सोमवार, 21 दिसंबर 2009

उदारता क्या है ?


लगभग सभी धर्मों के मानने वाले यह दावा करते हैं कि धर्म इंसान को उदार, सहिष्णु और मानवीय बनाता है। मेरे मन में अकसर कुछ सवाल उठते हैं। चूंकि मैंने इन सवालों को आज तक किसी दूसरी जगह नहीं पढ़ा, इसलिए मन हुआ कि इन्हें आपके सामने रखूं। यह मेरी एकतरफा सोच हो सकती है कि ये सवाल भी व्यक्ति को उदार बनाने की दिशा में ही एक छोटा-मोटा क़दम हो सकते हैं। इसलिए आपकी राय भी इन सवालों को प्रासंगिक या अप्रासंगिक बनाएगी। बचपन से लेकर आज तक कई तरह के आस्तिकों और नास्तिकों से वास्ता रहा है। मुझ एक भी उदाहरण याद नहीं आता जब किसी नास्तिक ने किसी आस्तिक पड़ोसी पर एतराज़ किया हो, झगड़ा किया हो कि जागरन, कीर्तन या नमाज मेरे विश्वासों के खि़लाफ है इसलिए आप इसे करना बंद कर दें। हालांकि बारीकी से अध्ययन करें तो कोई दो नास्तिक या दो आस्तिक भी बिलकुल एक जैसे नहीं होते। मैंने कभी अखबार में नहीं पढ़ा या रेडियो-टी.वी. पर नहीं देखा-सुना कि नास्तिकों का कोई गुट क्रोधित होकर भागा गया हो और उसने आस्तिकों के किसी आयोजन में जाकर तोड़-फोड़ की हो। मेरे सुनने में आज तक नहीं आया कि ‘लिव इन’ करने वाले युवाओं या विवाह संस्था में विश्वास न करने वाले लोगों ने शादीशुदा लोगों पर जाकर दबाव डाला हो कि आप अपनी शादी तोड़ दें नहीं तो हम आपको पीटेंगे, आपका मुंह काला करेंगे। वेलेंटाइन मनाने वाले या प्यार करने वाले लोगों ने कभी किसी को धमकाया हो कि आप सब भी ये सब करो नहीं तो आप पागल हो, हास्यास्पद हो, समाज विरोधी हो और आप फलां मोहल्ला, शहर, देश, प्रदेश छोड़ कर चले जाओ। क्या आपने कभी सुना है कि किसी स्कर्ट या नेकर पहनने वाले ने कहा है कि कुर्त्ता-पायजामा, धोती-बंडी जैसे कपड़े अश्लील हैं, हमारे जैसे कपड़े पहनो नहीं तो हम तुम्हारे कपड़े फाड़ डालेंगे, ये-वो कर देंगे ! क्या आपने कभी सुना कि वस्त्र-विहीन आकृतियां बनाने वाले किसी पेण्टर ने या उसके समर्थकों ने वस्त्रदार पेंटिंग बनाने वालों पर आपत्ति की हो, उनकी पेंटिंग फाड़ डालीं हों ! पक्ष-विपक्ष में कई उदाहरण रखे जा सकते हैं। पर मुझे लगता है कि मेरी बात स्पष्ट हो गयी है और ज़्यादा शब्द या जगह ख़र्च करने का कोई अर्थ नहीं है।
इस लेखक की ज़िंदगी का अधिकांश हिस्सा कुर्त्ता-पायजामा/जींस, हवाई चप्पल और साइकिल के साथ बीता है पर इसे किसी के भी कुछ और पहनने-ओढ़ने-चलाने पर कोई आपत्ति नहीं है।

उम्मीद है उदारता को लेकर दृष्टि विकसित करने में आप मेरी मदद करेंगे।



-संजय ग्रोवर

शुक्रवार, 18 दिसंबर 2009

कुछ खुरदुरी-सी दो ग़ज़लें/लगभग बुरी-सी दो ग़ज़लें


ग़ज़ल


जोकि ये समझ रहे हैं मुझे कुछ पता नहीं है
उन्हें जाके ये बता दो उन्हें ख़ुद पता नहीं है


यूंही ख्वाहमख्वाह ही डरके कोई बात मान लेना
इसे तुम हया न समझो, हरगिज़ हया नहीं है


दुत्कारना दलित को, चालू को चाट लेना
जो इसी को जीत समझे कभी जीत़ता नहीं है


वो जो सामने न आए, तू उसी से बचके रहना
वो ज़रुर काट लेगा कि जो भौंकता नहीं है


चालू से मिला चालू, साजिश को कैसे टालूं
यंूकि तुम भी बैठे गाफ़िल, वो कि पूछता नहीं है


उसे सर्द-गर्म कैसा, वो तो खा रहा है पैसा
उसे क्यूं पसीने छूटें, वो जो कांपता नहीं है


इसी रास्ते से मैं क्यों कोई रास्ता निकालूं !
मेरे वास्ते जगत में, क्या रास्ता नहीं है !?


2.


दिखा जो उनको कीचड़,
लिथड़ गए सब लीचड़


ठग-वग की जगमग से,
चमक रहा है प्रांगण


पढ़े-लिखे नंगों से
सहम गए हैं अनपढ़


फ्यूज़-उड़े-कट-आउट
कड़क रहे हैं कड़-कड़


ये रुटीन-रोज़ाना-
तुम कहते हो गड़बड़ !?


कथित 'उच्चता' गुड़-गुड़,
’योग्य’ मक्खियां भड़-भड़


रटो रदीफ़ो रट-रट,
सड़ो काफ़ियो सड़-सड़



-संजय ग्रोवर

रविवार, 6 दिसंबर 2009

ऐ आगंतुक ख़लल न डाल

ईमानदारी एक रणनीति है



होने से ज़्यादा ज़रूरी है दिखना






दोस्ती एक मजबूरी है


जीने के लिए


कोई न कोई शगल


ज़रूरी है






स्वाभिमान एक लहंगा है


हालांकि पड़ता बड़ा मंहगा है


और हालात की हवा भी है


बहुत तेज़






विनम्रता एक चालाकी है


ज़्यादा कसके पकड़ो तो


हाथ से छूट जाती है


बची-खुची को कहना पड़ता


अपनी बेबाक़ी है






संबंधों के ड्राइंग-रूम में


सजी हैं


घर की सबसे सुंदर और बनावटी चीज़ें






अरे ये कौन घुस आया कमरे में


मासूम सा दिखता आदमी


इसे तो कोई अनुभव ही नहीं जीवन का






आईए इंतज़ार करें और कोशिश करें


धीरे-धीरे यह भी हमारे जैसा हो जाए


और निश्चिंतता से जी सकें हम


अपनी बची-खुची


ज़िंदगी!?



-संजय ग्रोवर

मंगलवार, 1 दिसंबर 2009

गालियों और लात-घूंसों के साथ जूठन भी प्राकृतिक स्वभाव !?


मटुकजूली के ब्लाग से चली यह बहस रा. सहारा  और गीताश्री के ब्लाग से होती हुई  मुझ तक आ पहुंची है क्यांकि एक टिप्पणी मटुक जूली के ब्लाग पर मैंने की थी। जिसपर उन्होंने अपने विचार रखे और उनपर मैं अपने रख रहा हूं।

(तकनीकी कारणों से यह मटुकजूली ब्लाग पर पोस्ट नहीं हो पा रही है। अपने और दूसरे ब्लाग पर डाल रहा हूं।)



प्रिय मटुकजूली जी,

कृपया इस ’प्रिय’ शब्द के कोई विशेष अर्थ न निकालें, यह कामचलाऊ भाषागत शिष्टाचार है, जिसका मैं खामख्वाह विरोध नहीं करना चाहता। चूंकि आपने ‘अपनत्व के छिलके’ शब्दों का प्रयोग किया इसलिए यह सावधानी बरतनी पड़ रही है। मैंने किसी विशेष अर्थ में आपके साथ ‘अपनत्व’ का कोई दावा किया हो, मुझे तो याद नहीं। हां, इस भीड़वादी समाज में दो लोग और निकलकर आए जिनके पास अपने कुछ विचार हैं और उन्हें सलीके से कहने का हौसला भी वे रखते हैं, इस नाते अपने से मिलते-जुलते स्वभाव और विचारों के लोगों को प्रोत्साहित करने की जो भावना मन में उठती है, वह ज़रुर कारण बनी। अब आप इसका अर्थ यह भी मत लगा लीजिए कि किसी का या मेरा प्रोत्साहन नहीं होगा तो आप कुछ कर नहीं पाएंगे। बिलकुल करेंगे। ऐसे प्रोत्साहन का एक कारण प्रोत्साहन देने वाले का अपना अकेलापन भी होता है जिसके चलते ही वह इस ज़रुरत को समझ पाता है कि उसके जैसे लोगों को प्रेरणा, प्रोत्साहन और नैतिक समर्थन की कितनी ज़रुरत होती है। इसका अर्थ कोई यह भी न लगा ले कि मैं हर उस आदमी का समर्थक हूं जो भीड़ से अलग या भीड़ के खिलाफ़ कुछ भी कर रहा है। देखना होता है कि उसके ऐसा करने की वजह क्या है, उससे समाज में किस तरह का बदलाव आने की संभावना है।

