रविवार, 30 नवंबर 2008

जब किसी से कोई गिला रखना.......सामने अपने आईना रखना....






मित्रों, उम्मेद सिंह जी नाराज़ हैं कि जिन गांधीजी ने पाकिस्तान बनने दिया(हालांकि मैंने तो यह सुना है कि गांधी जी ने कहा था कि पाकिस्तान मेरी लाश पर बनेगा) उनका ज़िक्र मैंने ऐसे वक़्त पर क्योंकर किया। या शायद ज़िक्र ही क्यों किया। बहुत से मित्रों को गांधीजी से तरह-तरह की नाराज़गियां हैं। मैं उनकी नाराज़गियों का सम्मान करता हूँ। मगर सवालचंद के मन को कई तरह के सवाल मथ रहे हैं। मैं उनका भी सम्मान करता हूँ। पहला सवाल आता है कि जिन लोगों का ‘‘मुस्लिम-प्रेम’’( और अब ‘‘क्रिश्चियन प्रेम’’ भी ) सारा देश देखता आ रहा है, वे लोग, अगर पाकिस्तान न बनता तो, मुस्लिमों को कहाँ रखते और किस हाल में रखते। कोई मानवतावादी पाकिस्तान बनने पर आपत्ति करे या दुखी हो तो समझ में भी आता है। मगर हर दूसरे धर्म को बल्कि अपने ही धर्म के लोगों को अछूत बताकर उनसे वहशियाना व्यवहार करने वाले, अपने ही देश के लोगों को बिहारी कहकर भगाने वाले लोगों का ऐसा दुख, स्वांग ही ज़्यादा लगता है। वे कौन लोग थे जो मुसलमानों के साथ बैठकर शायरी भी करते थे, उनसे उर्दू भी सीखते थे और अपने घरों में उनके खाने के बर्तन अलग भी रखते थे। जो दोस्तों के साथ ऐसी छुआछूत बरतते हो वो दुश्मनों के साथ क्या करते हांेगे। हाँ, यह बात ज़रुर सोचने की है कि वे सिर्फ़ हिन्दू ही थे या हिन्दूओं में से भी कोई वर्ग-विशेष था!

दूसरा सवाल आता है कि श्री गोडसेजी ने गाँधीजी को ही गोली क्यों मारी ? क्या गांधीजी का किया उससे भी बुरा था जो अंग्रेज कर रहे थे !? आदरणीय श्री गोडसेजी ने किसी अंग्रेज को गोली क्यों नहीं मारी? सालों-साल वे देश के आज़ाद होने का इंतज़ार करते रहे।क्या गोडसेजी को पहले से पता था कि एक दिन गांधी जी पाकिस्तान ‘बनाएंगे’ और तभी मैं उनको गोली मारुंगा। एक दिन जब देश आज़ाद हो गया तो वे गए और एक निहत्थे बूढे़ को जिसके आस-पास कोई सिक्योरिटी-फ़ोर्स भी नहीं हुआ करती थी, झोले में से पिस्तौल निकालकर गोली मार दी। क्या इसी प्रकार की बहादुरी की हमें आदत पड़ चुकी है ! अभी-अभी हमने देखा कि अपने ही देश के, निहत्थे, कमज़ोर और ग़रीब बिहारियों को आए दिन पीटने वाले नए और पुराने शिवसैनिक, विदेशी आतंकियों के मृत्यु-तांडव के वक्त, बजाय कुछ करने के, किस तरह मुम्बई की सड़कों से अन्तध्र्यान हो गए। आखिरकार तो, हमेशा की ही तरह हमारे जांबाज़ सिपाहियों ने ही देश को बचाया।

