्य करती रहती है जब तक स्त्री-पुरुष में से कोई एक दूसरे को धोखा न दे । पुरुष को ये विश्वास हो कि जिस स्त्री पर उसने अपने मन की समस्त कोमल भावनायें केन्द्रित की हैं, जिसे सुख देने के लिये वह दिन रात परिश्रम करता है, वह उसके अलावा अन्य किसी भी व्यक्ति की ओर मुंह उठा कर देखती तक नहीं है। स्त्री को भी ये विश्वास हो कि जिस पुरुष के लिये उसने अपना समस्त जीवन समर्पित कर दिया है, वह कल उसे तिरस्कृत करके किसी और का नहीं हो जायेगा । बच्चों का अपने माता - पिता के प्रति स्नेह व आदर भी माता-पिता के मन में अपनी वृद्धावस्था के प्रति सुरक्षा की भावना जगाता है ।"पुरुष भी स्त्री के साथ बच्चे के लालन-पालन में बराबर का सहयोग दे" -इस परिकल्पना, व इस हेतु बनाई गई व्यवस्था की सफलता, इस बात पर निर्भर मानी गयी कि पुरुष को यह विश्वास हो कि जिस शिशु के लालन-पालन का दायित्व वह वहन कर रहा है, वह उसका ही है, किसी अन्य पुरुष का नहीं है। इसके लिये यह व्यवस्था जरूरी लगी कि स्त्री केवल एक ही पुरुष से संबंध रखे । कोई स्त्री एक ही पुरुष की हो कर रहने का वचन देती है तो पुरुष न केवल उसके बच्चों का पूर्ण दायित्व वहन करने को सहर्ष तत्पर होता है, बल्कि उस स्त्री को व उसके बच्चों को भी अपनी संपत्ति में पूर्ण अधिकार देता है। इस व्यवस्था के चलते, यदि कोई पुरुष अपने दायित्व से भागता है तो ये समाज उस स्त्री को उसका हक दिलवाता है ।स्त्री ने जब एक ही पुरुष की होकर रहना स्वीकार किया तो बदले में पुरुष से भी यह अपेक्षा की कि पुरुष भी उस के अधिकारों में किसी प्रकार की कोई कटौती न करे । दूसरे शब्दों में स्त्री ने यह चाहा कि पुरुष भी केवल उसका ही होकर रहे । पुरुष की संपत्ति में हक मांगने वाली न तो कोई दूसरी स्त्री हो न ही किसी अन्य महिला से उसके बच्चे हों ।शायद आप यह स्वीकार करेंगे कि यह सामाजिक व्यवस्था न हो तो बच्चों के लालन पालन की जिम्मेदारी ठीक उसी तरह से अकेली स्त्री पर ही आ जायेगी जिस तरह से पशुओं में केवल मादा पर यह जिम्मेदारी होती है । चिड़िया अंडे देने से पहले एक घोंसले का निर्माण करती है, अंडों को सेती है, बच्चों के लिये भोजन का प्रबंध भी करती है और तब तक उनकी देख भाल करती है जब तक वह इस योग्य नहीं हो जाते कि स्वयं उड़ सकें और अपना पेट भर सकें । बच्चों को योग्य व आत्म निर्भर बना देने के बाद बच्चों व उनकी मां का नाता टूट जाता है । पिता का तो बच्चों से वहां कोई नाता होता ही नहीं ।इसके विपरीत, मानवेतर पशुओं से ऊपर उठ कर जब हम मानव जगत में देखते हैं तो नज़र आता है कि न केवल यहां माता और पिता - दोनो का संबंध अपनी संतान से है, बल्कि संतान भी अपनी जन्मदात्री मां को व पिता को पहचानती है । भारत जैसे देशों में तो बच्चा और भी अनेकानेक संबंधियों को पहचानना सीखता है - भाई, बहिन, ताऊ, ताई, चाचा - चाची, बुआ - फूफा, मामा - मामी, मौसा - मौसी, दादा - दादी, नाना - नानी से अपने संबंध को बच्चा समझता है और उनकी सेवा करना, उनका आदर करना अपना धर्म मानता है । ये सब भी बच्चे से अपना स्नेह संबंध जोड़ते हैं और उसके शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आर्थिक विकास में अपने अपने ढंग से सहयोग करते हैं ।