आपका धन्यवाद कि आपने इतने धैर्य और सदाशयता के साथ मेरी टिप्पणी पर अपने विचार रखे। कलको गीताश्री भी मेरी उस सहमति पर आपत्ति उठा सकतीं हैं जो मैंने आपके कुछ विचारों पर व्यक्त की है। मैं उनका भी स्वागत करुंगा। आखिर यही तो वैचारिक और व्यक्तिगत अभिव्यक्ति की वह लोकतांत्रिक प्रक्रिया है जिसके लिए मैं, आप, गीताश्री और हमारे जैसे लोग एक जगह बनाना चाहते हैं। पर कभी-कभी आप अतिरेक में चले जाते हैं (हो सकता है मैं भी जाता होऊं और जब ऐसा हो तो आप मुझे भी टोकिएगा) और बातों को  अपने अर्थ दे देते हैं। आप मुझे मेरी अगली-पिछली टिप्पणियों में से एक वाक्य निकाल कर दिखाईए जिससे यह पता चलता हो कि मैं आपको तुलसीदास से वंचित रखना चाहता हूं ! हां, किसी कवि, लेखक, चिंतक या दार्शनिक को पसंद करने के सबके अपने-अपने कारण होते हैं। आपके भी हैं, मेरे भी हैं। मुझे वे लोग अच्छे लगते हैं जो आम आदमी को समझ में आने वाली भाषा में बदलाव की बात करते हैं, रुढ़ियों और कुप्रथाओं के खिलाफ लिखते हैं। मुझे सौंदर्य इसी में नज़र आता है। चरित्र-चित्रण की बात है तो क्या आप यह मानते हैं कि ऐसा करते हुए लेखक के अपने पूर्वाग्रह आड़े नहीं आते होगे ! अगर मुझे घुट्टी में ही औरत से, कमज़ोर और वंचित से (सर्वावाइल आफ द फिटेस्ट !) नफ़रत सिखाई गयी है तो मैं उक्त सबका चरित्र-चित्रण बिना पूर्वाग्रहों के कैसे कर पाऊंगा !? और माफ़ कीजिए, मैं इस आधार पर किसीके बारे में अपनी राय नहीं बना सकता कि उसे रवींद्रनाथ टैगोर या बर्नार्ड शा पसंद करते थे कि नहीं करते थे। मैं किसी को पढ़ता हूं तो सीधे-सीधे पढ़ता हूं। मुझे एक लेखक की कोई बात जम रही है मगर चूंकि जयशंकर प्रसाद या अरुंधति राय को नहीं जमी इसलिए मैं भी विरोध करुं, मेरी समझ से कतई बाहर है। मुझे तो अत्यंत हैरानी है कि ऐसी बातें आप कह रहे हैं ! अभी कल ही कहीं पढ़ रहा था कि मिर्ज़ा ग़ालिब मीर के बड़े प्रशंसक थे। अब मैं इसका क्या करुं कि ग़ालिब मुझे अत्यंत प्रिय हैं, मीर समझ में नहीं आते। हांलांकि मीर मेरी इस कसौटी पर खरे हैं कि उनकी भाषा ग़ालिब की तुलना में आसान है। मगर इधर ग़ालिब ने व्यक्ति और समाज के मनोविज्ञान को जिस तरह समझा है, उधर दिखाई नहीं पड़ता। मेरी समझ में आज भी हमारे समाज को आसान भाषा में खरी-खरी कहने वाले लेखकों-चिंतकों की ज़रुरत है क्यों कि कबीरदास के ‘माला फेरत जुग भया‘ और ‘ता चढ़ मुल्ला बांग दे’ के बावज़ूद हमारा समाज वहीं का वहीं पड़ा है। कबीरदास के ऐसे दो-चार दोहे ज़रुर हमारे कोर्स की क़िताबों में हैं मगर कबीर, बुद्ध या चार्वाक के वास्तविक विचारों से हमारा आम आदमी ठीक से परिचित नहीं है या उसे होने नहीं दिया गया। ओशो का भी मैं प्रेमी हूं और मनसा आनंद जी के ब्लाग पर आजकल उनका ‘‘स्वर्णिम बचपन’’ पढ़ रहा हूं। लेकिन जैसे ही पूर्व-जन्म, अध्यात्म, आत्मा, ईश्वर, गुरु में अंधी श्रद्धा जैसे प्रसंग आते हैं, बात मेरी समझ से बाहर चली जाती है। किसी भी लेखक या चिंतक का लिखा-कहा सब कुछ कैसे सही हो सकता है !? मेरे दिमाग में तो यह बात कभी अट नहीं पायी। आपको मेरी या मुझे आपकी भी सारी बातें कहां जम रही हैं। तय परिभाषाओं के हिसाब से आप और मैं बड़े लेखक हों न हों, दोनों एक-दूसरे को तो कुछ-ना-कुछ समझ ही रहे थे।



औरतों-मर्दों के प्राकृतिक गुणों पर आते हैं। आपने बताया कि आपने परिवार में हमेशा औरतों को मिल-बांट कर खाते देखा। मुझे इस पर कोई आपत्ति नहीं है। होनी भी क्यों चाहिए !? यहां एक मुसीबत यह भी तो है कि जो मिल-बांटकर नहीं खाएगी, आप तय कर देंगे कि यह तो औरत ही नहीं है। मुझे कुछ उदाहरण याद आते हैं। जब पिता किसी व्यवसायिक कार्य से रातों को बाहर जाया करते तो मां रात को घर में सोने के लिए किसी पुरुष रिश्तेदार को बुला लिया करतीं थीं। हांलांकि घर में हम छः छः बच्चे भी होते थे और थोड़े साहसी और व्यवहारिक हों तो एक-दो चोरों से निपटने के लिए कम नहीं होते। मगर उस मानसिक-सांस्कारिक कमज़ोरी का आप क्या करेगे जो स्त्रियों और कुछ बच्चों को परिवेश से मिली होती है। अब जिस पुरुष रिश्तेदार को बुलाया जाता था ज़ाहिर है कि उसकी अच्छी आवभगत भी होती थी। अब मैं और आप कैसे तय करेंगे कि यह मिल-बांट कर खाना था या कुछ और था !? जब मैं स्त्रियों और उनकी समस्याओं के प्रति न के बराबर संवेदनशील था तब भी नोट करता था कि मां हमेशा बासी चीज़ें खातीं थीं। घर की आर्थिक स्थिति कुछ खराब भी नहीं थीं। पिता ने भी कभी मां से ऐसी कोई टोका-टाकी नहीं की थी कभी। मगर मां जब भी अच्छा या महंगा कुछ खातीं तो तब जब घर में कोई सामने न हो या रसोई के एक कोने में छुपकर खातीं थीं। कोई चाहे तो इसे त्याग कह सकता है मगर मेरी समझ में सामाजिक-पारिवारिक-सांस्कारिक परिवेश से मिले अपराध-बोध और हीन-भावनाएं सीधे-सीधे इसके पीछे थीं। कमाल की बात कि मुझे भी एक रिश्तेदार महिला ने एक-दो बार रात सोने के लिए बुलाया जब उनके पतिदेव बाहर गएं। भाभी और उनकी बिटिया ठीक-ठाक ताकतवर थीं। जहां तक शारीरिक ताकत की बात है तो वे महिला अगर मुझे एक धक्का मारतीं तो मैं दो-चार कदम दूर जाकर ही गिरता। मगर संस्कारों की घुट्टी में मिली मानसिक कमज़ोरी का क्या करें !

और स्त्रियां तो बांटकर खातीं हैं मगर हमारे दलित-हरिजन-वंचित-पिछड़े ! वे तो गालियों और लात-घूंसों के साथ जूठन खाते आएं हैं। इसे भी उनका प्राकृतिक स्वभाव कहेंगे आप !? उनकी बुद्धि भी ‘भटक’ गयी है जो वे अपने हक मांग रहे हैं। मेरा कहना आपसे यही था कि हम पहले ठीक से तय तो कर लें कि क्या प्राकृतिक है और क्या समाज-व्यवस्था द्वारा लादा गया है। इसमें मेरी या आपकी उम्र से कोई लेना-देना नहीं था। हज़ारों सालों की तयशुदा परिभाषाओं में से बहुत सी स्त्री के संदर्भ में ग़लत साबित पड़ती जा रही हैं, इसलिए आप तो जल्दी न करें। मेरा निवेदन यह था। शारीरिक ताकत की बात करें तो क्या सारे पुरुष फौज में भर्ती होने के क़ाबिल होते हैं !? वे पुरुष भी जो पुस्तकों के लोकार्पण और वैचारिक अभिव्यक्ति पर लोगों को पीट-पीटकर मार डालते हैं, आतंकवादियों के हमलों के वक्त गायब हो जाते हैं। एक वक्त होता था जब हम साफ-साफ देखा करते थे कि आस्ट्रेलिया जैसे देशों की (महिला) खिलाड़िनें भी हमारे  जैसे देशों के (पुरुष) खिलाड़ियों से कद-बुत और दम-खम में बेहतर होतीं थीं। आज हमारे देश की बहुत सी स्त्रियां बहुत से ऐसे काम कर रहीं हैं जो उनके लिए असंभव घोषित कर दिए गए थे। सीधी बात है कि जो महिलाएं ख़ुदको आधी रात को घूमने या फायटर पायलट बनने के अनुकूल पाएंगी वे निभा ले जाएंगी बाकी अपने दूसरे कामों में लगेंगी। नौकरी करने के लिए महिलाएं हों या पुरुष दोनों ही को कुछ न कुछ त्याग तो करने पड़ते ही हैं। आधी रात को घूमने की बात है तो दो ही इलाज हैं कि या तो हम समाज को इतना खुला और कुण्ठामुक्त बनाएं कि रात को उनका घूमना सामान्य बात हो जाए या उन्हें ज़िंदगी भर दबा-छुपाकर रखते रहें। आधी रात को घूमने में कई खतरे आखिर पुरुष को भी रहते हैं। आपको और मुझे भी अपनी बात कहते हुए तरह-तरह के खतरे होते हैं, तो क्या हम अपनी बात कहना छोड़ देते हैं !?

