गुरुवार, 20 अगस्त 2009

ग़ज़ल जो ढंग से नहीं छपी ! यहां छपी क्या खू़ब छपी !


ग़ज़ल

बह गया मैं भावनाओं में कोई ऐसा मिला
फ़िर महक आई हवाओं में कोई ऐसा मिला

खो के पाना पा के खोना खेल जैसा हो गया
लुत्फ़ जीने की सज़ाओं में कोई ऐसा मिला

खो गए थे मेरे जो वो सारे सुर वापिस मिले
एक सुर उसकी सदाओं में कोई ऐसा मिला

हमको बीमारी भली लगने लगी, ऐसा भी था
दर्द मीठा-सा, दवाओं में कोई ऐसा मिला

रेत में भी बीज बो देने का मन होने लगा
मेघ आशा का घटाओं में कोई ऐसा मिला

-संजय ग्रोवर

शनिवार, 15 अगस्त 2009

क्या हमें ‘सच का सामना’ नहीं ‘सच का परदा’ चाहिए !?

नैतिकता पर बहस शायद आज की सबसे मुश्किल बहस है। क्योंकि ज़्यादातर लोग ‘चली आ रही नैतिकता’ पर अड़े रहते हैं, भले व्यवहार में इसका उल्टा करते हों। थोड़े-से लोग नैतिकता के नियमों को बदलने की कोशिश करते हैं। उनमें से कुछ ऐसे होते हैं जिन्हें पुराने नियम अमानवीय व अलोकतांत्रिक लग रहे होते हैं तो कुछेक ऐसे भी होते हैं जो व्यक्तिगत स्वार्थों या ‘नयी भीड़’में शामिल होने की खातिर ऐसा करते हैं। उनमें से कुछ की नैतिकता को लेकर अपनी एक तार्किक सोच भी हो सकती है। मुझे लगता है कि ‘जो करना वही कहना’ या ‘जो किया, कह दिया’ नैतिकता है। इस दृष्टि से मुझे ‘सच का सामना’ एक बेहद मामूली सीरियल लगता है जिसपर इतना हल्ला-गुल्ला होना हैरान करता है। मुझे याद आता है कि 25-30 साल पहले सरिता-मुक्ता जैसी आर्य-समाजी पत्रिकाओं में लगभग यही सब बातें ‘पाठकों की समस्याएं’ में बतौर प्रश्न छपा करती थीं। फ़र्क बस इतना है कि वहां पाठकों के नामों की जगह कखग वगैरह लिखा रहता था। ज़ाहिर है कि यह सब सरिता के संपादक गण अपने मन से बनाकर तो लिखते नहीं होंगे। एक दिलचस्प तथ्य मैं देख रहा हूं कि जहां भी इस कार्यक्रम पर टिप्पणी, लेख आदि आ रहे हैं हर जगह ऐतराज़ यही है कि यह सब पर्दे पर कहा क्यों जा रहा है ! ‘यह सब किया क्यों गया’ इसपर अभी तक कोई आपत्ति मेरे देखने में नहीं आयी। क्या नैतिकता यह है कि विनोद कांबली अपनी एक टीस, एक शिकायत को मन में दबाए रखकर झूठी दोस्ती बनाए रखें !? यह कैसी दोस्ती है जिसमें अपने दिल की बात दोस्त से कह देने भर का भी स्पेस नहीं !? और यह दबी हुई कुण्ठा इस दोस्ती के लिए आगे चलकर किसी और शक्ल में और ज़्यादा ख़तरनाक साबित नहीं हो सकती !? अगर एक महिला वहां जाकर झूठ बोलती है कि वह अपने पति के अलावा किसी अन्य से संबंध बनाने की ख्वाहिशमंद नहीं रही और वह झूठ पकड़ा जाता है तो सवाल यह भी तो उठता है कि क्या उस महिला को पता नहीं था कि वह ‘सच का सामना’ करने जा रही है ? वह क्यों गयीं वहां अगर उसमें सच का सामना करने की हिम्मत नहीं थी ? इसके अलावा कोई बेईमान आदमी ही यह कह सकता है कि 13-14 की उम्र तक आते-आते उसे विपरीतलिंगियों के प्रति आकर्षण होना (जिसे आज की प्रचलित भाषा में ‘क्रश आना’ कहते हैं) नहीं शुरु हो गया था। फिर हम क्यों चाहते हैं कि हम लगातार झूठ भी बोलते रहें ऊपर से अपने देश को ‘सच्चाई का पुजारी’, ‘नैतिकता की सबसे पुरानी/प्रतिष्ठत कर्मशाला’ भी कहते रहें !? या तो हम मान लें कि हम झूठे हैं। कम-अज़-कम एक यही सच बोल दें।

या फिर हम अपने सच का इस्ते माल वहीं तक करना चाहते हैं जहां तक वो हमारे झूठ का परदा बन सके !?

देश-भक्ति क्या है ?