अपनी प्रतिक्रिया में आपने गांधीजी के संदर्भ में धर्मनिरपेक्ष शब्द का इस्तेमाल जिस तरह से किया है वह एक बहुत बड़ी राहत की बात है। अन्यथा कट्टरपंथी तो धर्मनिरपेक्ष, नास्तिक और मानवाधिकार जैसे शब्दों का इस्तेमाल लगभग गाली की तरह करते हैं। सवालचंद पूछता है कि जब लौह-पुरुष श्री आडवाणीजी ने श्री जिन्ना को ‘‘धर्मनिरपेक्ष’’ कहा तो उनके यहां इतना वबाल क्यों मच गया ! उन्होने श्री जिन्ना की तारीफ़ की थी या बुराई ?
मित्रों, सवाल बहुत से हैं। सवालचंद धीरे-धीरे उन्हें आपके सामने रखेगा। फ़िलहाल वक़्त एक होकर कुछ करने का है। लेकिन डर और आक्रोश हमारे विवेक को इतना भी न हर लें कि हम फ़िर वही सब उपचार करने लगें जिनसे बीमारी पैदा हुई थी। याकि बीमारी को ही स्वास्थ्य न समझने लगें।

अंत में 30-11-2008 के रा. सहारा में विभांशु दिव्याल के काॅलम ‘समाज’ से आखिर के दो पैरा आपके साथ बांटना चाहूंगा (ऊपर दाएं कोने में देखें)
अपनी एक ग़ज़ल भी तो याद आती है:-

किस आसमां में उड़ता और किस ज़मीं पे सोता/
उम्मीद नहीं होती तो मैं भी नहीं होता //

कुदरत ने जानी होती गर आदमी की फितरत/
आकाश जहाँ पर है पाताल वहीं होता //

इस मुल्क में अमन की कुछ ऐसी कहानी है/
अन्जाम तो है जिसमें उन्वान नहीं होता//

गर हमने ठीक तरह कुछ काम किए होते /
तो काम उनका इतना आसान नहीं होता//

गर मैं भी उनकी तरह चेहरे बदल के हंसता/
तो मुझपे बेरुखी का इल्ज़ाम नहीं होता//

हिन्दू हैं मुसलमां हैं सिख और फिरंग सब हैं/
बस आज की दुनिया में इन्सान नहीं होता//
-संजय ग्रोवर






शुक्रवार, 28 नवंबर 2008

आज बस मौन !

देखो कहीं बरबाद न होवे ये बगीचाअपने हृदय के ख़ून से बापू ने है सींचा
रक्खा है ये चराग़ शहीदों ने बाल केइस देश को रखना मेरे बच्चों संभाल के
ऐटम बमों के ज़ोर पे ऐंठी है ये दुनियाबारुद के इक ढेर पे बैठी है ये दुनिया
तुम हर क़दम उठाना ज़रा देखभाल केइस देश को रखना मेरे बच्चों संभाल के

सोमवार, 24 नवंबर 2008

एक दुनिया नेट के अंदर




मित्रों,देख रहा हूँ कि एक दुनिया है जो नेट के अंदर है और वहाँ ब्लाॅग की अद्भुत विधा विकसित हो चुकी है( हांलांकि आजकल इसके अंत की घोषणाओं की शुरुआत हो चुकी है ) जहाँ हमारे ढंग से या मिलते-जुलते ढंग से सोचने वाले कई एक लोग मौजूद हैं। अगर हम नेट से बाहर की दुनिया देखें जहाँ ‘साहित्यिकों’ में भी उदारतापूर्ण ढंग से सोचने वाले ढूंढने पड़ते हों ( इसकी एक वजह हमारी अपनी कई तरह की सीमाएं भी होती हैं,तकनीकी समेत), वहाँ ब्लाॅग एक बहुत बड़ी राहत है, रोशनी है, सहारा है। यहाँ अनुराग अन्वेषी के ब्लाॅग पर ‘ईश्वर पर एक जिरह’ संभव है। यहाँ आकांक्षा की कविता पर सीधे-सीधे, ‘अनएडीटेड’ कमेंट संभव है। इसके अलावा, हिन्दी ब्लाॅग की दुनिया में हमारे मित्रों ने तकनीक से संबंधित बहुत ही महत्वपूर्ण व श्रमसाध्य काम तो किए ही हैं, उन्हें निस्वार्थ भाव से दूसरों के साथ साझा भी कर रहे हैं। जिन मित्रों से सहयोग, सलाहें, समाधान, सुझाव, प्रेम, प्रेरणा, प्रोत्साहन और अपने चिट्ठों पर आने के आमंत्रण मिल रहे हैं उनमें अनुराग अन्वेषी जी सहित श्यामल सुमन, कविता वाचक्न्वी, सारथी, प्रदीप मानोरिया, संगीता पुरी, शास्त्री, भूतनाथ, अमित सागर, अभिषेक, रचना गौड़ ‘भारती’ और नारद मुनि शामिल हैं। मैं सभी चिट्ठों पर जाने की कोशिश कर रहा हूँ। मित्रों, 15-11-2008 के आस-पास यह चिट्ठा और इसके लिए उखाड़-पछाड़/तांक-झांक शुरु की थी। तब से लेकर अब तक जानकारियों में कुछ इज़ाफ़ा तो हुआ है। जिसके चलते चिट्ठे की पहली पोस्ट के उस हिस्से को हटाकर जो कि रोमनी हिन्दी में लिखा गया था, इन्हीं पंक्तियों को लगा रहा हूँ। हाँ, कैलियोस्कैनी में लिखा गया हिस्सा यथावत रहेगा, ताकि सनद रहे।अगली पोस्ट में आकांक्षा और अन्वेषी जी की ‘ईश्वर पर एक जिरह’ को आगे बढ़ाने की कोशिश करुंगा।