बात के सूत्र समेटते हुए कहा जा सकता है कि यदि कोई स्त्री या पुरुष सेक्स को "महज़ चाय के एक कप" जैसी महत्ता देना चाहते हैं; उन्मुक्त सेक्स व्यवहार के मार्ग में समाज द्वारा खड़ी की जाने वाली बाधाओं को वह समाज की अनधिकार चेष्टा मानते हैं; यदि उन्हें लगता है कि उनको सड़क पर, कैमरे के सामने, मंच पर नग्न या अर्धनग्न आने का अधिकार है, और उनका ये व्यवहार समाज की चिंता का विषय नहीं हो सकता तो इसका सीधा सा अर्थ है कि वह इस सामाजिक व्यवस्था से सहमत नहीं हैं, इसे शोषण की जनक मानते हैं और इस व्यवस्था से मिलने वाले लाभों में भी उनको कोई दिलचस्पी नहीं है । यदि स्त्री यह विकल्प चाहती है कि वह गर्भाधान, बच्चे के जन्म, फिर उसके लालन-पालन की समस्त जिम्मेदारी अकेले ही उठाए और बच्चे का बीजारोपण करने वाले नर पशु से न तो उसे सहयोग की दरकार है, न ही बच्चे के लिये किसी अधिकार की कोई अपेक्षा है तो स्त्री ऐसा करने के लिये स्वतंत्र है । बस, उसे समाज द्वारा दी जाने वाली समस्त सुख-सुविधाओं को तिलांजलि देनी होगी । वह समाज की व्यवस्था को भंग करने के बाद समाज से किसी भी प्रकार के सहयोग की अपेक्षा भी क्यों रखे ? अस्पताल, डॉक्टर, नर्स, दवायें, कपड़े, कॉपी-किताब, स्कूल, अध्यापक, नौकरी, व्यापार आदि सभी सुविधायें समाज ही तो देता है । वह जंगल में रहे, अपना और अपने बच्चे का नीड़ खुद बनाये, उसक पेट भरने का प्रबंध स्वयं करे। क्या आज की नारी इस विकल्प के लिये तैयार है?यदि समाज द्वारा दी जा रही सेवाओं व सुविधाओं का उपयोग करना है तो उस व्यवस्था को सम्मान भी देना होगा जिस व्यवस्था के चलते ये सारी सुविधायें व सेवायें संभव हो पा रही हैं । सच तो ये है कि शोषण से मुक्ति के नाम पर यदि हम अराजकता चाहते हैं तो समाज में क्यों रहें, समाज से, समाज की सुविधाओं से दूर जंगल में जाकर रहें न ! वहां न तो कोई शोषणकर्ता होगा न ही शोषित होगा ! वहां जाकर चार टांगों पर नंगे घूमते रहो, कौन मना करने आ रहा है ?- सुशान्त सिंहल
No east or west,mumbaikar or bihaari, hindu/muslim/sikh/christian /dalit/brahmin… for me.. what I believe in logic, rationality and humanity...own whatever the good, the logical, the rational and the human here and leave the rest.
शनिवार, 31 जनवरी 2009
टिप्पणी को पोस्ट बनाते हुए स्त्री-विमर्श
मंगलवार, 27 जनवरी 2009
आज हुआ मन ग़ज़ल कहूँ........
1.
मौत की वीरानियों में ज़िन्दगी बन कर रहा
वो खुदाओं के शहर में आदमी बन कर रहा
ज़िन्दगी से दोस्ती का ये सिला उसको मिला
ज़िन्दगी भर दोस्तों में अजनबी बन कर रहा
उसकी दुनिया का अंधेरा सोच कर तो देखिए
वो जो अंधों की गली में रोशनी बन कर रहा
सनसनी के सौदेबाज़ों से लड़ा जो उम्र-भर
हश्र ये खुद एक दिन वो सनसनी बन कर रहा
एक अंधी दौड़ की अगुआई को बेचैन सब
जब तलक बीनाई थी मैं आखिरी बन कर रहा
या तो मैं सच कहता हूँ
या फिर चुप ही रहता हूँ
सहमा-सहमा रहता हूँ
खुश हूँ, कम ही बहता हूँ
भीतर-भीतर ढहता हूँ
इसीलिए सब सहता हूँ
हक़ीकत में नहीं कुछ भी दिखा है
क़िताबों में मगर सब कुछ लिखा है
डर और लालच में आए दिन बिका है
जो रात और दिन पढ़ा करते हो पोथे
कभी उनका असर ख़ुदपर दिखा है !
