शनिवार, 23 दिसंबर 2017

पत्थरों से न करो बोर किसी पागल को

 ग़ज़ल



ये शख़्स कितना पुराना है, बुहारो कोई
अभी भी चांद पे बैठा है, उतारो कोई

दिलो-दिमाग़ में उलझा है, उलझाता है
इसकी सच्चाई में सलवट है, सुधारो कोई

पत्थरों से न करो बोर किसी पागल को
सर में सर भी है अगर थोड़ा तो मारो कोई

ये तेरी ज़ुल्फ़ है, ख़म है कि है मशीन कोई
हो कोई रस्ता तो रस्ते में उतारो कोई

कभी निहारना लगता है घूरने जैसा
न कोई घूरे तो कहते हैं निहारो कोई




-संजय ग्रोवर
23-12-2017

शुक्रवार, 22 सितंबर 2017

इंसान बनाम बेईमान

पहले वे यहूदियों के लिए आए
मैं वहां नहीं मिला
क्योंकि मैं यहूदी नहीं था

फिर वे वामपंथियों के लिए आए
मैं उन्हें नहीं मिला
क्योंकि मैं वामपंथी नहीं था

वे अब संघियों के लिए आए
मैं नहीं मिला
क्योंकि मैं संघी नहीं था

वे आए मंदिरों में, मस्ज़िदों में, गुरुद्वारों में
उन्होंने कोना-कोना छान मारा
सवाल ही नहीं था कि मैं वहां होता

वे आए औरतों के लिए, मर्दों के लिए, उभयलिंगीयों के लिए 
मैं वहां होता तभी तो मिलता

मैं उन्हें ऐसी किसी जगह नहीं मिला
जहां लोग ख़ुदको ही झांसा दे रहे थे
अपने-आपसे झूठ बोल रहे थे 
दूसरों का वक़्त बरबाद करके
ख़ुदको दिलासा दे रहे थे
लोगों को ग़रीब करके 
ख़ुदको अमीर समझ रहे थे
भगवा, हरा, ब्राहमी
रंग लपेटे
ख़ुदको सादामिजाज़
बता रहे थे

वे ऐसी हर जगह पर गए
जहां उन्होंने सिर्फ़ ख़ुदको पाया


उन्हें पता ही नहीं था
कि लगातार
वे ख़ुदसे ही लड़ रहे थे

मैं तो न हिंदू था न मुसलमान न सिख न ईसाई
न किसीसे श्रेष्ठ

मैं तो बस इंसान था
हूं और रहूंगा

मैं तो बस स्वतंत्र था
हूं और रहूंगा

-संजय ग्रोवर
22-09-2017


गुरुवार, 7 सितंबर 2017

फिर ख़रीदी तुमने मेरी ई-क़िताब

ग़ज़लें

1.

फिर ख़रीदी तुमने मेरी ई-क़िताब
मुझको ख़ुदसे रश्क़ आया फिर जनाब
06-09-2017

वाह और अफ़वाह में ढूंढे है राह
मुझको तो चेहरा तेरा लगता नक़ाब

जिसने रट रक्खे बुज़ंुर्गोंवाले ख़्वाब
उसकी समझो आसमानी हर क़िताब

ख़ाप ताज़ा शक़्ल में फिर आ गई
जो है लाया उससे क्या पूछें हिसाब

फिरसे ख़ास हाथों में ख़ासे फूल हैं
उसके नीचे आम, कांटों का अज़ाब 

कौन समझेगा मैं अकसर सोचता था
तुम हो मुमक़िन वक़्त पर मुमक़िन जवाब
07-09-2017


2.


