महीनों कुछ न पढ़ूं पर शौचालय में कुछ न कुछ चाहिए पढ़ने को। ताज़ा अखबार मिल जाए तो कहना ही क्या ! कभी-कभी अखबार खोलते ही सर्र से कोई पैम्फलेट निकलता है और....। आप जानते ही हैं कि कहीं भी जाकर गिर सकता है। अजीब स्थिति हो जाती है। पर कभी मन में नहीं आया कि पैम्फ़लेट डालने वाले से, विज्ञापन करवाने वाले से या अखबार वाले से इसके लिए जाकर लड़ूं। उन्हें दोषी ठहराऊं। दिन में औसतन पाँच ईमेल तो ऐसे होते ही हैं जिनमें लॉटरी या अन्य किसी ज़रिए से मुफ्त में लाखों डॉलर देने की बात कही गयी होती है यानि निरा मूर्ख समझा गया होता है। आपके पास भी आते होगे। दैनिक कर्म की तरह डिलीट कर देता हूँ। कई ब्लॉगर मित्रों की नयी पोस्टों की सूचनाएं भी आतीं हैं ईमेल से। कर सकता हूँ तो तुरंत टिप्पणी कर देता हूँ, नहीं, तो बाद के लिए छोड़ देता हूँ। भूल जाता हूँ तो शर्मिंदा होता रहता हूँ। पर किसी का कैसा भी ईमेल आए, इतना बुरा कभी नहीं लगा कि उसे फटकार कर कहूँ कि मत भेजा करो। कई बार तो लोगों ने अपने रिज़्यूमे तक भेज दिए हैं नौकरी दिलाने के लिए या अन्य कारणों से। समझा दिया कि भाई आपको ग़लतफ़हमी हुई है, यहाँ प्लेसमेंट एजेंसी जैसा कुछ नहीं है। लापरवाही के चलते भी ढेरों विचित्र प्रकार के ईमेल जमा हो जाते हैं। कई बार पुराने अलबम की तरह देखने में आनंद भी आता है। मैं ख़ुद अपनी हर नयी पोस्ट की सूचना देने के लिए पिछले सात-आठ महीनों से ईमेल भेज रहा हूँ। इतने महीनों में शायद पाँचेक लोगों के मेल आए होंगे कि हमें यह ईमेल मत भेजिए। वजहें अलग-अलग थीं। जायज़ माँग थी, मैंने बंदकर दिया। बुरा मानने जैसी कोई बात मुझे नहीं लगीं।
पर मैंने एक-दो बार कुछ मित्रों को इस बात पर कुछ दूसरे मित्रों को सार्वजनिक रुप से (सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर) फटकारते देखा। जमा नहीं। आपके पास कई तरीकें हैं- ब्लॉक कर दीजिए, स्पैम में डाल दीजिए या कम-अज़-कम एक बार ईमेल से निवेदन तो कर दीजिए। फिर भी कोई न माने तो बात और है।
छात्र-संगठन परचे बाँटते हैं। हमारे कई ब्लॉगर मित्र अपने कई तरह के कार्यक्रमों की सूचना ईमेल के ज़रिए या फ़ेसबुक जैसी साइट्स के ज़रिए भेजते हैं। साहित्यिक, सामाजिक, छात्र आंदोलनों से जुड़े कई मित्र दीवारों पर परचे चेपते आए हैं। किसी न किसी मामले में हर कोई प्रचार पर निर्भर है। सारी मुफ्त सुविधाएं उपलब्ध होने के बावजूद, प्रचार ब्लॉगर की मजबूरी है। अपने ब्लॉग के कलेवर को पसंद करने वाले ज़्यादा से ज़्यादा संभावित पाठक ढूंढने के लिए उसे प्रचार करना ही पढ़ेगा। बहुत लोग आपके सब्सक्राइवर बन जाते हैं तो बहुत से ऐसे भी होते हैं जो (कारण कुछ भी हो सकते हैं) ईमेल से नयी पोस्ट की सूचना मिलने पर ख़ुश होते हैं।
आपको क्या लगता है ? ईमेल से पोस्ट का प्रचार सही है या ग़लत ?
No east or west,mumbaikar or bihaari, hindu/muslim/sikh/christian /dalit/brahmin… for me.. what I believe in logic, rationality and humanity...own whatever the good, the logical, the rational and the human here and leave the rest.
मंगलवार, 28 सितंबर 2010
सोमवार, 27 सितंबर 2010
क्षमा
रात भर इस कशमकश में रहा कि इस वक्त जैसी मनःस्थिति में हूँ, क्या ठीक से अपनी बात रख पा रहा हूँ !? एक अपराध-बोध ने और घेर लिया कि कहीं ब्लॉगिंग जैसे अत्यंत लोकतांत्रिक और संभावनाओं भरे माध्यम का कोई बेज़ा इस्तेमाल करके किसी तरह की ग़लत नज़ीर तो नहीं पेश कर रहा !?
