चलो आज कुछ बता ही दिया जाए
कविता की पैदाइश के बारे में
उम्र, तजुर्बे और प्रतिष्ठा की ऊँची मीनार पर चढ़े
पिता के
भारी-भरकम आदेश, उपदेश और झिड़कियां
गिरते हैं मुझपर
रह-रहकर
मेरे ज़ख्मों से रिसती है कविता
बस-कंडक्टर की भाषा
ब्रेक फेल हुए ट्रक की तरह
चढ़ दौड़ती है मेरी घबराई छाती पर
पंक्चर टायर से हवा की तरह
निकल जाती है कविता
( कहीं ‘फुस्स’ तो नहीं हो जाती )
दिल्ली में घूमता हूं
दफ्तर दर दफ्तर
संपादक सब उड़ रहे हैं अपने-अपने कमरों में
कमरे में इतनी भी जगह नहीं कि
अपने सारे चेहरों को अलग-अलग रख सके
तो लगाएं हैं एक के ऊपर एक
सबकी नज़रें हैं आसमान पर
सब बड़े पैमाने पर काम कर रहे हैं
मैं मक्खी सा भिनक कर पहुंचता हूँ
उनकी नाक तक
मेरी भिनभिनाहट से जैसे
कोई टेप अपने आप ही बज उठता है
सरकाता है नपे-तुले वाक्य नपी-तुली ख़ुशबू के साथ
संपादकीय प्रतिबद्धता और निष्प्पक्षता के पक्ष में
शालीन गालियां बनकर
रद्दी काग़ज़ पर गिरती है कविता
कराहते हुए
इधर मैं बैठा हूँ उस दिन के इन्तज़ार में
जब विदा हो रही होगी ऐसी कोई कविता
और मैं होऊंगा स्वतंत्र और उन्मुक्त
गर्मजोशी से हाथ हिला और मिलाकर
यह कहने के लिए
‘अलविदा कविता’
-संजय ग्रोवर
रचना तिथि: 10-09-1994