उनकी टक्कर उन्हींसे हो गई
वही बच गए, वही गिर पड़े

भीड़ थी तेरे सर में गरमी
देख कहीं अब तेरे सिर पड़े

बहुत लगाई बहुत बुझाई
ख़ुदपे आई ख़ुद ही गिर पड़े
      
मेरे संग ज़माना सारा
आंख में आंसू यूंही तिर पड़े

मैं उनसे बचना चाहता था
इस ख़ातिर वो मेरे सिर पड़े
07-09-2017


-संजय ग्रोवर


शुक्रवार, 14 जुलाई 2017

फ़ालतू

नया हास्य                                                                                                                                                                                          



एक दिन पड़ोसियों का प्रतिनिधिमंडल मुझसे मिलने आया, आ ही गया। 

बोले आप दिनभर घर पर क्यों रहते हो ?

मैंने कहा ‘क्यों, कोई दिक्क़त है ?’

बोले, ‘दिक्क़त तो बहुत है’

मैंने कहा,‘ख़ुलकर बताओ’

‘कहने लगे,‘क्योंकि हम भी पूरे दिन घर पर ही रहते हैं, कहीं आपको पता न चल जाए इस डर से न तो टीवी देख पाते हैं, न बात कर पाते हैं, न घात कर पाते हैं, न लात कर पाते हैं....वग़ैरह....

‘ओह! मैंने कहा,‘मैं भी चला जाया करुंगा’

‘कहां ?’

‘फ़ेसबुक पर’

-संजय ग्रोवर



मंगलवार, 27 जून 2017

हमीं से भीड़ बनती है हमीं पड़ जाते हैं तन्हा

ग़ज़ल


भीड़ जब ताली देती है हमारा दिल उछलता है
भीड़ जब ग़ाली देती है हमारा दम निकलता है

हमीं सब बांटते हैं भीड़ को फिर एक करते हैं
कभी नफ़रत निकलती है कभी मतलब निकलता है

हमीं से भीड़ बनती है हमीं पड़ जाते हैं तन्हा
मगर इक भीड़ में रहकर बशर ये कब समझता है

वो इक दिन चांद की चमचम के आगे ईद-करवाचौथ
मगर क्यों सालभर पीछे से इक ज़ीरो निकलता है

भीड़ जब अपनी जानिब हो, बड़ी बेदाग़ लगती है
हो अपने जैसे दूजों की तभी ये ज़हन चलता है



-संजय ग्रोवर
27-06-2017

जानिब = ओर, तरफ़, side, direction, towards, from
बशर = आदमी, व्यक्ति, मानव, a human being
ज़हन = दिमाग़, मस्तिष्क, mind, brain



रविवार, 12 मार्च 2017

महापुरुष और बड़े

व्यंग्य


महापुरुषों को मैं बचपन से ही जानने लगा था। 26 जनवरी, 15 अगस्त और अन्य ऐसेे त्यौहारों पर स्कूलों में जो मुख्य या विशेष अतिथि आते थे, हमें उन्हींको महापुरुष वगैरह मानना होता था। मुश्क़िल यह थी कि स्कूल भी घर के आसपास होते थे और मुख्य अतिथि भी हमारे आसपास के लोग होते थे। मैं अकसर उनसे बचबचाकर निकलता था। बाद में मैं यह देखकर हैरान-परेशान होता था कि इनकी पहुंच कहां-कहां तक है, स्कूल में भी पहुंच जाते हैं। इनके पीछे गांधी, पटेल, नेहरु और शास्त्री आदि के फ़ोटो टंगे रहते थे। ये लोग अहिंसा वगैरह पर भाषण देते थे। हांलांकि सड़क पर इनके सामने से निकलते हुए डर लगा रहता था कि कहीं किसी बात पर (या बिना बात पर ही) थप्पड़ न मार दें। तब मैं सोचता था कि अख़बार, रेडियो और टीवी पर जो महापुरुष दिखाते हैं, ये कुछ राष्ट्रीय स्तर के महापुरुष होते होंगे। उस वक़्त मुझे राष्ट्रीय स्तर के बारे में ठीक से पता नहीं था। अब तो मुझे हर स्तर पर सभी तरह के स्तरों का पता है कि किसी भी स्तर का किसी स्तर पर भी कोई स्तर नहीं है। 

