गुरुवार, 4 दिसंबर 2014

आईने भी हिंदू-मुस्लिम-ब्राहमनवादी निकले रे

ग़ज़ल

अपने हक़ में अक्स बदल देने के आदी निकले रे
आईने भी हिंदू-मुस्लिम-ब्राहमनवादी निकले रे

जिनका मक़सद-ए-आज़ादी था औरों की ग़ुलामी
वही बारहा बनके मसीहा-ए-आज़ादी निकले रे

ज़ालिम ने मज़लूमों को हर तरह से यूं बेदख़ल किया
उनका हक़ भी ख़ुद लेने को बन फ़रियादी निकले रे

भरम को जिनने कहा हक़ीक़त, छोटेपन को ऊंचाई
वो रंगीन-मिज़ाज, ओढ़कर शक़्लें सादी, निकले रे

पहले क्या-क्या होता होगा, लोगों ने कुछ यूं जाना
जिनको आंदोलन समझा, सब कूदा-फ़ांदी निकले रे


-संजय ग्रोवर

04-12-2014

मंगलवार, 16 सितंबर 2014

पैंतरे

छोटी कहानी


जंगल में सब ठीक-ठाक चल रहा था।
शेर बकरियों को खा रहे थे। हिरनों को खा रहे थे। जो भी खाने का मन हो, खाए जा रहे थे।
भेड़िए भेड़ों को चबा रहे थे।
मतलब शांति ही शांति थी, अनेकता में एकता थी।
एकाएक पता नहीं क्या हवा चली!
एक बकरी ने शेर का हाथ पकड़ लिया,‘‘बहुत हुआ, अब तुम मुझे नहीं खा सकते.’’
शेर पहले तो एकदम सकपका गया, उसे लगा कुछ प्रकृति-विरुद्ध हो रहा है। जंगल के धर्म के विरुद्ध कुछ हो रहा है।
उसने ज़ोर-ज़बरदस्ती की कोशिश जारी रखी।
‘यह नहीं चलेगा’....
शेर ने मुड़कर देखा ; पीछे एक और बकरी खड़ी थी।
‘जानवर जानवर को कैसे खा सकता है!‘ सामने से कुछ भेड़ें आ रहीं थीं।
और फ़िर ख़रगोश.....फ़िर हिरन....फ़िर दूसरे निरीह जानवर और पक्षी.....
‘‘यह नहीं चलेगा, नहीं चलेगा.....’’
शेर चकरा गया। यह तो उसने कभी सोचा ही नहीं था।
थोड़ा घबरा भी गया....
‘तुम सबको हुआ क्या है..... पहली बार उसकी आवाज़ में नरमी देखी गई, ‘‘आओ बैठकर बात कर लेते हैं’.....पहली बार उसे तर्क की ज़रुरत महसूस हुई।
‘‘कैसी निगेटिव बातें कर रहे हो आज तुम लोग!? अगर मैं तुम्हे नहीं खाऊंगा तो सृष्टि कैसे चलेगी, जंगल कैसे चलेगा?’’ उसने दलील रखी।
‘‘जंगल आप चला रहें हैं ? लगता आपको कुछ ग़लतफ़हमी हुई है! बाई द वे आप क्या करते हैं जंगल को चलाने के लिए?’’ एक छोटे-से मेमने ने पूछा।
‘‘हर्रामज़ा.....! इसकी इतनी हिम्मत!!‘‘शेर के तनबदन में आग़ लग गई, ‘‘बहुत अच्छा सवाल उठाया तुमने’’ प्रकटतः उसने कहा।
‘‘एक जानवर दूसरे को खाए यह कौन-सा धर्म है?‘‘एक ख़रगोश बोला।
‘‘कल तक मेरे सामने मूतता था मगर आज....यह इन सबको हुआ क्या है!...‘‘वैरी गुड, इंटेलीजेंट क्वेश्चन....ऊपर-ऊपर उसने कहा,‘‘फ़िर मैं खाऊंगा क्या....क्या मैं भूखा मरुंगा....
‘‘हमें क्या पता क्या खाओगे, तुमने कब हमारे खाने की चिंता की?,’’ एक छोटी भेड़ ने पूछ लिया।
‘‘तुम्हें मालूम है जंगल में शहर से कुछ आदमी आते हैं जो तुम्हे पकड़-पकड़कर ले जाते हैं, मैं मर गया तो उनसे तुम्हे कौन बचाएगा?’’शेर ने पैंतरा फेंका।
‘‘वो तो तुम्हे भी पकड़कर ले जाते हैं। जाने कितने भालू-चीते उन्होंने पिंजरों में बंद कर रखे हैं’’,,ऊपर पेड़ पर एक छोटा बंदर लटका था ; वही बोल रहा था,‘‘क्या मज़ाक़ कर रहे हो अंकल?’’
शेर ने पहली बार अपने बदन पर पसीना महसूस किया,‘‘ठीक है, मुझे थोड़ा वक्त दो.....तुम भी सोच लो हम भी सोच लें....आज मैं तुम्हारे लिए भूखा रहूंगा...तुम्हारे लिए ही सोचूंगा.....रात बहुत हो गई है, अब तुम जाओ......’’


