ग़ज़ल
मज़दूर अपनी जान पे है खेल रहा तो!
धर्मात्मा भी ज्ञान अपना पेल रहा तो!
कहने को तो ज़िंदगी आज़ाद रही है
जीवन रिवाज़ों, रस्मों की इक जेल रहा तो!
गहनों के वास्ते ही जिसने ज़िंदगी दे दी
गहना ही उसकी नाक में नकेल रहा तो!
बादाम मां ने, बाप ने भिगवा के रखे हैं
लौण्डा जो ठंड में है दंड पेल रहा तो!
सुनते हैं कान होते हैं सुनने के वास्ते
दूजों को सुनना उनके लिए खेल रहा तो!
-संजय ग्रोवर Sanjay grover