शनिवार, 2 अक्तूबर 2010

सांप्रदायिक धर्मनिरपेक्षता बनाम भैंसियत

व्यंग्य
(एक पत्रिका के अनुरोध पर आज 02-10-2010 को लिखा गया। ज़िक्र इसलिए किया कि व्यंग्य में इस तरह के संदर्भ आते हैं।)

मान लीजिए एक गांव है। भैंसों का गांव है, गुट है। क्यों नहीं हो सकता ? भैंसे मोटी बुद्धि की नहीं हो सकती क्या ? आदमी ने ही ठेका ले रखा है हर बात का ? व्यंग्य मैं लिख रहा हूं कि आप ? जितनी सत्ता मिली है उतना तानाशाह होने का हक़ है मुझे। कलको कॉलम लिखने को मिल गया तो छोड़ूंगा नहीं आपको। पटाके रखिए मुझसे।
ओके। तो मान लीजिए 80 भैंसे काली हैं 20 भूरी हैं। इससे पहले कि कोई शब्दपकड़ू मुझपर रंगवाद और नस्लवाद का आरोप चेपे, एक पेंच डाल देता हूं। समझ लीजिए कि मैं काली भैंसों को भूरी कह रहा हूं और भूरी को काली। काली भैंसों में एक भैंस ज़्यादा ही बदमाश है। उस पर आदमी सवार है। वह कालियों को भूरियों के खि़लाफ़ भड़काना शुरु कर देती है। हम बहुसंख्यक हैं, यह गांव हमारी दादियो-नानियों ने बसाया था, गुटबाज़ी की परंपरा हमारे चाचा के परनाना ने शुरु की थी, आज भूरियां अपनी आबादी बढ़ा रहीं हैं, हमारी परंपरा पर हक़ जता रहीं हैं, हमारे गांव पर कब्ज़ा करना चाहती हैं वगैरहा। और भी कई हथकंडे हो सकते हैं। आपको ज़्यादा आयडिया होगा। इसमें क्या शक हो सकता है कि यह काली भैंस सांप्रदायिकता पर उतर आयी है। यह सांप्रदायिक भैंस है। कट्टरपंथी है।
अब मान लीजिए कि इस काली भैंस का बाक़ी कालियों से कोई लफ़ड़ा हो जाता है। और यह भूरियों के गुट में चली जाती है। काफ़ी सामाजिक, कर्मठ और कर्त्तव्यपरायण भैंस है, खाली नहीं बैठ सकती। अब यह भूरियों को अपनी सामाजिकता में लपेट लेती है। यही हरकतें भूरियों के साथ शुरु कर देती है। तुम कम हो इस लिए कालियां तुम्हे दबातीं हैं, मैं तो उन्हीं के बीच रहकर आयी हूं असलियत मुझसे पूछो, ख़ुद इबादत करतीं हैं तुम्हे पूजा पर मजबूर कर रखा है, वगैरह। आप कहेंगे कि पूजा और इबादत तो एक ही चीज़ है। मैं कहूंगा कि होंगी मगर ये भैंसों के तर्क हैं। आपमें से कुछ कहेंगे कि नहीं नहीं, हमने कई बार आदमी को भी इस टाइप की बातें करते सुना है। मैं कुछ नहीं कहूंगा।

अब यह भैंस वही है, हर तरह से पहले जैसी। वैसे ही जुगाली करती है, वैसे ही तालाब में नहाती है, वैसे ही तर्क करती है, और यह राज़ की बात नहीं है कि भैंसियत से ज़्यादा रंगनिरपेक्षता पर ज़ोर देती है। भैंसों को आज भी यही समझाती है जहां तुम्हारे भूरे देव का पूजास्थल था वहीं होना चाहिए, पहले कालों को कहती थी कि जहां तुम्हारे कालेदेव का था वहां से भूरियों ने हटा दिया था, तुम्हे वहीं बनाना चाहिए।
मगर अब यह भैंस सांप्रदायिक नहीं धर्मनिरपेक्ष कहाती है। क्योंकि अब यह अल्पसंख्यक भैंसों के पक्ष में खड़ी है। इससे पता चलता है कि धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता, मानसिकता से नहीं संख्याबल से तय होतीं हैं। अगर इसी भैंस को इसी मानसिकता के साथ पड़ोस के किसी गांव भेज दिया जाए जहां भूरी भैंसों की संख्या अस्सी है, तो यह वहां फिर से सांप्रदायिक कहाने लगेगी।