1. कुछ देशों को गालियां बकना।


2। कुछ कौमों/सम्प्रदायों को गालियां बकना।



3। गीत गाना।



4। झण्डा फहराना।



5। पूजा-पाठ करना।



6. अपने देश के लोगों से ऊंच-नीच करना।


7। अपना काम ईमानदारी से करना।



मंगलवार, 11 अगस्त 2009

‘व्यंग्य-कक्ष’ में पढ़िए **साहित्य में आतंकवाद** श्रृंखला का चौथा व्यंग्य


***** बिना जुगाड़ के छपना*****


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कस्बे में यह खबर अफवाह की तरह फैल गई कि एक नवोदित लेखक एक राष्ट्रीय अखबार में बिना किसी जुगाड़ के छप गया। सभी हैरान थे कि आखिर यह हुआ कैसे। तरह-तरह की अटकलें लगाई जाने लगीं। कोई कहता कि यह चमत्कारों का युग है, इसमें कुछ भी हो सकता है, तो किसी का मानना था कि संयोगवश इस नवोढ़े कस्बाई लेखक और उस छपित राष्ट्रीय लेखक के नाम मिलते-जुलते से है। असल में दोनों अलग-अलग व्यक्ति है। बहुत सारे लोगों का अनुमान यह भी था कि यह सब खुद इसी लेखक की स्टंटबाजी है और यह अपनी ‘इमेज‘ बनाने के लिए झूठ बोल रहा है। वो दिन हवा हुए जब भारत सोने की चिड़िया था और लेखक बिना जुगाड़ के छपा करते थे। खैर! बंद कस्बे की ऊंघती सड़कों पर यह खबर खुले सांड की तरह दौड़ने लगी और अनुमानों के कुत्ते-बिल्ली गलियों-गलियों होते हुए घरों कें खिड़की-दरवाज़ों और यहां तक कि रसोइयों-पाखानों तक में जा घुसे।

पत्रकार-नगर के साहित्य मोहल्ले में तो दिन में ही रात्रि-जागरण जैसा मौसम बन चुका था। वरिष्ठ कवि ददुआ शहरी जी के यहां एक आपात्कालीन गोष्ठी चालू हो चुकी थी। अपने संघर्ष के दिनों को याद करते हुए ददुआ शहरी जी की आंखें भर आई। रूआंसे स्वर में वे बोले, ‘एक वो भी समय था जब साप्ताहिक ‘जुगनू का बच्चा’ में छपने के लिए मै सारी-सारी रात संपादक जी के पैर दबाया करता था। दैनिक ‘पैसे का दुश्मन‘ को तो मैंने दस-दस रूपए वाले पांच सौ विज्ञापन ला कर दिए। तब कहीं जाकर उन्होंने मेरी एक रचना छापी। एक यह कल का छोकरा है, जो बिना कोई संघर्ष किए, बिना पैर दबाए, बिना जुगाड़ किए ही राष्ट्रीय अखबार में छपने लगा। अगर ऐसा ही होने लगा तो हम संघर्ष करने वाले लेखकों का क्या होगा, जिन्होंने जुगाड़ लगाने में संघर्ष करते-करते अपनी सारी उम्र गुज़ार दी ... ...।‘‘ कहते-कहते उनका गला रूंध गया। पीड़ा के अतिरेक से उनका चेहरा जो पहले ही खूब लाल था, और लाल हो गया। अपना वक्तव्य यहीं पर समाप्त करके वे नीचे बिछी दरी पर जा बिछे।

उनके गिरने से ठीक पहले श्री अजीबो-गरीब ‘प्रौढ़‘ उठकर खड़े हो चुके थे। और एक बार खड़े हो जाने का मतलब था, अपना भाषण समाप्त करके ही बैठना। ‘प्रौढ़‘ जी अपेक्षाकृत सधे हुए स्वर में बोले, ‘‘संघर्ष की रवायत के ये कीमती हीरे जो हमारे बुजर्गों ने बड़ी हिफाज़त और नफासत से हमे सौंपे थे, क्या हम उन्हें यूं ही बिखर जाने देंगे। क्या एकाध मामूली और ग़ैर ज़िम्मेदार नया लेखक हमारी इस समृद्ध परम्परा को तोड़ डालेगा। नहीं! हम ऐसा नहीं होने देंगे। हम एक प्रतिनिधिमंडल लेकर उस राष्ट्रीय अखबार के संपादक के पास जाएंगे और सामूहिक व सार्वजनिक रूप से उसकी सेवा करके बताएंगे कि एक लेखक और एक संपादक के रिश्ते में संघर्ष का क्या महत्व है। किस तरह से और किस तरह का संघर्ष एक साहित्यकार के जीवन को उपलब्धियों से भर देता है।‘‘ इतना कहकर उन्होंने अपनी बात के अनुमोदन की आशा में बाकियों की तरफ देखा तो पाया कि बाकी सब पहले से ही उनको निहार रहे हंै। इस प्रकार कुछ-कुछ खुश, कुछ-कुछ उत्तेजित ‘प्रौढ़‘ जी कुछ इस अंदाज में नीचे बैठ गए कि कहना मुश्किल था कि वे ढह गए हैं या बह गए है।

‘प्रौढ़‘ जी से पहले और बाद में भिन्न-भिन्न प्रकार के कई भाषण हुए मगर जो आखिरी भाषण हुआ वह युवा पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करने वाले श्री हमजवान ‘मैं‘ जी का था। हमजवान ‘मैं‘ जी काफी तैश में दिख रहे था। बोले,‘‘काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ती। मेरे पिता अक्सर कहते थे कि साहित्यकार को तो चिकनी मिट्टी का बना होना चाहिए, जिस पर अच्छी-बुरी परिस्थितियों का पानी ठहर ही न सके और वह अपनी चमक भी बरकरार रख सके। मुझे आशा ही नहीं, पूर्ण विश्वास है कि हम हमेशा की तरह इस संकट से भी उबर आएंगे और संघर्ष की अपनी पुरानी परम्परा को साफ बचा ले जाएंगे। मेरा दावा है और वायदा है कि जब तक हमारे युवा लेखकों के कंधों में दम है, हमारी इस संघर्षपूर्ण साहित्यिक यात्रा को कोई नहीं रोक सकता ... ...।‘‘ अभी वे शायद और भी कुछ कहते, मगर जब उन्होंने पचास से ऊपर के चार युवा साहित्यकारों को अपनी ‘कंधों‘ और ‘यात्रा‘ वाली बात का समर्थन करते देखा तो भावावेश में भाले की तरह अपनी ही धरती में जा धंसे।

