गुरुवार, 25 अक्तूबर 2012

आईने फिर अक़्स भुनाने निकले हैं


ग़ज़ल


देश को जुमलों से बहलाने निकले हैं
लगता यूं है देश बचाने निकले हैं

नाक पकड़ कर घूम रहे थे सदियों से
अंदर से जो ख़ुद पाख़ाने निकले हैं

नशा पिलाकर यारा इनका नशा उतार
ज़हन में जिनके दारुख़ाने निकले हैं

ज़िंदा लाशों की रहमत कुछ ऐसी है
चलते-फिरते मुर्दाखाने निकले हैं

बचके रहना, सामने मत इनके आना
आईने फिर अक़्स भुनाने निकले हैं

आम आदमी फिर कुछ खोने वाला है!
ख़ास आदमी फिर कुछ पाने निकले हैं


-संजय ग्रोवर


मंगलवार, 2 अक्तूबर 2012

व्यंग्य : शेरनी क्यों ‘हमें’ दूध नहीं देती !?


भैंस हमें दूध देती है।
गाय हमें दूध देती हैं।
बकरी हमें दूध देती हैं।

दूध तो देती हैं पर यह कैसे पता चलता है कि ‘हमें’ देतीं हैं !

अगर हम जबरन बांध-बूंधकर इनका दूध न निकालें तो क्या वे हमारे घर पर देने आ जाएंगीं कि अंकल, जब तक दूध नहीं लोगे, कॉल-बैल से खुर नहीं हटाऊंगी।

कया ये इंसान से भी ज़्यादा मानवीय हैं ? इंसान तो अपना दूध किसी को देता नहीं।
इंसान तो बड़ा चालू है। भैंस का दूध कुत्ते को पिला देता है। मदरडेयरी का पूजास्थल पर चढ़ा देता हैं।
कभी बचपन में किसी निबंध तक में नहीं पढ़ा कि शेरनी ‘हमें’ दूध देती है!
रीछनी ‘हमें’ दूध देती है!
भेड़ियाइन ‘हमें’ दूध देती है!

बेचारी सीधी-सादी गाय-भैंस-बकरी!
कभी किसी मीडिया मैन ने भी जाकर उनसे नहीं पूछा कि ‘माताजी, यह दूध आप किसे देती हैं!? ज़रा टेस्ट कराओ तो ‘ख़ाना-पकाना भारतवाला’ में तुम्हारी भी रैसिपी दिखा देंगे।
‘कैसा बुद्धू है, कि घाघ है रे, यहां बिना रैसिपी दिखाए ही जान के लाले पड़े हैं और ये....... गाय-भैंस सोचेंगीं।

सोचने की बात है कि गाय-भैंस-बकरी अगर दूध हमें देतीं हैं तो अपने बछड़ों और मेमनों को क्या देतीं हैं ? उन्हें क्या कैश पकड़ा देतीं हैं कि ‘बेटा ये लो 20 रु., बाज़ार से मदर डेयरी की थैली लेकर सरकंडा लगाकर चूस लेना! अपन का दूध तुपन के लायक नहीं है, इंसान को ही माफ़िक आता है।’

शेरनी का दूध इंसान को सूट नहीं करता क्या!?
यू तो वह मुर्गी के अंडे भी झट से चट कर जाता है!
कल्पना कीजिए कि एक टूटे टिन शेड के नीचे एक पतली रस्सी से एक शेरनी बंधी है। नीचे भगौना तैयार है। एक श्वाला (ग्वाले का काल्पनिक दोस्त) दूध दुहने के लिए हाथ आगे बढ़ाता है।
‘‘गगुर्रर्रर्रर्र...’’
कहां गया श्वाला? कहां गई रस्सी? कहां है दूध?

इंसान को गाय-भैंस-बकरी का दूध ही सूट करता है।


-संजय ग्रोवर

सोमवार, 1 अक्तूबर 2012

....और देश बच गया!


....और देश बच गया!
तीन दिन पहले भी बचा था। तीन दिन बाद फिर बचेगा। 47 में बचा। 77 में बचा। 2004 में बचा। 2009 में बचा। रामलीला ग्राउंड में बचा। जंतर-मंतर पे बचा।
आए दिन बचता है।
बचानेवाले बदल जाते हैं, देश वही रहता है।
बच-बचाकर काट रहा है किसी तरह।
इतनी गुज़र गयी, बाक़ी भी गुज़र जाएगी।
× × ×
लो, यह रखा है देश, आओ और बचा लो।
जो बचाएगा, उसीका हो जाएगा।
कोई भी बचा सकता है।
जिनसे इसे बचाना चाहिए, वे भी।
× × ×
भीड़ बहुत थी।
हर कोई देश बचाना चाहता था, किसी भी क़ीमत पर।
मगर देश कहीं दिखाई नहीं पड़ रहा था।
मुझे मिल गया, अंधेरे कोने में, हांफ़ता-कांपता।
‘क्या हुआ !?’
‘कुछ नहीं, बचाने वालों से बचके खड़ा हूं।’
× × ×
मांग उठ रही है कि देश को राजनेताओं से बचना चाहिए।
संशय उठ रहा है कि यह भी नज़र बचाकर की जाने वाली राजनीति है।
यहां ‘बच-बचके कबड्डी खेलना’ वाला मुहावरा याद आ सकता है।
× × ×
अगर देश न बचता तो क्या होता !
फुर्र ! छूमंतर !
क्या एकदम से उड़ जाता ? कपूर की तरह !
भाप की तरह ग़ायब हो जाता !
या उतना और वैसा फिर भी बचा रहता जितना और जैसा आज है !
क्या बचने और न बचने में कोई फ़र्क़ है या सब मन का वहम है !


