सभ्य समाज में
आदर झटकने का एक और तरीका जो मुझे पसंद आया है वह है पिता बन जाना। यहां एक
सुविधाजनक तथ्य यह है कि डॅाक्टर, इंजीनियर,
प्रोफेसर, साहित्यकार या कुछ और बनने के लिए आप में क्षेत्र विशेष से
संबंधित कुछ योग्यताएं होनी ज़रुरी हैं (हालांकि अपवाद हर जगह हैं और आजकल तो हर
क्षेत्र मे अपवादों का ही बोलबाला है), लेकिन पिता होने के लिए ऐसा कुछ ज़रुरी नहीं है। उदाहरण के लिए देश में लोग
डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, नेता, अभिनेता, पत्रकार, साहित्यकार, कलाकर्मी,
पुलिसवाले, चोर-डाकू, प्रशासनिक
अधिकारी, बाबू, चपरासी, बेरोज̣̣गार वगैरह कम या ज़्यादा
मात्रा में हो सकते हैं, अच्छे या बुरे हो
सकते हैं, हो सकते हैं या नहीं हो
सकते हैं, लेकिन पिता सभी हो सकते
हैं और लगभग सभी होते हैं, खूब होते हैं।
यहां मैं उन
लोगों को शामिल नहीं कर रहा हूं जो पिता बनने से पहले ही ‘दादा‘ बन जाते हैं और सब्ज़ी
काटने के चाकुओं, नाख़ून काटने की
कैंचियों, ब्लेडों, लात-घूसों, घुड़कियों और आंखे तरेरने-दिखाने जैसे औज़ारों के सहारे
अपने आस-पड़ोस के बच्चों को (और कभी-कभी तो बड़ों को भी) धौंसियाना शुरू कर के
अपने पांव पालने में ही चमका देते हैं। बचपन में ही दादा बन गए ये होनहार बिरवान
और ‘परिपक्व‘ होकर जब पिता बनते हैं तो इनके लिए ‘गाड फादर‘ संबोधन का इस्तेमाल करना ज्यादा उचित समझा जाता है। तरह-तरह
के माफियाओं से जुड़े छोटे-बड़े लोगों के लिए ये ‘गॉड फ़ादऱ‘ पिता कुछ कम
आदरणीय नहीं होते। और अगर सफ़ेदपोश हों तो दूसरे लोगों के लिए भी। ऊपर से आजकल तो सफ़ेदपोश
और स्याहपोश का फ़र्क़ भी खत्म सा हो चला है।
जैसाकि मैंने
पहले ही कहा, यहां हम इस तरह
के पिताओं की बाबत बात नहीं कर रहे हैं। जिनकी कर रहे हैं उनमें से एक भगवान
परशुराम के पिता थे। इनकी ही आज्ञा पर आज्ञाकारी परशुराम जी ने तुरंत आंखें मींची
और अपनी मां का सिर उसकी गरदन से उड़ा दिया।
इसके अलावा एक
बार जब मैं रेल से सफ़र कर रहा था तो बीच के किसी स्टेशन से पांच व्यक्ति सवार हुए
और मेरे साथ वाली सीट पर ‘सवार‘ हो गए। इनमें से तीन पिता श्रेणी के और दो
पुत्र श्रेणी के लग रहे थे। दोनों पुत्रगण अपनी सारी प्रतिभा का इस्तेमाल स्वीकृति-सूचक
ढंग से सर हिलाने में करते हुए वार्तालाप में हिस्सा ले रहे थे। एक राजनीतिक दल
में आस्था व्यक्त करते हुए पिता लोग कह रहे थे कि इस दल ने भ्रष्टाचार का लगभग ख़ात्मा
कर दिया है। यहां तक कि अपने दल के किसी ख़ास व्यक्ति का काम भी अगर ग़ैरक़ानूनी हो
तो नहीं किया जाता। इसके अलावा वे यह भी कह रहे थे कि नई पीढ़ी भ्रष्ट हो गई है,
उसके सामने कोई आदर्श नहीं है।
तभी बीच
वार्तालाप में टिकट चैकर महोदय ने हस्तक्षेप किया और टिकटों की मांग की। पता चला
कि न तो पिता लोगों के पास टिकट है न पुत्रों के पास। अर्थात् टिकट न लेना एक ऐसा
मुद्दा था जहां ‘जैनरेशन गैप‘
बिल्कुल आड़े नहीं आया था। टिकट चैकर, जो कि इस समय किसी का पिता था न पुत्र, कुछ-कुछ पिताओं के अंदाज़ में सख़्ती दिखाने
लगा। इस पर पांचों जन पुत्रों की तरह आज्ञाकारी से दिखने लगे। कुछ ले देकर सौदा
पटाने का जिक्र आया तो टिकट चैकर महोदय का हृदय परिवर्तन हो गया।
दरअसल पिता होना
ही कुछ चमत्कारी सी घटना है। आप बचपन से लेकर जवानी तक कितने भी दुष्ट, लुच्चे, लफंगे, भौंदू, रट्टू, सनकी, हरामखोर, अत्याचारी, व्याभिचारी यहां तक कि उग्रवादी रहे हों मगर पिता बनते ही ‘ऑटोमेटिकली‘ अपने बच्चों के लिए आदरणीय हो जाते हैं। यह मामला ही कुछ
ऐसा है कि सदा आपका विरोध करने वाला, आपसे जलने वाला पड़ौसी तक आपके साथ हो जाता है और विवाद की स्थिति में आपके
पुत्र को ही समझाने पर तुल जाता है कि ‘कुछ भी हो, आखि़र हैं तो
तेरे पिता ही‘। इस ‘सार्वभौम सत्य‘ के आगे अच्छे-अच्छे पुत्रों की बोलती बंद हो जाती है।
आज्ञाकारी बच्चे अक्सर आपस में इस बात पर लड़ पड़ते हैं कि ‘तूने जो कहना था मुझसे कह लेता, मेरे बाप तक कैसे पहुंचा।‘
अब कौन जाने कि
कौन कितना ‘पहुँचा-हुआ’ है ! कौन दूसरों तक
पहुँचा है और कौन अपनों तक !?
-संजय ग्रोवर
(27 नवंबर,
1994 को जनसत्ता में प्रकाशित)