लेकिन उस वक़्त पता होता तो मैं बड़ा कैसे होता !? तब शायद मुझे बड़ा होने से ही इंकार करना पड़ता। अब तो मैं बड़े लोगों को थोड़ा धन्यवाद भी दे सकता हूं क्योंकि मैं सबसे ज़्यादा उन्हीं की वजह से हंसता हूं। इसके अलावा कई छोटे लोग भी बड़े बनने की कोशिश में लगे रहते हैं। उनकी कोशिशें भी मज़ेदार होतीं हैं। जो संघर्ष के वक़्त इतना हंसाते हैं वो बड़ा होकर कितना हंसाएंगे। अकसर लोग बड़े होने के बाद भी मेरी उम्मीदों पर खरे उतरते हैं।   

मैं भी बड़ा बनने के चक्कर में कई बार घर से बाहर निकला। पर हर बार आधे रास्ते से ही लौट आया। क्योंकि हर बार मुझे यह लगा कि मैं कहीं जा नहीं रहा बल्कि आ रहा हूं, कहीं चढ़ नहीं रहा बल्कि गिर रहा हूं, कहीं पहुंच नहीं रहा बल्कि लौट रहा हूं। हर बार मुझे लगा कि कहीं पहुंचने के लिए अगर लौटना पड़ता है, बड़े होने के लिए अगर छोटा होना पड़ता है, तो पहुंच के करना क्या है !? लौट ही जाते हैं। 


उसके बाद मैं तरह-तरह के छोटे-बड़े लोगों से मिलने लगा। ख़ासकर जब भी मैं बड़े लोगों से मिला और बाद में उनकी हरक़तों का विश्लेषण किया (जिसमें कई साल ख़राब हो गए) तो अंततः मैंने पाया कि मैं ख़ामख़्वाह ही ख़ुदको छोटा समझता रहा, मैं तो बचपन से ही काफ़ी बेहतर था।


इसके बाद मुझमें सचमुच का आत्मविश्वास आ गया (जिसे कई लोग पागलपन भी समझ लेते हैं)। अब मैं तथाकथित छोटे लोगों की चिंता भले कर लूं पर तथाकथित बड़े की चिंता रत्तीभर भी नहीं करता। 
क्योंकि मुझे मालूम है कि ये बेचारे आत्मविश्वास और सोच की कमी व अहंकार(मैं) और हीनभावना की अधिकता की वजह से बड़े बनते हैं।  अगर आत्मविश्वास, संवेदना, समझ और नीयत ठीक हो तो आदमी को बड़ा बनने की कोई ज़रुरत ही नहीं होती। मैं इसका तर्कों, तथ्यों और उदाहरणों के साथ खुला विश्लेषण कर सकता हूं। पर ऐसा करने पर कई बड़े लोग सदमे में आ जाएंगे, उन्हें अपने बड़ेपन पर शक़ होने लगेगा। एक साथ इतने सारे लोगों को इतना बड़ा झटका देना ठीक नहीं है। हम लोग एक साथ इतने सारे सच के आदी नहीं हैं। इतने तो क्या हम तो कितने के भी आदी नहीं हैं।

इसलिए ऐसे काम मैं धीरे-धीरे करता हूं।


मुझे कौन-सा बड़ा आदमी बनना है।   


-संजय ग्रोवर
12-03-2017
प्रसिद्ध व्यक्ति से एक अनपेक्षित बातचीत )


शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2017

प्रकाशित संपादकों के लिए एक अप्रकाशित व्यंग्य

परसों जब मैं अपने ब्लॉग नास्तिक TheAtheist की अपनी एक पोस्ट ‘मनुवाद, इलीटवाद और न्याय’ के पृष्ठ पर गया तो देखा कि उसमें पाठकों के सवालों व राजेंद्र यादव के जवाबों से संबंधित लिंक काम नहीं कर रहा। क्लिक किया तो पता लगा कि संबंधित साइट देशकाल डॉट कॉम से यह स्तंभ ही ग़ायब है, मेरी अन्य कई रचनाएं भी ग़ायब हैं। एक व्यंग्य मौजूद है लेकिन उसमें से भी नाम ग़ायब है। यह मेरे साथ किसी न किसी रुप में चलता ही रहता है। इस बारे में अलग से लिखूंगा। 
बहरहाल, व्यंग्य यहां लगा रहा हूं-
17-02-2017