इस सब और चाय-समोसों के मामूली अवरोध के उपरांत वातावरण को हल्का-फुल्का बनाने के लिए एक काव्य-गोष्ठी का आयोजन किया गया। इसमें तेरह कवि और बारह श्रोता थे। गणित इस प्रकार था कि जब एक पढ़ता तो बाकी बारह श्रोता बन जाते थे। इन बारह श्रोताओं में से दस स्थानीय, क्षेत्रीय और राष्ट्रीय अखबारों के संवाददातां थे, जिन्हें काफी संघर्ष करके कलके अखबारों में इस गोष्ठी की लगभग तीन, चार या पांच कालम की खबर छपवानी थी। इस संघर्ष के लिए उन्हें साहस मिलता रहे, इसके लिए वे बीच-बीच में समोसों का सहारा ले लेते थे।

समोसा-भोजन और गोष्ठी-समापन अपने ‘क्लाइमैक्स‘ पर थे कि तभी वे एक खलनायक की तरह वहां से गुजरे। वे जिनके कारण यह सारा आयोजन किया गया था। यानी कि बिना जुगाड़ के छपने वाले लेखक महोदय। गोष्ठी में मौजूद तेरहों साहित्यकारों ने स्वाभावानुसार उन्हें घृणा से घूरा और परम्परानुसार प्रेम से अपने पास बिठाया। फिर कुछ शर्माते हुए, कुछ हिचकिचाते हुए, कुछ लड़खड़ाते हुए उनके बीच एक पुल सा बना और आखिरकार तेरह-मंडली ने झिझकते हुए पूछ ही डाला कि बिना जुगाड़ के छपने के इस हैरतअंगेज कारनामे को उन्होंने कैसे अंजाम दिया। इस पर उन्होंने मुस्कराते हुए बताया कि यह बहुत ही आसान है। आप अपनी रचना साफ कागज के एक तरफ हाशिया छोड़कर लिखें या टाइप करवाएं और फिर उसे अपना पता लिखे टिकट लगे लिफाफे के साथ अखबार के संपादक को भेज दें।


एल्लो! खोदा पहाड़ निकली चुहिया। तेरह-मंडली ने अपना माथा पीटा कि उन्होंने चम्मच खाली होने का चमत्कार तो देखा मगर नाली से निकलते दूध को क्यों नहीं देखा। फिर भी तेरह मंडली यह राज़ जानकर फूली नहीं समाई। दुश्मन से दोस्त बन चुके लेखक को उन्होंने कई धन्यवाद दिए और दो समोसे भी जबरदस्ती खिलाए। तदुपरांत वे सब योजना बनाने में व्यस्त हो गए कि क्या जुगाड़ लगाई जाए जिससे कि रचना बिना जुगाड़ के ही छप जाए।

इधर बिना जुगाड़ छपने वाला लेखक एक बार फिर अकेला रह गया।

-संजय ग्रोवर


(18 अक्तूबर, 1996 को पंजाब केसरी में प्रकाशित)

सोमवार, 10 अगस्त 2009

‘व्यंग्य-कक्ष’ में पढ़िए **साहित्य में आतंकवाद** श्रृंखला का तीसरा व्यंग्य

*****अकादमी, अनुदान और नया लेखक*****
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आज से कोई 5 या 10 या 15 या 20 साल पहले (5 से 10, 15 या 20 तक मैं इसलिए पहूंच रहा हूं कि पता नहीं मुझ जुगाड़हीन का यह व्यंग्य कितने साल बाद छपे, सो कम-अज़-कम इस अर्थ में तो इसकी प्रासंगिकता बनी रहे) होता यह था कि फिल्म इण्डस्ट्री में नई-नई आयी हीरोइन कहती थी कि न न अंग प्रदर्शन तो मैं हरगिज़ नहीं करूंगी। घाघ, अनुभवी और दूरदर्शी निर्माता-निर्देशक तड़ से समझ जाते थे कि ज़रूर करेगी और भरपूर करेगी। कुछ दिन बाद जब फिल्में मिलना कम होने लगता या मीडिया में चर्चा बंद होने लगती तो हीरोइन ठण्डी पड़ने लगती। उसूलों के बोझ को कपड़ों की तरह उतार फेंकती और कहती,‘कहानी या दृश्य की मांग पर ऐसा करने में मैं कोई हर्ज नहीं समझती।‘ धीर-धीरे उसके तर्कों का जुलूस जोर-शोर से आगे बढ़ने लगता, ‘भई, अब स्विमिंग-पूल में नहाने का दृश्य है तो स्विमिंग-काॅस्ट्यूम नहीं पहनूंगी तो क्या सलवार-सूट पहनूंगी‘ या ‘कैबरे-डांसर का रोल क्या साड़ी लपेट कर करूंगी‘ वगैरह।

मैं भी कई साल तक भीष्म-प्रतिज्ञा जैसा कुछ किए बैठा रहा कि अपने पैसों से अपनी किताब हरगिज नहीं छपवाऊंगा। साथ ही यह भी रटता रहा कि अखबार में व्यंग्य का काॅलम तो हरगिज़-हरगिज़ नहीं लिखूंगा (और तब तक रटता रहूंगा जब तक किसी अच्छे अखबार से आॅफर नहीं आ जाती)। मुद्दतों इंतजार करता रहा कि कोई प्रतिभा का पारखी प्रकाशक आएगा, कहेगा,‘अजी कहाँ छुपे बैठे हैं आप। अपना भी नुकसान कर रहे हैं और हमारा भी। आईए, हम दिलाएंगे आपको आपकी सही जगह।‘ पर ऐसा कुछ न होना था न हुआ। मैं फैज़ की पंक्तियां पढ़-पढ़ कर दिल को तसल्ली देता व सोग मनाताः
अपने बेख्वाब किवाड़ों को मुकफल कर लो अब यहाँ कोई नहीं, कोई नहीं आएगा