-संजय ग्रोवर

रविवार, 2 सितंबर 2012

सांप्रदायिक टांगों पर धर्मनिरपेक्ष सिर!



पिछले कुछ दिनों से एक बहस को रह-रहकर सर उठाते देखता हूं। सुनने में हर मानवतावादी को यह बहुत भली दिखाई पड़ेगी। मुद्दा है कि क्या किसी ग़ैर-धर्मनरपेक्ष व्यक्ति को हमारे जैसे देश का प्रधानमंत्री होना चाहिए!? बिना हिचक कम लोग ही इसका समर्थन कर पाएंगे मगर क्या विद्वजन पर्याप्त गहराई में जा रहे हैं ? पहली बार यह बहस पूरे ज़ोर-शोर से शायद तब उठी थी जब चुनाव आडवाणी और अटलबिहारी वाजपेयी के बीच होना था। अटल जी चुन लिए गए। बहुत-से लोगों ने राहत की सांस ली। मगर यह सांस ज़्यादा देर तक नहीं चली। गोधरा हो गया। धर्मनिरपेक्ष अटल जी के होते हो गया। फ़िर गुजरात हो गया। वह भी अटल जी के होते हो गया। हिंदू-हृदय-सम्राट का उत्थान और विकास धर्मनिरपेक्ष अटल जी के होते हुआ। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि देश और समाज क्या केवल छवियों के आधार पर चलेंगे !? चल सकते हैं क्या ? अटल जी अपनी इमेज के चलते प्रधान बने मगर उस वक्त भाजपा की जीत का आधार किसने बनाया था? अच्छा था, बुरा था, गर्वनाक था कि शर्मनाक था, इसपर अलग-अलग राय हो सकती है, मगर इससे कौन इंकार कर सकता है कि यह आधार आडवाणी ने बनाया था और लोगों का मानना था कि यह सांप्रदायिकता फ़ैलाकर बनाया गया था। ऐसे में क्या अटल जी से इस नैतिकता की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए थी कि ऐसे किसी भी आधार पर बनी सरकार का मुखिया बनने से इंकार कर देते ! या फ़िर वे धर्मनिरपेक्षता पर की गयी अपनी मेहनत के बूते जीते होते! यह भी कमाल है कि उनकी छवि अंत तक धर्मनिरपेक्ष की बनी रही !!

इतने कम वक्फ़े में इतिहास ख़ुदको दोहराएगा कि नहीं, यह तो पता नहीं मगर बहसें फ़िर उसी मिजाज़ की हवा में टहल रहीं हैं। क्या यह कोई पूछने या बताने की बात है कि इस बार भी अगर भाजपा जीतती है या बड़ा दल बनती है तो किस वजह से बनेगी!? लेकिन सर पर बिठा दी जाएंगी जेटली, सुषमा या नीतिश की छवियां ! (यहां तक कि पिछली बार सांप्रदायिक और खलनायक बताए गए आडवाणी भी आज मोदी के मुक़ाबले धर्मनरपेक्ष माने जा रहे हैं!) क्या इसे न्याय या ईमानदारी कहेंगे? और छवियों के होते भी असलियत अपना काम करती रहती है, ऊपर लिख चुका हूं।

यूं आजकल अकसर यह भी पढ़ने को मिल जाता है कि कथित श्रेष्ठ जातियां कथित छोटी जातियों को अकसर इसी तरह इस्तेमाल करतीं  हैं और महत्वपूर्ण पदों पर उन्हें एक हद से आगे नहीं बढ़ने देतीं।

मेरी विशेष रुचि न तो मोदी में है न जेटली में न किसी और में, पर बहस तो सही मुद्दे पर होनी चाहिए।

-संजय ग्रोवर


बुधवार, 8 अगस्त 2012

पागल है क्या!