कुछ स्त्री-संगठनों ने आपके प्रसंग में जिस तरह के तर्क दिए मुझे जमे नहीं थे। लेकिन स्त्री-संगठनों की उपयोगिता से मैं इन्कार नहीं कर सकता। हो सकता है कुछ स्त्रियां अतिरेक में जाकर तो कुछ आर्थिक कारणों से कई बार ग़लत बातें कर देती हों मगर हमारे समाज में अभी तक वह माहौल नहीं बन पाया कि जहां स्त्री-संगठनों की प्रासंगिकता ही खत्म हो जाए। मैं तो आरक्षण के भी खिलाफ हूं पर मेरे नज़दीक यह बिलकुल साफ है कि बिना आरक्षण के इस समाज में दलितों-वंचितों की स्थिति कतई बदलने वाली नहीं थी। ओशो भी संगठन या संस्थाबाज़ी के खि़लाफ थे पर अंततः उन्हें भी एक कामचलाऊ जमावड़ा बनाना पड़ा।

35 और 24 में भारतेंदु और भगतसिंह काफी कुछ कह गये लेकिन सब कुछ नहीं कह गए। बहुत कुछ अभी कहने को भी बाकी है और दोहराए जाने को भी।

-संजय ग्रोवर

बुधवार, 25 नवंबर 2009

मोहे अगला जनम ना दीजो-2



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भला किसी को ग़ज़लें भी फ़ुल वॉल्यूम पर सुनते देखा है कभी !

सरल सुनता है कि पूरे मोहल्ले को सुनाता है !?

‘‘ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो,

भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी,

मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन,

वे काग़ज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी।’’

जगजीत सिंह की आवाज़ जैसे कोई डोर है। सरल उसपर चढ़ता है और पतंग बन जाता है। यूं मुक्त आकाश में लहराना कितना अच्छा लगता है सरल को।

25 का हुआ सरल। 30 का हुआ सरल। 35 का हुआ सरल।

मगर वही कमरा। वही बंद दरवाज़ा। वही ऊंची आवाज़ में ग़ज़लें। कभी जगजीत की जगह मेंहदी हसन ले लेते हैं तो कभी हरिहरन। कभी ग़ुलाम अली आ जाते हैं तो कभी हुसैन बंधु। कभी-कभार भूपेन हज़ारिका भी आते हैं। लता, रफ़ी, किशोर भी आते हैं...

’’कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन.......’’

मगर जगजीत की आवाज़ में आवाज़ मिलाना इतना अच्छा क्यों लगता है सरल को !

‘‘ न दुनिया का डर था न रिश्तों के बंधन’’

और तेज़ ! और ऊंचा। बात-बेबात झेंपने, शरमाने, डरने और घबराने वाला सरल बंद कमरे में अपनी आवाज़ को एकदम खुला छोड़ देता है। कमरा एक स्टेज बन जाता है। अब उसमें और जगजीत सिंह में कोई फ़र्क नहीं। साथ-साथ बैठे कोरस गा रहे हों जैसे।

खुले में जितना छुपना पड़ता है, बंद में ख़ुदको उतना ही खोल देना चाहता है सरल।

‘‘मैं भी कुछ हंू, देखो कितनी कलाएं हैं मुझमें, सुनो...!’’

कैसी है ख़ुदको अभिव्यक्त करने की यह जानलेवा छटपटाहट !?

क्या बाहर कोई मुझे सुन रहा होगा !

‘‘मोहल्ले की सबसे पुरानी निशानी.......’’



एकाएक कुछ याद आ जाता है सरल को। कोई चीज़ है जो कचोट रही है भीतर से।



यह किसके बचपन के बारे में बात चल रही है आखि़र ! ऐसा क्या था जिसे लौटाने के लिए दुआएं, प्रार्थनाएं हो रही हैं ! गिड़गिड़ाया जा रहा है ! होगा यह जगजीत सिंह का बचपन। होगा यह तलत अजीज़ और सुदर्शन फ़ाकिर का बचपन। सरल क्यों इसके गुणगान में इस कदर लीन है ! सरल का बचपन तो नहीं यह। क्या सरल की भी इच्छा होती है अपने बचपन में लौटने की !

सिहर उठता है सरल। धुंधली यादों में मकड़ी के जालों से भरे कमरें हैं। अदृश्य दीमकें हैं जो भीतर-भीतर सारे बचपन को कुतर जाती थीं और बाहर किसी को पता भी नहीं चलता था। अपने ही लिजलिजे अस्तित्व की सीलन से भरे बिस्तर हैं। वे आक्रमणकारी छींकें हैं जो 50-50 की संख्या में एक साथ हमला करतीं थीं और सरल की कमर के साथ मनोबल को भी तोड़ देतीं थीं। और 5-10 घंटों के इंतेज़ार की यादें हैं कि अब बस अब मेहमान जाएंगे और सरल अपनी झेंप को पोंछता-छुपाता कमरे से बाहर निकलेगा। उम्मीद करेगा कि मां ख़ुदबख़ुद ही कुछ खाने को दे दे, उसे कोई याचक मुद्रा न बनानी पड़े। न मां पर हमलावर होना पड़े। फ़िलहाल तो मां से लड़ना ही उसके लिए मर्दानगी है। जिसके लिए सौ-पचास कोड़े अपने-आपको भी मारने होते हैं अंधेरे बंद कमरों में।

और क्या-क्या है सरल के बचपन में।



‘‘ ांडू आ गया। ांडू आ गया।’’

मोहल्ले के बच्चे सरल के पीछे-पीछे आ रहे हैं।

सरल के पैरों में पसीना है। चप्पलें उतर-उतर जाती हैं। क़दम-क़दम पर, गिर जाने के डर से शरीर कांप रहा है। ऊपर छतों पर खड़े लोग उस पर हंस रहे हैं, सरल को लगता है। सात घरों वाली यह गली पार करने में न जाने कितनी उम्र बीत जाएगी। ऊपर से ये बच्चे पीछे लगे हैं,

‘‘ ांडू है।’’ ं

‘‘ ांडू है।’’

कौन हैं ये बच्चे ! क्यों सरल के पीछे लगे हैं !? क्या कह रहे हैं सरल को !?



(जारी)



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शुक्रवार, 13 नवंबर 2009

दमित-विमर्श


सुना है कि वक्त बदल गया है।पुरुष भी अब आज़ाद हो रहे हैं। मगर मैं कहता हूं कि फ़िर कहां है वो लड़की जो मेरा हाथ पकड़कर जबरन मुझे घर से बाहर खींच ले जाए। झिड़के कि कहां रसोई में घुसे रहते हो दिन-भर, देखो अब मर्द भी बाहर घूम रहे हैं, नौकरी कर रहे हैं, व्यापार कर रहे हैं, मंचों पर कहानी-कविता पढ़ रहे हैं।

लो, यह नेकर पहनो। अनकमफर्टेबल होने की ज़रुरत नहीं। लो पहनो पहनो हाफ शर्ट, पहनो सैण्डो बनियान। और किसी लड़की ने तुम्हारी तरफ़ बुरी निगाहों से देखा या अश्लील फिकरा कसा तो मैं उसकी आंखें निकाल लूंगी, ज़ुबान खींच लूंगी। चलो बैठो मोपेड पर मेरे पीछे। चलो छोड़ो इसे, आज गाड़ी तुम ड्राइव करो, हौसला रखो, मैं बैठी हूं न तुम्हारे पास।



कहां है वो लड़की !? मैं उसके साथ घिसटता चला जाऊंगा।


--एक्स वाई ज़ेड

(फेसबुक/संवादघर से निवेदन है कि मेरा असली नाम न छापें। मर्दों के लिए ज़माना अभी इतना भी नहीं बदला। लड़कियों और उनकी बाप-मांओं को पता चल गया तो मेरे लिए अच्छे घर की खाती-कमाती लड़की मिलनी मुश्किल हो जाएगी।)