दुख की इस बेला में एक दिन किसी अखबार में अकादमी का विज्ञापन देखा। नए लेखकों(नए लेखक भी कम-अज़-कम दो तरह के होते हैं-एक तो वे जो पाँच-पाँच बार अनुदान लेकर भी नए बने रहते हैं। दूसरे मेरे जैसे जो ‘अपरिहार्य’ कारणों से ताउम्र नए बने रहते हैं।) को दिए जाने वाले अनुदान की सुगन्ध उसमें से फूटी पड़ रही थी। मैं आदतन उस खुशबू की गहराई में घुस पड़ा। और मेरा विकृत मस्तिष्क अपनी औकात पर उतर आया।

मित्रों ने कहा था कि अरे तुम्हारी रचनाओं पर तो अकादमी हंस कर अनुदान देगी। न जाने कैसे-कैसों को मिल जाता है फिर तुम्हारी रचनाएं तो अच्छी खासी हैं। तुम पाण्डुलिपि जमा करा दो। पाण्डुलिपि मंजूर हो गई तो छपने के बाद अमुक राशि का चैक तुम्हें अकादमी से मिल जाएगा। तब मेरे ऊलजुलूल चिंतन ने सोचा कि यार, पैसा तो प्रकाशक को फिर भी देना पड़ेगा। अपनी गाँठ से नहीं तो अकादमी से लेकर। अगर प्रकाशक मुझे छापने योग्य समझता है तो उसे अकादमी का सर्टीफिकेट क्यों चाहिए? क्या सीघे-सीधे मेरी पाण्डुलिपि देखकर वह यह निर्णय नहीं ले सकता। मुझे प्रकाशक के बौद्धिक स्तर पर संशय होने लगा। फलस्वरूप चिंतन और आगे बढ़ा। अगर मैं छपने लायक हूँ तो प्रकाशक को पैसे क्यों चाहिए, भले ही अकादमी दे। अगर पैसे ही देने हैं तो अकादमी दे या मैं दूं फर्क क्या पड़ता है। अगर प्रकाशक सरकारी खरीद में किताबें खपाना जानता है तो खपा ही देगा। सभी जानकार लोग यह भेद जानते हैं। फिर प्रकाशक को अमुक राशि का चैक खमख्वाह क्यों दिया जाए?

अकादमी तो लेखक की मदद कर रही है क्योंकि वो तो घोषित तौर पर बनी ही इसलिए है। प्रकाशक लेखक की मदद क्यों कर रहा है? क्योंकि उसे अमुक राशि का चैक मिलेगा। जब अकादमी ने लेखक पर अपना ठप्पा लगा ही दिया है और प्रकाशक ने अपनी बुद्धि की सीमाओं को स्वीकार करते हुए अकादमी के निर्णय के आगे घुटने टेक ही दिए हैं तो फिर प्रकाशक को चैक क्यों चाहिए? क्या प्रकाशक यह मानता है कि उक्त नए लेखक को छापने पर उसे उक्त राशि का घाटा होगा। घाटा होने के निहितार्थ यही तो हुए कि पुस्तक न तो बिकेगी, न सरकारी खरीद में जाएगी। अर्थात् कोई भी इसे नहीं पढ़ेगा। फिर इससे लेखक को क्या फायदा होगा? फायदा न लेखक को होगा न प्रकाशक को तो इस अनुदान का अर्थ क्या हुआ? क्या लेखक पर तरस खाया जा रहा है? तमाम तरस के बाद भी अनुदान अगर अपमान सिद्ध होता हो तो कोई स्वाभिमानी लेखक इसे क्यों लेगा?

कुछ समझे आप? उक्त सारी बौद्धिक कवायद क्यों की मैंने! नहीं समझे तो समझ लीजिए कि आखिरकार मैंने अपनी किताब अपने पैसों से छपा डाली। मगर उससे क्या होता है?

पुस्तक का प्रचार भी करना होता है। पत्र-पत्रिकाओं में समीक्षा भी छपानी होती है। पुस्तक बेचनी भी होती है। उसके लिए तो एक पूरा का पूरा तंत्र चाहिए। सुनते हैं प्रकाशक इस मामले में लगभग ‘तांत्रिक‘ होता है (लोकतांत्रिक हो न हो)। बहुतेरे इस अर्थ में प्रकाशक की तुलना चंद्रास्वामी या धीरेन्द्र ब्रहम्चारी से भी कर डालते हैं। लेखक अगर चं।स्वामी या धी।चारी होगा तो क्या वह इतना उल्लू का पट्ठा है कि किताब अपने पैसे से छपाएगा!?

चलो अपने पैसे से छपा ली लेखक ने क़िताब। पर किसी पत्र-पत्रिका में उसका कोई दोस्त तो है ही नहीं। तो फिर करे फोन पर फोन। ‘वो... ... भाई साहब ... ... वो ... ॥ दो साल पहले अपनी एक क़िताब भेजी थी समीक्षा के लिए ... ... उसका कुछ हुआ ... ... ज़रा देख लीजिए एक बार ... ...‘ आवाज़ में रिरियाहट भी हो तो पत्र/पत्रिका के दफ्तर में राजगद्दी के बगल में बैठे ओहदेदार साहित्यकार (नुमा) के अहंकार को अनोखा सुख मिलता है(होगा?)। जवाब में वे उनीदे से कुछ धकियाते हैं, ‘‘अब भाई, इतनी जल्दी तो समीक्षाएं छपती नहीं। अमुक जी की ही किताब साढ़े तीन साल से रखी है जबकि उनके भाई अखबार मालिक के साले के खास जीजा हैं। खुद अमुक जी मेरे मित्र के छोटे भाई के मित्र के बड़े भाई है।’’ लीजिए। अब अपना सा मुंह लेकर रह जाने के अलावा क्या चारा है आपके पास! ज्यादा हुआ तो यही बुदबुदा कर रह जाएंगे आप, ‘लो भई, अब तो अखबारी दफ्तर और सरकारी दफ्तर में कोई फर्क ही नहीं रह गया।‘ तत्पश्चात्, प्रकाशक की छत्रछाया के बिना और अपने ‘अव्यवहारिक‘ स्वभाव के चलते लोकार्पण या विमोचन के बारे में तो सोचते भी आपको झुरझुरी आने लगेगी।