जब हाथों से नहीं कुछ कर सका वो
तो बोला येही क़िस्मत में लिखा है
असल में रीढ़ ही उसकी नहीं है
वो सदियों से इसी फन पे टिका है
(बारी-बारी से तीनों अर्थों में पढ़ें।)
समंदर सी आंखें उधर तौबा तौबा
इधर डूब जाने का डर तौबा तौबा
यूँ गुज़री है सारी उमर, तौबा तौबा
लगे ना किसी की नज़र, तौबा तौबा
था घुटनों में उनका हुनर, तौबा तौबा
गो दुखने लगी है कमर, तौबा तौबा
कि करने लगा है ग़दर तौबा तौबा
कोई भी तयशुदा क़िस्सा नहीं हँू
किस्सी साजिश का मैं हिस्सा नहीं हँू
मैं ज़्यादा दिन कहीं रुकता नहीं हँू
मुसीबत में, मैं ख़ुद अपना नहीं हँू
किसी दुकान पर बिकता नहीं हँू
किसी दीवार पर लटका नहीं हँू
मैं खोटा हँू मगर सिक्का नहीं हँू
यक़ीनन जब मैं ख़ुद तुमसा नहीं हँू
मैं हर इक बात पर हंसता नहीं हँू
कि मैं आकाश से टपका नहीं हँू
मैं थमता हूँ मगर रुकता नहीं हूँ
सोमवार, 12 जनवरी 2009
‘व्यंग्य-कक्ष’ में ’’’’’’इस तरह मैंने राजेंद्र यादव को सुधारा !’’’’’’
‘‘यह क्या है ?’’ वे बोले।
‘‘शुरु हो जाओ।’’ मैंने कहा।
मेरे साथ गए स्व-अर्थी सेवकों ने अपने-अपने हथियार हाथ में ले लिए और विनम्र कोरस में गाने लगेः-
‘‘भेज रहे हैं नेह-निमंत्रण, यादव तुम्हे बुलाने को
हे मानस के राजहंस तुम भूल न जाना आने को''
उसके बाद मैंने राजेंद्र यादव के हाथ जोड़े। तत्पश्चात पैर छुए। फ़िर उन्हें ऐसे घूरा जैसे क़त्ल कर दूंगा।
फिर कहा, ‘‘देखिए, यादवजी, हम आपकी बड़ी इज़्ज़त करते हैं और हम चाहते हैं कि आप कार्यक्रम में आकर यह परचा पढें।’’
‘‘पर यह परचा तो आपका लिखा है, मैं तो अपने विचारों के लिए जाना जाता हूँ !’’ उन्होंने आश्चर्य प्रकटा।
मैंने उन्हें फ़िर घूरा। फ़िर हाथ जोड़कर कहा, ‘‘ देखिए यादवजी, हम इंस बात को जानते हैं मगर फ़िर भी आपकी बड़ी इज़्ज़त करते हैं। देखिए, हमारे यहाँ कोई भी तुम्मन खां आ जाए,उसे यही पर्चा पढ़ना होता है।’’
‘‘तो मुझे क्यों बुला रहे हो ? जिसने लिखा है उसी से पढ़वाओ’’, वे बोले।
‘‘वो कोई यहाँ बैठा हुआ है। पीढ़ियां गुज़र गई। और क्या एक ही आदमी ने लिखा है!’’, मैंने सवाल टाइप का जवाब दिया।
‘‘मौसम आएंगे जाएंगे.......हम उसको भूल न पाएंगे ऽऽऽऽऽ..’’स्व-अर्थी सेवकों ने हथियार हिलाते हुए विनम्र कोरस गाया।
वे सिगार मुंह में डालकर धुंआ छोड़ने लगे।
‘‘देखिए धुंए से हमें मत डराईए, हमारे स्व-अर्थी सेवकों की पहुँच घर-घर में है। किसी भी घर में घुसकर किसी भी तरह की आग लगा या लगवा सकते हैं.....’.मैंने बताया....‘हिंसक आग, अहिंसक आग, घरेलू आग, बाज़ारु आग, प्रकट आग, छुपी आग, सहिष्णु आग, क्रूर आग........’’
‘‘मुझे पता है,‘ वे बोले, ‘देखता आया हूँ।’’
मैंने कई फोटुओं में उन्हें पाइप पीते हुए देखा था।
‘‘ज़रा दिखाईए तो’’ मैंने आज्ञादार आवाज़ में कहा।
उन्होंने चुपचाप पाइप दे दिया।
मैंने एक सूंटा खींचा,‘‘यादवजी भांग-धतूरे वाला मज़ा इसमें नहीं है, फ़िर भी चीज़ बढ़िया है। पर प्रोग्राम में आप इसे नहीं पीएंगे।’’
‘‘क्यों भई, जब पीता हूँ और सबको पता है कि पीता हूँ तो क्यों नहीं पीऊंगा।‘‘
‘‘देखिए यादवजी‘, मैंने समझाया, ‘‘हमारे यहाँ ‘करो सब कुछ, कहो मत कुछ’’ का सिद्धांत चलता है। हमारे यहाँ उन बच्चों को बड़ा संस्कारी माना जाता है जो सिगरेट पीते तो हैं, शराब पीते तो हैं, छेड़खानी करते तो हैं, पर माँ-बाप के सामने नहीं करते ........ करते हैं कि नहीं करते, इसका महत्व नहीं है, महत्व इस बात का है कि किधर करते हैं किधर नहीं करते। समझे कि नहीं। आप सिगार पीकर भी होशो-हवास में रहते हुए मौलिक विचार झाड़ेंगे तो कौन पसंद करेगा। आप भांग खाकर पर्चा पढ़िए, देखिए कित्ती तारीफ़ होती है।’’
‘‘अरे भई सिगार से ज्यादा नुकसान तो मुझे अचार खाने से होता है। अचार क्यों न छोड़ूं !’’