गुरुवार, 29 अक्तूबर 2009

मोहे अगला जनम ना दीजो ।


क्या करे इन हाथों का ? काट डाले इन्हें ? फेंक आए कहीं जाकर ? या हरदम ढंक कर रखे कहीं ? छुपा दे ! या किसी खुरदुरी चीज़ पर तब तक रगड़ता रहे जब तक दूसरे लड़कों की तरह मर्दाने, खुरदुरे, सख्त या गंठीले ना हो जाएं। तनहाई के छोटे से छोटे वक्फ़े में भी ये हीन भावनाएं, ये अपराध-बोध सरल का पीछा नहीं छोड़ते। किसी से हाथ मिलाने से भी डरता है, बचता है सरल। बीच-बीच में सुनने को मिल जो जाता है- ‘अरे यार, तुम्हारे हाथ तो लड़कियों से भी ज़्यादा मुलायम हैं।’'अगर रात अंधेरे में तेरा चेहरा देखे बगैर कोई तुझसे हाथ मिलाए तो यही समझेगा किसी लड़की का हाथ पकड़ लिया है।'


तिस पर दुबला-पतला-पीला शरीर। शर्मीला स्वभाव। तरह-तरह के फोबिया। ज़रा कुछ खट्टा या तला हुआ खाले तो खांसी, ज़ुकाम, पेटदर्द । महीने में 15 दिन बिस्तर पर गुज़रते हैं। धैर्य नाम की चीज़ से सरल का कोई वास्ता है नहीं। लोग उसकी चुप्पी और अवसाद को ही उसका धैर्य समझ लेते हैं तो उसका क्या कसूर। अशांति का महासागर ठाठें मारता रहता है सरल की छोटी-सी खोपड़ी में। बिस्तर में रहता है तो तरह-तरह की अच्छी बुरी कल्पनाएं और फंतासियां भी साथ रहती ही हैं।



कैसी-कैसी कल्पनाएं हैं सरल की ! एक ऐसी पोशाक बनवाए जिसमें से उसकी तो एक उंगली तक न दिखे पर वह सबको समूचा देख सके। कोई ऐसी कार मिल जाए उसे कि वह तो अंदर से सबको देखले पर उसकी किसी को झलक तक न मिले।



एक तो पड़ा-पड़ा जासूसी उपन्यास पढा करता है ऊपर से जाने किसने दे दिए हैं उसे ये फोबियाओं के उपहार। कहां से क्यों आ गया यह जानलेवा अपराध-बोघ! भयानक असुरक्षा की भावना। इस तरह लोगों से छुपकर, डरकर, शरमा कर अंधेरे कमरों की ओट में कैसे काटेगा वह अपनी ज़िंदगी !

(जारी)
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शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2009

अंधेरों का कोरस यानि कि एक लीचड़ पैरोडी यानिकि डों‘ट टेक सीरियसली......



यारों सब धुंआं करो



मिलकर धुआं करो


बचे-ख़ुचे पर्यावरण को


धकेलो, दफ़ा करो


यारों सब धुंआं करो......






लोगों को दमा करो


चाहे अस्थमा करो


कानों को फ़ाड़ो बम से


अमन प दावा करो


यारों सब धुंआं करो....






पार्क को तबाह करो


तिसपे वाह-वाह करो


रोशनी को आग़ में डालो


नाचो, स्वाह-स्वाह करो


यारों सब धुंआं करो....






ओज़ोन पे आह करो


मौजों पे वाह करो


शांति को तलाक दे दो


शोर से निकाह करो


यारों सब धुंआं करो....






मिठाई जमा करो


ठूंसो-ठांसो, ठां करो


सुबह फ़िर हवा करो


और फ़िर दवा करो


यारों सब धुंआं करो....






(बतर्ज़: यारों सब दुआ करो....)

सोमवार, 28 सितंबर 2009

मौलिकता ससुरी होती ही है अनगढ़


मौलिकता तो वो है मेरे दोस्त

जिसे जानकर तुम्हारे छक्के छूट जाएं

हवा ख़राब हो जाए

सारी दुनिया से तुम्हारा विश्वास उठ जाए



अपनी सारी ज़िन्दगी पर

दोबारा सोचने को मजबूर हो जाओ तुम



जिसे सुनते ही

पहले-पहल यही कहो तुम

कुतर्क करता है साला

अनगढ़ है इसका सारा सृजन



यहाँ तुम बिल्कुल सही हो मेरे दोस्त

सारे गढ़े गए को ध्वस्त करके ही

फ़ूटते हैं मौलिकता के अंकुर

जो दलीलें तुमने न कभी पढ़ी न सुनी

वही तुम्हे लगती हैं कुतर्क

( पर इसका क्या करें कि ज़्यादातर वही होती हैं मौलिक

और तर्क कुतर्क की परिभाषाएं आज तक नहीं बन पायीं )



दुनिया में

बिलकुल दुनिया की ही तरह

होकर और रहकर भी

दुनिया से अलग क्यों दिखना चाहते हो मेरे दोस्त

क्यों ओढ़ना चाहते हो सम्मानों की शाल

क्या छुपा लेगी तुम्हारे पुरस्कारों की ढाल

इनके बिना ख़ुदको निर्वस्त्र और अविश्वसनीय

क्यों समझते हो मेरे दोस्त



अपने लिए गढ़े गए सुरक्षित कोने में

यह कौन-सी बदबू है

जो तुम्हे तुम्हारी उपलब्धियों का मज़ा नहीं लेने देती



गढ़े गए मूल्य

गढी गयी साजिशें

गढ़ी गयी सफ़लता की कसौटियां

गढ़ी गयी मंज़िल की परिकल्पनाएं

गढ़ा गया सामाजिक ढांचा

गढ़े गए अच्छाई और बुराई के मानक

और गढ़े हुए तुम

आखि़र समझोगे भी कैसे

अपनी बेचैनी को

और इसकी अविश्वसनीयता को



पहले अनगढ़ तो बनो मेरे दोस्त

पर मुसीबत तो यह है कि

अनगढ़ तो बना भी नहीं जा सकता

और बनाया भी नहीं जा सकता

क्योंकि मौलिकता बहुत सारी

कथित सुंदर चीज़ों के ढेर से नहीं बनती

बल्कि

बहुत सारी असुंदर और गढ़ी गयी चीज़ों के

न होने से होती है



-संजय ग्रोवर



(‘युद्धरत आम आदमी’ में प्रकाशित)

रचना तिथि: 04-05-2007

बुधवार, 16 सितंबर 2009

छोटा कमरा बड़ी खिड़कियां


कई बार अपने या दूसरों के ब्लागस् पर अपनी या दूसरों की कुछ टिप्पणियां ऐसी लगती हैं कि मन होता है इन्हें ज़्यादा महत्व देकर ज़्यादा लोगों तक पहुंचाना चाहिए। ‘छोटा कमरा बड़ी खिड़कियां’ ऐसी ही टिप्पणियों का मंच बन रहा है। शुरुआत पूजा प्रसाद के ब्लाग ‘जो जारी है.....’ पर आस्तिक-नास्तिक की एक दोस्ताना बहस पर की गयी अपनी ही टिप्पणी से:-


पूजाजी, बुरा मत मानिएगा, मुझे ईश्वर को मानने वालों के तर्क हमेशा ही अजीबो-गरीब लगते हैं। और उनके पीछे फिलाॅस्फी ( ) भी ऐसी ही है जो उन्हें अजीबो-गरीब ही बना सकती है। एक शेर में यह मानसिकता बखूबी व्यक्त हो गयी है -



जिंदगी जीने को दी, जी मैंने,

किस्मत में लिखा था पी, तो पी मैंने,

मैं न पीता तो तेरा लिखा ग़लत हो जाता-

तेरे लिखे को निभाया, क्या ख़ता की मैंने !



अब हम शायर महोदय से विनम्रतापूर्वक पूछें कि आपको पता कैसे लगा कि आपकी किस्मत में यही लिखा था। अगर आप न पीते तो यही समझते रहते कि आपकी किस्मत में न पीना लिखा था। क्योंकि ऐसी कोई किताब तो कहीं किसी फलक पर रखी नहीं है कि जिसे हम पहले से पढ़ लें और जान लें और घटना के बाद संतुष्टिपूव्रक मान सकें कि हां, यही लिखा था, यही हुआ। भाग्य और भगवान के नाम पर चलने वाली यह ऐसी बारीक चालाकी है जिसके तहत जो भी हो जाए, बाद में आराम से कहा जा सकता है कि हां, यही लिखा था। आखिर कोई कहां पर जाकर जांचेगा कि यह लिखा था या नहीं !?



अब कुछ उन तर्कों पर आया जाए जिनके सहारे ‘भगवान’ को ‘सिद्ध’ किया जाता है। ये तर्क कम, तानाशाह मनमानियां ज़्यादा लगती हैं। इन्हीं को उलटकर भगवान का न होना भी ‘सिद्ध’ किया जा सकता है। देखें:-

1। चूंकि लाल फूल लाल ही रहता है, इसका मतलब भगवान नहीं है।


2। चूंकि दुनिया इतने सालों से अपनेआप ठीक-ठाक चल रही है इसलिए भगवान की कोई ज़रुरत ही नहीं है यानिकि वो नहीं है।


3। चूंकि दुनिया में इतना ज़ुल्म, अत्याचार, अन्याय और असमानता है जो कि भगवान के रहते संभव ही नहीं था अतः भगवान नहीं है।


4। भगवान को मानने वालों की भी न मानने वालों की तरह मृत्यु हो जाती है, मतलब भगवान नहीं है।


5। चूंकि अपने आप सही वक्त पर दिन और रात हो जाते हैं इसलिए भगवान नहीं है। आदि-आदि....