दूसरे दिन जंगल के जानवरों ने देखा कि जंगल के बीचोंबीच एक स्टेज बना है जिसपर शेर, चीता, भालू, भेड़िए, सांप जैसे हिंसक और ख़तरनाक जानवर शांत मुद्रा में बैठे हैं। तरह-तरह के बैनर लगे हैं जिनपर क़िस्म-क़िस्म के नारे लिखे हैं-

भ्रष्टाचार मिटाएंगे, नई रोशनी लाएंगे!
जतिवाद मुर्दाबाद! मुर्दाबाद! मुर्दाबाद!
समाज नहीं टूटने देंगे! जंगल नहीं लूटने देंगे!
जानवरों पर अत्याचार, बंद करो! बंद करो!
अहिंसा खोज हमारी है, शेर की ईमानदारी है!
समझ में उनकी दोष है, हम भी तो ख़रग़ोश हैं!
...........
इधर मेमने, ख़रगोश, हिरन, बकरी वगैरह एक-दूसरे का मुंह देख रहे थे।


-संजय ग्रोवर
16-09-2014


सोमवार, 28 जुलाई 2014

असली जागरण The real awakening







जो लोग भगवान को मानते हुए भी नास्तिकों के खि़लाफ़ हैं, वे भगवान के ही खि़लाफ़ हैं। क्योंकि जिस भगवान की मर्ज़ी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता वो अगर न चाहता तो नास्तिक कैसे हो सकते थे ? और अगर भगवान चाहता है कि नास्तिक पृथ्वी पर हों तो आप क्यों चाहते हैं कि वे न हों? यह तो भगवान के काम में टांग अड़ाना हुआ। आप क्या ख़ुदको भगवान से भी बड़ा मानते हैं जो उसके फ़ैसलों में ग़लतियां ढूंढ रहे हैं? हद हो गई अहंकार की !!

और अगर नास्तिक पृथ्वी पर भगवान की मर्ज़ी के बिना हैं तो साफ़ है कि सब कुछ भगवान की मर्ज़ी से नहीं होता, सब कुछ भगवान के कंट्रोल में नहीं है। भगवान ज़्यादा से ज़्यादा चाइना या अमेरिका के राष्ट्रपति जैसी हैसियत या शक्ति रखता है। क्या आप चाइना या अमेरिका के राष्ट्रपतियों/राष्ट्रप्रमुखों को भगवान मानने को तैयार हैं ? बच्चे भी जानते हैं कि सभी राष्ट्रप्रमुख आदमी ही होते हैं।
ऐसे भगवान का क्या करना जो एक पृथ्वी पर भी ठीक से नियंत्रण नहीं रख सकता!?



-संजय ग्रोवर
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01-07-2014

शुक्रवार, 27 जून 2014

एक कुर्सी पे तोंद रक्खी है

ग़ज़ल
रेखाकृति: संजय ग्रोवर


कई सदियों की गोंद रक्खी है
एक कुर्सी पे तोंद रक्खी है

तोंद पर लटकी एक दाढ़ी है
झाड़ ने दुनिया रौंद रक्खी है

ज़हर में रंग की न फ़िक़्र करो
हमने तो आंख मूंद रक्खी है

तेज है उनका तेल के जैसा
बासी बातों में सौंध रक्खी है

बदन आता है, ज़हन आएगा
चौंध में उनके लौंद रक्खी है
27-06-2014

(लौंद=छलांग leap,  सौंध=बासी की बदबू  ill-smelling, musty, चौंध=a very harsh, bright, dazzling light, तेज=आभा aura)