इस लेख-श्रृंखला को यहीं समाप्त कर रहा हूँ ।
-संजय ग्रोवर
इस लेख-श्रृंखला को यहीं समाप्त कर रहा हूँ ।
-संजय ग्रोवर
रविवार, 26 सितंबर 2010
मालिक ने हर इंसान को इंसान बनाया
आईए.......2
पिछला भाग पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें।
दलों, वादों, धाराओं आदि द्वारा बड़े किए गए, खड़े किए गए और पाले-पोसे गए बुद्विजीवियों की मजबूरी समझी जा सकती है। हाई कमांड के होते उन्हें ज़िंदगी-भर कार्य-कर्त्ता ही रहना होता है, वे कभी (अगर उनके अपने कुछ विचार हों भी) विचारकर्त्ता नहीं बन सकते। दल, वाद या धारा से कार्यकर्त्ता का रिश्ता कुछ-कुछ ऐसा होता है जैसा एक रुढ़ सोच के तहत चलने वाले परिवार में एक धाकड़-मर्द पति से एक पर्दानशीं पत्नी का होता है। पर्दे के भीतर से ‘हां’ मे सिर हिलाने की आज़ादी भर होती है।
विचित्र विडम्बना है कि दल, मठ, गुट आदि-आदि की सरपरस्ती या छत्रछाया में कोई यह तक मशहूर करने में सफ़ल हो जा सकता है कि तसलीमा नसरीन तो वास्तव में स्त्री-विरोधी हैं। सारा संघर्ष तो दरअसल हमने किया था 2010 में जबकि यह चालाक तसलीमा 2005 में ही क्रेडिट ले उड़ी। अब मौज-मजे की बारी आयी है तो तसलीमा का कहीं पता नहीं चल रहा और मजबूरी में हमें मज़े करने पड़ रहे हैं। इतनी धोखेबाज़ हैं तसलीमा।
कॉलोनी के बेईमान दुकानदार के लिए सुविधा हमेशा इसी में होती है कि उसके प्रतिद्वंदी दुकानदार भी बेईमान हों। ईमानदार प्रतिद्वंदी उसके लिए सबसे बड़ा सिरदर्द होता है। उसके लिए रास्ता अकसर यही होता है कि या तो वो ईमानदार दुकानदार भी बेईमान बन जाए या फ़िर ‘सीधी तरह से न माने तो’, उसे किसी भी तरह बेईमान ‘घोषित’ और ‘सिद्व’ कर दिया जाए। फ़िर भी न माने तो और भी रास्ते हैं। (अपने समय की कई प्रखर प्रतिभाओं को ‘पागल’ सिद्ध कर दिए जाने को हमने सिर्फ़ सुना ही नही देखा भी है)
ठीक इसी तरह एक कट्टरपंथ का अस्तित्व भी दूसरे कट्टरपंथ के रहते ही संभव होता है। यह देखना दिलचस्प भी होता है और दुखद भी कि एक सांप्रदायिकता दूसरी सांप्रदायिकता (अगर प्रतिद्वंदी सांप्रदायिकता भी धर्मनिरपेक्षता का पोज़ बनाकर आ जाए तो और भी आसानी से) को तो स्वीकार करने पर तैयार हो जाती है मगर ‘इंसानियत’ शब्द का ज़िक्र भी आने से वह या तो हंसी उड़ाना शुरु कर देती है या इंसानियत की बात करने वाले को सांप्रदायिक सिद्ध करने पर तुल जाती है।
सुबह एफ एम पर मुझे अपना प्रिय गीत सुनने को मिला:
तू हिंदू बनेगा न मुसलमान बनेगा
इंसान की औलाद है, इंसान बनेगा
मगर मैं सोचता रहा कि हिंदी फ़िल्मी गीत जिनमें से हम पता नहीं कैसी-कैसी मिसालें ढूंढने में कामयाब हो रहते हैं, उस खज़ाने में उपरोक्त अर्थ वाले और कितने गीत हैं ?
मालिक ने हर इंसान को इंसान बनाया
हमने उसे हिंदू या मुसलमान बनाया
मुझे नहीं पता कि साहिर नास्तिक थे या आस्तिक और ‘मालिक’ का ‘अस्तित्व’ इस गीत में उन्हांेने अपनी मर्ज़ी से स्वीकार किया है या किसी मजबूरी में यह शब्द इस्तेमाल किया है मगर अपने अनुभव से इतना ज़रुर कह सकता हूं कि नास्तिक तो मुझे आज तक ऐसा कोई नहीं मिला जिसे यह गीत बुरा लगता हो।
मगर क्या आप इससे मिलते-जुलते अर्थ के भी पाँच और हिंदी फ़िल्मी गीत बता सकते हैं !?
इंसानियत जो सारे मसलों का हल बन सकती है उस पर बात करने में इतनी हिचकिचाहट क्यों !?
(जारी)
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दलों, वादों, धाराओं आदि द्वारा बड़े किए गए, खड़े किए गए और पाले-पोसे गए बुद्विजीवियों की मजबूरी समझी जा सकती है। हाई कमांड के होते उन्हें ज़िंदगी-भर कार्य-कर्त्ता ही रहना होता है, वे कभी (अगर उनके अपने कुछ विचार हों भी) विचारकर्त्ता नहीं बन सकते। दल, वाद या धारा से कार्यकर्त्ता का रिश्ता कुछ-कुछ ऐसा होता है जैसा एक रुढ़ सोच के तहत चलने वाले परिवार में एक धाकड़-मर्द पति से एक पर्दानशीं पत्नी का होता है। पर्दे के भीतर से ‘हां’ मे सिर हिलाने की आज़ादी भर होती है।
विचित्र विडम्बना है कि दल, मठ, गुट आदि-आदि की सरपरस्ती या छत्रछाया में कोई यह तक मशहूर करने में सफ़ल हो जा सकता है कि तसलीमा नसरीन तो वास्तव में स्त्री-विरोधी हैं। सारा संघर्ष तो दरअसल हमने किया था 2010 में जबकि यह चालाक तसलीमा 2005 में ही क्रेडिट ले उड़ी। अब मौज-मजे की बारी आयी है तो तसलीमा का कहीं पता नहीं चल रहा और मजबूरी में हमें मज़े करने पड़ रहे हैं। इतनी धोखेबाज़ हैं तसलीमा।
कॉलोनी के बेईमान दुकानदार के लिए सुविधा हमेशा इसी में होती है कि उसके प्रतिद्वंदी दुकानदार भी बेईमान हों। ईमानदार प्रतिद्वंदी उसके लिए सबसे बड़ा सिरदर्द होता है। उसके लिए रास्ता अकसर यही होता है कि या तो वो ईमानदार दुकानदार भी बेईमान बन जाए या फ़िर ‘सीधी तरह से न माने तो’, उसे किसी भी तरह बेईमान ‘घोषित’ और ‘सिद्व’ कर दिया जाए। फ़िर भी न माने तो और भी रास्ते हैं। (अपने समय की कई प्रखर प्रतिभाओं को ‘पागल’ सिद्ध कर दिए जाने को हमने सिर्फ़ सुना ही नही देखा भी है)
ठीक इसी तरह एक कट्टरपंथ का अस्तित्व भी दूसरे कट्टरपंथ के रहते ही संभव होता है। यह देखना दिलचस्प भी होता है और दुखद भी कि एक सांप्रदायिकता दूसरी सांप्रदायिकता (अगर प्रतिद्वंदी सांप्रदायिकता भी धर्मनिरपेक्षता का पोज़ बनाकर आ जाए तो और भी आसानी से) को तो स्वीकार करने पर तैयार हो जाती है मगर ‘इंसानियत’ शब्द का ज़िक्र भी आने से वह या तो हंसी उड़ाना शुरु कर देती है या इंसानियत की बात करने वाले को सांप्रदायिक सिद्ध करने पर तुल जाती है।
सुबह एफ एम पर मुझे अपना प्रिय गीत सुनने को मिला:
तू हिंदू बनेगा न मुसलमान बनेगा
इंसान की औलाद है, इंसान बनेगा
मगर मैं सोचता रहा कि हिंदी फ़िल्मी गीत जिनमें से हम पता नहीं कैसी-कैसी मिसालें ढूंढने में कामयाब हो रहते हैं, उस खज़ाने में उपरोक्त अर्थ वाले और कितने गीत हैं ?