पिछले दिनों कुछ पत्र-पत्रिकाओं और वेबज़ीनों पर निर्देश जारी हुए हैं कि लेखकगण अपनी अप्रकाशित और मौलिक रचनाएं ही भेजें। मानाकि मौलिकता एक विवादास्पद और ग़ैरज़रुरी मसला है मगर संपादकों द्वारा अप्रकाशित रचनाओं की मांग और चाहत कोई ऐसी नयी और ह्रदय-विदारक घटना नहीं है कि लेखकजन एकदम से डरने-घबराने लगें।

दूसरी चीज़ों से ध्यान हटाने-बंटाने के लिए कुछ संपादक ऐसी शोशेबाज़ी पहले भी दिखाते रहे हैं। हां, पिछले दिनों कुछ ज़्यादा ही सख्ती देखने में आयी है ! आखिर क्यों ? जहां तक (तसलीमा जैसे मसअलों के बाद) कुछ लेखकों द्वारा अपनी ‘‘अभिव्यक्ति की क्षतिपूर्ति’’ की बात है, बात कुछ-कुछ समझ में आती है। कुछ संपादक कहते भी हैं कि मानदेय भी देंगे। कुछ देते भी हैं। फ़िर तो ठीक भी है। पैसा देंगे तो काम भी तबियत से लेंगे। क्रिकेट-खिलाड़ी तक ऐसी शर्तों के सामने ढेर हो चुके हैं। फ़िर लेखकों की तो बिसात ही क्या !


आईए, अब कुछ ऐसी चर्चाएं करें जो 99 प्रतिशत संपादकों के लिए ग़ैरज़रुरी और 20,30,40,50 प्रतिशत लेखकों (सही आंकड़ा लाना संभव नहीं और देना बुद्धिमानी न होगी) के लिए ज़रुरी हैं। एकाध प्रतिशत में राजेंद्र यादव और विष्णु नागर जैसे संपादक आते हैं जो रचना पर स्वीकृति/अस्वीकृति कई बार तो 15 ही दिन में भेज देते हैं। भारतवर्ष में दूर-दूर तक फैली संपादकीय संस्कृति को देखें तो लगता है कि इनका कोई पेंच ढीला तो नहीं है। ऐसी क्या मजबूरी है इनकी जिसके तहत जवाब तुरत-फुरत आ जाता है। बरक्स दूसरे संपादकों को देखें जो पट्ठे रचना पर निर्णय तो छोड़िए, टिकट लगा लिफाफा या पोस्टकार्ड तक वापिस नहीं भेजते। सोचता हूँ क्या करते होंगे वे इस तरह ‘‘कमाए हुए’’ लिफ़ाफ़ों का। पत्नी कीराखियां साले को भेजते होंगे चेपियां लगा-लगाकर ! आखिर 5000 साल पुरानी संस्कृति है। जिसमें पत्नी, साले, लिफाफे और त्यौहार सबकी अपनी-अपनी जगह है। पत्नियों और सालों के हालात कुछ-कुछ बदल रहे हैं। लेखकों और उनके लिफाफों का जो होगा, होगा। त्यौहार और ‘‘व्यवहार’’ नैतिकता और ईमान से ऊपर हैं ही। आदमी ‘‘व्यावहारिक’’ हो तो रोज़ त्यौहार मना सकता है।