अब यह तर्क है कि ज़बरदस्ती कि आप चाहे कुदरत कहो पर है तो वो ईश्वर......



धर्म और तर्क एक ही चीज़ है.......


कैसे पूजाजी !?


इसे और विस्तार दूंगा। तब तक आप यह पोस्ट और प्रतिक्रियाएं पढ़ें:-


क्या ईश्वर मोहल्ले का दादा है !?


एक अन्य प्रासंगिक पोस्ट ‘ईश्वर किसे पुकारे’ का लिंक भी यहां लगा रहा हूं। इसे भी पढ़ें।



-संजय ग्रोवर

सोमवार, 14 सितंबर 2009

ग़ज़ल जो अब तक छपी नहीं, पढ़ो कहीं तो पढ़ो यहीं

ग़ज़ल

हिन्दुस्तान में हिन्दी जैसी उसकी हालत अपने घर में
जैसे शीशा देख रहा हो अपनी सूरत इक पत्थर में


अपने-अपने समय को देखो अपनी-अपनी घड़ी चलाओ
यारो धोखा खा जाओगे देखोगे गर घंटाघर में



अपने पुरखे नहीं रहे अब ऐसा कहना ठीक न होगा
हमने अकसर देखा उनको घुड़की देते उस बंदर में




देश का सौदा करने वाले सारे लोग नहीं इक जैसे
बेच रहे कुछ इसे थोक में बेच रहे हैं कुछ फुटकर में



मंज़िल भी थी आँख के आगे और इरादे भी थे पक्के
फिर भी भटक गया मन यारों रस्ते इतने मिले सफर में





-संजय ग्रोवर

गुरुवार, 20 अगस्त 2009

ग़ज़ल जो ढंग से नहीं छपी ! यहां छपी क्या खू़ब छपी !


ग़ज़ल

बह गया मैं भावनाओं में कोई ऐसा मिला
फ़िर महक आई हवाओं में कोई ऐसा मिला

खो के पाना पा के खोना खेल जैसा हो गया
लुत्फ़ जीने की सज़ाओं में कोई ऐसा मिला

खो गए थे मेरे जो वो सारे सुर वापिस मिले
एक सुर उसकी सदाओं में कोई ऐसा मिला

हमको बीमारी भली लगने लगी, ऐसा भी था
दर्द मीठा-सा, दवाओं में कोई ऐसा मिला

रेत में भी बीज बो देने का मन होने लगा
मेघ आशा का घटाओं में कोई ऐसा मिला

-संजय ग्रोवर

शनिवार, 15 अगस्त 2009

क्या हमें ‘सच का सामना’ नहीं ‘सच का परदा’ चाहिए !?

नैतिकता पर बहस शायद आज की सबसे मुश्किल बहस है। क्योंकि ज़्यादातर लोग ‘चली आ रही नैतिकता’ पर अड़े रहते हैं, भले व्यवहार में इसका उल्टा करते हों। थोड़े-से लोग नैतिकता के नियमों को बदलने की कोशिश करते हैं। उनमें से कुछ ऐसे होते हैं जिन्हें पुराने नियम अमानवीय व अलोकतांत्रिक लग रहे होते हैं तो कुछेक ऐसे भी होते हैं जो व्यक्तिगत स्वार्थों या ‘नयी भीड़’में शामिल होने की खातिर ऐसा करते हैं। उनमें से कुछ की नैतिकता को लेकर अपनी एक तार्किक सोच भी हो सकती है। मुझे लगता है कि ‘जो करना वही कहना’ या ‘जो किया, कह दिया’ नैतिकता है। इस दृष्टि से मुझे ‘सच का सामना’ एक बेहद मामूली सीरियल लगता है जिसपर इतना हल्ला-गुल्ला होना हैरान करता है। मुझे याद आता है कि 25-30 साल पहले सरिता-मुक्ता जैसी आर्य-समाजी पत्रिकाओं में लगभग यही सब बातें ‘पाठकों की समस्याएं’ में बतौर प्रश्न छपा करती थीं। फ़र्क बस इतना है कि वहां पाठकों के नामों की जगह कखग वगैरह लिखा रहता था। ज़ाहिर है कि यह सब सरिता के संपादक गण अपने मन से बनाकर तो लिखते नहीं होंगे। एक दिलचस्प तथ्य मैं देख रहा हूं कि जहां भी इस कार्यक्रम पर टिप्पणी, लेख आदि आ रहे हैं हर जगह ऐतराज़ यही है कि यह सब पर्दे पर कहा क्यों जा रहा है ! ‘यह सब किया क्यों गया’ इसपर अभी तक कोई आपत्ति मेरे देखने में नहीं आयी। क्या नैतिकता यह है कि विनोद कांबली अपनी एक टीस, एक शिकायत को मन में दबाए रखकर झूठी दोस्ती बनाए रखें !? यह कैसी दोस्ती है जिसमें अपने दिल की बात दोस्त से कह देने भर का भी स्पेस नहीं !? और यह दबी हुई कुण्ठा इस दोस्ती के लिए आगे चलकर किसी और शक्ल में और ज़्यादा ख़तरनाक साबित नहीं हो सकती !? अगर एक महिला वहां जाकर झूठ बोलती है कि वह अपने पति के अलावा किसी अन्य से संबंध बनाने की ख्वाहिशमंद नहीं रही और वह झूठ पकड़ा जाता है तो सवाल यह भी तो उठता है कि क्या उस महिला को पता नहीं था कि वह ‘सच का सामना’ करने जा रही है ? वह क्यों गयीं वहां अगर उसमें सच का सामना करने की हिम्मत नहीं थी ? इसके अलावा कोई बेईमान आदमी ही यह कह सकता है कि 13-14 की उम्र तक आते-आते उसे विपरीतलिंगियों के प्रति आकर्षण होना (जिसे आज की प्रचलित भाषा में ‘क्रश आना’ कहते हैं) नहीं शुरु हो गया था। फिर हम क्यों चाहते हैं कि हम लगातार झूठ भी बोलते रहें ऊपर से अपने देश को ‘सच्चाई का पुजारी’, ‘नैतिकता की सबसे पुरानी/प्रतिष्ठत कर्मशाला’ भी कहते रहें !? या तो हम मान लें कि हम झूठे हैं। कम-अज़-कम एक यही सच बोल दें।

या फिर हम अपने सच का इस्ते माल वहीं तक करना चाहते हैं जहां तक वो हमारे झूठ का परदा बन सके !?

देश-भक्ति क्या है ?


1. कुछ देशों को गालियां बकना।


2। कुछ कौमों/सम्प्रदायों को गालियां बकना।



3। गीत गाना।



4। झण्डा फहराना।



5। पूजा-पाठ करना।



6. अपने देश के लोगों से ऊंच-नीच करना।


7। अपना काम ईमानदारी से करना।



मंगलवार, 11 अगस्त 2009

‘व्यंग्य-कक्ष’ में पढ़िए **साहित्य में आतंकवाद** श्रृंखला का चौथा व्यंग्य


***** बिना जुगाड़ के छपना*****


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कस्बे में यह खबर अफवाह की तरह फैल गई कि एक नवोदित लेखक एक राष्ट्रीय अखबार में बिना किसी जुगाड़ के छप गया। सभी हैरान थे कि आखिर यह हुआ कैसे। तरह-तरह की अटकलें लगाई जाने लगीं। कोई कहता कि यह चमत्कारों का युग है, इसमें कुछ भी हो सकता है, तो किसी का मानना था कि संयोगवश इस नवोढ़े कस्बाई लेखक और उस छपित राष्ट्रीय लेखक के नाम मिलते-जुलते से है। असल में दोनों अलग-अलग व्यक्ति है। बहुत सारे लोगों का अनुमान यह भी था कि यह सब खुद इसी लेखक की स्टंटबाजी है और यह अपनी ‘इमेज‘ बनाने के लिए झूठ बोल रहा है। वो दिन हवा हुए जब भारत सोने की चिड़िया था और लेखक बिना जुगाड़ के छपा करते थे। खैर! बंद कस्बे की ऊंघती सड़कों पर यह खबर खुले सांड की तरह दौड़ने लगी और अनुमानों के कुत्ते-बिल्ली गलियों-गलियों होते हुए घरों कें खिड़की-दरवाज़ों और यहां तक कि रसोइयों-पाखानों तक में जा घुसे।