‘‘यादवजी आपकी यही आदत खराब है, आप तर्क पर उतर आते हैं, तर्क-वर्क से कुछ नहीं होता।’’
‘‘फ़िर किससे होता है’’ वे पूछ बैठे।
‘‘अफ़वाहें फैलाओ, मुकदमें लगवाओ, बिज़निस गिरवाओ, आपस में लड़वाओ, तिकड़म करो, साजिश रचो.....पचासियों अंिहसक तरीके हैं...’’
‘‘इतनी शक्ति हमें देना दाता...मन का विश्वास कमज़ोर हो ना....’’स्व-अर्थी सेवकों ने फ़िर विनम्र कोरस गाया।
’’और यह काला चश्मा क्यों लगा रखा है आपने ?’’ उनकी चुप्पी ने मेरा आत्मविश्वास बढ़ाया, ‘‘किसी धर्म, जाति, वर्ण, संप्रदाय, रंग, गुट वगैरह का चश्मा लगाईए जिससे लोगों को छोटा-बड़ा, ऊँच-नीच जैसे भेद-भाव के तहत देखा जा सके। ऐसा चश्मा क्यों लगाते हैं जिससे सब एक जैसे दिखें !?’’ मैंने डपटा।
सच कहूँ तो ‘हम जैसे’ लोगों में आत्मविश्वास अपने विवेक और साहस से नहीं आता। दूसरों के डर और चुप्पी से आता है। तो इसी माहौल में मैंने बात आगे बढ़ाई, ‘‘देखिए जिन बातों को 20-30 साल के जवानों को सोचना-कहना चाहिए, उन्हें कहने के लिए आप क्यों अस्सी साल में मरे जा रहे हैं !’’
‘‘हुम....सोचना पड़ेगा.....अच्छा यह स्व-अर्थी सेवक का अर्थ क्या हुआ ?’’वही तर्क की उनकी गंदी आदत।
‘‘अपनी अर्थी खुद बनो..यह हमने बुद्ध के ‘‘अप्प दीपो भव’’ से लिया है। हमें जो अच्छा लगता है हम कहीं से भी उठा लेते हैं।’’
‘‘अच्छा....ज़रा खुलकर बताईए‘‘ उफ़! कैसा आदमी है!
‘‘पुराने को पकड़े रहो, नए का विरोध करो, फ़िर भी नया आ जाए तो उसे इंस तरह से अपनाओ कि उसकी हालत पुराने से भी बदतर हो जाए यानि अपनी अर्थी खुद बनो यानि दूसरा हमें क्या नुकसान पहुँचाएगा जितना हम खुद पहुँचा लेंगे।’’ मैंने समझाया।
‘‘सारी बातें छोड़ो..’’ मैंने पैंतरा बदला..‘‘ जो आपके यहाँ हुआ उससे कई गुना ज़्यादा दूसरों के यहाँ होता है। मानते हैं कि नहीं मानते ?’’
‘‘मानता हूँ।’’
‘‘लेकिन सारा कीचड़ आप पर उछाला जाता है। उन पर एक बूंद भी नहीं पड़ती। मानते हैं कि नहीं मानते ?’’