मालिक ने हर इंसान को इंसान बनाया
हमने उसे हिंदू या मुसलमान बनाया
मुझे नहीं पता कि साहिर नास्तिक थे या आस्तिक और ‘मालिक’ का ‘अस्तित्व’ इस गीत में उन्हांेने अपनी मर्ज़ी से स्वीकार किया है या किसी मजबूरी में यह शब्द इस्तेमाल किया है मगर अपने अनुभव से इतना ज़रुर कह सकता हूं कि नास्तिक तो मुझे आज तक ऐसा कोई नहीं मिला जिसे यह गीत बुरा लगता हो।
मगर क्या आप इससे मिलते-जुलते अर्थ के भी पाँच और हिंदी फ़िल्मी गीत बता सकते हैं !?
इंसानियत जो सारे मसलों का हल बन सकती है उस पर बात करने में इतनी हिचकिचाहट क्यों !?
(जारी)
आईए अफ़वाह फ़ैला दें कि विष्णु नागर सांप्रदायिक हैं
अभी कहीं पढ़ा कि दारुल उलूम देवबंद ने कहा है कि कंडोम का इस्तेमाल ईश्वरीय नियमों के खि़लाफ़ है। मेरा ख़्याल है कि यह बात सही ही होगी, क्योंकि ख़ुदा, ईश्वर या गॉड उसे जो भी कह लो, उस बेचारे को (क्योंकि कहना आपको है, उसने तो अपना नाम किसी को बताया नहीं) क्या पता कि क्या उसके नियमों के खि़लाफ़ है और क्या अनुकूल, क्योंकि ये नियम उसने ख़ुद तो बैठकर बनाए नहीं।
अब जैसे कंडोम की ही बात करें। यह तो इतनी ताज़ा खोज है कि ऐसा कुछ भी बदमाश इंसान कर सकता है, इसकी तो उसे शायद आशंका भी नहीं रही होगी, तो वह इसके खि़लाफ़ नियम क्या ख़ाक बनाता ? और अगर ईश्वर-अल्लाह एक ही नाम है तो ऐसा तो वह कर ही नहीं सकता था कि हिंदुओं-ईसाईयों वगैरह के लिए अलग नियम बनाता और मुसलमानों के लिए अलग। उसने बनाए होते तो सबके लिए एक से ही नियम बनाए होते। उसकी नज़र में भेद नहीं हो सकता है, यह बात तो भेद करने वाले ख़ुद भी मानने को तैयार नहीं होते।
‘ईश्वरीय नियम’ शीर्षक वाला विष्णु नागर का यह व्यंग्य आज (26-09-2010) के जनसत्ता रविवारी में छपा है। यूं तो पूरा व्यंग्य ही दिलचस्प, पठनीय और जैसी कि नागर जी की पुरानी ‘कमी’ है, आसानी से समझ में आ जाने भाषा में है और तार्किकता से भरपूर है। मगर जैसी कि बदनीयती की बदौलत कुपाठ करके किसी को ‘कुछ’ घोषित कर देने की हमारी अमूर्त्त और पुरानी परम्परा है सो हम पूरा व्यंग्य पढ़ें ही क्यों !? जबकि दो ही पैराग्राफ़ों में नागर जी को सांप्रदायिक सिद्ध करने का भरपूर मसाला मौजूद है।
आईए कोशिश करें।
बोल्ड की गई शुरुआती पंक्तियां देखिए। हम कह सकते है कि वे दारुल उलूम देवबंद यानि मुसलमानों के पीछे क्यों पड़े हैं ? क्या उन्हें हिंदुओं में व्याप्त कुरीतियां नहीं दिखाईं देतीं (यहां भाषा में थोड़ा बनावटी गुस्सा डाला जा सकता है)!? (अब थोड़ा अतिश्योक्ति में चले जाएं तो) नागर जी हर वक्त मुसलमानों के पीछे क्यों पड़े रहते हैं ? हद होती है सांप्रदायिकता की ! नागरजी, आपकी संवेदना के तंतु, जंगली जंतुओं जैसे हो गए हैं। (अब ज़रा धर्मनिरपेक्षता की अपनी महान मोटी समझ का इस्तेमाल करें) नागरजी ने कहा है कि दारुल उलूम देवबंद ने कहा है कि कंडोम का इस्तेमाल ईश्वरीय नियमों के खि़लाफ़ है। नागर जी ! आप दारुल उलूम देवबंद को ईश्वरीय नियमों के अधीन क्यों लाना चाहते हैं !? क्या आप चाहते हैं कि सारे मुसलमान हिंदू बन जाएं !? हद है !? (थोड़ा और बदमाशी पर उतर आएं) नागर जी, क्या आप हिंदू-मुसलमानों को लड़ाना चाहते हैं !? शर्मनाक ! शर्मनाक !