बहरहाल, एक दिन एक पार्टी के कार्यकर्त्ता आये और उन्होंने उस भैंस पर एक बैनर भी टांग दिया: धर्मनिरपेक्ष भैंस।
‘अब इस भैंस पर किसी ने उंगली उठाई तो उसे सांप्रदायिक करार दिया जाएगा।’
‘इस तर्क या फ़लसफ़े को मानें तो फिर गांधी जी की जो कोई आलोचना करे उसे गोडसेवादी ठहरा दिया जाए !?’
कुछ मासूम टाइप भैंसों ने दबी ज़ुबान में पूछा, ‘आपके पास ‘भैंसियत’ से जुड़ा कोई स्लोगन नहीं है?’
कार्यकर्त्ता बोले, ‘हम अपने समुदाय में भी इंसानियत पर धर्मनिरपेक्षता को तरजीह देते हैं।’
एक भैंस का उत्साह बढ़ा, वह बोली, ‘हां एक बार घास के गुच्छे में अखबार आ गया था, उसमें पढ़कर पता चला कि आप भी इंसानियत नहीं हज़ार-हज़ार साल पुरानी इमारतों को गिराने-बनाने में सारा ध्यान लगाए हैं। पता नहीं लोग आपको दूसरों से अलग क्यों मानते हैं !?’
‘भैंस हो, भैंस की तरह रहो’, कार्यकर्त्ता को ग़ुस्सा आ गया। सुबह हाई कमांड बताना भूल गया होगा कि भैंसों पर ग़ुस्सा मत करना।
किसीको उपरवाला देता है, किसीको पार्टी देती है।
एक कहावत बल्कि उलाहना है, ‘उपरवाला जब अक्ल बांट रहा था तुम कहां थे।’
एक कहावत होनी चाहिए, पार्टी जब चिंतन बांट रही थी, तुम कहां थे।’
किसीके लिए उपरवाला पार्टी है, किसीके लिए पार्टी उपरवाला है।
एक और पार्टी के कार्यकर्त्ता आ गए। उन्होंने भैंस को गांवद्रोही ठहरा दिया।
‘गद्दार भैंस’। नारे लगने लगे।

वैसे साफ़ कर दूं कि भैंसों का ऐसा कोई गांव नहीं है, आदमियों के हों तो हों।

आगे के व्यंग्य का भैंसकथा से कोई संबंध नहीं है। आप जोड़ना चाहें तो जोड़ें। तब इसका ज़िम्मेदार संपादक मंडल होगा। पाठक तो वही चुनता है अपनी पत्रिका के लिए।

मैं सोचता था कि साहिर सांप्रदायिक लोगों से डरते होंगे। अब समझ में आया कि वे धर्मनिरपेक्षों से कहीं ज़्यादा डरते थे। इसलिए उन्होंने पहली पंक्ति तो लिखी:
‘तू हिंदू बनेगा न मुसलमान बनेगा’
मगर स्टैंजा पूरा करते-करते वे घबरा गए। अभी धर्मनिरपेक्ष मित्र आ रहे होंगे। पूछेंगे आगे क्या लिखा !? उन्होंने पसीना पोंछकर आगे लिखा,
‘‘मालिक ने हर इंसान को इंसान बनाया.....’
मगर ‘मालिक’ का ज़िक्र डालने के बावजूद उनका पसीना थमा नहीं। उन्होंने आगे लिखा,
‘कुरान न हो जिसमें वो मंदिर नहीं तेरा
गीता न हो जिसमें वो हरम तेरा नहीं है’
पसीना ठहर गया।
आज साहिर होते बेचारे तो क्या लिखते !? शायद कुछ ऐसा:
‘अल्लाह को न माने वो ईश्वर तेरा नहीं है
ईश्वर के रहते अल्लाह का गुज़ारा नहीं है’
हरिवंश राय जी आदरणीय अमिताभ जी के पिता थे। पर उन्होंने लिखा,
‘धर्मग्रंथ सब जला चुकी है जिसके अंतर की ज्वाला....’
हाय राम ! उन्होंने यह भी लिखा,
‘वैर बढ़ाते मंदिर-मस्जिद, मेल कराती मधुशाला’

बच्चनजी ने फ़िल्मों में कोई गीत नहीं लिखा (बाद में एकाध ले लिया गया)। उन्हें ऑफ़र ही नहीं
आया होगा। लगता है बच्चन जी एक तो सांप्रदायिक थे उपर से पॉपुलर कल्चर की रत्ती भर समझ नहीं थी। अमिताभ जी धर्मनिरपेक्ष भी हैं और पॉपूलर कल्चर की उनकी समझ का तो उनका पूरा जीवन ही गवाह है।

काश! मैं भैंस होता ! आज शायद इतना अकेला न होता।

-संजय ग्रोवर

देयर वॉज़ अ स्टोर रुम या कि दरवाज़ा-ए-स्टोर रुम....

ख़ुद फंसोगे हमें भी फंसाओगे!

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ढूंढो-ढूंढो रे साजना अपने काम का मलबा.........

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