‘‘मानता हूँ।‘‘
‘‘तो भाई मेरे, करो कुछ भी पर कहो मत न लेख में न कहानी में, एक नारा पकड़ लो हमारा:-‘‘करो सब कुछ, कहो मत कुछ’’। समझे।’’
‘‘समझा, ‘करो सब कुछ, कहो मत कुछ‘‘
‘‘शाबाश’’, मैंने उनकी पीठ थपथपाई। सिर पर भी थोड़ा हाथ रख दिया।
‘‘इतनी शक्ति हमें देना दाता....मन का विश्वास कमज़ोर हो ना..’’स्व-अर्थी सेवकों ने विनम्र कोरस गाया।
अब यादवजी सुधर गए हैं। वे या तो संस्कृत बोलते हैं या अंग्रेजी। और हिन्दी के प्रकाण्ड विद्वान माने जाते हैं। अब उनके अपने कोई विचार नहीं हैं। वे सभाओं में जाकर आयोजकों के दिए वे पर्चे पढ़ते हैं जो आयोजकों को भी कहीं से मिले होते हैं। जहाँ से मिले होते हैं वहीँ भी पता नहीं कहाँ से आए होते हैं। अब ब्लाॅगर्स और आलोचकस् द्वारा उनके परचा-वक्तव्यों की ‘‘ट्राल’’ कहकर उपेक्षा नहीं की जाती। ऐसे पर्चों की कोई उपेक्षा करे या सम्मान, उससे होना भी क्या है।
-संजय ग्रोवर
एक टिप्पणी जो बहुत ज़रुरी थीः-
Harkirat Haqeer said... संजय जी, आपके व्यंग में पैनी धारहै...बहुत बढिया लिखा आने... कुछ कुछ फैन्टेसी लिए हुए... पर राजेन्द्र जी को क्यों व्यंग का हिस्सा बनाया जा रहा है? क्या महज उनका सिगार पीना उनकी तमामसाहित्यिक प्रभुत्ता को नकार देता है? या किसी के साथ उनके जातिगत संबंधों से उनकीप्रतिभा कम हो जाती है? राजेन्द्र जी हिन्दी साहित्य जगत के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं इसे हमें मानना होगा...January 18, 2009 10:41 PM
हरकीरत जी,
अगर आप व्यंग्य पढ़ती रहती हैं तो आपको पता होगा कि व्यंग्य ज़्यादातर व्यंजना की यानि टेढ़ी भाषा में लिखे जाते हैं। मसलन हमारा कोई पतला-दुबला मित्र हमें काफी समय बाद मिलता है जो कि अब बहुत मोटा हो चुका है, तो हम मज़ाक में कहते हैं कि यार दिन पे दिन सूखते जा रहे हो, क्या बात है ? इसी ढंग से पढ़ेंगी तो आपको इंस व्यंग्य के सही मायने समझ में आने लगेंगे। मैने दरअसल वही कहा है जो आप कहना चाह रही हैं।दिलचस्प लेकिन दुखद यह है कि खुद यादवजी के एक लेख ‘‘होना/सोना एक ख़ूबसूरत दुश्मन के साथ’’ के साथ भी ऐसा किया जा चुका है। उन्होंने जो कहा था उसके विपरीत अर्थ निकाल लिए गए थे। फ़र्क बस यही है कि आप भ्रमवश ऐसा कर रही हैं जबकि यादवजी के लेख के साथ यही सब आलोचकों/विद्वानों द्वारा शरारतन किया गया था।अच्छा किया आपने यह टिप्पणी लिखकर क्योंकि जो दूसरे लोग इंस लेख के ग़लत अर्थ लगा रहे होंगे वे इसे दोबारा, इसके सही अर्थों के साथ, पढ़ेंगे।
-संजय ग्रोवर
बुधवार, 7 जनवरी 2009
औरत: दैहिक स्वतंत्रता और सामाजिक उपयोगिता के सवाल
सुजाता जी,नए साल में औरतों के मसअलों से जुड़ा एक स्तम्भ शुरु कर रहा हूँ ‘‘दुनिया बसाऊँगी तेरे घर के सामने।’’ चाहता हूँ कि इंस स्तम्भ का ‘‘उदघाटन’’ आप करें। यानि कि पहली टिप्पणी आप करें। क्या आप मेरा आमंत्रण स्वीकार करती हैं। मैं खुदको गौरवान्वित महसूस करुंगा।31।12।2008
संजय जी,
मुझे आमंत्रण देने के लिए धन्यवाद । ज़रूर टिप्पणी करूंगी ।
स्तम्भ के नाम को लेकर मन मे ज़रा संशय है। आप उस पर पुनर्विचार कर सकें तो बेहतर। इस शीर्षक में 'तेरे' कौन है यदि यह पुरुष के लिए है तो दिक्कत यह है कि स्त्री अपना संसार बसाती है तो उसका सन्दर्भ हमेशा पुरुष ही क्यों होगा । साथ ही यह एक प्रतिस्पर्द्धा की भावना भी दर्शाती है. 'तेरे घर के सामने' आमने.सामने वाली बात आ जाती है। दर असल स्त्री जो पाना चाहती है वह पुरुष की होड़ करने का अर्थ लगाकर कभी सही समझ नही जा सकता ऐसा मुझे प्रतीत होता है। इन कारणों पर गौर कर सकें तो बहुत अच्छा होगा।31.12.2008