2.
अकसर साजिश करते भी हैं
खुले तो थोड़ा डरते भी हैं

असल तो कुछ भी नहीं है ज़िंदा
रस्मन अब भी मरते भी हैं

ख़ार, चढ़ावा मिले, तो मुंह से
फूल-वूल कुछ झरते भी हैं

सदियों से हैं ज़हर के मालिक़
दास के दिल में भरते भी हैं

ख़ुद ही ख़ुदको बोलके ऊंचा
दम तहज़ीब का भरते भी हैं
17-06-2014


-संजय ग्रोवर



रविवार, 15 जून 2014

पूज्य पिताजी

सभ्य समाज में आदर झटकने का एक और तरीका जो मुझे पसंद आया है वह है पिता बन जाना। यहां एक सुविधाजनक तथ्य यह है कि डॅाक्टर, इंजीनियर, प्रोफेसर, साहित्यकार या कुछ और बनने के लिए आप में क्षेत्र विशेष से संबंधित कुछ योग्यताएं होनी ज़रुरी हैं (हालांकि अपवाद हर जगह हैं और आजकल तो हर क्षेत्र मे अपवादों का ही बोलबाला है), लेकिन पिता होने के लिए ऐसा कुछ ज़रुरी नहीं है। उदाहरण के लिए देश में लोग डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, नेता, अभिनेता, पत्रकार, साहित्यकार, कलाकर्मी, पुलिसवाले, चोर-डाकू, प्रशासनिक अधिकारी, बाबू, चपरासी, बेरोज̣̣गार वगैरह कम या ज़्यादा मात्रा में हो सकते हैं, अच्छे या बुरे हो सकते हैं, हो सकते हैं या नहीं हो सकते हैं, लेकिन पिता सभी हो सकते हैं और लगभग सभी होते हैं, खूब होते हैं।

यहां मैं उन लोगों को शामिल नहीं कर रहा हूं जो पिता बनने से पहले ही दादाबन जाते हैं और सब्ज़ी काटने के चाकुओं, नाख़ून काटने की कैंचियों, ब्लेडों, लात-घूसों, घुड़कियों और आंखे तरेरने-दिखाने जैसे औज़ारों के सहारे अपने आस-पड़ोस के बच्चों को (और कभी-कभी तो बड़ों को भी) धौंसियाना शुरू कर के अपने पांव पालने में ही चमका देते हैं। बचपन में ही दादा बन गए ये होनहार बिरवान और परिपक्वहोकर जब पिता बनते हैं तो इनके लिए गाड फादरसंबोधन का इस्तेमाल करना ज्यादा उचित समझा जाता है। तरह-तरह के माफियाओं से जुड़े छोटे-बड़े लोगों के लिए ये गॉड फ़ादऱपिता कुछ कम आदरणीय नहीं होते। और अगर सफ़ेदपोश हों तो दूसरे लोगों के लिए भी। ऊपर से आजकल तो सफ़ेदपोश और स्याहपोश का फ़र्क़ भी खत्म सा हो चला है।

जैसाकि मैंने पहले ही कहा, यहां हम इस तरह के पिताओं की बाबत बात नहीं कर रहे हैं। जिनकी कर रहे हैं उनमें से एक भगवान परशुराम के पिता थे। इनकी ही आज्ञा पर आज्ञाकारी परशुराम जी ने तुरंत आंखें मींची और अपनी मां का सिर उसकी गरदन से उड़ा दिया।

इसके अलावा एक बार जब मैं रेल से सफ़र कर रहा था तो बीच के किसी स्टेशन से पांच व्यक्ति सवार हुए और मेरे साथ वाली सीट पर सवारहो गए। इनमें से तीन पिता श्रेणी के और दो पुत्र श्रेणी के लग रहे थे। दोनों पुत्रगण अपनी सारी प्रतिभा का इस्तेमाल स्वीकृति-सूचक ढंग से सर हिलाने में करते हुए वार्तालाप में हिस्सा ले रहे थे। एक राजनीतिक दल में आस्था व्यक्त करते हुए पिता लोग कह रहे थे कि इस दल ने भ्रष्टाचार का लगभग ख़ात्मा कर दिया है। यहां तक कि अपने दल के किसी ख़ास व्यक्ति का काम भी अगर ग़ैरक़ानूनी हो तो नहीं किया जाता। इसके अलावा वे यह भी कह रहे थे कि नई पीढ़ी भ्रष्ट हो गई है, उसके सामने कोई आदर्श नहीं है।

तभी बीच वार्तालाप में टिकट चैकर महोदय ने हस्तक्षेप किया और टिकटों की मांग की। पता चला कि न तो पिता लोगों के पास टिकट है न पुत्रों के पास। अर्थात् टिकट न लेना एक ऐसा मुद्दा था जहां जैनरेशन गैपबिल्कुल आड़े नहीं आया था। टिकट चैकर, जो कि इस समय किसी का पिता था न पुत्र, कुछ-कुछ पिताओं के अंदाज़ में सख़्ती दिखाने लगा। इस पर पांचों जन पुत्रों की तरह आज्ञाकारी से दिखने लगे। कुछ ले देकर सौदा पटाने का जिक्र आया तो टिकट चैकर महोदय का हृदय परिवर्तन हो गया।