(बात बनी नहीं, थोड़ा और बदमाशी पर उतरें, बेशर्मी दिखाएं) नागर जी! अगली पंक्तियों में तो हद ही कर दी है आपने ! देखिए तो : हिंदुओं-ईसाईयों वगैरह के लिए अलग नियम बनाता और मुसलमानों के लिए अलग। क्या आप हिंदुओं-ईसाईयों को मुसलमानों के ख़िलाफ़ एकजुट नहीं कर रहे! बाज आ जाईए।
------------------------------------------
ऐसा नहीं है कि बाक़ी के व्यंग्य में ऐसी ‘संभावनाएं’ नहीं हैं। बल्कि इतनी हैं कि ‘संभावनाओं’ की तलाश में जुटी दुर्भावनाएं चाहें तो पूरा व्यंग्य ही ले उड़ सकती हैं। बहरहाल, मेरे लिए संभावना यह निकली कि कई दिन से इसपर लिखना चाह रहा था, नागर जी के लेख ने उकसा दिया। आप इसे ‘प्रेरित कर दिया’ भी पढ़ सकते हैं। यूं तो, जितना नागर जी को पढ़ा है, उनकी समझ के बारे में यही समझ बनी है कि यह लेख उनके हत्थे चढ़ भी गया तो पढ़ कर वास्तविक मंतव्य को तुरंत समझ जाएंगे और धीरे से मुस्करा भर देंगे। फ़िर भी संभावनाओं का क्या भरोसा, कब किसके सर चढ़कर बोलने लगें। कलको मुझपर कुछ लिख दिया तो !? ‘बड़े’ लेखक हैं, मेरी कौन सुनेगा ? मैं तो यह भी नहीं कह सकता कि ’वही होगा जो ईश्वर को मंजूर होगा।’
-----------------------------------------------
बहरहाल, मेरे लिए सवाल यह है कि मार नकली धर्मनिरपेक्षता जमाकर लेने के बावजूद कुछ लोगों का पेट और मन इतना क्यों नहीं भरता कि सामने वाले को ‘सांप्रदायिक’ घोषित करना ज़रुरी हो जाता है !? मामला क्या है ? क्या इसके पीछे सिर्फ़ धर्मनिरपेक्षता की मोटी समझ ही कार्य करती है या चालाकी और अवसरवादिता की भी बड़ी भूमिका होती है ? जो जावेद अख़्तर और साजिद रशीद, हिंदू और मुस्लिम कट्टरपंथिओं की छातियों को एक ही ऊंगली से ठोंकते हैं वे हमारे तथाकथित धर्मनिरपेक्षों की समझ में कम क्यों आते हैं !?
अगले दो-चार दिन मैं आपसे इसी पर बतियाना चाहता हूँ, मगर छोटे-छोटे पैराग्राफ़ में। खुलकर अपनी बात कहें। न मुझे बख़्शें न किसी और को। और पिछले अनुभवों को देखते हुए मुझे आपसे यह निवेदन करने की ज़रुरत नहीं लगती कि भाषा अशालीन और भड़काऊ न हो। आप सभी समझदार लोग हैं।
(जारी)
-संजय ग्रोवर
अब जैसे कंडोम की ही बात करें। यह तो इतनी ताज़ा खोज है कि ऐसा कुछ भी बदमाश इंसान कर सकता है, इसकी तो उसे शायद आशंका भी नहीं रही होगी, तो वह इसके खि़लाफ़ नियम क्या ख़ाक बनाता ? और अगर ईश्वर-अल्लाह एक ही नाम है तो ऐसा तो वह कर ही नहीं सकता था कि हिंदुओं-ईसाईयों वगैरह के लिए अलग नियम बनाता और मुसलमानों के लिए अलग। उसने बनाए होते तो सबके लिए एक से ही नियम बनाए होते। उसकी नज़र में भेद नहीं हो सकता है, यह बात तो भेद करने वाले ख़ुद भी मानने को तैयार नहीं होते।
‘ईश्वरीय नियम’ शीर्षक वाला विष्णु नागर का यह व्यंग्य आज (26-09-2010) के जनसत्ता रविवारी में छपा है। यूं तो पूरा व्यंग्य ही दिलचस्प, पठनीय और जैसी कि नागर जी की पुरानी ‘कमी’ है, आसानी से समझ में आ जाने भाषा में है और तार्किकता से भरपूर है। मगर जैसी कि बदनीयती की बदौलत कुपाठ करके किसी को ‘कुछ’ घोषित कर देने की हमारी अमूर्त्त और पुरानी परम्परा है सो हम पूरा व्यंग्य पढ़ें ही क्यों !? जबकि दो ही पैराग्राफ़ों में नागर जी को सांप्रदायिक सिद्ध करने का भरपूर मसाला मौजूद है।
आईए कोशिश करें।
बोल्ड की गई शुरुआती पंक्तियां देखिए। हम कह सकते है कि वे दारुल उलूम देवबंद यानि मुसलमानों के पीछे क्यों पड़े हैं ? क्या उन्हें हिंदुओं में व्याप्त कुरीतियां नहीं दिखाईं देतीं (यहां भाषा में थोड़ा बनावटी गुस्सा डाला जा सकता है)!? (अब थोड़ा अतिश्योक्ति में चले जाएं तो) नागर जी हर वक्त मुसलमानों के पीछे क्यों पड़े रहते हैं ? हद होती है सांप्रदायिकता की ! नागरजी, आपकी संवेदना के तंतु, जंगली जंतुओं जैसे हो गए हैं। (अब ज़रा धर्मनिरपेक्षता की अपनी महान मोटी समझ का इस्तेमाल करें) नागरजी ने कहा है कि दारुल उलूम देवबंद ने कहा है कि कंडोम का इस्तेमाल ईश्वरीय नियमों के खि़लाफ़ है। नागर जी ! आप दारुल उलूम देवबंद को ईश्वरीय नियमों के अधीन क्यों लाना चाहते हैं !? क्या आप चाहते हैं कि सारे मुसलमान हिंदू बन जाएं !? हद है !? (थोड़ा और बदमाशी पर उतर आएं) नागर जी, क्या आप हिंदू-मुसलमानों को लड़ाना चाहते हैं !? शर्मनाक ! शर्मनाक !