व्यंग्य




मानसिक रोगों का इतिहास शायद उतना पुराना तो होगा ही जितना इंसानियत, धर्म, सभ्यता, संस्कृति, नस्लवाद, वर्ण व्यवस्था आदि का है। यह तो इतिहासकार ही बता सकते हैं कि मनोरोग पहले आए या धर्मग्रंथ पहले आए। ‘ऊंच-नीच’ और ’छोटा-बडा़’ पहले आए या पागलपन पहले आया। कृपया इस सबमें मुर्गी और अंडे का संबंध न ढूंढा जाए। वरना बात वाद और धारा पर भी आ सकती है। 

अपने यहां मानसिक रोगों को लेकर समाज का रवैय्या काफ़ी उदार रहा है। मैं बचपन से ही देखता आया हूं कि जिन लोगों से किसी बदमाश या बेईमान का बाल भी बांका नहीं हो पा़ता, सड़क पर बाल बिखराए घूमती किसी पगली औरत के कपड़े खींचने में पूरी वीरता के साथ संकोच नहीं करते। एक बार एक ऐसे ही सामूहिक-चीत्कार के दौरान एक विदेशी ने पूछा, ‘हू इज़ मैड? दिस वुमॅन ऑर द मॉब?’ मैं छोटा था, मैंने सोचा कि विदेशी पागल है, फ़ालतू सवाल पूछ रहा है! बाद में मैंने देखा कि यहां पागलपन इतना बड़ा पागलपन नहीं है जितना उसके बारे में गंभीरता से बात करना। आप किसीसे कहके देखिए कि ‘यार मनोचिकित्सक के पास जा रहा हूं या वहां से आ रहा हूं’ या ‘कई महीनों से डिप्रेशन है’ या ‘यार, मुझे फ़लां चीज़ से फ़ोबिया है’ बस....ऐसा आदमी जिसकी मामूली और जेनुइन बातों पर भी समाज का विरोध करने में टट्टी निकलती है, एकदम क्रांतिकारियों वाली मुद्रा में आ जाएगा कि ‘बेट्टा! अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे’। बुद्धिजीवी या समाजसेवी क़िस्म का आदमी हुआ तो छुपाएगा और हमदर्दी जताएगा। मगर आप भी बेशर्मी से उसकी आंखों में झांकिए, आप पाएंगे कि वहां ख़ुशी का समंदर ठाठें मार रहा है और एक पत्थरमार बड़ी तेज़ी से पत्थर इकट्ठे कर रहा है। वह हड़बड़ी में है क्योंकि उसे जाकर ये पत्थर आपके और अपने दोस्तों में भी बांटने हैं।

शायद यह उदारवादी समाजों की ही ख़ासियत होती होगी कि एक बड़ा पागल जो अपने पागलपन को लेकर बिलकुल बेहोश है, न सिर्फ़ एक सफ़ल और ‘स्वस्थ’ ज़िंदगी गुज़ार सकता है बल्कि छोटे मगर अपने पागलपन को लेकर होशमंद पागलों को बड़ा पागल घोषित करके निर्विकार भाव से उनका ख़ून भी चूस सकता है। यह एक सहिष्णु और सर्वोदयी समाज में ही संभव है कि अधिकांश बुद्धिजीवी मनोरोगी को लगभग उसी नज़रिए से देखता है जैसे गांव का ओझा डायन घोषित कर दी गयी औरत को। इतना फ़र्क ज़रूर है कि ज़्यादा सयाना ओझा भी झाड़-फूंक पर पत्रिका या विशेषांक नहीं निकालता। यह अलग बात है कि शहरी बुद्धिजीवी को मनोरोग और मनोचिकित्सा पर पत्रिका निकालने का साहस और प्रेरणा भी परंपरा और पुराने ग्रंथों से मिलते हैं। बाज दफ़ा लगता है कि यह समाज सोचने से डर कर भागे हुए लोगों का चिंतन शिविर है।

पीले पड़ गए पन्नों वाला वह ‘हंस’ मेरे घर में आज भी कहीं पड़ा होगा जिसके ‘आत्म तर्पण’ नामक स्तम्भ में उदयप्रकाश नाम के लेखक ने अपने मनोरोग का भी ज़िक्र किया था। मैंने तब भी सोचा था कि यह आदमी वाक़ई पागल है। यहां एक से एक धुरंधर बैठे हैं और यह अपनी छोटी-मोटी उपलब्धियों का ज़िक्र कर रहा है। क्या जीते-जी अपने आस-पास पत्थरों का मकबरा बनवाना चाहता है ! पोंगा-प्रगतिशीलों और बरसाती-बौद्धिकों के देश में यह कौन-सा राग छेड़ रहा है!? कुछ वक्त बाद इसीकी ख़ुदकी दी जानकारियों को कई महापराक्रमी और पुरुषार्थी ऐसे पेश करेंगे जैसे ब्रह्मांड की खुदाई करके किसी रहस्य का मौलिक उत्तर खोज लाए हैं। वही हुआ। मगर आरोपों, आक्षेपों और अफ़वाहों के पत्थर खा-खाकर भी वह पागलों का प्रिय लेखक बन गया।