दरअसल पिता होना ही कुछ चमत्कारी सी घटना है। आप बचपन से लेकर जवानी तक कितने भी दुष्ट, लुच्चे, लफंगे, भौंदू, रट्टू, सनकी, हरामखोर, अत्याचारी, व्याभिचारी यहां तक कि उग्रवादी रहे हों मगर पिता बनते ही ऑटोमेटिकलीअपने बच्चों के लिए आदरणीय हो जाते हैं। यह मामला ही कुछ ऐसा है कि सदा आपका विरोध करने वाला, आपसे जलने वाला पड़ौसी तक आपके साथ हो जाता है और विवाद की स्थिति में आपके पुत्र को ही समझाने पर तुल जाता है कि कुछ भी हो, आखि़र हैं तो तेरे पिता ही। इस सार्वभौम सत्यके आगे अच्छे-अच्छे पुत्रों की बोलती बंद हो जाती है। आज्ञाकारी बच्चे अक्सर आपस में इस बात पर लड़ पड़ते हैं कि तूने जो कहना था मुझसे कह लेता, मेरे बाप तक कैसे पहुंचा।

अब कौन जाने कि कौन कितना पहुँचा-हुआहै ! कौन दूसरों तक पहुँचा है और कौन अपनों तक !?

-संजय ग्रोवर


(27 नवंबर, 1994 को जनसत्ता में प्रकाशित)

गुरुवार, 29 मई 2014

प्लांटिंग, पवित्रता और प्रतिबद्धता


बात दिलचस्प है इसलिए बता रहा हूं।

देखता हूं कि जो लोग किसी तथाकथित महान विचारधारा और गुट से जुड़े होते हैं वे अकेले और स्वतंत्र व्यक्ति का विरोध करने में कुछ हिचकिचाते हैं। वजह तो पता नहीं, अंदाज़ा लगाना चाहें तो कोई आफ़त भी नहीं आ रही-शायद उन्हें विश्वास ही नही हो पाता कि आदमी अकेले भी स्वतंत्र हो सकता है, बिना ऊपर से आए ऑर्डर के भी कुछ कर सकता है। उनकी ग़लती भी नहीं है, जैसी ज़िंदग़ी आदमी जीता है, उससे अलग या आगे की कल्पना उसके लिए मुश्क़िल होती होगी।

उन्हें अगर अकेले विचारक का विरोध करने की ट्रेनिंग नहीं मिली तो करें क्या ? फिर ऐसा क्यों न किया जाए कि उसे किसी विरोधी गुट से जुड़ा दिखा दिया जाए जिससे दिखावटी या वास्तविक लड़ाई में वे प्रशिक्षित किए गए हैं। हांलांकि यह तरीक़ा कुछ ऐसा ही है जैसे आप पहले किसीके घर में जाकर स्मैक का पाउच प्लांट कर दें फिर दूसरे दिन अख़बार में ख़बर निकले कि ‘नशे का ख़तरनाक़ तस्कर गिरफ्तार, भारी मात्रा में स्मैक बरामद’। यह विधि है तो शर्मनाक़ पर धर्म और धारा की भलाई की ख़ातिर कब क्या न करना पड़ जाए, कुछ मालूम नहीं।

वैसे गुटधारियों की ज़िंदगी होती इतनी मनोरंजक है कि कई बार ज़रुर अकेले आदमी का भी मन होता होगा कि इन्हीं के बीच जाके पसर जाए। भिन्न-भिन्न तरीक़ों से ये लोग संबोधनों, विशेषणों, अवसरों और परिस्थितियों का उपयोग करते हैं। जैसे कि इनका विरोधी गुट अफ़वाहें उड़ाए तो ये एकदम पवित्रता का धुंआ छोड़ने लगते हैं, नाक सिकोड़ने लगते हैं कि देखो कैसे-कैसे षड्यंत्र ये लोग करते हैं, बेहूदे कहीं के। मगर जब ये ख़ुद अफ़वाहें उड़ातें तो भारी मजबूरी में उड़ाते हैं-क्या करें कोई और रास्ता ही नहीं था, कुछ न कुछ रणनीति तो बनानी ही पड़ती है, आखि़र हमारी लड़ाई सच की लड़ाई है, हमारी कोई उनके जैसी थोड़ी है।