पत्रकार-नगर के साहित्य मोहल्ले में तो दिन में ही रात्रि-जागरण जैसा मौसम बन चुका था। वरिष्ठ कवि ददुआ शहरी जी के यहां एक आपात्कालीन गोष्ठी चालू हो चुकी थी। अपने संघर्ष के दिनों को याद करते हुए ददुआ शहरी जी की आंखें भर आई। रूआंसे स्वर में वे बोले, ‘एक वो भी समय था जब साप्ताहिक ‘जुगनू का बच्चा’ में छपने के लिए मै सारी-सारी रात संपादक जी के पैर दबाया करता था। दैनिक ‘पैसे का दुश्मन‘ को तो मैंने दस-दस रूपए वाले पांच सौ विज्ञापन ला कर दिए। तब कहीं जाकर उन्होंने मेरी एक रचना छापी। एक यह कल का छोकरा है, जो बिना कोई संघर्ष किए, बिना पैर दबाए, बिना जुगाड़ किए ही राष्ट्रीय अखबार में छपने लगा। अगर ऐसा ही होने लगा तो हम संघर्ष करने वाले लेखकों का क्या होगा, जिन्होंने जुगाड़ लगाने में संघर्ष करते-करते अपनी सारी उम्र गुज़ार दी ... ...।‘‘ कहते-कहते उनका गला रूंध गया। पीड़ा के अतिरेक से उनका चेहरा जो पहले ही खूब लाल था, और लाल हो गया। अपना वक्तव्य यहीं पर समाप्त करके वे नीचे बिछी दरी पर जा बिछे।

उनके गिरने से ठीक पहले श्री अजीबो-गरीब ‘प्रौढ़‘ उठकर खड़े हो चुके थे। और एक बार खड़े हो जाने का मतलब था, अपना भाषण समाप्त करके ही बैठना। ‘प्रौढ़‘ जी अपेक्षाकृत सधे हुए स्वर में बोले, ‘‘संघर्ष की रवायत के ये कीमती हीरे जो हमारे बुजर्गों ने बड़ी हिफाज़त और नफासत से हमे सौंपे थे, क्या हम उन्हें यूं ही बिखर जाने देंगे। क्या एकाध मामूली और ग़ैर ज़िम्मेदार नया लेखक हमारी इस समृद्ध परम्परा को तोड़ डालेगा। नहीं! हम ऐसा नहीं होने देंगे। हम एक प्रतिनिधिमंडल लेकर उस राष्ट्रीय अखबार के संपादक के पास जाएंगे और सामूहिक व सार्वजनिक रूप से उसकी सेवा करके बताएंगे कि एक लेखक और एक संपादक के रिश्ते में संघर्ष का क्या महत्व है। किस तरह से और किस तरह का संघर्ष एक साहित्यकार के जीवन को उपलब्धियों से भर देता है।‘‘ इतना कहकर उन्होंने अपनी बात के अनुमोदन की आशा में बाकियों की तरफ देखा तो पाया कि बाकी सब पहले से ही उनको निहार रहे हंै। इस प्रकार कुछ-कुछ खुश, कुछ-कुछ उत्तेजित ‘प्रौढ़‘ जी कुछ इस अंदाज में नीचे बैठ गए कि कहना मुश्किल था कि वे ढह गए हैं या बह गए है।

‘प्रौढ़‘ जी से पहले और बाद में भिन्न-भिन्न प्रकार के कई भाषण हुए मगर जो आखिरी भाषण हुआ वह युवा पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करने वाले श्री हमजवान ‘मैं‘ जी का था। हमजवान ‘मैं‘ जी काफी तैश में दिख रहे था। बोले,‘‘काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ती। मेरे पिता अक्सर कहते थे कि साहित्यकार को तो चिकनी मिट्टी का बना होना चाहिए, जिस पर अच्छी-बुरी परिस्थितियों का पानी ठहर ही न सके और वह अपनी चमक भी बरकरार रख सके। मुझे आशा ही नहीं, पूर्ण विश्वास है कि हम हमेशा की तरह इस संकट से भी उबर आएंगे और संघर्ष की अपनी पुरानी परम्परा को साफ बचा ले जाएंगे। मेरा दावा है और वायदा है कि जब तक हमारे युवा लेखकों के कंधों में दम है, हमारी इस संघर्षपूर्ण साहित्यिक यात्रा को कोई नहीं रोक सकता ... ...।‘‘ अभी वे शायद और भी कुछ कहते, मगर जब उन्होंने पचास से ऊपर के चार युवा साहित्यकारों को अपनी ‘कंधों‘ और ‘यात्रा‘ वाली बात का समर्थन करते देखा तो भावावेश में भाले की तरह अपनी ही धरती में जा धंसे।

इस सब और चाय-समोसों के मामूली अवरोध के उपरांत वातावरण को हल्का-फुल्का बनाने के लिए एक काव्य-गोष्ठी का आयोजन किया गया। इसमें तेरह कवि और बारह श्रोता थे। गणित इस प्रकार था कि जब एक पढ़ता तो बाकी बारह श्रोता बन जाते थे। इन बारह श्रोताओं में से दस स्थानीय, क्षेत्रीय और राष्ट्रीय अखबारों के संवाददातां थे, जिन्हें काफी संघर्ष करके कलके अखबारों में इस गोष्ठी की लगभग तीन, चार या पांच कालम की खबर छपवानी थी। इस संघर्ष के लिए उन्हें साहस मिलता रहे, इसके लिए वे बीच-बीच में समोसों का सहारा ले लेते थे।

समोसा-भोजन और गोष्ठी-समापन अपने ‘क्लाइमैक्स‘ पर थे कि तभी वे एक खलनायक की तरह वहां से गुजरे। वे जिनके कारण यह सारा आयोजन किया गया था। यानी कि बिना जुगाड़ के छपने वाले लेखक महोदय। गोष्ठी में मौजूद तेरहों साहित्यकारों ने स्वाभावानुसार उन्हें घृणा से घूरा और परम्परानुसार प्रेम से अपने पास बिठाया। फिर कुछ शर्माते हुए, कुछ हिचकिचाते हुए, कुछ लड़खड़ाते हुए उनके बीच एक पुल सा बना और आखिरकार तेरह-मंडली ने झिझकते हुए पूछ ही डाला कि बिना जुगाड़ के छपने के इस हैरतअंगेज कारनामे को उन्होंने कैसे अंजाम दिया। इस पर उन्होंने मुस्कराते हुए बताया कि यह बहुत ही आसान है। आप अपनी रचना साफ कागज के एक तरफ हाशिया छोड़कर लिखें या टाइप करवाएं और फिर उसे अपना पता लिखे टिकट लगे लिफाफे के साथ अखबार के संपादक को भेज दें।


एल्लो! खोदा पहाड़ निकली चुहिया। तेरह-मंडली ने अपना माथा पीटा कि उन्होंने चम्मच खाली होने का चमत्कार तो देखा मगर नाली से निकलते दूध को क्यों नहीं देखा। फिर भी तेरह मंडली यह राज़ जानकर फूली नहीं समाई। दुश्मन से दोस्त बन चुके लेखक को उन्होंने कई धन्यवाद दिए और दो समोसे भी जबरदस्ती खिलाए। तदुपरांत वे सब योजना बनाने में व्यस्त हो गए कि क्या जुगाड़ लगाई जाए जिससे कि रचना बिना जुगाड़ के ही छप जाए।

इधर बिना जुगाड़ छपने वाला लेखक एक बार फिर अकेला रह गया।

-संजय ग्रोवर


(18 अक्तूबर, 1996 को पंजाब केसरी में प्रकाशित)

सोमवार, 10 अगस्त 2009

‘व्यंग्य-कक्ष’ में पढ़िए **साहित्य में आतंकवाद** श्रृंखला का तीसरा व्यंग्य

*****अकादमी, अनुदान और नया लेखक*****
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आज से कोई 5 या 10 या 15 या 20 साल पहले (5 से 10, 15 या 20 तक मैं इसलिए पहूंच रहा हूं कि पता नहीं मुझ जुगाड़हीन का यह व्यंग्य कितने साल बाद छपे, सो कम-अज़-कम इस अर्थ में तो इसकी प्रासंगिकता बनी रहे) होता यह था कि फिल्म इण्डस्ट्री में नई-नई आयी हीरोइन कहती थी कि न न अंग प्रदर्शन तो मैं हरगिज़ नहीं करूंगी। घाघ, अनुभवी और दूरदर्शी निर्माता-निर्देशक तड़ से समझ जाते थे कि ज़रूर करेगी और भरपूर करेगी। कुछ दिन बाद जब फिल्में मिलना कम होने लगता या मीडिया में चर्चा बंद होने लगती तो हीरोइन ठण्डी पड़ने लगती। उसूलों के बोझ को कपड़ों की तरह उतार फेंकती और कहती,‘कहानी या दृश्य की मांग पर ऐसा करने में मैं कोई हर्ज नहीं समझती।‘ धीर-धीरे उसके तर्कों का जुलूस जोर-शोर से आगे बढ़ने लगता, ‘भई, अब स्विमिंग-पूल में नहाने का दृश्य है तो स्विमिंग-काॅस्ट्यूम नहीं पहनूंगी तो क्या सलवार-सूट पहनूंगी‘ या ‘कैबरे-डांसर का रोल क्या साड़ी लपेट कर करूंगी‘ वगैरह।