(बात बनी नहीं, थोड़ा और बदमाशी पर उतरें, बेशर्मी दिखाएं) नागर जी! अगली पंक्तियों में तो हद ही कर दी है आपने ! देखिए तो : हिंदुओं-ईसाईयों वगैरह के लिए अलग नियम बनाता और मुसलमानों के लिए अलग। क्या आप हिंदुओं-ईसाईयों को मुसलमानों के ख़िलाफ़ एकजुट नहीं कर रहे! बाज आ जाईए।
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ऐसा नहीं है कि बाक़ी के व्यंग्य में ऐसी ‘संभावनाएं’ नहीं हैं। बल्कि इतनी हैं कि ‘संभावनाओं’ की तलाश में जुटी दुर्भावनाएं चाहें तो पूरा व्यंग्य ही ले उड़ सकती हैं। बहरहाल, मेरे लिए संभावना यह निकली कि कई दिन से इसपर लिखना चाह रहा था, नागर जी के लेख ने उकसा दिया। आप इसे ‘प्रेरित कर दिया’ भी पढ़ सकते हैं। यूं तो, जितना नागर जी को पढ़ा है, उनकी समझ के बारे में यही समझ बनी है कि यह लेख उनके हत्थे चढ़ भी गया तो पढ़ कर वास्तविक मंतव्य को तुरंत समझ जाएंगे और धीरे से मुस्करा भर देंगे। फ़िर भी संभावनाओं का क्या भरोसा, कब किसके सर चढ़कर बोलने लगें। कलको मुझपर कुछ लिख दिया तो !? ‘बड़े’ लेखक हैं, मेरी कौन सुनेगा ? मैं तो यह भी नहीं कह सकता कि ’वही होगा जो ईश्वर को मंजूर होगा।’
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बहरहाल, मेरे लिए सवाल यह है कि मार नकली धर्मनिरपेक्षता जमाकर लेने के बावजूद कुछ लोगों का पेट और मन इतना क्यों नहीं भरता कि सामने वाले को ‘सांप्रदायिक’ घोषित करना ज़रुरी हो जाता है !? मामला क्या है ? क्या इसके पीछे सिर्फ़ धर्मनिरपेक्षता की मोटी समझ ही कार्य करती है या चालाकी और अवसरवादिता की भी बड़ी भूमिका होती है ? जो जावेद अख़्तर और साजिद रशीद, हिंदू और मुस्लिम कट्टरपंथिओं की छातियों को एक ही ऊंगली से ठोंकते हैं वे हमारे तथाकथित धर्मनिरपेक्षों की समझ में कम क्यों आते हैं !?
अगले दो-चार दिन मैं आपसे इसी पर बतियाना चाहता हूँ, मगर छोटे-छोटे पैराग्राफ़ में। खुलकर अपनी बात कहें। न मुझे बख़्शें न किसी और को। और पिछले अनुभवों को देखते हुए मुझे आपसे यह निवेदन करने की ज़रुरत नहीं लगती कि भाषा अशालीन और भड़काऊ न हो। आप सभी समझदार लोग हैं।
(जारी)
-संजय ग्रोवर
रविवार, 19 सितंबर 2010
अफ़वाहें अमर हैं~~~( पूरी कविता )
‘जो यथार्थ को व्यक्त करता है
वह अफ़वाहों में मार दिया जाता है !’
(उदय प्रकाश)
अफ़वाहें अमर हैं (पूरी कविता)
(08-09-2010)
गुट-विरोधी गुंडों का गुट
उनकी लटें सुलझाकर
चोटी गूंथ रहा है
साहित्यिक सरगनाओं की
गणित-निपुण आवारगी
उनकी रक्षा में तैनात है
उन्हें किसका डर है
वे कलात्मक हैं, अमूर्त्त हैं,
हुनर हैं
अफवाहें अमर हैं
धक्के खाती
घर को लुटाती
सच्चाई तस्लीम न होने पाई
अफ़वाहों के भारी विरोध के चलते
अब
मौज-मजे की बारी है
अफ़वाहों का पहला नंबर है
अफवाहें अमर हैं
.........................
आएंगे बुद्ध, कबीर, जीसस
कभी-कभी बरसेंगे बादल की मानिंद
कोई ओशो कोई तसलीमा
दस-पाँच को जगाएंगे
बीस-तीस को हर्षाएंगे
क्या कर पाएंगे
अहा इस आसमान की पसराहट तो देखो
सोया है चिंतनरत
सालों से शाश्वत
पता नहीं क्या करता है क्या नहीं करता
कुछ करता भी है कि नहीं करता
मगर इस शून्य की चौधराहट तो देखो
अफ़वाहें भी ऐसे ही पुरअसर हैं
नहीं हैं फिर भी हर जगह हैं
ससुरी चौबीस घण्टे की ख़बर हैं
भाई मेरे, मान भी लो
अफ़वाहे अमर हैं
बाबूजी, ज़रा इस प्रांगण में आओ
कुर्सी-मेज़ों-काउंटरों से सजे
रणस्थल में पधारो
कुछ भी नहीं हो रहा
पर सब कुछ युद्ध-स्तर पर हो रहा है
होगें तुम्हारे पास आर.टी.आई. के झुनझुने
पर यहां
‘अभी आएगी’, ‘आने ही वाली है’
जैसे
रेल की सीटी के स्वर हैं
अफ़वाहे अमर हैं
अफ़वाहें कभी मरतीं नहीं
हां मर चुका होता है
उन्हें फैलाने वाला
फैलाने से पहले ही
अपनी-अपनी नियति है
अपना-अपना असर है
अफवाहें अमर हैं
08-09-2010
-संजय ग्रोवर
अधूरी कविता का लिंक
( यूं तो कविता पूरी हुई पर नहीं कहता कि इसमें सुधार और विस्तार की गुंजाइश नहीं है। )
वह अफ़वाहों में मार दिया जाता है !’
