ग़ज़ल
भीड़ जब ताली देती है हमारा दिल उछलता है
भीड़ जब ग़ाली देती है हमारा दम निकलता है
हमीं सब बांटते हैं भीड़ को फिर एक करते हैं
कभी नफ़रत निकलती है कभी मतलब निकलता है
हमीं से भीड़ बनती है हमीं पड़ जाते हैं तन्हा
मगर इक भीड़ में रहकर बशर ये कब समझता है
वो इक दिन चांद की चमचम के आगे ईद-करवाचौथ
मगर क्यों सालभर पीछे से इक ज़ीरो निकलता है
भीड़ जब अपनी जानिब हो, बड़ी बेदाग़ लगती है
हो अपने जैसे दूजों की तभी ये ज़हन चलता है
-संजय ग्रोवर
27-06-2017
जानिब = ओर, तरफ़, side, direction, towards, from
बशर = आदमी, व्यक्ति, मानव, a human being
ज़हन = दिमाग़, मस्तिष्क, mind, brain
भीड़ जब ताली देती है हमारा दिल उछलता है
भीड़ जब ग़ाली देती है हमारा दम निकलता है
हमीं सब बांटते हैं भीड़ को फिर एक करते हैं
कभी नफ़रत निकलती है कभी मतलब निकलता है
हमीं से भीड़ बनती है हमीं पड़ जाते हैं तन्हा
मगर इक भीड़ में रहकर बशर ये कब समझता है
वो इक दिन चांद की चमचम के आगे ईद-करवाचौथ
मगर क्यों सालभर पीछे से इक ज़ीरो निकलता है
भीड़ जब अपनी जानिब हो, बड़ी बेदाग़ लगती है
हो अपने जैसे दूजों की तभी ये ज़हन चलता है
-संजय ग्रोवर
27-06-2017
जानिब = ओर, तरफ़, side, direction, towards, from
बशर = आदमी, व्यक्ति, मानव, a human being
ज़हन = दिमाग़, मस्तिष्क, mind, brain
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कहने को बहुत कुछ था अगर कहने पे आते....