मज़े की बात है जब मरज़ी ये सच का ठेका ले लेते हैं और जब दिल करे झूठ में सहजता ढूंढने लगते हैं। बहुत ही मतलब कमिटेड लोग होते हैं, विरोधी गुट की भाषा में प्रतिबद्ध। कभी, अभी अपने नये मकान में चिलगोज़े खाने का अपना फ़ोटो दिखाकर बताते हैं कि कैसे मेरा संघर्ष सफ़ल हुआ तो कभी अचानक रोना-धोना शुरु कर देते हैं कि यार सारी ज़िंदग़ी फ़क़ीरी में बीत गई, कुछ हासिल नहीं हुआ, तुम्ही कुछ करवाओ न यार।
कहने में डर रहा हूं मगर लगता यही है कि इनका सिद्धांत एक ही होता है कि जब जहां जिससे फ़ायदा हो, जिधर को भीड़ जाती दिखे, तुरंत उसी रंग में आ जाओ। दारु पी रहे हो तो आवारग़ी को महान साबित करने में हाथ-पैर तोड़ लो, परिवारों के साथ बैठे हो तो कहो कि मैं तो शुरु से कहता था कि एक दिन तो तुम्हे यह करना ही पड़ेगा। इसके अलावा रास्ता भी क्या था।

सत्ता से इनकी लड़ाई हमेशा रहती है। हम जैसे तो वैसे भी कया लड़ेंगे सत्ता से, हमें तो मालूम भी नहीं कि रहती किधर है, हमारी तो ज़िंदग़ी ऐसे छोटे-मोटे झंझटों से निपटते बीत जाती है जिनमें लोकल अख़बारों को भी कोई ग्लैमर नहीं दिखता। सत्ता के बारे में हमें तो तभी जानने को मिलता है जब किसी सत्ता-विरोधी को कोई पुरस्कार, कोई वजीफ़ा, कोई ग्रांट, कोई यात्रा मिलने की ख़बर आती है। ख़बर देने वाले चैनल भी सत्ता-विरोधी ही होते हैं। सत्ता का मूड भी क्या ग़ज़ब होता है कि इसे जब अपने विरोधियों पर ज़्यादा ग़ुस्सा आता है तो ग़ुस्से में यह उन्हें पुरस्कार और सम्मान फ़ेक-फ़ेंक कर मारती है।

मैं ऐसे लोगों को सीरियसली इसलिए लेता हूं कि ये आपस में मिल जाएं तो किसीको कुछ भी साबित कर सकते हैं, किसीको भी सीरियस हालत में पहुंचा सकते हैं। वैसे इन्हें मिलना पड़ता भी नहीं है, ये मिले-मिले से ही होते हैं। उसदिन सड़कपर परस्पर-विरोधी दो प्रतिबद्धों की बातें सुनने को मिल गई-

कई साल बाद मिले यार, कैसा चल रहा है?

बस, सब सैट हैं, एक लड़का डॉक्टर हो गया है, एक इंजीनियर है, एक बामपंथ में डाल दिया है, एक जॉनसंघ में लग गया है, बस मिल-जुलके बढ़िया चला रहे हैं ऊपरवाले की कृपा से।

अच्छा, सुना तो था कि आपने एक गोद भी लिया था जिसे सफ़ाई का क्रेज़ हो गया था....?

अरे! वो तो....कहने लगा पापा, सफ़ाई की एक्टिंग अलग बात है, परफ़ॉर्मेंस अलग बात है पर ज़िंदगी-भर येई थोड़े ना करता रहूंगा, मैं क्या इसके लिए पैदा हुआ हूं.....मुझे भी रहम आ गया, मैंने कहा कि सारी समानता के ठेका हमींने थोड़े ले लिया है, तू कुछ अफ़सरी वगैरह कर ले, जा जी ले अपनी ज़िंदग़ी....

तो साथित्रो, हांलांकि स्टेज पर तो ये लड़ते ही रहते हैं, मगर ये लेख पढ़कर कहीं ये न कह दें कि यह आदमी हमारे समाज को तोड़ रहा है, फूट डाल रहा है....