(उदय प्रकाश)
अफ़वाहें अमर हैं (पूरी कविता)
(08-09-2010)
गुट-विरोधी गुंडों का गुट
उनकी लटें सुलझाकर
चोटी गूंथ रहा है
साहित्यिक सरगनाओं की
गणित-निपुण आवारगी
उनकी रक्षा में तैनात है
उन्हें किसका डर है
वे कलात्मक हैं, अमूर्त्त हैं,
हुनर हैं
अफवाहें अमर हैं
धक्के खाती
घर को लुटाती
सच्चाई तस्लीम न होने पाई
अफ़वाहों के भारी विरोध के चलते
अब
मौज-मजे की बारी है
अफ़वाहों का पहला नंबर है
अफवाहें अमर हैं
.........................
आएंगे बुद्ध, कबीर, जीसस
कभी-कभी बरसेंगे बादल की मानिंद
कोई ओशो कोई तसलीमा
दस-पाँच को जगाएंगे
बीस-तीस को हर्षाएंगे
क्या कर पाएंगे
अहा इस आसमान की पसराहट तो देखो
सोया है चिंतनरत
सालों से शाश्वत
पता नहीं क्या करता है क्या नहीं करता
कुछ करता भी है कि नहीं करता
मगर इस शून्य की चौधराहट तो देखो
अफ़वाहें भी ऐसे ही पुरअसर हैं
नहीं हैं फिर भी हर जगह हैं
ससुरी चौबीस घण्टे की ख़बर हैं
भाई मेरे, मान भी लो
अफ़वाहे अमर हैं
बाबूजी, ज़रा इस प्रांगण में आओ
कुर्सी-मेज़ों-काउंटरों से सजे
रणस्थल में पधारो
कुछ भी नहीं हो रहा
पर सब कुछ युद्ध-स्तर पर हो रहा है
होगें तुम्हारे पास आर.टी.आई. के झुनझुने
पर यहां
‘अभी आएगी’, ‘आने ही वाली है’
जैसे
रेल की सीटी के स्वर हैं
अफ़वाहे अमर हैं
अफ़वाहें कभी मरतीं नहीं
हां मर चुका होता है
उन्हें फैलाने वाला
फैलाने से पहले ही
अपनी-अपनी नियति है
अपना-अपना असर है
अफवाहें अमर हैं
08-09-2010
-संजय ग्रोवर
अधूरी कविता का लिंक
( यूं तो कविता पूरी हुई पर नहीं कहता कि इसमें सुधार और विस्तार की गुंजाइश नहीं है। )
शुक्रवार, 17 सितंबर 2010
लेखन में रामराज्य
‘रामराज्य‘ रोके से न रूकता था। आए ही जा रहा था। एक विशेष राजनीतिक दल को इसे लाने का ठेका दिया गया था। व्यंग्यकार चिंतित थे कि राम राज्य आ गया तो लिखने को क्या रह जाएगा। और इसी चिंता में लिखे जा रहे थे। ऐसी ही किसी ‘सिचुएशन‘ में एक महिला ने अपनी सहेली से पूछा कि वह स्वेटर इतनी तेज़ रफ्तार से क्यों बुन रही है। महिला ने जवाब दिया कि ऊन बहुत थोड़ी बची है। और इसके खत्म हो जाने के पहले ही वह स्वेटर पूरा कर लेना चाहती है। इसके अलावा भी व्यंग्यकारों ने देख लिया था कि महाकवि ने भी ग्रंथ रचते समय गर्भवती पत्नियों को फिंकवा देने या छल से राजाओं को मार गिराने जैसे ‘निगेटिव प्वांइट्स‘ को ज़्यादा तूल नहीं दिया था। जरूर ग्रंथ लिखते समय महाकवि की मानसिकता ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा‘ और ‘आप भला तो जग भला‘ वाली रही होगी। व्यंग्यकारों ने निर्णय लिया कि एक पहुंचे हुए व सफल लेखक की यही पहचान है।
ऊपर से एक बार एक बड़ी और पुरानी इमारत को गिराए जाने के पश्चात् एक बड़े संपादक के गांव में भैंसें पूर्ववत् पगुरा रही थीं। ऐसे में व्यंग्यकार धोबी बनकर भी अपनी धुलाई करवाने का झंझट क्यों पालते? उनमें लगभग सभी गणितवीर थे। राजा, उसके दरबारी विद्वानों और कागज़ी व्यवस्था पर उंगली उठाने से ज्यादा आसान उन्हें अकेले धोबी की गरदन पकड़ना लगा। अतः उन्होंने सारी दुनिया छोड़कर एक धोबी के पीछे पड़ जाने का साहसिक निर्णय लिया। साथ ही वे नवोत्सुकों को व्यंग्य की परिभाषा समझाने लग पड़े। इनके जीते जी नवोत्सुकों को सदा नवोत्सुक ही रहना पड़ता था बशर्ते कि वे (नवोत्सुक) जीते जी न मर जाएं।
इधर अखबारों की चोटियां और दाढ़ियां निकल आईं और मुखपृष्ठों के माथों पर अपनी-अपनी परंपराओं के प्रतीक-चिन्ह पोते जाने लगे। देश में राजनेता इतने हो गए थे कि व्यंग्यकारों को रोज़ एक नया राक्षस मार गिराने का आनंद आ रहा था। इसलिए उन्होंने बाकी सभी विषयों से ध्यान हटाकर सारा यहीं केंद्रित कर दिया था। राक्षस चींटियों की तरह मर रहे थे। कलम के ब्रह्मास्त्रों के आगे उनकी एक न चलती थी। फिर मरे हुए राक्षसों को बटोरकर उनके पुतले बनाए जाते और उनकी छाती पर पैर रखकर हंसते हुए खिंचाई गई शब्दों की फोटुएं अपने-अपने कालमों में चेप दी जातीं।