राजेंद्र यादव और विष्णु नागर का सनाम ज़िक्र मैंने इसलिए किया कि इनकी मैंने तारीफ़ की है। और इस क्रिया से मुझे कुछ फ़ायदा होने की, धूमिल ही सही, संभावनाएं हैं। आगे जिनका अनाम ज़िक्र करुंगा अगर समझ गए तो खासा नुकसान होने की भी संभावनाएं हैं। पर व्यंग्य में न्यूनतम रिस्क तो लेना ही पड़ता है। इस पर मेरे ( काल्पनिक ) फैमिली मनोचिकित्सक का कहना है कि क्या तुम्हें न्यूनतम और अधिकतम के अर्थ और फ़र्क ठीक से मालूम हैं? उसका कहना है कि अगर मैंने कहीं उसका सनाम ज़िक्र किया तो वह मुझे पागल घोषित कर देगा। मैंने उसे बताया कि इससे उसका ही नुकसान होगा। मुझे तो वैसे भी ज़्यादातर व्यवहारिक लेखक/संपादक और नाॅन-लेखक/संपादक मन ही मन ऐसा ही मानते हैं/मानते होंगे/मानना चाहिए। इससे उल्टे तुम्हारा नाम ही लाइम, प्राइम या क्राइम-लाइट में आ जाएगा। वह समझ गया। इतना भी मनोचिकित्सक नहीं था।

जिस तरह मनोचिकित्सक मेरा नेचुरल ‘‘एलाय’’ या मित्र है उसी तरह कई संपादक लेखकों के नेचुरल ‘‘एलाय’’मित्र होते हैं। इसमें दोनों पक्षों के लिए विभिन्न प्रकार की आसानियां हो जाती हैं। मसलन कोई वरिष्ठ या कनिष्ठ लेखक बिना कोई सूचना दिए इस दुनिया को हमेशा के लिए ‘‘सी ऑफ’’ कर देता है। अब एक मित्र के पास मित्र का फ़ोन आता है (संपादक का नहीं)। ‘‘यार, रातोंरात उनपर ‘‘कुछ’’ चाहिए !’’ अब आपको तो पता है आदमी पट्ठा जन्मजात राजनीतिज्ञ है। इधर का मित्र आवाज़ कुछ ऐसी निकालता है जैसे कब्र में से बोल रहा हो, ‘‘ अब यार...इतनी रात गए....एकदम से......कड़ी परीक्षा में डाल रहे हो गुरु......’’...यार......’’, उधर का मित्र बोलता है.......‘‘पहले जो एक लिखा था इन्हीं पर.....वही भेज दो ऐन्ट्रो-शैन्ट्रो बदलकर......या फिर जो उनपर लिखा था उसी को भेज दो नाम, प्रसंग, संदर्भ..ये, वो बदलकर....’’। इधर का मित्र जो मन ही मन इसी दैव-वाक्य की प्रतीक्षा कर रहा है, ऊपर-ऊपर कहता है,.....‘‘ क्यों ग़लत काम करवाते हो गुरु........चलो तुम कहते हो तो भेज देता हूँ.....।’’ लो जी, दोस्ती के तवे पर, ऐन्ट्रो-शैन्ट्रो पलट कर, एक गरमा-गरम, अप्रकाशित लेख तैयार है। पर अब उधर के मित्र यानि संपादकजी को अपराध-बोध से उबरने के लिए कुछ जस्टीफिकेशन भी तो चाहिएं। सोचते हैं, ‘‘ अब क्या हमें पता होता है कि कोई अचानक मर जाएगा ! रहे होते 4-6 महीने खाट पर, दाखिल-वाखिल होते अस्पताल में, चर्चा-वर्चा हुई होती बीमारी की, लेखकों और सरकार की ग़ैरज़िम्मेदारी की......इस दौरान अंदाज़ा तो हो जाता ‘‘डेट ऑफ ऐक्सपायरी’’ का.........अप्रकाशित सामग्री के ढेर लगा देता........’’

ऐसे ही एक संपादक को रचना भेजी। 6 माह तक कोई जवाब नहीं। पैसा और वक्त फालतू थे। सो रीमाइंडर भी डाले। संपादकजी शायद किसी इंटरनल या बाहरी यात्रा पर थे। संपादक हैं, पचास काम होते हैं। आवारगी से लेकर लाचारगी तक ! लेखक ठहरा फ़ालतू और ग़ैर ज़िम्मेदार। रचना दूसरी जगह भेज दी। इस संपादक के पास रचनाओं की कमी रही होगी। छः महीने में ही छाप दी पट्ठे ने। एक साल बाद पहले वाले ने भी छाप दी। एक साल से सोती हुई रचना एकाएक इन संपादकजी के लिए भी प्रासंगिक हो गई। अब कल्ले लेखक क्या कल्लेगा नियम कानूनों का और संपादकों का ?!