तब मैंने उन्हें बताया:-
सुजाताजी,,मैं कोई बहानेबाज़ी नहीं करुंगा। ‘तेरे’ से मतलब पुरुष से ही है। मैं आपकी बात से सहमत भी हूँ। फ़िर भी मेरे मन में जो बात थी वो तो कह ही दंू। निहितार्थ यह भी था कि तुमने सिर्फ अपने तक सीमित रहकर घर बसाया है जो कि पितृसत्ता या पुरुष-सत्ता का प्रतीक है। मै एक खुली हुई दुनिया बसा दूंगी जहाँ सब बराबर होंगे। दूसरे, मेरे मन में अपने स्तम्भों के शीर्षकों को ब्लाॅग (संवादघर) के नाम से जोडे़ रखने का लालच भी था (मसलन व्यंग्य-कक्ष)। साथ ही मैंने उसके लिए एक लोगो (प्रतीक-चिन्ह/चित्र...वैसे मुझे यद नहीं आ रहा इसके लिए सही शब्द क्या होता है।) भी बना डाला है। पहले मैंने स्तम्भ के लिए ‘‘सीढ़ियों पर’’ और ’’हटी है चिलमन, खुला है आंगन’’ जैसे नाम भी सोचे थे। बहरहाल, फिलहाल अगर आप अन्यथा न लें तो, इसी शीर्षक से शुरु कर सकते हैं, बाद में आपकी सहमति से शीर्षक बदल लेंगे। इस पूरे प्रकरण में फायदे की बात यह है कि शुरुआत आपकी शीर्षक पर की गयी इसी टिप्पणी से की जा सकती है। बाद की आपकी टिप्पणी ‘‘समापन-उदघाटन’’ होगा। (वैसे क्या ऐसी बहसों का कभी समापन हो सकता है जो अभी ठीक से शुरु भी नहीं हुई!)तो क्या आप सहमत हैं ?
आमंत्रण स्वीकार करने के लिए धन्यवाद।31.12.2008
शुरुआत उस लेख से कर रहा हूँ जो अमर उजाला, रुपायन में 1996 में छपा था। इन 12-13 सालों में दुनिया कितनी बदली ? पुरुष की मानसिकता में कितना बदलाव आया और ख़ुद स्त्री की में कितना ? आया कि नहीं आया ? हम आगे गए या पीछे ? बता दंू कि मधु सप्रे और मिंलिंद सोमन तब के प्रसिद्ध माॅडल थे और दोनों साथ-साथ, एक विज्ञापन में लगभग वस्त्रहीन दृश्य देने की वजह से चर्चा में आ गए थे। लेकिन लगभग सभी संचार माध्यम हाथ धोकर सिर्फ मघु सप्रे के पीछे पड़ गये थे। यही मुद्दा मैंने इस लेख में उठाया था। अंजलि कपूर जो कि एक वकील थीं, भी ऐसे ही एक विज्ञापन की वजह से मुश्किल में पड़ गयीं थीं। सुजाताजी की टिप्पणी इन सवालों को शायद कुछ हल्का-गहरा करे या शायद कुछ नए सवाल उठाए। ख़ुद मैं वैचारिक रुप से तब कहाँ था और अब कहाँ हूँ, यह जानने में आपकी टिप्पणियों से भी मदद मिलेगी।
लेख
दैहिक स्वतंत्रता और सामाजिक उपयोगिता के सवाल
इस समय नारी देह के अनावरण और शोषण को लेकर चर्चा गर्म है । शायद पुरुष जानता है कि दैहिक पवित्रता, मर्यादा, यौनशुचिता के गीत गाकर ही अभी और कुछ दिन तक नारी का शोषण किया जा सकता है ।
प्रगतिशील महिलाएं तक इस शाब्दिक झांसे में फंसकर खुद को देह में कैद कर लेती है । सालो-साल पुराना लोगों का मानसिक अनुकूलन यथास्थितिवादी-सामंतवादी सोच के लोगों के पक्ष में चला जाता है ।
हालांकि जिन कारणों से नारी देह अनावृत होती है, लगभग उन्हीं कारणों से पुरुष देह भी अनावृत होती रही है, मगर आदत में आ जाने के कारण लोगों का ध्यान उस पर इस तरह से नहीं जाता । मजे की बात है कि कोई ममता कुलकर्णी या पूजा बेदी हमेशा अकेली वस्त्रहीन नहीं होती या चुंबन दृश्य नहीं देती । कोई-न-कोई संजय दत्त, सुनील शेट्टी या सनी देओल भी इनके साथ होते हैं । मगर हमारा ऐतराज अक्सर ममता या पूजा पर ही होता है ।
हमारे संस्कारित-अनुकूलित दिल-दिमाग में क्यों यह ख्याल तक नहीं आता कि स्त्री मन को उत्तेजना व सुख देने के लिए मर्दानी देह को भी वैसे ही बेचा जाता है । अगर नहीं तो राहुल राय, कुमार गौरव या दिलीप कुमार की तुलना में धर्मेद्र, जैकी श्राफ या मिथुन को ही क्यों ज्यादा नंगाया जाता है । विभिन्न व्यवसायों से जुडे़ बहुत से पुरुष भी मॉडलिंग करते हुए कपडे़ उतारते होंगे, मगर हम सिर्फ वकील अंजलि कपूर को फाड़ कर खा जाने पर आमादा हैं । कपडे़ मिलिंद सोमन ने भी उतारे थे, पर हमने सारी बहादुरी मधु सप्रे पर हमला करने में ही खर्च कर दी । दरअसल ये सभी घटनाएं साफ-साफ बताती हैं कि हम स्त्री को एक संपूर्ण इंसान के रूप में नहीं देख पा रहे हैं ।