कई बार तो ऐसा लगता है कि सामाजिकता के सारे नियम और लक्षण पागलों ने तय किए हैं। अगर आपको एक स्वस्थ मस्तिष्क का व्यक्ति कहलाना है तो सब कुछ तयशुदा मान्यताओं और परिभाषाओं के दायरे में करना होगा। यहां तक कि चिंतन के लिए भी खांचे और ढांचे तय हैं। कोई ऐसी बात जो पहले किसीने सोची नहीं या सोची तो बोलने-लिखने की हिम्मत नहीं की, आपने अगर लिख-बोल दी तो फ़िर देखिए तमाशा! प्रगतिशील से प्रगतिशील भी लट्ठ लेकर आपके पीछे दौड़ेगा, आपको पागल घोषित करेगा। कई बार लगता है कि कथित स्वस्थ व्यक्ति वह होता है जिसे परिभाषा रूपी पापा और मान्यता रूपी मम्मी ताउम्र गोद में उठाकर हल्की-हल्की सीटी बजाकर सुस्सू कराया करतीं हैं। उन्हें पता है कि ज़रा हम इधर-उधर हुए नहीं कि यह ग़लत जगह गंदगी मचा देगा। यह कभी मेच्योर ही नहीं होता। किसीको मारकस मामा बताया करते हैं कि बाएं हाथ कैसे चलना है तो किसी को गोलमोलकर चाचा निर्देशित करते हैं कि दाहिनी ओर चलने के क्या फ़ायदे हैं। ज़िंदगी क्या है कि बस धर्मों, वादों, गुटों, राष्ट्रों, सभ्यताओं, संस्कृतियों, मर्यादाओं, परिभाषाओं जैसी छोटी-बड़ी ख़ापों का जोड़ है। शादी-ब्याह जैसे बड़े मुद्दे तो छोड़िए, वृहत्तर समाज को छोड़िए, अगर किसी परिवार में दही और दाल साथ-साथ खाने चलन नहीं है मगर अचानक एक दिन घर का कोई सदस्य दाल के साथ दही खाना शुरू कर देता है तो यह लगभग असंभव है कि घर के बाक़ी सदस्य उसे उस नज़र से न देखें जिससे किसी पागल को देखा जाता है। 

आप सोचते होंगे कि पागलपन पर इतनी गंभीरता से लिख रहा यह आदमी भी छोटा-मोटा पागल होगा।
मैं कहूंगा छोटा और मोटा को जोड़ लीजिए।
-संजय ग्रोवर


गुरुवार, 2 अगस्त 2012

मुझको कुछ-कुछ गणित लगा..


ग़ज़ल

जो भी था सब अभिनय था
सब कुछ पहले से तय था


ख़ुद समझा हो, काफ़ी है
जो भी उसका आशय था


नीयत भी कुछ साफ़ न थी
भावुक भी वो अतिशय था


मुझको कुछ-कुछ गणित लगा
वो कहता है परिणय था



हम उसका करते भी क्या
उसको तो ख़ुदसे भय था



-संजय ग्रोवर

गुरुवार, 28 जून 2012

इमेज बड़ी चीज़ है, मुंह ढंक के सोईए


लघु-व्यंग्य-कथा 





सुनो रिश्ता भेजा है उन्होंने, कह रहे हैं लड़के ने जो किया उसपर बड़े शर्मिंदा हैं, एक मौका दे दो पाप धोने का....

अजी, थोड़ी शर्म तो करो कहते हुए ! उसी कमीने बलात्कारी से शादी !!
कह रहे हैं छोटे से नही ंतो बड़े से कर दो, कुछ तो प्रायश्चित होगा...

एक ही ख़ानदान के हैं कमीने। उनमें क्या फ़र्क़ होना है !?

नहीं, नहीं, बड़ा काफ़ी उदारवादी स्वभाव का है। मेरा पुराना मिलना-जुलना है उससे।

ऐसी क्या उदारता दिख गयी तुम्हे उसमें ?

अरे बड़ा समझदार है, कहता है बलात्कार तो मूर्ख करते हैं, मेरे पास तो औरतें ख़ुद चलके आतीं हैं....

मतलब !? अजीब ही बात बता रहे हो आप तो ! पीछे एक रिश्ता आया था, लड़का कहता था जब मैं लोगों को अहिंसक तरीके से डराकर अपने काम निकाल सकता हूं तो मुझे हिंसा करने की क्या ज़रुरत ?

अरे नहीं, बड़ा सयाना है बड़ा भाई। सभ्यता, सुशीलता, व्यवहारिकता सब अच्छे से समझता है। कहता है कि देखिए साहब, एक आदमी रात में किसीके घर में घुसता है सामान चुराने, तो वह चोर या डाकू कहलाता है। वही आदमी अगर थोड़ा धैर्य धारण करना सीख ले, ज़रा-सी वाक्पटुता सीख ले, लोगों में किसी तरह यह विश्वास पैदा कर दे कि वह उनके सारे सही-ग़लत काम पलक झपकते करवा सकता है, और बाबाजी बनके कहीं डेरा जमा ले तो लोग तो ख़ुद ही भागे चले आते हैं अपने-आपको ठगवाने के लिए।

मेरे पल्ले ना पड़ रही आज आपकी बातें।

अगले की इमेज ऐसी है कि औरतें मक्खियों सी भिनकती हैं। पूरे दिन काम आता है औरतों के। बता रहा था कि कई दफ़ा कई औरतों के कई काम इसी छोटे भाई से करा देता हूं। न छोटे को पता लगने देता हूं न औरतों को। मुझे लगा कि ऐसा कहते समय एक आंख भी दबाई थी उसने...