जिन मित्रों ने कहा होगा कि तुम्हारी रचनाओं पर तो अकादमी हंस कर अनुदान देगी वही कहने लगेंगे कि ‘कैसे-कैसे प्रतिभाहीन लोग अपने पैसे से क़िताब छपा कर लेखक बन जाते हैं।’ यानि पैसा अपना हो तो प्रतिभा, प्रतिभा नहीं रहती। और अकादमी से झाड़ा हो तो (पैसा झाड़ना भी तो प्रतिभा है) प्रतिभा-विरोधी को भी प्रतिभाशाली होने का सर्टीफिकेट मिल जाता है। कुछ और तरह की प्रतिभाएं भी अरसे से साहित्य में पांव जमाए हैं। तिकड़म, चाटुकारिता, संबंधबाजी, ‘इस हाथ दे उस हाथ ले‘, ‘तू मेरी किताब छाप, मैं तेरा कोई काम करवाऊंगा‘ जैसी प्रतिभाएं अगर आपमें हैं तो भी बतौर लेखक छपने, पुस्तक प्रकाशित करवाने और स्थापित होने में कोई परेशानी नहीं आएगी। तय है कि प्रकाशक या तो उक्त प्रतिभाशालियों को छापता है या फिर निर्मल वर्मा, राजेन्द्र यादव, कृष्णा सोबती, उदय प्रकाश, प्रेमचंद, श्रीलाल शुक्ल, यशपाल, परसाईं, शरद जोशी या शरतचन्द्र को छापता है जो कि स्थापित हैं, प्रतिभाशाली हैं, लोकप्रिय हैं व सबसे बड़ी बात, बिकते हैं। बीच के लोगों को प्रकाशक घास नहीं डालता। डालता है, तो शर्त वही होती है, पैसे दीजिए, चाहे अपनी गांठ के हों चाहे अकादमी के।

एक तरीका और भी है कि आप तस्लीमा नसरीन या ओशो रजनीश जितने विवादास्पद हो जाईए बशर्ते कि आपमें उतनी बौद्धिक व मौलिक ऊर्जा व साहस हो। मगर ‘भाई‘ लोगों से बच के।(जी हाँ, भाई लोग साहित्य में भी होते हैं मगर बड़े ही ‘सोफिस्टीकेटेड’ किस्म के। आप ज़िन्दगी भर हाथ-पाँव मारते रहिए मगर न तो ये कभी सीधे-सीधे सामने आएंगे न ही आप कभी आप इन पर सीधे-सीधे ऊँगली उठा पाएंगे।) ‘भाई’ लोगों को पता चला गया तो वे आपको छपने ही नहीं देंगे। बिना छपे विवादास्पद कैसे होंगे आप? बताईए! ‘भाई‘ लोग आपके विवादास्पद तो होने देंगे नहीं साथ ही साहित्य-समाज में संदेहास्पद और अछूत भी बना देंगे। आप देखें कि हिन्दी साहित्य में कभी कोई तस्लीमा, रशदी या मण्टो नहीं होते। बेचारे राजेन्द्र यादव कोशिश कर-कर के हार गए पर ... ... उखाड़ कुछ नहीं पाए।

बहरहाल, हीरोइन अगर स्थापित हो गई हो या आर्थिक रूप से अपने पैरों पर खड़ी हो गई हो तो वह अपने पसंदीदा विषय पर ऐसी फिल्म का निर्माण या निर्देशन कर सकती है जिसमें उसे किसी स्तर पर कोई समझौता न करना पड़े। अब यह उसके बौद्धिक स्तर और साहस पर निर्भर करता है कि वो अपने पैसे से ‘घर एक मंदिर‘ व ‘स्वर्ग से सुंदर‘ बनाती है या ‘फायर‘ और ‘द बैंडिट क्वीन‘।

-संजय ग्रोवर

(व्यंग्य-संग्रह ‘मरा हुआ लेखक सवा लाख का’ से साभार)

शनिवार, 8 अगस्त 2009

‘व्यंग्य-कक्ष’ में पढ़िए #~~~साहित्य में आतंकवाद~~~# श्रृंखला का दूसरा व्यंग्य *****एक कॉलम व्यंग्य*****

*****एक कॉलम व्यंग्य*****
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कृपया निम्न लेख को पढ़ते समय ध्यान रखें कि यह एक व्यंग्य है।

श्रीमती जी को कद्दू पसंद है और मुझे टिण्डा। बोलीं कि कई दिन से टिण्डा खा रहे हैं आज कद्दू बना लेती हूं। मैं हंसा, गंवार कहीं की। रूंआसी हो बोली कि गंवार हूं तो मुझसे शादी क्यों की थी। मैंने कहा, मूर्ख कहीं की, तू न होती तो मैं हंसी किसकी उड़ाता, चुटकुले किस पर लिखता, (यानि कि) व्यंग्य किस पर लिखता। पत्नियां तो होती ही इसलिए हैं कि उन पर कुछ भी लिख दिया जाए। वे उसे व्यंग्य मान कर अपराध बोध महसूस करने लगती हैं। पत्नी सचमुच शर्मिन्दा हो गई। टिण्डा फिर कद्दू पर हावी हो गया।

