ग़ज़ल
हिंदू कि मुसलमां, मुझे कुछ याद नहीं है
है शुक्र कि मेरा कोई उस्ताद नहीं है
जो जीतने से पहले बेईमान हो गए
ऐसे, थके-हारों से तो फ़रियाद नहीं है
जो चाहते हैं मैं भी बनूं हिंदू, मुसलमां
वो ख़ुद ही करलें खाज, मुझपे दाद नहीं है
इंसान हूं, इंसानियत की बात करुंगा
आज़ाद है ज़हन मेरा, बरबाद नहीं है
-संजय ग्रोवर
12/20-06-2018
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (22-06-2018) को "सारे नम्बरदार" (चर्चा अंक-3009) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'