सोमवार, 17 नवंबर 2008

*साभार* में पढें-‘‘दिल्ली के बिहारी’’

दिल्ली के बिहारी
कई दिल्ली वालों की सबसे बड़ी महानता यह है कि वे दिल्ली में पैदा हो गए। हांलांकि इसमें उनका अपना किया-धरा कुछ नहीं है। माँ-बाप ने दिल्ली में पैदा कर दिया तो दिल्ली में पैदा हो गए और दिल्ली का होने पर गर्व करने लगे। माँ-बाप अगर होनोलुलु, झुमरीतलैय्या या टिम्बकटू में पैदा कर देते तो वे वहाँ पैदा हो जाते और वहाँ के होने पर गर्व करने लगते। इसमें उनकी ग़लती भी क्या है! सभी तो यही करते हैं।
कई बार माँग उठ चुकी है कि दिल्ली में बाहर के लोगों का आना रोका जाए। क्योंकि ये दिल्ली में गन्दगी फैलाते हैं। इनमें ज्यादातर लोग बिहार व उत्तर प्रदेश के हैं। बिहारी लोगों व बिहारी शब्द से कई दिल्ली वालों को एक खास क़िस्म की एलर्ज़ी है। इतनी कि वे बिहारी शब्द का इस्तेमाल गाली के तौर पर ही ज्यादा करते हैं। दिल्ली के लोग दिल्ली की सभ्यता-संस्कृति को लेकर अत्यंत भावुक व संवेदनशील हो जाते हैं। एक बार मैंने देखा कि एक पीली टीशर्ट धारी दिल्ली वाला एक आदमी को इसलिए बिहारी कह कर चिढ़ा रहा था कि उसने गुलाबी टीशर्ट पहन रखी थी।
बहरहाल एक दिन अपनी खोपड़ी के पृष्ठ भाग पर थप्पड़ मारते हुए मैं ये सोचने बैठा कि दिल्ली में कौन दिल्ली का है और कौन नहीं! जैसे-जैसे सोचता गया वैसे-वैसे उलझन बढ़ती गई। कोई यू.पी. से आकर यहाँ जम गया तो कोई बिहार से आकर बस गया। कोई जम्मू-कश्मीर से पधारा है तो कोई आँध्र प्रदेश से आया है। यहाँ तक कि आज जो लोग दिल्ली में बाहर से आने वालों को रोकने की माँग कर रहे हैं उनमें से भी बहुत से खुद दिल्ली में बाहर से आए हैं यानि कि शरणार्थी हैं। मैं सोचता हँू कि अगर विभाजन के तुरंत बाद इस सोच पर अमल किया गया होता तो ये सब चक्कर ही न पड़ता। बहरहाल, अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है।
ये खुशी की बात है कि दिल्ली के लोग सफाई-पसंद होते जा रहे हैं। वैसे भी दिल्ली के कई लोग बड़े जुझारु प्रवृत्ति के हैं। एक-दो रुपए के लिए ग़रीब रिक्शाचालक से लड़ते या पचास पैसे के लिए बस-कण्डक्टर से झगड़ते उन्हें देखा जा सकता है। यह बात अलग है कि बढ़ते भ्रष्टाचार, व्याभिचार, हत्या, लूट-खसोट, जैसी बड़ी बुराईयों के खिलाफ लड़ने के लिए उनके पास वक्त की कमी रहती है। उस वक्त वे अकसर ‘बिज़ी’ होते हैं।