एक बार एक मित्र ने एक जगह ग़ज़लें भेजीं। मित्र ने क्या मैंने ही भेजीं (अब डरना बंद भी करो यार)। जवाब आया हम ग़ज़ले नहीं छापते ! पर अगले अंक में ग़ज़लें तो छपी हैं ! पर किसी और की हैं। अंदाज़ा लगाया कि संपादक शायद यह लिखना भूल गया (डिसलेक्सिया !) है कि तुम्हारी जैसी ग़ज़लें नहीं छापते। या तुम्हारे गुट वालों की नहीं छापते। या तुम्हारे जैसे विचारों की नहीं छापते। वगैरह...। या फिर ये जो छपी हैं असल में ग़ज़ले नहीं हैं, प्रूफ की ग़लती से ‘‘ग़ज़लें’’ शीर्षक चला गया है। इधर कई संपादक ऐसे भी सुनने में आए हैं जो मानदेय की दबी-कुचली चाहत रखने वाले लेखकों को ऐसे देखते हैं जैसे किसी पागल को या डायनासोर को या घर के रसोईघर में सांप को देख लिया हो। ऐसे संपादकों का दर्द कई बार इन शब्दों में प्रकट होता है (होगा), ‘‘यार एक तो तीन पेज का लेख छाप दिया साले का......इतनी जगह में विज्ञापन छापते तो कितने पैसे मिलते हमें.......और ये पट्ठा है कि उल्टे पैसे मांग रहा है ....अजीब आदमी है पट्ठा ....’’

बहरहाल, इस लेख में मैंने सही मायनों में स्वतंत्र लेखकों और ग़लत मायनों में निरंकुश संपादको की बात उठाई है। अगर आप उनमें से नहीं हैं तो मान लीजिए आपने इसे पढ़ा ही नहीं है। फिर भी अगर आपकी भावनाओं को चोट पहुँची है तो जैसाकि आजकल फैशन है, आप आकर मेरे कपड़े फाड़ सकते हैं, मेरी चंदिया पर जूते बजा सकते हैं।


कमज़ोरों द्वारा गाल बजाना और कमज़ोरों पर जूते बजाना दोनों ही बातों पर हमारे यहाँ गर्व किया जाता है।


-संजय ग्रोवर
17-02-2017

बुधवार, 11 जनवरी 2017

मातम भी तो मज़ाक़ है

ग़ज़ल                                                                                                                                                              


मैं से हम होते जाओ
लूटो, मिलजुलकर खाओ

सुबह को उठ-उठकर जाओ 
शाम को चुप-चुप लौट आओ

गगन पे गुंडों का क़ब्ज़ा
तुम भी जाकर छा जाओ

ये वो थे और वो ये हैं
बुरा ढूंढकर दिखलाओ

ऊंचेपन के चक्कर में
टुच्चेपन से भर जाओ

मोहरे हैं और कठपुतली
जाओ जाकर चुन लाओ

कमज़ोरों की राह यही
बुरे को अच्छा बतलाओ

बदनामी से बचना है
नाम करो, चुप हो जाओ

आखि़र ज़िंदा दिखना है-
पहले दिन से मर जाओ 

मातम भी तो मज़ाक़ है
आओ, थोड़ा हंस जाओ

बड़ा आदमी बनना है-
नहाओ, धोओ, सो जाओ

-संजय ग्रोवर
11-01-2017



देयर वॉज़ अ स्टोर रुम या कि दरवाज़ा-ए-स्टोर रुम....

ख़ुद फंसोगे हमें भी फंसाओगे!

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ढूंढो-ढूंढो रे साजना अपने काम का मलबा.........

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