इसलिए इस लेख को चुपचाप पढ़ लें और भूल जाएं।

-संजय ग्रोवर
29-05-2014


गुरुवार, 15 मई 2014

कल तक आत्मविश्वास

कविता
रेखाकृति: संजय ग्रोवर



कुछ लोगों में कल तक आत्मविश्वास था।
कुछ लोगों में कल तक आत्मविश्वास आ जाएगा।
या ऐसा भी हो सकता है कि
जिनमें कल तक आत्मविश्वास था
उन्हीं में कल भी रहेगा
जिनमें कल तक नहीं था
उनमें कल भी नहीं आएगा

कुछ भी हो
एक बात तो है
लोगों को अपने  आत्मविश्वास के बारे में
ठीक से कुछ भी पता नहीं है
कि यह एक कलंडर पर टिका है
कि यह एक तारीख़ पर टिका है
कि यह एक पार्टी पर टिका है
कि यह एक पद पर टिका है
कि यह एक दुकान, एक मकान पर टिका है
कि यह एक प्रेमी, एक प्रेमिका पर टिका है
कि यह एक सफ़लता, एक हार, एक जीत पर टिका है
कि यह एक भीड़ के इधर से उधर या उधर से इधर हो जाने पर टिका है
कि यह कुछ पैंतरों, कुछ रणनीतियों पर टिका है
कि यह कुछ समझौतों, कुछ मौक़ापरस्ती पर टिका है
या
हमारी मेहनत का नतीजा है
हमारी सोच से उपजा है?

मैंने ईमानदारी के लिए लड़ते.......
छोड़िए यह झूठ ही होगा
मैंने हक़ के लिए लड़ते लोगों को
देखा था कभी-कभी
उन्हें क्या ध्यान रहता था कि लड़ते समय उनका चेहरा कैसा हो जाता है
क्या वे ऐसा अफ़ोर्ड भी कर सकते थे?
क्या घर से निकलते उन्हें मालूम भी होता था कि
आज किस बात के लिए किससे लड़ना पड़ जाएगा
उनका तो कांपने लगता था सारा शरीर
होंठों के किनारे हो जाते थे थूक से सफ़ेद
सच कहूं तो
वे तो दयनीय लगने लगते थे
वे तो शुक्र करते होंगे कि आस-पास कोई कैमरा नहीं था
वरना क्या वे आत्मविश्वासी की परिभाषा में फ़िट बैठ पाते
वे तो कलंकित ही करते
सभी मान्यताओं को

आत्मविश्वास अगर इतनी ही हास्यास्पद चीज़ है
तो इसे हास्यास्पद लोगों को दान कर देना चाहिए
हंसी आए तो हंस लेना चाहिए

कम-अज़-कम इतना आत्मविश्वास तो होना ही चाहिए
कि यह सोचने की हिम्मत की जा सके
कि आत्मविश्वास होता क्या है
इसकी ज़रुरत क्या है
इसकी क़ीमत क्या है

कि बेईमान आदमी
भरे बाज़ार में छाती ठोंककर कैसे चिल्लाता है
कि झूठा आदमी
सबसे ज़्यादा अभ्यस्त कैसे है
आंख से आंख मिलाकर बात करने का

माफ़ कीजिए
ऐसा आत्मविश्वास आप अपने पास रखिए
हमें जो करना है
बिना आत्मविश्वास के बेहतर कर रहे हैं



-संजय ग्रोवर
15-05-2014

रविवार, 4 मई 2014

यह आदर नहीं राजनीति है मां

दो कविताएं

1.
जब सब कुछ ईश्वर ने ही करना है तो


मैंने सुना है कि कोई ईश्वर है जो हर कहीं मौजूद है
मैं तो सुनी-सुनाई बातों में यक़ीन नहीं करता
तुम करते हो तो बताओ कहां-कहां है?


उस आदमी में जो कुचला गया?
उस बुलडोज़र में जो उसपर चढ़ गया?
या उसमें जो बुलडोज़र चला रहा है?
या उसमें जो चलवा रहा था?
या उनमें जो देख रहे थे?
और उनमें भी जो देखकर भी नहीं देख रहे थे?
उनमें तो ज़रुर जो बुलडोज़र की ख़बर पर बुलडोज़र चला सकते थे!

या फ़िर सबमें रहा होगा!

यानि ईश्वर, ईश्वर पर बुलडोज़र चला रहा था,
ईश्वर मर रहा था
ईश्वर मार रहा था
ईश्वर भाग रहा था
ईश्वर हंस रहा था
ईश्वर फंसा रहा था
ईश्वर फ़ंस रहा था

ईश्वर यह भी कर रहा है
ईश्वर वह भी करवा रहा है

जब सब कुछ ईश्वर ने ही करना और करवाना है
तो फिर मेरे और तुम्हारे होने का क्या मतलब हुआ ?
हम यह दुनिया ख़ाली क्यों नहीं कर देते ?
उन लोगों के लिए
जो अपने दम पर कुछ करना चाहते हैं।

01-05-2014


2.
यह आदर नहीं राजनीति है मां


मां मैं तेरा बहुत आदर करता हूं
मैं तुझे बहुत प्यार करता हूं मां
मां मैं तेरे बिना रह नहीं सकता मां

मां जो मैं कह रहा हूं तू समझ रही है न मां !
मां जो मैं कह रहा हूं अगर वह सही है
तो फिर ऐसा क्यों न हुआ मां!