मैं भी कई साल तक भीष्म-प्रतिज्ञा जैसा कुछ किए बैठा रहा कि अपने पैसों से अपनी किताब हरगिज नहीं छपवाऊंगा। साथ ही यह भी रटता रहा कि अखबार में व्यंग्य का काॅलम तो हरगिज़-हरगिज़ नहीं लिखूंगा (और तब तक रटता रहूंगा जब तक किसी अच्छे अखबार से आॅफर नहीं आ जाती)। मुद्दतों इंतजार करता रहा कि कोई प्रतिभा का पारखी प्रकाशक आएगा, कहेगा,‘अजी कहाँ छुपे बैठे हैं आप। अपना भी नुकसान कर रहे हैं और हमारा भी। आईए, हम दिलाएंगे आपको आपकी सही जगह।‘ पर ऐसा कुछ न होना था न हुआ। मैं फैज़ की पंक्तियां पढ़-पढ़ कर दिल को तसल्ली देता व सोग मनाताः
अपने बेख्वाब किवाड़ों को मुकफल कर लो अब यहाँ कोई नहीं, कोई नहीं आएगा

दुख की इस बेला में एक दिन किसी अखबार में अकादमी का विज्ञापन देखा। नए लेखकों(नए लेखक भी कम-अज़-कम दो तरह के होते हैं-एक तो वे जो पाँच-पाँच बार अनुदान लेकर भी नए बने रहते हैं। दूसरे मेरे जैसे जो ‘अपरिहार्य’ कारणों से ताउम्र नए बने रहते हैं।) को दिए जाने वाले अनुदान की सुगन्ध उसमें से फूटी पड़ रही थी। मैं आदतन उस खुशबू की गहराई में घुस पड़ा। और मेरा विकृत मस्तिष्क अपनी औकात पर उतर आया।

मित्रों ने कहा था कि अरे तुम्हारी रचनाओं पर तो अकादमी हंस कर अनुदान देगी। न जाने कैसे-कैसों को मिल जाता है फिर तुम्हारी रचनाएं तो अच्छी खासी हैं। तुम पाण्डुलिपि जमा करा दो। पाण्डुलिपि मंजूर हो गई तो छपने के बाद अमुक राशि का चैक तुम्हें अकादमी से मिल जाएगा। तब मेरे ऊलजुलूल चिंतन ने सोचा कि यार, पैसा तो प्रकाशक को फिर भी देना पड़ेगा। अपनी गाँठ से नहीं तो अकादमी से लेकर। अगर प्रकाशक मुझे छापने योग्य समझता है तो उसे अकादमी का सर्टीफिकेट क्यों चाहिए? क्या सीघे-सीधे मेरी पाण्डुलिपि देखकर वह यह निर्णय नहीं ले सकता। मुझे प्रकाशक के बौद्धिक स्तर पर संशय होने लगा। फलस्वरूप चिंतन और आगे बढ़ा। अगर मैं छपने लायक हूँ तो प्रकाशक को पैसे क्यों चाहिए, भले ही अकादमी दे। अगर पैसे ही देने हैं तो अकादमी दे या मैं दूं फर्क क्या पड़ता है। अगर प्रकाशक सरकारी खरीद में किताबें खपाना जानता है तो खपा ही देगा। सभी जानकार लोग यह भेद जानते हैं। फिर प्रकाशक को अमुक राशि का चैक खमख्वाह क्यों दिया जाए?

अकादमी तो लेखक की मदद कर रही है क्योंकि वो तो घोषित तौर पर बनी ही इसलिए है। प्रकाशक लेखक की मदद क्यों कर रहा है? क्योंकि उसे अमुक राशि का चैक मिलेगा। जब अकादमी ने लेखक पर अपना ठप्पा लगा ही दिया है और प्रकाशक ने अपनी बुद्धि की सीमाओं को स्वीकार करते हुए अकादमी के निर्णय के आगे घुटने टेक ही दिए हैं तो फिर प्रकाशक को चैक क्यों चाहिए? क्या प्रकाशक यह मानता है कि उक्त नए लेखक को छापने पर उसे उक्त राशि का घाटा होगा। घाटा होने के निहितार्थ यही तो हुए कि पुस्तक न तो बिकेगी, न सरकारी खरीद में जाएगी। अर्थात् कोई भी इसे नहीं पढ़ेगा। फिर इससे लेखक को क्या फायदा होगा? फायदा न लेखक को होगा न प्रकाशक को तो इस अनुदान का अर्थ क्या हुआ? क्या लेखक पर तरस खाया जा रहा है? तमाम तरस के बाद भी अनुदान अगर अपमान सिद्ध होता हो तो कोई स्वाभिमानी लेखक इसे क्यों लेगा?

कुछ समझे आप? उक्त सारी बौद्धिक कवायद क्यों की मैंने! नहीं समझे तो समझ लीजिए कि आखिरकार मैंने अपनी किताब अपने पैसों से छपा डाली। मगर उससे क्या होता है?

पुस्तक का प्रचार भी करना होता है। पत्र-पत्रिकाओं में समीक्षा भी छपानी होती है। पुस्तक बेचनी भी होती है। उसके लिए तो एक पूरा का पूरा तंत्र चाहिए। सुनते हैं प्रकाशक इस मामले में लगभग ‘तांत्रिक‘ होता है (लोकतांत्रिक हो न हो)। बहुतेरे इस अर्थ में प्रकाशक की तुलना चंद्रास्वामी या धीरेन्द्र ब्रहम्चारी से भी कर डालते हैं। लेखक अगर चं।स्वामी या धी।चारी होगा तो क्या वह इतना उल्लू का पट्ठा है कि किताब अपने पैसे से छपाएगा!?

चलो अपने पैसे से छपा ली लेखक ने क़िताब। पर किसी पत्र-पत्रिका में उसका कोई दोस्त तो है ही नहीं। तो फिर करे फोन पर फोन। ‘वो... ... भाई साहब ... ... वो ... ॥ दो साल पहले अपनी एक क़िताब भेजी थी समीक्षा के लिए ... ... उसका कुछ हुआ ... ... ज़रा देख लीजिए एक बार ... ...‘ आवाज़ में रिरियाहट भी हो तो पत्र/पत्रिका के दफ्तर में राजगद्दी के बगल में बैठे ओहदेदार साहित्यकार (नुमा) के अहंकार को अनोखा सुख मिलता है(होगा?)। जवाब में वे उनीदे से कुछ धकियाते हैं, ‘‘अब भाई, इतनी जल्दी तो समीक्षाएं छपती नहीं। अमुक जी की ही किताब साढ़े तीन साल से रखी है जबकि उनके भाई अखबार मालिक के साले के खास जीजा हैं। खुद अमुक जी मेरे मित्र के छोटे भाई के मित्र के बड़े भाई है।’’ लीजिए। अब अपना सा मुंह लेकर रह जाने के अलावा क्या चारा है आपके पास! ज्यादा हुआ तो यही बुदबुदा कर रह जाएंगे आप, ‘लो भई, अब तो अखबारी दफ्तर और सरकारी दफ्तर में कोई फर्क ही नहीं रह गया।‘ तत्पश्चात्, प्रकाशक की छत्रछाया के बिना और अपने ‘अव्यवहारिक‘ स्वभाव के चलते लोकार्पण या विमोचन के बारे में तो सोचते भी आपको झुरझुरी आने लगेगी।

जिन मित्रों ने कहा होगा कि तुम्हारी रचनाओं पर तो अकादमी हंस कर अनुदान देगी वही कहने लगेंगे कि ‘कैसे-कैसे प्रतिभाहीन लोग अपने पैसे से क़िताब छपा कर लेखक बन जाते हैं।’ यानि पैसा अपना हो तो प्रतिभा, प्रतिभा नहीं रहती। और अकादमी से झाड़ा हो तो (पैसा झाड़ना भी तो प्रतिभा है) प्रतिभा-विरोधी को भी प्रतिभाशाली होने का सर्टीफिकेट मिल जाता है। कुछ और तरह की प्रतिभाएं भी अरसे से साहित्य में पांव जमाए हैं। तिकड़म, चाटुकारिता, संबंधबाजी, ‘इस हाथ दे उस हाथ ले‘, ‘तू मेरी किताब छाप, मैं तेरा कोई काम करवाऊंगा‘ जैसी प्रतिभाएं अगर आपमें हैं तो भी बतौर लेखक छपने, पुस्तक प्रकाशित करवाने और स्थापित होने में कोई परेशानी नहीं आएगी। तय है कि प्रकाशक या तो उक्त प्रतिभाशालियों को छापता है या फिर निर्मल वर्मा, राजेन्द्र यादव, कृष्णा सोबती, उदय प्रकाश, प्रेमचंद, श्रीलाल शुक्ल, यशपाल, परसाईं, शरद जोशी या शरतचन्द्र को छापता है जो कि स्थापित हैं, प्रतिभाशाली हैं, लोकप्रिय हैं व सबसे बड़ी बात, बिकते हैं। बीच के लोगों को प्रकाशक घास नहीं डालता। डालता है, तो शर्त वही होती है, पैसे दीजिए, चाहे अपनी गांठ के हों चाहे अकादमी के।