कई दिल्लीवालानुसार बहुत से बिहारियों की बहुत बड़ी कमी यह है कि वे गंदे रहते हैं। हांलांकि वे अकसर पंजाबियों, दिल्ली वालों व अन्य प्रदेशों के व्यवसायियों व उद्योगपतियों के यहाँ काम करते हैं। तो क्या हुआ? अगर वे चाहें तो गंदगी कम कर सकते हैं। वे चाहें तो कल-कारखानों से निकलने वाले कूड़े-कचरे को खा-पीकर खत्म कर सकते हैं। (विष पीकर नीलकण्ठ बन सकते हैं। हांलांकि उनकी पूजा तब भी कोई शायद ही करे।) या छुट्टी के दिनों में घर जाते समय साथ ले जा सकते हैं। वैसे पहले प्रस्ताव में ज्यादा दम है क्योंकि कूड़े-कचरे को खाने से कई बिहारियों के भी कई दिल्ली वालों जैसी तोंदें निकल आएंगी। और वे एक स्तर पर उनकी बराबरी कर सकेंगे। हो सकता है तब दिल्ली वाले उन्हें थोड़ा-बहुत पसंद करने लगें।
यह कुछ इस तरह होगा जैसे लालू किसी दिन अच्छी-खासी अंग्रेजी सीख कर, सूट-टाई पहन कर ‘हाऊ-डू-यू-डू’ करते हुए दिल्ली आ धमकें। निश्चय ही दिल्लीवासी तब उनका स्वागत करेंगे। सिर्फ यही तो कमी है लालू में। बाक़ी घोटालों-घपलों, तानाशाही, वंशवाद आदि गुणों में तो वे भी काँग्रेस व बीजेपी के नेताओं की तरह राष्ट्रीय स्तर के नेता हैं। मात्र अंग्रेजी कम जानने की वजह से एक भव्य व्यक्तित्व को मिट्टी में मिला देना उचित नहीं। फिर दिल्ली वाले तो अंग्रेजी के मुरीद हैं। स्व. कृश्न चंदर ने अपने उपन्यास ‘एक गधे की आत्म-कथा’ में एक जगह उपन्यास के नायक गधे के मुँह से कहलवाया है कि दिल्ली के दतरों में अंग्रेजी बोलने पर काम आसानी से हो जाता है फिर भले ही बोलने वाला गधा ही क्योें न हो। वैसे दिल्ली में ऐसे ‘परम्पराप्रिय’ लोग भी काफी मात्रा में हैं जो ‘ब्लड’ को ‘बल्ड’, ‘पार्क’ को ‘पारक’ व ‘स्मार्ट’ को ‘समारट’ कहते हैं।
दिल्ली में बहुत से लोगों ने कुत्ते भी पाले हुए हैं। जिन्हें वे सुबह-शाम पार्कों में सूसू-पाॅट्टी इत्यादि कराने ले जाते हैं। कई दिल्ली वालों की बिहारियों से नाराज़गी की वजह यह भी हो सकती है कि हर जगह बिहारी ही गंदगी कर देंगे तो उनके कुत्ते क्या करेंगे। इस मामलें में मेरी पूरी सहानुभूति दिल्ली के कुत्तों के साथ है। बिहारियों व उत्तर प्रदेशियों को दिल्ली तुरंत खाली कर देनी चाहिए ताकि वहाँ पालतू कुत्ते पूरी शानो-शौकत से हग-मूत सकें, ‘एन्जाॅय’ कर सकें। कई दिल्ली वालों को जितनी एलर्जी बिहारियों व उत्तर प्रदेशियों से है उतनी तो उन्हें चोरों, डाकुओं, ठगों, स्मगलरों, माफियाओं, नेताओं, काॅलगर्लों आदि से भी नहीं है। बिहारियों को अगर दिल्ली में रहना ही है तो उन्हें अपना संकोची व मेहनती स्वभाव छोड़ कर बेशर्मी की हद तक बोल्ड और हैवानियत की हद तक असंवेदनशील बनना पड़ेगा। किसी भी जगह की संस्कृति में घुले-मिले बिना आप वहाँ के निवासियों के दिलों में जगह नहीं बना सकते।
इस तरह हम देखते हैं कि दिल्ली में बीस-तीस या चालीस साल पहले विभिन्न स्थानों से आए दिल्ली के बिहारी या बाहरी फिलहाल दिल्ली में आ रहे ताज़ा बिहारियों व बाहरीयों पर भारी पड़ रहे हैं।
-संजय ग्रोवर