पुराने लोग बहुत अच्छे होते हैं। नए बहुत ही ज्यादा गंदे होते हैं। एक बार मैं नई पीढ़ी था। तब पुरानी पीढ़ी काफी घटिया थी। अब मैं पुरानी पीढ़ी होता जा रहा हूं और नई पीढ़ी खराब होती जा रही है। मैंने सुबह ग्रंथादि का पाठ शुरू कर दिया है। धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा। पहले भी कई बार हुआ है। (ऐसा मैंने सुना है।)।

दूसरे बहुंत ही गंदे हैं। हम बहुत ही अच्छे हैं। दूसरे एकदम खराब। हम एकदम अच्छे। दूसरे खराब। हम अच्छे। टाॅँय टू। टाँॅय टू। टाँॅय टू। टाँॅय टू। टू-टू। एक साल बाद। टाँॅय-टाँॅय। दस साल बाद। टू-टू। सौ साल बाद। टाँॅय-टू। हजार साल बाद। टाँॅय टू। दसियों हज़ार साल बाद। टाँॅय टू। दूसरे खराब। हम अच्छे। टाँॅय टू। टाँॅय टू।

जनता बहुत अच्छी है। लोग बहुत अच्छे हैं। नेता सब नालायक हैं। जनता जमीन से पैदा होती हैं। नेता आसमान से टपकते हैं। न जाने कब अच्छे नेताओं की बारिश होगी। वैसे कुछ अच्छे नेता भी हैं। पर ऐसे नेता बस दो-चार ही हैं। एक ने मेरी क़िताब छपवाने में मदद की। एक ने उसका विमोचन किया। तीसरे ने मुझे एक जगह सस्ता प्लॉट दिलवा दिया है। लगभग मुफ्त का। चौथे के मेरे घर आते-जाते रहने से पड़ोसियों में मेरी छवि भी खासी दमदार बनी हुई हैं। राशन- गैस भी घर बैठे आ जाते हैं। अब क्या करूं। दुनियादारी भी तो कोई चीज़ है। ‘एडजस्ट‘ तो करना ही पड़ता है न। रोटी भी तो खानी है कि नहीं। आजकल कुछ लोग कहने लगे हैं कि जैसा समाज होता है वैसा ही उसका नेता होता है। लगता है इन लोगों ने अपने खाने-पीने रहने का ‘फुलप्रूफ‘ जुगाड़ कर लिया है। पर मेरे सामने तो सारी ज़िन्दगी पड़ी है। अपना ‘कैरियर‘ भी तो संवारना है। मैं ऐसी बातें खुलकर कैसे कह सकता हूँ।

लोग तो प्रकाशकों और पाठकों की भी बुराई करते हैं। मैं कहता हूं कि कौन कहता है किताबें नहीं बिकती। खुद मेरी किताबो ‘पेटदर्द चुटकुले‘, ‘हंसती हुई उबासियां‘, ‘घर में हंसो, बाज़ार में हंसो, पत्नी पर हंसो, सरदार पर हंसो’ के कई संस्करण छपे भी हैं और बिके भी हैं। मेरे नए कविता संग्रह ‘लड़की नहाई औंगन में‘ को छापने के लिए कई प्रकाशक अभी से दरवाज़ा पीट रहे हैं। कुछ पाठकों के तो प्रशंसा पत्र भी अभी से आ गए हैं।

मैं एक उद्योग हूँ। व्यंग्य एक उत्पाद है। अखबार बिचैलिया है। पाठक एक ग्राहक है। रोज़ाना सुबह आपको एक कॉलम व्यंग्य सप्लाई करना होता है। बड़ा ही मेहनत का काम है। एक भी पंक्ति कम या ज्यादा हो जाती है तो संपादक जी की नज़रों में मेरा रिकार्ड गिर जाता है। वैसे बहुत कम ही ऐसा होता है। इसलिए संपादक जी मुझसे खुश रहते हैं। मैं उनका चहेता व्यंग्यकार हूँ। वे अक्सर कहते हैं, ‘बेटा, लिखो चाहे कुछ भी पर कॉलम पूरा भर जाना चाहिए, बस।‘ उम्मीद है आज के लेख का शरीर भी तैयारशुदा कॉलम की यूनीफॉर्म में फिट बैठेगा। नहीं तो पिछले रिकार्ड के आधार पर मुझे फिर चांस दिया जाएगा।

पुनश्च: व्यंग्यकार दो तरह के होते हैं। पहली श्रेणी के वे जो व्यंग्यपूर्ण स्थितियों की समाप्ति के लिए व्यंग्य लिखते हैं। दूसरी श्रेणी के वे जो व्यंग्यपूर्ण स्थितियों को बनाए रखने के लिए लिखते हैं। मैं तीसरी श्रेणी का हूँ जो दूसरी श्रेणी की पूरक होती है। हम लोग खुद ही व्यंग्यपूर्ण स्थितियां भी होते हैं।

एक बार फिर याद दिला दूं कि यह एक व्यंग्य था।
-संजय ग्रोवर
(लेखक संपादक के मित्र, अखबार मालिक के रिश्तेदार व ऊंचे सरकारी ओहदे पर हैं)
(व्यंग्य-संग्रह ‘मरा हुआ लेखक सवा लाख का‘ से साभार)