इधर किसी सिरफिरे ने बताया कि जिन चींटों से आप पुरस्कार, पैसा व प्रतिष्ठा खींच रहे हैं वे उन्हीं चींटियों के धुले व फूले हुए संस्करण हैं जिन्हें आपने मरा समझ लिया है। मगर फालतू वक्त किसके पास था जो ऐसी गैर-पारंपरिक बातों पर ध्यान देता। फिर भी उनमें से कुछेक जागरूक थे। उन सबने एक-एक व्यंग्य उस सिरफिरे पर लिखा और फिर से रामराज्य की कल्पनाओं में खो गए।
और इतना खोए कि सो गए।
-संजय ग्रोवर
(हंस जनवरी, 1996 में प्रकाशित एवं व्यंग्य-संकलन ‘बीसवीं सदी की चर्चित व्यंग्य-रचनाएं‘ में संकलित)
ऊपर से एक बार एक बड़ी और पुरानी इमारत को गिराए जाने के पश्चात् एक बड़े संपादक के गांव में भैंसें पूर्ववत् पगुरा रही थीं। ऐसे में व्यंग्यकार धोबी बनकर भी अपनी धुलाई करवाने का झंझट क्यों पालते? उनमें लगभग सभी गणितवीर थे। राजा, उसके दरबारी विद्वानों और कागज़ी व्यवस्था पर उंगली उठाने से ज्यादा आसान उन्हें अकेले धोबी की गरदन पकड़ना लगा। अतः उन्होंने सारी दुनिया छोड़कर एक धोबी के पीछे पड़ जाने का साहसिक निर्णय लिया। साथ ही वे नवोत्सुकों को व्यंग्य की परिभाषा समझाने लग पड़े। इनके जीते जी नवोत्सुकों को सदा नवोत्सुक ही रहना पड़ता था बशर्ते कि वे (नवोत्सुक) जीते जी न मर जाएं।
इधर अखबारों की चोटियां और दाढ़ियां निकल आईं और मुखपृष्ठों के माथों पर अपनी-अपनी परंपराओं के प्रतीक-चिन्ह पोते जाने लगे। देश में राजनेता इतने हो गए थे कि व्यंग्यकारों को रोज़ एक नया राक्षस मार गिराने का आनंद आ रहा था। इसलिए उन्होंने बाकी सभी विषयों से ध्यान हटाकर सारा यहीं केंद्रित कर दिया था। राक्षस चींटियों की तरह मर रहे थे। कलम के ब्रह्मास्त्रों के आगे उनकी एक न चलती थी। फिर मरे हुए राक्षसों को बटोरकर उनके पुतले बनाए जाते और उनकी छाती पर पैर रखकर हंसते हुए खिंचाई गई शब्दों की फोटुएं अपने-अपने कालमों में चेप दी जातीं।
इधर किसी सिरफिरे ने बताया कि जिन चींटों से आप पुरस्कार, पैसा व प्रतिष्ठा खींच रहे हैं वे उन्हीं चींटियों के धुले व फूले हुए संस्करण हैं जिन्हें आपने मरा समझ लिया है। मगर फालतू वक्त किसके पास था जो ऐसी गैर-पारंपरिक बातों पर ध्यान देता। फिर भी उनमें से कुछेक जागरूक थे। उन सबने एक-एक व्यंग्य उस सिरफिरे पर लिखा और फिर से रामराज्य की कल्पनाओं में खो गए।
और इतना खोए कि सो गए।
-संजय ग्रोवर
(हंस जनवरी, 1996 में प्रकाशित एवं व्यंग्य-संकलन ‘बीसवीं सदी की चर्चित व्यंग्य-रचनाएं‘ में संकलित)
सोमवार, 13 सितंबर 2010
वर्चुअल चोरी: गज़ल एक, शायर पाँच !
मित्रों, एक पहेली ने परेशान कर डाला है। एक ग़ज़ल पाँच जगह पाँच शायरों के साथ पायी गई है। क्या आप बता सकते हैं असली शायर कौन है ?
1.
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4-
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गुरुवार, 9 सितंबर 2010
तुम्हारे हंसने पे आता है हंसना
ग़ज़ल
ज़ुबां तक बात गर आई नहीं है
कहूं क्या ! उसमें सच्चाई नहीं है
तुम्हारे हंसने पे आता है हंसना
ज़रा भी इसमें गहराई नहीं है
अदाकारी करे जो प्यार में भी
वो चालाकी है अंगड़ाई नहीं है
जो मेरी अक्ल को पत्थर बना दे
कि तुमने वो अदा पाई नहीं है
हैं मेरे पास सब नक्शों के नक्शे
तुम्हे आवाज़ तक आई नहीं है
तेरी आवारगी में भी गणित है
अक़ल ये हमको आज आई नहीं है
तू हिंदू हो या मुस्लिम, मैं ये जानूं
तुझे इंसानियत आई नहीं है
शुकर है कुछ तजुरबे काम आए
वगरना कौन हरजाई नहीं है
-संजय ग्रोवर
ज़ुबां तक बात गर आई नहीं है
कहूं क्या ! उसमें सच्चाई नहीं है
तुम्हारे हंसने पे आता है हंसना
ज़रा भी इसमें गहराई नहीं है
अदाकारी करे जो प्यार में भी
वो चालाकी है अंगड़ाई नहीं है
जो मेरी अक्ल को पत्थर बना दे
कि तुमने वो अदा पाई नहीं है
हैं मेरे पास सब नक्शों के नक्शे
तुम्हे आवाज़ तक आई नहीं है
अक़ल ये हमको आज आई नहीं है
तू हिंदू हो या मुस्लिम, मैं ये जानूं
तुझे इंसानियत आई नहीं है
शुकर है कुछ तजुरबे काम आए
वगरना कौन हरजाई नहीं है
-संजय ग्रोवर
बुधवार, 8 सितंबर 2010
अफ़वाहें अमर हैं
स्थान: फ़ेसबुक
समय: कुछ घण्टे पहले
स्टेटस:
Uday Prakash :
'जो यथार्थ को व्यक्त करता है,
वह मार दिया जाता है अफ़वाहों से !'