लगा क्या, दबाई ही होगी ?

अरे पता नहीं, ईश्वर ने चेहरा-मोहरा कुछ ऐसा रचा है अगले का कि पता ही नहीं चलता दबाई कि नहीं दबाई....

कैसा गोल-मोल कर रहे हो मामले को ! दोनों भाईयों का चरित्तर तो फिर एक जैसा ही हुआ ना ?

इमेज तो अलग-अलग है ना। चरित्तर को कौन पूछता है ? देखा नहीं कैसे राधेलाल दस साल अपने पल्ले से लगाके चुपचाप औरतों के लिए काम करता रहा। एक दिन उसीकी बचाई चार औरते अपने उत्पीड़कों के साथ हो गयीं और राधेलाल को झूठा फंसा दिया....

कोई मजबूरी रही होगी औरतों की ! शायद किसीने डराया हो ? औरतों को तो समाज के साथ चलना होता है, तीज-त्यौहार, रीति-रिवाज करने होते हैं। सभी राधेलाल की तरह सब कुछ छोड़-छाडके तो नहीं रह सकते ना.....

जो भी हो, जब राधेलाल सब तरफ़ से हार गया, कोई समझनेवाला नहीं मिला तो एक दिन धैर्य खो बैठा और बहसबाज़ी के दौरान गर्मा-गर्मी में उनमें से एक पर हाथ छोड़ बैठा। अब कौन पूछता है उसके दस साल के चरित्तर को ? अब तो हर कोई कहता है, देखो जा रहा है औरतों का दुश्मन, हत्यारा, शोषक......अब इमेज तो गयी न उसकी ! चरित्तर को लेके चाटेगा अब ?

लोग इतने ही मूर्ख होते हैं क्या !?

मूर्ख ही नहीं, कई शातिर भी होते हैं उनमें। एक तीर से दो शिकार करते हैं। एक तरफ़ राधेलाल की इमेज का कुंडा हुआ दूसरी तरफ़ इसी उदाहण का उपयोग औरतों की इमेज ख़राब करने में भी कर रहे हैं कि देखो कैसी अहसान फ़रामोश होतीं हैं औरतें, अपनी मदद करनेवाले राधेलाल की क्या दुर्गति कर दी...



तो जनाब बहस जारी है। इंटरनेट पर, अख़बारों में, टी.वी. चैनलों पर......
शादी चाहे आक्रामक बलात्कारी से हो या उदारवादी आखेटक से, एक बात पक्की है कि अगर यहां रिश्ता होता है तो लड़की जाएगी उसी घर में और झेलेगी भी दोनों भाईयों को।
क्या कहा ? कोई और घर !
फ़िर आप ही कहते हैं कि सब घर उसीके बनाए हुए हैं!


-संजय ग्रोवर


सोमवार, 25 जून 2012

दवाईयां और बधाईयां


प्रतिष्ठा
मर्दाना और जनाना
दोनों तरह की कमज़ोरियों को
दूर करती है

पुरस्कार
खोयी हुई जवानी वापस लाते हैं

देखिए इस अखाड़े में
भांति-भांति के विद्रोही
नाना प्रकार की कसरतें कर रहे हैं

अभी गुरु लोग देने वाले हैं इन्हें
दीक्षा
कि कहां से कहां तक करना है विद्रोह
हमारी बताई लकीरों से इधर-उधर हुए तो
न तो कोई तुम्हे अख़बार में परसेगा
न चैनल पर जिमाएगा

हमारी मानोगे तो
जगह-जगह, तरह-तरह से
अडजस्ट करते हुए भी विद्रोही कहाओगे
ठीक वैसे ही जैसे
लौंडेबाज़ी करते हुए भी
ब्रहमचारी कहाते हैं पेलवान

हां हां क्यों नहीं
कैरियराकुल क्रांतिकारी तो पहले ही माने बैठे हैं
उन्हें तो बनना ही है विश्वसनीय विद्रोही
सामाजिक-मान्यता-प्राप्त-आवारा

उन्होंने देख ही लिया है
किस तरह टी.वी. का ऐंकर
हज़ारों साल पुराने विचारों में लिथड़े
लकड़बग्घों को
विस्फ़ोटक स्वर में
अनऑर्थोडॉक्स घोषित करता है

छोड़ो भी यार
तुम तो पीछे ही पड़ जाते हो
आधी ज़िंदगी तो तुम भी
इन्हीं खोखलों को ठोस मानते रहे
कमज़ोरों को बताते रहे ताक़तवर
इनकी तथाकथित उपलब्धियों से घबराकर
अपराध बोध में जलते रहे
अब ख़ुश होवो कि
वक्त रहते पता चल गया
एक के सर पर चढ़कर ही
दूसरा बड़ा कहलाता है