शनिवार, 15 नवंबर 2008

अपने दिल की बात




मित्रों,देख रहा हूँ कि एक दुनिया है जो नेट के अंदर है और वहाँ ब्लाॅग की अद्भुत विधा विकसित हो चुकी है( हांलांकि आजकल इसके अंत की घोषणाओं की शुरुआत हो चुकी है ) जहाँ हमारे ढंग से या मिलते-जुलते ढंग से सोचने वाले कई एक लोग मौजूद हैं। अगर हम नेट से बाहर की दुनिया देखें जहाँ ‘साहित्यिकों’ में भी उदारतापूर्ण ढंग से सोचने वाले ढूंढने पड़ते हों ( इसकी एक वजह हमारी अपनी कई तरह की सीमाएं भी होती हैं,तकनीकी समेत), वहाँ ब्लाॅग एक बहुत बड़ी राहत है, रोशनी है, सहारा है। यहाँ अनुराग अन्वेषी के ब्लाॅग पर ‘ईश्वर पर एक जिरह’ संभव है। यहाँ आकांक्षा की कविता पर सीधे-सीधे, ‘अनएडीटेड’ कमेंट संभव है। इसके अलावा, हिन्दी ब्लाॅग की दुनिया में हमारे मित्रों ने तकनीक से संबंधित बहुत ही महत्वपूर्ण व श्रमसाध्य काम तो किए ही हैं, उन्हें निस्वार्थ भाव से दूसरों के साथ साझा भी कर रहे हैं। जिन मित्रों से सहयोग, सलाहें, समाधान, सुझाव, प्रेम, प्रेरणा, प्रोत्साहन और अपने चिट्ठों पर आने के आमंत्रण मिल रहे हैं उनमें अनुराग अन्वेषी जी सहित श्यामल सुमन, कविता वाचक्न्वी, सारथी, प्रदीप मानोरिया, संगीता पुरी, शास्त्री, भूतनाथ, अमित सागर, अभिषेक, रचना गौड़ ‘भारती’ और नारद मुनि शामिल हैं। मैं सभी चिट्ठों पर जाने की कोशिश कर रहा हूँ। मित्रों, 15-11-2008 के आस-पास यह चिट्ठा और इसके लिए उखाड़-पछाड़/तांक-झांक शुरु की थी। तब से लेकर अब तक जानकारियों में कुछ इज़ाफ़ा तो हुआ है। जिसके चलते चिट्ठे की पहली पोस्ट के उस हिस्से को हटाकर जो कि रोमनी हिन्दी में लिखा गया था, इन्हीं पंक्तियों को लगा रहा हूँ। हाँ, कैलियोस्कैनी में लिखा गया हिस्सा यथावत रहेगा, ताकि सनद रहे।अगली पोस्ट में आकांक्षा और अन्वेषी जी की ‘ईश्वर पर एक जिरह’ को आगे बढ़ाने की कोशिश करुंगा।






देयर वॉज़ अ स्टोर रुम या कि दरवाज़ा-ए-स्टोर रुम....

ख़ुद फंसोगे हमें भी फंसाओगे!

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ढूंढो-ढूंढो रे साजना अपने काम का मलबा.........

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