कि बरामदे में पोचा मैं लगाता और बैठक में हलवा तू खाती
रसोई के अंधेरे में दाल से कंकर मैं बीनता और फ़िल्म देखने तू जाती
तू रात एक बजे अंधेरे में अपने दोस्तों के साथ घर लौटती
और मैं बिना कोई सवाल किए तेरे लिए खाना गर्म करता

यह कैसा आदर है मां, यह कैसा प्यार है
कि जिसका आदर हो रहा  है उसे सारे नुकसान झेलने होते हैं
जो आदर करता है वो सारे ऐश करता है

यह आदर है कि राजनीति है मां
तू कभी पूछती क्यों नहीं
सोचती क्यों नहीं

मैं एक नंबर का झूठा हूं मां
मेरी बात का बिलकुल विश्वास न करना

अभी भी वक़्त है
अपनी बची-ख़ुची ज़िंदग़ी को बचा ले मां

-संजय ग्रोवर
04-05-2014


शुक्रवार, 7 फ़रवरी 2014

सड़क-बहादुर

पिछले दो-तीन सालों से अपने यहां सड़क ख़ासी चर्चा में है। लोग एक-दूसरे को अहिंसापूर्ण ढ्रंग से ललकारते
मिलते हैं कि बेट्टा सड़क पर नहीं उतरे तो ज़िंदगी में किया क्या !? अगला एकदम से घबरा जाता है कि सड़क पर जाकर दो-चार नारे नहीं मारे, मोमबत्ती की गरमी में हाथ शहीद नहीं किए, किसी बिल्डिंग को नहीं घेरा, किसीको चपत मारकर नहीं भागे तो मानो आदमी को डूबकर मर जाना चाहिए। और सिर्फ़ सड़क से काम नहीं चलता, सड़क पर संघर्ष करते हुए आपके विज़ुअल्स् और स्टिल फ़ोटोग्राफ़ भी हर एंगल से पर्याप्त मात्रा में होने चाहिए।

आप ज़रा मेरी बेशर्मी देखिए ; मुझे ऐसे तानों से रत्ती-भर काँपलैक्स नहीं होता। जैसे कई लोग कैमरा-संकोची होते हैं, मैं सड़क-संकोची हूं। बचपन से ही हूं। उस वक्त भी ऐसे लोग पर्याप्त से ज़्यादा मात्रा में पाए जाते थे जो सड़क पर किसी भी तरह के संघर्ष को लेकर अत्यंत मुखर होते थे। बिजली चली जाए तो मर्द लोग सड़क पर ही कमीज़-बनियान उतारकर हवा करना शुरु कर देते थे। घर में नल होते हुए भी कई संघर्ष-पसंद मर्द सड़क के नल पर इस मस्त अंदाज़ में बोल्डली नहाते थे कि मैं अपने बाथरुम में भी उनका मुक़ाबला नहीं कर सकता था। आपको तो मालूम है अपने यहां सड़के भले ग़रीब मिल जाएं, नालियां बराबर कीचड़-संपन्न रहतीं हैं। प्रकृति को सड़क पर प्रदर्शित करती नालियां प्रकृति-प्रेमी मर्दों का एक तरीके से अपरोक्ष आह्वान करतीं हैं कि आओ, कुछ कर जाओ। संघर्षवान मर्द आहलादित् हो उठते। कई बार तो वे नालियों का भी वेट नहीं करते। कुछ तो ऐसे साहसी कि पेड़ की आड़ या छोटी-सी झाड़ के भी मोहताज नहीं। ‘घटाओ तुम्हे साथ देना पड़ेगा ; मैं फिर आज........’।  क्या तो चौराहा, क्या मैदान और क्या मेला.....