इधर कैरियर बनता है
उधर बग़ावत पूरी होती है

बधाई हो श्रीमान/मति/पति/सती इत्यादि
अब आप सेहतमंद हो गए हैं

-संजय ग्रोवर

गुरुवार, 12 अप्रैल 2012

आंदोलनों और युवाओं पर बेमन से एक व्यंग्य



आपने कभी आंदोलन किया ? करना चाहिए। आज-कल आंदोलन न करने वालों को समाज अच्छी नज़र से नहीं देखता। लोग मानने लगे हैं कि आंदोलन करने से समाज बदलता है। देश बदलता है। कहते हैं कि आज का युवा भ्रष्टाचार के खि़लाफ़ हर आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेता है। हमारे युवा आज भी बहुत अनुशासित और सुसंस्कृत हैं। मुझे भी बात जंची। मैंने देखा कि आंदोलन को लेकर युवा एक साल तक वही दस-पांच सवाल नेताओं से पूछते रहे जो 10-5 आंदोलनकारी या 100-50 मीडियाकर्मी पूछ रहे थे। युवा इतने अनुशासित और संस्कार-बंद हैं कि उनके पास अपने सवाल तक नहीं हैं। सबसे ज़्यादा आशा उन युवाओं को देखकर बंधती थी जो बिना ड्राफ्ट पढ़े ही ‘मैं भी फ़लाना, तू भी ढिकाना’ मार्का नारों पर गला फ़ाड़ रहे थे। ऐसे ही युवा हर आंदोलन की जान होते हैं। सोचने-समझने वाले लोग आंदोलनों की गति को धीमा करते हैं। ले-देकर इन युवाओं के पास एक ही सवाल था जो कि ख़ुदबख़ुद जवाब भी था-लोकपाल कब आएगा ? मैं समझता था कि चमत्कार की आशा में सिर्फ़ बुज़ुर्ग और अनपढ़ लोग ही मरते हैं पर मैं ग़लत साबित हुआ। यहां आंदोलनकारी जिस तरह के चमत्कार दिखा रहे थे उन्हें निराकार और अंधविश्वासपूरक चमत्कार कहा जा सकता है। आंदोलन के केंद्रीय पात्र एक बुज़ुर्ग सज्जन बीच-बीच में दोहराते थे, ‘मेरे पीछे भगवान खड़ा है।’ अगर  वहां कोई सोचने वाला होता तो सोचता कि इतने सालों से भगवान किसके पीछे खड़ा था! अभी फिर भगवान तुम्हारे पीछे से हट गया तो क्या होगा!
बहरहाल आंदोलन-प्रमुख का कहना था कि युवाओं से उन्हें शक्ति मिलती है। इधर युवाओं को भी उनसे शक्ति मिल रही थी। यह म्युचुअल अंडरस्टैडिंग का मामला है, इसमें मेरा कोई हाथ नहीं है। मेरे साथ समस्या यह है कि मैं आंकड़ों को देखकर नहीं आदमी को देखकर राय बनाता हूं। आंदोलनकारियों के आंकड़ों को देखें तो 121 करोड़ लोग भ्रष्टाचार के खि़लाफ़ हैं (जो कि अगली बार 242 करोड़ भी हो सकते हैं) और एक-एक आदमी को देखें तो लगता है कि सारे भारत की खुदाई कराई जाए तो ज़रुर 10-5 छंटाक ईमानदारी एकत्र की जा सकती है। इनके और लेटेस्ट आंकड़े देखें तो लगता है कि इस देश में 15 आईपीऐसों और दस आरटीआई ऐक्टीविस्टों के अलावा और कोई भ्रष्टाचार से लड़ते हुए मरा ही नहीं। भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए इन महाशयों की हट्टी पर रजिस्ट्रेशन और मीडिया से मुंहदिखाई लेना ज़रुरी है। वरना आपकी लड़ाई सनक है, पागलपन है। युवाओं की हरकतें देखें तो लगता है कि ख़ुद मेरे ही अंदर ईमानदारी पहचानने की तमीज़ ख़त्म हो गयी है। एक युवा सड़क पर झाड़ की आड़ में मूत रहा है। मोबाइल बजता है। युवा तुरंत कहता है, ‘अभी बात करता हूं, ज़रुरी मीटिंग में हूं।’ युवा कहीं भी हो अकसर मीटिंग में होता है। बदलाव जब पूरा आ जाएगा तो वह शायद यह कहेगा, ‘‘जस्ट वेट, एक ज़रुरी आंदोलन में हूं।’’ इधर कई ईमानदार लड़कियां भी एक साथ दस-दस लड़कों को अटकाये रखतीं हैं साथ-साथ प्री-शादी करवाचौथ भी सेलिब्रेट करती रहतीं हैं। धर्म और ईमानदारी का यह अद्भुत कंबीनेशन है।
युवाओं की ईमानदारी में इन दिनों काफ़ी विविधता आ गयी है। लोन ले-लेकर ग़ैर-ज़रुरी सामान ख़रीदना, दुकानदारों के पैसे मारने की ताक में रहना, ट्रैफ़िक कांस्टेबल को जुर्माना देने के बजाय कैश थमाना जैसी ईमानदारी की पचासियों मिसालें रोज़ क़ायम हो रहीं हैं। हमारे युवाओं के अनुसार उनकी इन सब ईमानदारियों के लिए राजनेता जिम्मेदार हैं। यह निष्कर्ष ईमानदारी के कौन-से फ़ॉर्मूले से निकला है यह तो पता नहीं लेकिन इससे एक बात और पक्की होती है कि हमारा युवा ईमानदार के साथ-साथ ज़िम्मेदार भी कितना है! इस तरह के ईमानदार युवाओं से इस तरह के ईमानदार आंदोलनों को एक ख़ास क़िस्म की उम्मीदें बंधतीं होंगीं, बंधनी भी चाहिए।  