गुरुवार, 6 अगस्त 2009

व्यंग्य-कक्ष में *****अगर तुम न होते*****

व्यंग्य का शौक उन्हें बचपन से था। हर आदमी को अपना कार्य क्षेत्र व प्रतिबद्धताएं तय करनी पड़ती हैं। जब वे तीन वर्ष के थे तभी उन्होंने निश्चय कर लिया था कि लोग अगर मानसिक विकृतियों व सामाजिक विद्रूपताओं पर व्यंग्य लिखते हैं तो मैं लोगों की शारीरिक बीमारियों, क्षेत्रीय बोलियों व मानसिक परेशानियों पर लिखूंगा। कुछ लेखक इनका प्रतीकात्मक इस्तेमाल करते हैं तो मैं वो भी नहीं करूंगा। मैं सीधे-सीधे इन्हीं पर लिखूंगा। सो पहले दिन से ही आप एक हाथ में कापी-कलम-दवात और दूसरे में इंच-टेप थर्मामीटर व स्टेथस्कोप लेकर घूमते थे। सौन्दर्य प्रतियोेगिताओं के निर्णायकों की तरह आपने भी आदमी की एक आदर्श नाप बना ली थी। कोई अगर कम ज्यादा होता तो आप तुरन्त उस पर व्यंग्य लिख देते थे। अगर ऋषि अष्टावक्र आपके समय में हुए होते तो सात-आठ सौ व्यंग्य तो आपने उन्हीं पर लिख डाले होते। कुब्जा और मंथरा के शरीरों पर आपने एक भी व्यंग्य क्यों नही लिखा, शोध का विषय है।

छुटपन से ही आप बुरी तरह सृजनात्मक थे। बच्चों की पत्रिकाओं में आपने छियालीस व्यंग्य एक ऐसे पड़ोसी पर लिखे जो हकलाता था। तिरेपन व्यंग्य आपने उस महिला पर लिखे जो न को ल कहती थी। तीन सौ व्यंग्य अकेले आपने उस आदमी पर लिखे जिसका पेट मोटा था। ढाई सौ व्यंग्य आपने पतले आदमी पर और सवा दो सौ व्यंग्य गंजों पर लिखे। हांलांकि उक्त शारीरिक क्षेत्रों में से कईयों में आपका भी अच्छा-खासा दखल था। मगर उक्त सामाजिक प्रतिबद्धताओं की वजह से आप इतना व्यस्त रहते थे कि अपने लिए आपको समय ही नहीं मिलता था। एक बार आपके शहर में एक विकलांग बच्चा पैदा हो गया। तब कुछ लेखकों ने चिकित्सा-तंत्र पर लेख लिखे। कईयों ने प्रशासन के ढीलेपन पर व्यंग्य लिखे। कुछ ने बच्चे के माँ-बाप को लापरवाही बरतने का दोषी ठहराया। कई पत्रिकाओं ने इस बीमारी पर लेख छापे। मगर आपकी तो बात ही कुछ औैैर! आपने उस बच्चे पर और उसके विकल अंगों पर व्यंग्य लिखे। आपकी मौलिक सोच के अनुसार कसूर न प्रशासनिक अक्षमता का था, न चिकित्सा तंत्र का, न माँ-बाप का। खुद बच्चा इस सबके लिए दोषी था, क्यों कि जन्मजात विकलांग था। इस तरह बाल-पत्रिकाओं की मार्फत बच्चों में अच्छे संस्कार डालते-डालते कब आप बड़े हो गए, न तो आपको पता चला न ही दूसरों को।


बड़े हुए तो स्वाभाविक था कि लोगों से आपके विचार टकराने लगें। एक बार तो आपको कुछ लेखकों के विचार इतने बुरे लगे कि आपने फौरन सम्बद्ध शहरों में मौजूद अपनी ‘अमूत्र्त- साहित्यिक-गुप्तचर-संस्था’ के एजेण्टों से उन लेखकों के शरीरों और बीमारियों के ‘डिटेल्स‘ मंगाए। तब आपने तिहत्तर व्यंग्य उनके शरीरों पर और पिच्यासी उनकी बीमारियों पर लिखे। हरियाणवी बोली पर एक सौ सैंतीस और बिहारी बोली पर दो सौ एक व्यंग्य आपने इसलिए लिखे कि इन प्रदेशों में रहने वाले कुछ लेखकों व राजनेताओं से आपके ‘वैचारिक मतभेद‘ थे। इसी क्रम में छप्पन व्यंग्य आपने एक मुख्यमंत्री की नाक पर और चैवालीस एक प्रधानमंत्री के बालों पर लिखे। एक पड़ोसी के चश्मे पर आप अभी तैंतीस व्यंग्य ही लिख पाए थे कि उसने चश्मा लगाना छोड़ दिया। आपके दिल को ठेस पहुंँची। तब आपने उसकी आँखों पर बाईस व्यंग्य लिख डाले और डिप्रेशन से बाहर आ गए। अण्डा होती जा रही आपकी सृजनात्मकता फिर से चूज़े देने लगी। इसी सृजनात्मकता को निचोड़ कर आपने तकरीबन डेढ़ हज़ार व्यंग्य लोगों के नामों को बिगाड़ते हुए लिखे और लगभग पौने दोे हजार व्यंग्य पत्नी की कथित मूर्खताओं पर लिखे।