तिस पर और मज़ा यह कि हमारे कथित धार्मिक-आध्यात्मिक सुसंस्कृतजन कहते आए हैं कि हमारे यहां देह से ज्यादा महत्व आत्मा (?) को दिया जाता है । जबकि स्त्री (व पुरूष) को सारी सजाएं देह की देहरी लांघने पर ही दी जाती हैं । मन के तहखाने में कोई स्त्री या पुरूष किसी पराए के साथ या हजार साथी बदलकर रहें, कथित धर्म को कुछ लेना-देना नहीं, मगर बात जैसे ही देह तक आई तो स्पर्श भी दंडनीय है । इससे ज्यादा देह को महत्व देना और क्या होगा ? सारे नीतिगत मानदंड ही देह के आचरण पर टिके हैं ।
स्त्री को अपनी कई समस्याओं से जूझने-निपटने के लिए देह से मुक्त तो अब होना ही होगा और इसके लिए उसकी अनावृत देह को भी पुरूष अनावृत देह की तरह सामान्य जन की आदत में आ जाने वाली अनुत्तेजक अवस्था के स्तर पर पहुंचाना होगा । यह जरूर है कि कौन स्त्री कैसे रहना चाहती है, इसके फैसले उसके अपने होने चाहिएं। मानसिक-शारीरिक रूप से नाबालिग लड़कियों की बात छोड़ दें तो ममता कुलकर्णी या अंजलि कपूर के जीवन को तय करने वाला मैं या कोई और क्यों हो ? मानसिक बालिगपन कैसे तय हो, यह अलग से एक विचारणीय मुद्दा है ।
जहां तक पुरूष केंन्द्रित व्यवस्था का सवाल है, पुरूष कैसे प्रभु बना-इस पर बहुत कहा-सुना गया। मगर अब वह शायद इसलिए भी प्रभु है कि हमारे सामाजिक ढांचे में माता-पिता के बहुत सारे स्वार्थ जैसे वंश चलाना, कमाकर खिलाना, माँ-बाप का नाम रोशन करना, बुढापे का सहारा बनना आदि पुत्र से ही पूरे होते हैं । यह पुत्र की अस्मिता से प्रेम नहीं, बल्कि उसकी तात्कालिक/दीर्घकालिक उपयोगिता का लालच है, जो हमारे स्वार्थपरक सामाजिक,व्यक्तिगत संबंधों की कलई भी खोलता है । बदलते परिवेश में ज्यों-ज्यों स्त्रियां इस दृष्ठि से उपयोगी होती जाएंगी, मां-बाप का ‘प्यार’ स्वतः ही उन पर भी उमड़ने लगेगा । अब भी कई घरों में देखने को मिलता है कि ‘अव्यावहारिक’ व ‘नाकारा’ पुत्र उपेक्षित व अपमानित होते रहते हैं व ‘प्रैक्टीकल’ व ‘सोशल’ लड़कियों के गीत गाए जाते हैं ।
हां, उन विद्वानों-आलोचकों से बहस करना अभी भी बहुत मुश्किल है, जो विचार को बकरा मानकर कसाई की तरह एक ही ‘झटके’ में तय कर देते हैं कि कौन-सी मानसिकता विकृत है और कौन-सी ‘सुकृत’।
और यह रही ‘चोखेर बाली’ की माडरेटर, हमारी विशेष सम्मानित अतिथि सुजाता जी की उदघाटक टिप्पणी:-
संजय जी,
आपका सवाल बहुत जायज़ है लगभग वैसा ही जो गालियों पर लिखी गयी चोखेर बाली की पोस्ट्स मे था। स्त्री शरीर के डीसेक्शुअलाइज़ेशन के बारे मे एक पोस्ट राजकिशोर जी की भी पढियेगा । जैसा कि आपने लिखा भी है कि लेख 12-13 साल पुराना है, वह झलक मिलती है । अगर हम ग्लैमर की दुनिया की बात करें तो इस तरह की बातें अब गम्भीर तूफान नही उठाती, समाज मे भी एक अलहदा वर्ग है जहाँ ये बातें मायने नही रखती । स्क्रीन पर बहुत कुछ है जो कि अब हैरानी की बात नही है ।
लेकिन सोचने की बात है कि देह मुक्ति का मतलब स्त्री के लिए क्या है ? आपने लिखा:-
यह जरूर है कि कौन स्त्री कैसे रहना चाहती है , इसके फैसले उसके अपने होने चाहिएं.. सही बात है, लेकिन अभी सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या यह फैसला लेते हुए कोई स्त्री अपने समाज, संस्कृति, परम्परा, परिवेश, ट्रेनिंग वगैरह से बिलकुल निरपेक्ष होती है ?
