सोमवार, 30 अगस्त 2010

झूठ पहनकर...

ग़ज़लें


1.

झूठ पहनकर कितने अच्छे लगते हो
कपड़ों के अंदर से नंगे दिखते हो

गलियाना बाज़ार को भी अब पेशा है
बाद में गलियाते हो, पहले बिकते हो

झूठ, ढिठाई, तानाशाही, गाली, गुंडे-
इतनी बैसाखीं, पर बहस से डरते हो !

लगता है फिर आज किसी ने धोया है
टंगे-टंगे से, निचुड़े-निचुड़े लगते हो

अपने-आप से हार चुके हो, इसी लिए
बेध्यानी में ध्यान की बातें करते हो

झूठी जीत से झूठी ख़ुशियां पाते हो
औरों को कम, ख़ुदको ज़्यादा ठगते हो

अभी तुम्हारा कर्ज़ लदा है  सीने पर
अदा करुंगा, बचकर कहाँ निकलते हो

2.

तलघर में आयोजित सूरज
फिर निकला प्रायोजित सूरज

किरनें-विरनें गयी कहाँ पर !
हुआ कहाँ विनियोजित सूरज ?

ख़ुदकी गर्मी से जलता है
कैसे हो अनुशासित सूरज

चाँद-वाँद सब जल जाएंगे
हुआ अगर अनियंत्रित सूरज

आसमान के पाँव पकड़ कर
हो जाता अनुमोदित सूरज

पीछे साजिश का अंधियारा
आगे पूर्व-नियोजित सूरज


-संजय ग्रोवर

गुरुवार, 26 अगस्त 2010

जो गहरे में उतरे गुनहगार निकले..

मोहतरिम शरद जोशी जी, मुआफ करना, जब आप नहीं रहे तभी पता चला कि आप थे। गलती आप ही की रही कि इतनी देर लगा दी जाने में। आपके अनेक समकालीन आपसे पहले चले गए और अब अपने-अपने शरीरों, खबरों और पुरस्कारों में खूब ज़ोर-शोर से जिन्दा हैं। और तो और जो लोग आपके बाद आए वे भी आपसे पहले चले गए और अब पुरस्कार और प्रतिष्ठा बटोर रहे हैं शरीर के लिए शरीर के जरिए। इससे भी ऊपर जो लोग साहित्य में ठीक से पैदा भी नहीं हुए थे वे भी जहां-तहां बढ़िया मौका देख कर फटाफट मर गए और अधजन्मे ही अमर हो गए। फिर क्षमा करना जोशी जी, शरीर छोड़ने की क्या जरूरत थी, आत्मा को ही अलगनी पर टांग देते। फिर देखते हिन्दुस्तान में कैसा हल्ला होता आपका। आपने हवा में तलवार भांजने से उपजे व्यंग्य को कलमबंद तो किया मगर खुद कभी हवा में कलम नहीं हिला सके। और शायद इसीलिए हिन्दी साहित्य के ‘डीसेंट डैडी‘ आपके लिए ‘वैलडन माई ब्वाॅय‘ से आगे कुछ नहीं कर सके।

जोशी जी निज भाषा, अपनी अस्मिता, विद्वता, वैचारिकता और हृदय की विशालता आज कठपुतली बनकर टीवी के स्टूडियों के कोने में बैठी है। चार्ली चैप्लिन ने जिस ड्राईंग रूप में व्यंग्य ढूंढा था उसी में वे अब कैसेट बन कर सजे हैं। उन्हें और कुछ व किसी तरह हम भले ही न समझें, स्टेटस सिम्बल तो समझ ही रहे हैं। जोशी जी, शायद जल्दी ही साहित्यकार और सटोरिया पर्यायवाची शब्द होंगे। मध्यमार्ग और अवसरवादिता तो तकरीबन समानार्थी हो ही चुके हैं। मंच कवियों के हास्य का स्वरूप तेजी से बदलने के कारण सरकस में जोकरों का अकाल पड़ गया है। ढिठाई ने आत्मविश्वास की जगह ले ली है।

ऐसे में मंच पर आपका गद्यवाचन छोटी-बड़ी कब्रों से भरे कब्रिस्तान की काली रात में अकेले घूमते बहादुर आदमी की बेफिक्री जैसा लगता था। इस अर्थ में आप कबीर तो हुए पर कमलेश्वर नहीं हो सके जिन्होंने राजीव जी की मृत्यु के कुल ढाई दिन बाद ही लंगोटियों की पतलूनें बनाने का करतब कर दिखलाया था, यह कह कर कि उनके शासन काल में कभी क्यू ही नहीं लगी। यह अलग बात है कि अपने संस्मरणों में कमलेश्वर ने एक जगह यह भी कह दिया है कि ‘मैं साहित्य में पायजामे सिलने नहीं लौटा हूं‘।

यही कारण है शरदजी कि आप साहित्यकारों के पूरे साल में शरद ऋतु के उन तीन महीनों जैसे लगते थे जिनमें आम पाठक और समाज बाकी नौ महीनों के लिए स्वास्थ्य इकट्ठा करता है। आपने यह भी समझा और समझाया कि साहित्य में कभी शतरंज भी खेलनी पड़ जाए तो आम आदमी के प्यादों से ही राजनीतिबाज बादशाहों को मात देने की ईमानदार कोशिश करनी चाहिए। यही आपका गुनाह था कि आपने वादों, धाराओं या पंथों के पिंजरों को नकारते हुए खुले आसमान में आज़ाद उड़ान भरने की जुर्रत की और आम आदमी के फक्कड़पन और अलमस्ती में अभी भी जिन्दा प्रेम, इंसानियत व भाईचारे की गहराई से आती ताक़त की सुगंध को समझने की कोशिश की। इसीलिए हमें यह जान लेना चाहिए कि आपको खास परवाह नहीं होगी जो हम कहेंः


सतह के समर्थक समझदार निकले,
जो गहरे में उतरे गुनहगार निकले।


-संजय ग्रोवर,

(शरद जोशी के निधन के बाद जनसत्ता ‘चैपाल‘ में बतौर पत्र 12 अक्तूबर 1991 को प्रकाशित)

उक्त/प्रयुक्त शेर जनाब शेरजंग गर्ग साहब का है।

मंगलवार, 17 अगस्त 2010

बीच में नहीं हैं अखबार

अखबार में छपने के लिए चाहिए


सम्पर्क

जो नहीं हैं मेरे पास

खाली-सा बैठा हूँ मैं
आते हैं मेरे दोस्त तो
सुनाता हूँ कविता
सुनाते-सुनाते कहने लगता हूँ
और कहते-कहते बतियाने

दोस्त सुनते हैं अनमने से
कभी नाराज़ होते हैं तो
एकाध दफ़ा ख़ुश भी होते है
अब तो एकाध बार
यह भी कहते हैं
यार कविता न होती तो क्या होता

मेरे दोस्तों को बदल रही है कविता
मेरे दोस्त भी बदल रहे हैं कविता को
मेरे भीतर का कवि पिघल कर
रोज़ नया जन्म ले रहा है

हमने अखबार हटा दिए हैं
बीच में से

-संजय ग्रोवर

रचना तिथि: 29-07-1994

देयर वॉज़ अ स्टोर रुम या कि दरवाज़ा-ए-स्टोर रुम....

ख़ुद फंसोगे हमें भी फंसाओगे!

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ढूंढो-ढूंढो रे साजना अपने काम का मलबा.........

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