लोग थे और हैं कि सड़क पर ही बिना किसीकी परमिशन लिए गड्ढे-वड्ढे खोदकर तम्बू-बम्बू तान देते हैं, कई बार तो रास्ते-वास्ते भी बंद कर देते रहे। और कोई कुछ पूछ ले तो, अबे स्साल्ले, रिक्शा पीछेवाली सड़क से निकाल्ले ना, देखता नहीं कथा चल्लई है, आया बड़ा रिक्शेवाला.....। सड़क पर मंडप लगे हैं और वहीं आग़ जल्लई है और वहीं पवित्र रोशनी में लेना-देना भी चल रहा है। कल्लो क्या कल्लोगे ? कन्नेवाले ख़ुद ही दोस्तों और रिश्तेदारों में शामिल हैं। सड़क पर लेन-देन करना क्या मज़ाक़ है ? आंदोलन से कम नहीं लगता।

सड़क पर साहसपूर्ण अहिंसात्मक संघर्ष के हम आदी रहे।

झूठ नहीं बोलूंगा, उस वक़्त बड़ा अपराध-बोध होता था। कई बार लगता कि मैं मर्द ही नहीं हूं, मुझे जीने का हक़ क्या है, वगैरह...। बाद में पता नहीं कैसे, उल्टा-सीधा पढ़ते-सोचते, अपराध-बोध और शर्म-संकोच वगैरह कम होते गए।

लेकिन दुनिया ? उसका क्या करोगे ? देखता हूं कि सड़क को लेकर विद्वानों और आंदोलननुमांकारियों की अवधारणाएं आज भी उठान पर हैं। पर मुझे समझ में नहीं आता कि जो काम आप अपने घरों और दुकानों में कर सकते हैं उसके लिए सड़क पर क्यों नाचते हैं !? मान लीजिए आप एक अभिनेता हैं और आप ईमानदारी पर अपनी जान न्यौछावर कर देना चाहते हैं। तो सीधा उपाय है कि जो भी प्रोड्यूसर/डायरेक्टर/फ़ायनेंसर आपको बुक करने आया है उसको अपने ड्रॉइंग-रुम में ही बोल दीजिए न कि मैं तो सिर्फ़ और सिर्फ़ व्हाइट मनी वाली फ़िल्म में ही काम करुंगा, भले आप मेहनताना कम दे दें, पर मैं ब्लैक मनी किसी भी हालत में नहीं लूंगा। मेरे कई बंगले हैं, कई ज़मीनें हैं, पीढ़ियों का इंतज़ाम हो चुका है, अब मैं ईमानदारी से जीना चाहता हूं। अगर आप दहेज की बीमारी दूर करना चाहते हैं तो कार्ड लेकर आई सहेली से अपनी किचेन में ही धीरे से कहके देखिए कि बहिना, मैंने तो दहेजवाली शादियों में जाना बंद कर दिया है, कहीं तू भी इसी तरह की शादी तो नहीं कर रही ? अगर आपकी दिलचस्पी इक्वैलिटी में यानि कि जातिवाद को हटाने में है तो आप कह सकते हैं कि जिन्होंने अपने वैवाहिक विज्ञापन में अपनी जाति का ज़िक्र किया है, इन्वीटेशन कार्ड में भी जाति का ज़िक्र किया है, जो अपने वैवाहिक आयोजन या दूसरे समारोह जाति-आधारित रीति-रिवाज़ों पर चढ़कर गर्व से मनाते हैं, वे मुझसे ऐसी कोई कोई उम्मीद न रखें कि मैं मूर्खों की तरह, ख़ामख्वाह ही तुम्हें जाति-विरोधी या इक्वैलिटी-समर्थक मान लूंगा। होंगे दूसरे अक्ल के अंधे, मैं पाखण्ड को समझने में कोई भेद-भाव नहीं बरतता।

इस बात की गारंटी कोई भी ले सकता है कि जब आप ऐसा करेंगे तो कोई पुलिस आपको पकड़ने नहीं आएगी, कोई आप पर अश्रु-गैस के गोले नहीं छोड़ेगा, पानी की बौछार नहीं करेगा, लाठी चार्ज नहीं करेगा, जेल में बंद नहीं करेगा। यह सब आप घर बैठे बड़े मज़े से कर सकते हैं।

करके देखिए, तब समझ में आएगा कि सड़क पर ज़्यादा हिम्मत चाहिए कि घर में ज़्यादा चाहिए ?

अगर आप घर के कमरे में नहीं कर सकते तो सड़क से कैसे कर लेंगे ?

-संजय ग्रोवर

07-02-2014


देयर वॉज़ अ स्टोर रुम या कि दरवाज़ा-ए-स्टोर रुम....

ख़ुद फंसोगे हमें भी फंसाओगे!

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ढूंढो-ढूंढो रे साजना अपने काम का मलबा.........

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