ग़ज़ल
राज़ खुल जाने के डर में कभी रहा ही नहीं
किसीसे, बात छुपाओ, कभी कहा ही नहीं
मैंने वो बात कही भीड़ जिससे डरती है
ये कोई जुर्म है कि भीड़ से डरा ही नहीं !
जितना ख़ुश होता हूं मैं सच्ची बात को कहके
उतना ख़ुश और किसी बात पर हुआ ही नहीं
किसीने ज़ात से जोड़ा, किसीने मज़हब से
मगर मैं ख़ुदसे किसी झूठ से जुड़ा ही नहीं
बुतों ने बहुत दिखाईं तमाम ऊंची जगहें
मगर मैं हंसता रहा, झाड़ पर चढ़ा ही नहीं
-संजय ग्रोवर
26-04-2018
राज़ खुल जाने के डर में कभी रहा ही नहीं
किसीसे, बात छुपाओ, कभी कहा ही नहीं
मैंने वो बात कही भीड़ जिससे डरती है
ये कोई जुर्म है कि भीड़ से डरा ही नहीं !
जितना ख़ुश होता हूं मैं सच्ची बात को कहके
उतना ख़ुश और किसी बात पर हुआ ही नहीं
किसीने ज़ात से जोड़ा, किसीने मज़हब से
मगर मैं ख़ुदसे किसी झूठ से जुड़ा ही नहीं
बुतों ने बहुत दिखाईं तमाम ऊंची जगहें
मगर मैं हंसता रहा, झाड़ पर चढ़ा ही नहीं
-संजय ग्रोवर
26-04-2018
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (28-04-2017) को "यह समुद्र नहीं, शारदा सागर है" (चर्चा अंक-2954) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'