उसके अपने फैसले जैसी टर्म दर असल धोखा है क्योंकि बहुत से कारक आपके निर्णयों को प्रभावित कर रहे होते हैं । यह स्थिति पुरुष के साथ, किसी भी समाजिक प्राणी के साथ है, दिक्कत यह है कि स्त्री के साथ बहुत गम्भीर और योजनाबद्ध तरीके से है।
हमारी बेटी क्या चाहती है इसे प्रभावित करने मे हमारी और बाहर की दुनिया की बहुत बड़ी भूमिका है । शिक्षा , औपचरिक व अनौपचारिक, की अहम भूमिका है।
जिस तरह हम जेन्डरिंग की प्रक्रिया मे बदलाव नही लायेंगे तब तक स्त्री को भी यह भ्रम रहेगा कि उसकी "मुिक्त" के मायने ममता कुलकर्नी या मल्लिका शेरावत हो जाने के रास्ते से हासिल होंगे । वह यह कैसे जान पाएगी कि वह कहाँ कहाँ सिर्फ मोहरा बन रही है और मान रही है कि वह मुक्त हो रही है। आपके लेख से भी यह भ्रम पैदा हो रहा है कि मधु सप्रे हो जाना मुक्त हो जाना है।
देह-मुक्ति क्या है स्त्री के लिए, यह एक बड़ा सवाल है । आशा है आपके इस कॉलम के माध्यम से हम सभी स्त्री मुक्ति के अन्य पहलू से परिचित हो सकेंगे ।
शुभकामनाएँ !
हाँ, आपके लेख मे और उससे पूर्व मेरी टिप्पणी मे कुछ फ़ॉंट की गलतियाँ दिखाई दे रही हैं, शायद आपके यहाँ ऐसा न दिख रहा हो।
सुजाता
मित्रों, अब आपकी बारी है(इसी दौरान मैं भी अपनी बात रखूंगा) :-
गुरुवार, 1 जनवरी 2009
ए नए साल बता
Har Taraf Khalq Ne Kyun Shoor Macha Rakha Hai
Roshni Dinn Ki Wohi, Taroo Bhari Raat Wohi
Aaj Hum Ko Nazar Aati Hai Har Baat Wohi
Aasmaan Badla Hai Afsoos, Na Badli Hai Zamein
Ek Hindsey Ka Badalna Koi Jiddat Tou Nahien
Agley Barsoun Ki Tarha Houn Ge Qareeney Tere
Kisey Maloom Nahien Barah Maheeney Tere
January, Faburary Aur March Mein ParDey Sardi
Aur April, May, June Mein Ho Gi Garmi
Apni Maiyaad Bassar Kar Kay Chalaa Jaaye Ga
Tu Naya Hai Tou Dikha Subha Nayi, Shaam Nayi
Warna Inn Aankhoun Ney Dekhey Hein Naye Saal Kayi
Be-Sabbab Daytey Hein Kyun Loog Mubaaraqbaadein
Ghaliban Bhool Gaye Waqt Ki KarDwi Yaadein
Teri Aamad Se Ghatti Ummar, Jahaan Mein Sab Ki
Faiz Ney Likhi Hai Yeh Nazam Niraaley Dhabb Ki
Poet: Faiz Ahmed Faiz-------------------------------------------------------------------------