मैंने जब आंदोलन की पहली इनिंग्स की ओपनिंग देखी तो यही सोच-सोचकर पगलाता रहा कि कौन-सी महाशक्ति ने किस रास्ते से कैसा इंजेक्शन दे दिया है कि रातों-रात सारा मीडिया नहा-धोकर ईमानदार हो गया!? उसी इंजेक्शन का एक-एक डोज़ चुपके-से नेता और जनता को भी दिलवा दो, सारा लफ़ड़ा ही ख़त्म। काहे इतना नाच-गाना करना जिसे आंदोलन का नाम देना पड़े। कई बार तो लगा कि यह हिंदी और अंग्रेजी में साथ-साथ बनने वाली देश की पहली ऐसी फ़ीचर फ़िल्म है जिसकी शूटिंग में सारा देश इनवाइटेड है। इसीके समानांतर मीडिया द्वारा प्रज्वलित एक और बाबा एक और इंजेक्शन लेकर घूम रहे हैं। उनका नुस्ख़ा है कि विदेशों में जमा काला धन जब तक देश में वापसी नहीं करेगा, देश अपनी टांगों पर खड़ा नहीं हो पाएगा। इनकी और इनके भक्तों की करतूतें और आंकड़े देखें तो लगता है कि इन्हें भी उन्हीं विदेशी बैंकों की उन्हीं ब्रांचों में जमा करा देना चाहिए। जोड़ी अच्छी जमेगी।                                              
मैं बार-बार ईमानदारी को देखता हूं फ़िर युवाओं को देखता हूं फिर आंदोलनों को देखता हूं।  मुझे या तो ईमानदारी को लेकर अपनी सोच बदलनी चाहिए या फिर युवाओं को लेकर। युवाओं को देखकर मुझे समझ में आता है कि ईमानदारी का मतलब है जिम में जाना, अच्छे ब्रांडेड कपड़े पहनना, घर को सुंदर-साफ़-सुथरा रखना भले वह दूसरे की ज़मीन हथिया कर बनाया गया हो, अपना कूड़ा दूसरों के घर पर फ़ेंक देना, आंदोलनों में जाकर नारे लगाना, मुंह पर टैटू बनवाना, टी वी पर दिखने के लिए मुंह पर ईमानदारी की लिपस्टिक मल लेना और बालों को मीडिया-प्रदत्त क्रीम लगाकर विद्रोही कांटो जैसा खड़ा कर लेना, अपनी रचना छपवाने के लिए कुछ भी या सब कुछ या जो भी करने के लिए तैयार रहना (रचना पढ़ो तो लगे इससे बड़ा विद्रोही कोई नहीं है और छपाने के तौर-तरीके देखो तो लगे कि इतना बढ़िया छछूंदर कोई पैदा ही नहीं हुआ) और आंदोलनकारियों द्वारा बांटे गए सवाल पूछना और अपने को छोड़कर दूसरों ख़ासकर नेताओं से ईमानदारी की उम्मीद रखना और लोकपाल नामक किसी चमत्कारी जड़ी-बूटी को हर बीमारी की दवा मानना। लोकपाल कब आएगा, लोकपाल कब आएगा, ऐसा रटते रहना। कोई इस देश के आदमी से पूछे कि बेईमानी शुरु करने के लिए भी तुमने किसी क़ानून का इंतज़ार किया था जो ईमानदारी शुरु करने के लिए अहिल्या की तरह लोकपाल की राह में पलक-पांवड़े बिछाए बैठे हो !? माफ़ कीजिएगा (या नहीं कीजिएगा तो मत कीजिएगा) ये निष्कर्ष मैंने बिना किसी सर्वे के ही निकाल लिए हैं। बिना सर्वे के ही मुझे यह भी मालूम है कि सर्वे हुआ तो युवा वो तो बोलेगा नहीं जो वो ख़ुद करता है। ईमानदारी कोई सैक्स तो है नहीं कि युवा अति उत्साह में ही थोड़ा-बहुत सच बोल बैठे। इस तरह मैं मान लेता हं कि युवा ईमानदार है। क्यों कि सारा मामला ही मानने और न मानने पर टिका है। जैसे कई लोग मानते हैं कि हवन से वातावरण शुद्ध होता है उसी तरह बहुत से मानते हैं कि आंदोलनों से समाज बदलता है। हमारे यहां भी कुछेक बार हवन हुआ। उसके बाद भी घर पर चूहों, कॉकरोचों, मकड़ियों की संख्या ज्यों की त्यों रही। पर चूंकि हमने मान रक्खा था कि शुद्धि होती है इसलिए हमें चूहे, कॉकरोंच और छिपकलियां भी खिले-खिले और धुले-धुले से लगने लगे। वैसे भी आज-कल पॉज़ीटिव थिंकिंग पर बड़ा ज़ोर है। ऐसे-ऐसे युवा बाबा और बाबा युवा मार्केट में आ गए हैं जो फुटपाथ पर मरते नंगे आदमी से भी पॉज़ीटिव थिंकिंग करा लें।
कई लोग यह भी कहते हैं कि आंदोलनों से आदमी के भीतर की आग बनी रहती है। बात में दम है। मैं जब किसी ईमानदारी के आंदोलन में उन बेईमानों और चोट्टों जो हमेशा ईमानदारों का मज़ाक उड़ाते हैं, को बरातियों की तरह नाचते देखता हूं तो मेरे तन-बदन में आग लग जाती है। आग क्या मुझे तो मिर्ची भी लगती है। सुनते हैं हर आंदोलन कुछ न कुछ देकर जाता है। यह आंदोलन भी, एक नामवर-सुसभ्य आलोचक की भाषा से काम लूं तो, हमें कुछ लौंडे-लौंडिया देकर गया। जितना टाइम इलैक्ट्रॉनिक मीडिया बाबा लोगों को अच्छी-ख़ासी रक़म लेकर देता है, लौंडों को फ्री में दे रहा है। अब बाबा और लौंडे मिलकर प्रवचन कर रहे हैं।
आलोचक से याद आया कि इनमें से कई आज भी धोती पहनते हैं। इसमें पाजामा या पतलूून से कई गुना ज़्यादा कपड़ा लगता होगा मगर फिर भी यह टांगों को पूरा नहीं ढंक पाती। लेकिन इसमें परंपरा, सभ्यता, संस्कृति वगैरह बची रहती हैं।
बात वही है कि सारी बात मानने, न मानने पर टिकी है।