Sanjay Grover :
अफ़वाहें अमर हैं
गुट-विरोधी गुंडों का गुट
उनकी लटें सुलझाकर
चोटी गूंथ रहा है
साहित्यिक सरगनाओं की
गणित-निपुण आवारगी
उनकी रक्षा में तैनात है
उन्हें किसका डर है
वे कलात्मक हैं,अमूर्त्त हैं,
हुनर हैं
अफवाहें अमर हैं
धक्के खाती
घर को लुटाती
सच्चाई तस्लीम न होने दी गई
अफ़वाहों के भारी विरोध के चलते
अब
मौज-मजे की बारी आयी है
अफ़वाहों का पहला नंबर है
अफवाहें अमर हैं
(अभी-अभी लिखा गया....बाक़ी पूरा होने पर....)
-संजय ग्रोवर
समय: कुछ घण्टे पहले
स्टेटस:
Uday Prakash :
'जो यथार्थ को व्यक्त करता है,
वह मार दिया जाता है अफ़वाहों से !'
Sanjay Grover :
अफ़वाहें अमर हैं
गुट-विरोधी गुंडों का गुट
उनकी लटें सुलझाकर
चोटी गूंथ रहा है
साहित्यिक सरगनाओं की
गणित-निपुण आवारगी
उनकी रक्षा में तैनात है
उन्हें किसका डर है
वे कलात्मक हैं,अमूर्त्त हैं,
हुनर हैं
अफवाहें अमर हैं
धक्के खाती
घर को लुटाती
सच्चाई तस्लीम न होने दी गई
अफ़वाहों के भारी विरोध के चलते
अब
मौज-मजे की बारी आयी है
अफ़वाहों का पहला नंबर है
अफवाहें अमर हैं
(अभी-अभी लिखा गया....बाक़ी पूरा होने पर....)
-संजय ग्रोवर
शनिवार, 4 सितंबर 2010
साहित्य-थिएटर
गिद्ध ने गुहार लगाई,
‘वे मुझे नोंच-नोंचकर खा रहे हैं’
बंदर ने बताया, ‘नकल करना बहुत बुरी बात है’
साँप ने सरगोशी की, ‘लगता है मेरी आस्तीन में कोई छुपा है’
शेर ने शिकायत की, ‘आखि़र कब तक मेरा हक़ मुझे नहीं मिलेगा’
गीदड़ ने ‘गायडेंस’ दी, ‘जो डर गया समझो मर गया’
लोमड़ी लाल-पीली होने लगी, ‘हद दर्जे के लालची हो’
कछुआ कुनमुनाया, ‘अब और आलस्य ठीक नहीं’
खरगोश खाट के नीचे से बोला, ‘हिम्मत है तो आजा सामने’
घुसपैठिया घुन्नाया, ‘मैं अपने घर पर किसी को ग़ैर-क़ानूनी कब्ज़ा हरग़िज़ नहीं करने दूंगा’
साहित्य ने सबको सुना, समोया, देखा, झेला, कहा यहाँ तक कि बका
और हंसते-हंसते उसकी आँख से आंसू निकल पड़े
अपने-अपने सुरक्षित स्वर्गों में बैठे साहित्य के देवताओं ने घोषणा की, ‘ये तो ख़ुशी के आंसू हैं’
-संजय ग्रोवर
रचना तिथि: 30-07-1994
(तकरीबन सोलह साल पहले लिखी इस कविता को बचकाना मानकर एक तरफ़ फ़ेंक रखा था। आज सोचा दोस्तों के सामने रखने में हर्ज़ भी क्या है !)
बंदर ने बताया, ‘नकल करना बहुत बुरी बात है’
साँप ने सरगोशी की, ‘लगता है मेरी आस्तीन में कोई छुपा है’
शेर ने शिकायत की, ‘आखि़र कब तक मेरा हक़ मुझे नहीं मिलेगा’
गीदड़ ने ‘गायडेंस’ दी, ‘जो डर गया समझो मर गया’
लोमड़ी लाल-पीली होने लगी, ‘हद दर्जे के लालची हो’
कछुआ कुनमुनाया, ‘अब और आलस्य ठीक नहीं’
खरगोश खाट के नीचे से बोला, ‘हिम्मत है तो आजा सामने’
घुसपैठिया घुन्नाया, ‘मैं अपने घर पर किसी को ग़ैर-क़ानूनी कब्ज़ा हरग़िज़ नहीं करने दूंगा’
साहित्य ने सबको सुना, समोया, देखा, झेला, कहा यहाँ तक कि बका
और हंसते-हंसते उसकी आँख से आंसू निकल पड़े
अपने-अपने सुरक्षित स्वर्गों में बैठे साहित्य के देवताओं ने घोषणा की, ‘ये तो ख़ुशी के आंसू हैं’
-संजय ग्रोवर
रचना तिथि: 30-07-1994
(तकरीबन सोलह साल पहले लिखी इस कविता को बचकाना मानकर एक तरफ़ फ़ेंक रखा था। आज सोचा दोस्तों के सामने रखने में हर्ज़ भी क्या है !)
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सर्वे
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साकार
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साजिश
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साभार
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साहस
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साहित्य
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साहित्य में आतंकवाद
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स्त्री-विमर्श के आस-पास
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हिंदी साहित्य में भीड़/भेड़वाद
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cricket
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cunning
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dead body
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decency in language but fraudulence of behavior
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