आपके दोस्ती के सर्किल में ज्यादातर लोग प्रतिभावान थे। और अलग-अलग ढंग से अपनी मेधा का इस्तेमाल करते थे। उदाहरणार्थ आपके एक मनोचिकित्सक मित्र तनाव के क्षणों में ओझा से झाड़-फूंक करवाते थे। ‘अंध-विश्वास हटाओ‘ समिति में मौजूद आपके कई मित्रों ने शताब्दी की सर्वाधिक ऐतिहासिक चमत्कारिक घटना के तहत गणेश जी को कई लीटर दूध पिलाया था। ‘दहेज उन्मूलन संस्था‘ के आपके कुछ मित्र किसी भी आपात-स्थिति के लिए हर वक्त किरोसिन तेल के पीपों से लैस रहते थेे। आपके एक राष्ट्र-प्रेमी मित्र दंगों को देश-भक्ति का पर्याय मानते थे। आपके एक कामकाजी मित्र नाइन-टू-फाइव अपने दतर में टांगे मेज पर और धड़ कुर्सी पर फैला कर पड़े रहते थे। महीने के महीने दस हजार तनख्वाह के और बीस हजार ऊपर के ले आते और मेहनती होने का खिताब पा जाते थे। एक अन्य मित्र जो अमीरों से बहुंत नफरत करते थे, सिर्फ उन्हीं माफियाओं से संबंध रखते थे जो ग़रीब से अमीर बने होते थे। दिन में उनके प्रेम के पट्टे में बंधे सामाजिक असमानताओं पर नज़र रखते और नाइट-शिट में पट्टा खुला कर अन्य कलात्मक धंधों पर निकल जाया करते थे। आपके एक मानवतावादी मित्र जो मनुष्य की भलाई के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार थे, रात को जिस बदनाम चिंतन को कांट-छांट कर अपना बना लेते थे, दिन में उसे दुत्कार कर दूर भगा देते थे। मानव जाति के हित में जब मन आए व्यक्तिवादी बन जाना और जब इच्छा हो सामाजिक हो जाना उनकी मीठी सी मजबूरी थी। सभ्यता-संस्कृति के कट्टर संरक्षक आपके एक मित्र जो सामने हर स्त्री को माँ-बहन-बेटी-देवी जपते थे, पीछे उनका ज़िक्र एक आँख दबा कर कादर खानीय मुद्रा में द्विअर्थी संवादों के ज़रिए किया करते थे।


सामाजिक कार्य आपको बचपन से ही माफिक आते थे। आपको बड़ा अरमान था कि आप कुछ विधवाओं को पालें। ‘विधवा-पालन‘ का शौक आपको जुनून की इस हद तक था कि आप दूसरी सामाजिक समस्याओं को ठीक से समझ तक नहीं पाते थे। मगर आपकी बदक़िस्मती कि कई सालों तक कोई स्त्री विधवा न हुंई। कई सालों के लम्बे इंतजार के बाद एक बार जब आप कश्मीर में थे, आपको सूचना मिली कि कन्याकुमारी में एक स्त्री विधवा हो गयी है। आपकी खुशी का ठिकाना न रहा। किसी ने ठीक ही कहा है कि धैर्य का फल मीठा होता है। आप पूरे इन्तजाम के साथ वहाँ गए और उस विधवा को साथ ले आए। हालांकि उसने पचासियों बार कहा कि उसे मदद की कोई ज़रूरत नहीं है।, वह पढ़ी-लिखी है, हर तरह से सक्षम है, आप से ज्यादा कमा सकती है, आपसे बेहतर ढंग से परिवार को पाल सकती है। मगर आप नहीं माने। इतने सालों की लम्बी प्रतीक्षा के बाद अच्छा काम करने का जो इकलौता मौका हाथ लगा था, आपसे छोड़ते न बना।


इन्हीं सब महानताओं की वजह से आप बचपन से ही मेरे प्रेरणा-स्रोत रहे। मुझे इस बात का सख्त अफसोस है कि आपका यह ‘एकलव्य-शिष्य‘ आपकी तरह लायक नहीं बन पाया। बड़ी इच्छा थी कि आपसे मिलकर अपने शरीर में कमियां निकलवाऊं और बीमारियां गिनवाऊं। (मगर इस कशमकश में भी हूँ कि आपसे अंगूठा कटवाऊं या आपको अंगूठा दिखाऊं!?!?)

काश! आप जीवित होते!


पुनश्चः- आपकी विनम्रता ऐसी कि आप हरिशंकर परसाईं, शरद जोशी, श्रीलाल शुक्ल, रवीन्द्र नाथ त्यागी आदि को अपने समकक्ष मानते थे। अगर नहीं भी मानते तो कोई क्या कर लेता!?


-संजय ग्रोवर

(जून 2000 में ‘समकालीन सेतु‘ में प्रकाशित)

बुधवार, 5 अगस्त 2009

अंततः एक गॉडफादर !?

TUMHARI KHOJ ME said...

बीमारी खोजन की खातिर तो हम यहां पहुंचल बा बबुआ। इ जो खिसियाए रहो हो, इ कि दरकार न बा। हम तुहार दुसमन न बा। और कीडा कव्‍वा हम तोहके न बोले रहिन इ तो मुहावरे हैं, अगर ठेस पहुंची हो तो बाइज्‍जत हम शर्मिंदा बा। पर बबुआ अब ऐंठ छोड दो और नाराजगी भी, क्‍योंकि हम इहां झगडा करन खातिर नहीं आइल। जब समय आइ तो पहचान भी हो जाइ और पोस्‍ट भी लग जाइ । और हम इहां अभिमन्‍यु को बचान खातिर आई शहीद करन खातिर नाहीं। अगर अब भी लगत है कि हम तो पे वार करत हैं तो इ तुहार बुद्वि, पर बबुआ आपन दिमाग और ऊर्जा अच्‍छे काम खातिर लगा। और ई गुल्‍लक, तिजोरी की बात छोडि के आपन हाथ फैलाओ और दुनिया को थोडे बडे चश्‍मे से देखन की कोसिस करो। इ दुनिया बहुत खूबसूरत बा।

(पिछली पोस्ट पर अब तक की आखि़री टिप्पणी)

देयर वॉज़ अ स्टोर रुम या कि दरवाज़ा-ए-स्टोर रुम....

ख़ुद फंसोगे हमें भी फंसाओगे!

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ढूंढो-ढूंढो रे साजना अपने काम का मलबा.........

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