-संजय ग्रोवर

रविवार, 25 मार्च 2012

बस विचार के इक-दो फंदे ..


ग़ज़ल


बस विचार के इक-दो फंदे डालेगा
भाषा से वो पूरा स्वेटर बुन देगा


चित्त-पट्ट में बिल्ली का क्या बिगड़ेगा
चूहा-दौड़ में चूहे का दम निकलेगा


जब मंथन करने वाले ज़हरीले हों
अमृत निकलेगा भी तो क्या कर लेगा


ईमां की भी दुक्कानें खुल जाएंगीं
बेचने वाला हर इक शय को बेचेगा


घर-दफ़्तर में वो जो सोया रहता है
मिला जो मौक़ा, भीड़ में घुसकर नाचेगा


इन सारे लोगों को मैं पहचानता हूं
नयी शक्ल में अक्ल का मेला निकलेगा


गर मंथन करने वाला ज़हरीला है
ज़हर निकालेगा और अमृत कह देगा


यह सवाल और वह सवाल पूछेगा तुमसे
तुम पूछोगे तो वो उठकर चल देगा


इसे काटने वाले जाने किधर गए
वक्त हमें भी चुपके-चुपके काटेगा

-संजय ग्रोवर


बुधवार, 29 फ़रवरी 2012

कि शायर अपनी बरबादी से ही आबाद होते हैं


ग़ज़ल

मिले हमको ख़ुशी तो हम बड़े नाशाद होते हैं
कि शायर अपनी बरबादी से ही आबाद होते हैं


ये सच्चाई का पारस इस तरह चीज़ें बदलता है
तुम्हारे संग मेरी ज़द में आकर दाद होते हैं


दिखे जो मस्लहत तो पल में सब कुछ भूल जाते हैं
वो जिनको ज़िंदगी के सब पहाड़े याद होते हैं


किसी दिन तुम ख़ुदी को, ख़ुदसे पीछे छोड़ जाते हो
वो सब जो तुमसे आगे थे, तुम्हारे बाद होते हैं


वो गिन-गिनकर मेरी नाक़ामियों को याद करते हैं
मुझे उनके तरक्क़ी के तरीक़े याद होते हैं


-संजय ग्रोवर


नाशाद= दुखी, संग=पत्थर, ज़द=दायरा, पहुंच, रेंज, मस्लहत=फ़ायदा,

(हांलांकि अलग़-अलग़ डिक्शनरियों में ज़द शब्द के अलग़-अलग़ अर्थ जैसे चुगना, चोट, प्रहार-सीमा, लक्ष्य आदि दिए गए हैं मगर जब आप वाक्य-प्रयोग देखेंगे तो वही अर्थ ज़्यादा नज़दीक पाएंगे जो ऊपर दिए गए हैं।)

देयर वॉज़ अ स्टोर रुम या कि दरवाज़ा-ए-स्टोर रुम....

ख़ुद फंसोगे हमें भी फंसाओगे!

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ढूंढो-ढूंढो रे साजना अपने काम का मलबा.........

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