एक तरीका और भी है कि आप तस्लीमा नसरीन या ओशो रजनीश जितने विवादास्पद हो जाईए बशर्ते कि आपमें उतनी बौद्धिक व मौलिक ऊर्जा व साहस हो। मगर ‘भाई‘ लोगों से बच के।(जी हाँ, भाई लोग साहित्य में भी होते हैं मगर बड़े ही ‘सोफिस्टीकेटेड’ किस्म के। आप ज़िन्दगी भर हाथ-पाँव मारते रहिए मगर न तो ये कभी सीधे-सीधे सामने आएंगे न ही आप कभी आप इन पर सीधे-सीधे ऊँगली उठा पाएंगे।) ‘भाई’ लोगों को पता चला गया तो वे आपको छपने ही नहीं देंगे। बिना छपे विवादास्पद कैसे होंगे आप? बताईए! ‘भाई‘ लोग आपके विवादास्पद तो होने देंगे नहीं साथ ही साहित्य-समाज में संदेहास्पद और अछूत भी बना देंगे। आप देखें कि हिन्दी साहित्य में कभी कोई तस्लीमा, रशदी या मण्टो नहीं होते। बेचारे राजेन्द्र यादव कोशिश कर-कर के हार गए पर ... ... उखाड़ कुछ नहीं पाए।

बहरहाल, हीरोइन अगर स्थापित हो गई हो या आर्थिक रूप से अपने पैरों पर खड़ी हो गई हो तो वह अपने पसंदीदा विषय पर ऐसी फिल्म का निर्माण या निर्देशन कर सकती है जिसमें उसे किसी स्तर पर कोई समझौता न करना पड़े। अब यह उसके बौद्धिक स्तर और साहस पर निर्भर करता है कि वो अपने पैसे से ‘घर एक मंदिर‘ व ‘स्वर्ग से सुंदर‘ बनाती है या ‘फायर‘ और ‘द बैंडिट क्वीन‘।

-संजय ग्रोवर

(व्यंग्य-संग्रह ‘मरा हुआ लेखक सवा लाख का’ से साभार)

शनिवार, 8 अगस्त 2009

‘व्यंग्य-कक्ष’ में पढ़िए #~~~साहित्य में आतंकवाद~~~# श्रृंखला का दूसरा व्यंग्य *****एक कॉलम व्यंग्य*****

*****एक कॉलम व्यंग्य*****
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कृपया निम्न लेख को पढ़ते समय ध्यान रखें कि यह एक व्यंग्य है।

श्रीमती जी को कद्दू पसंद है और मुझे टिण्डा। बोलीं कि कई दिन से टिण्डा खा रहे हैं आज कद्दू बना लेती हूं। मैं हंसा, गंवार कहीं की। रूंआसी हो बोली कि गंवार हूं तो मुझसे शादी क्यों की थी। मैंने कहा, मूर्ख कहीं की, तू न होती तो मैं हंसी किसकी उड़ाता, चुटकुले किस पर लिखता, (यानि कि) व्यंग्य किस पर लिखता। पत्नियां तो होती ही इसलिए हैं कि उन पर कुछ भी लिख दिया जाए। वे उसे व्यंग्य मान कर अपराध बोध महसूस करने लगती हैं। पत्नी सचमुच शर्मिन्दा हो गई। टिण्डा फिर कद्दू पर हावी हो गया।

पुराने लोग बहुत अच्छे होते हैं। नए बहुत ही ज्यादा गंदे होते हैं। एक बार मैं नई पीढ़ी था। तब पुरानी पीढ़ी काफी घटिया थी। अब मैं पुरानी पीढ़ी होता जा रहा हूं और नई पीढ़ी खराब होती जा रही है। मैंने सुबह ग्रंथादि का पाठ शुरू कर दिया है। धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा। पहले भी कई बार हुआ है। (ऐसा मैंने सुना है।)।

दूसरे बहुंत ही गंदे हैं। हम बहुत ही अच्छे हैं। दूसरे एकदम खराब। हम एकदम अच्छे। दूसरे खराब। हम अच्छे। टाॅँय टू। टाँॅय टू। टाँॅय टू। टाँॅय टू। टू-टू। एक साल बाद। टाँॅय-टाँॅय। दस साल बाद। टू-टू। सौ साल बाद। टाँॅय-टू। हजार साल बाद। टाँॅय टू। दसियों हज़ार साल बाद। टाँॅय टू। दूसरे खराब। हम अच्छे। टाँॅय टू। टाँॅय टू।

जनता बहुत अच्छी है। लोग बहुत अच्छे हैं। नेता सब नालायक हैं। जनता जमीन से पैदा होती हैं। नेता आसमान से टपकते हैं। न जाने कब अच्छे नेताओं की बारिश होगी। वैसे कुछ अच्छे नेता भी हैं। पर ऐसे नेता बस दो-चार ही हैं। एक ने मेरी क़िताब छपवाने में मदद की। एक ने उसका विमोचन किया। तीसरे ने मुझे एक जगह सस्ता प्लॉट दिलवा दिया है। लगभग मुफ्त का। चौथे के मेरे घर आते-जाते रहने से पड़ोसियों में मेरी छवि भी खासी दमदार बनी हुई हैं। राशन- गैस भी घर बैठे आ जाते हैं। अब क्या करूं। दुनियादारी भी तो कोई चीज़ है। ‘एडजस्ट‘ तो करना ही पड़ता है न। रोटी भी तो खानी है कि नहीं। आजकल कुछ लोग कहने लगे हैं कि जैसा समाज होता है वैसा ही उसका नेता होता है। लगता है इन लोगों ने अपने खाने-पीने रहने का ‘फुलप्रूफ‘ जुगाड़ कर लिया है। पर मेरे सामने तो सारी ज़िन्दगी पड़ी है। अपना ‘कैरियर‘ भी तो संवारना है। मैं ऐसी बातें खुलकर कैसे कह सकता हूँ।

लोग तो प्रकाशकों और पाठकों की भी बुराई करते हैं। मैं कहता हूं कि कौन कहता है किताबें नहीं बिकती। खुद मेरी किताबो ‘पेटदर्द चुटकुले‘, ‘हंसती हुई उबासियां‘, ‘घर में हंसो, बाज़ार में हंसो, पत्नी पर हंसो, सरदार पर हंसो’ के कई संस्करण छपे भी हैं और बिके भी हैं। मेरे नए कविता संग्रह ‘लड़की नहाई औंगन में‘ को छापने के लिए कई प्रकाशक अभी से दरवाज़ा पीट रहे हैं। कुछ पाठकों के तो प्रशंसा पत्र भी अभी से आ गए हैं।

मैं एक उद्योग हूँ। व्यंग्य एक उत्पाद है। अखबार बिचैलिया है। पाठक एक ग्राहक है। रोज़ाना सुबह आपको एक कॉलम व्यंग्य सप्लाई करना होता है। बड़ा ही मेहनत का काम है। एक भी पंक्ति कम या ज्यादा हो जाती है तो संपादक जी की नज़रों में मेरा रिकार्ड गिर जाता है। वैसे बहुत कम ही ऐसा होता है। इसलिए संपादक जी मुझसे खुश रहते हैं। मैं उनका चहेता व्यंग्यकार हूँ। वे अक्सर कहते हैं, ‘बेटा, लिखो चाहे कुछ भी पर कॉलम पूरा भर जाना चाहिए, बस।‘ उम्मीद है आज के लेख का शरीर भी तैयारशुदा कॉलम की यूनीफॉर्म में फिट बैठेगा। नहीं तो पिछले रिकार्ड के आधार पर मुझे फिर चांस दिया जाएगा।

पुनश्च: व्यंग्यकार दो तरह के होते हैं। पहली श्रेणी के वे जो व्यंग्यपूर्ण स्थितियों की समाप्ति के लिए व्यंग्य लिखते हैं। दूसरी श्रेणी के वे जो व्यंग्यपूर्ण स्थितियों को बनाए रखने के लिए लिखते हैं। मैं तीसरी श्रेणी का हूँ जो दूसरी श्रेणी की पूरक होती है। हम लोग खुद ही व्यंग्यपूर्ण स्थितियां भी होते हैं।

एक बार फिर याद दिला दूं कि यह एक व्यंग्य था।
-संजय ग्रोवर
(लेखक संपादक के मित्र, अखबार मालिक के रिश्तेदार व ऊंचे सरकारी ओहदे पर हैं)
(व्यंग्य-संग्रह ‘मरा हुआ लेखक सवा लाख का‘ से साभार)

गुरुवार, 6 अगस्त 2009

व्यंग्य-कक्ष में *****अगर तुम न होते*****

व्यंग्य का शौक उन्हें बचपन से था। हर आदमी को अपना कार्य क्षेत्र व प्रतिबद्धताएं तय करनी पड़ती हैं। जब वे तीन वर्ष के थे तभी उन्होंने निश्चय कर लिया था कि लोग अगर मानसिक विकृतियों व सामाजिक विद्रूपताओं पर व्यंग्य लिखते हैं तो मैं लोगों की शारीरिक बीमारियों, क्षेत्रीय बोलियों व मानसिक परेशानियों पर लिखूंगा। कुछ लेखक इनका प्रतीकात्मक इस्तेमाल करते हैं तो मैं वो भी नहीं करूंगा। मैं सीधे-सीधे इन्हीं पर लिखूंगा। सो पहले दिन से ही आप एक हाथ में कापी-कलम-दवात और दूसरे में इंच-टेप थर्मामीटर व स्टेथस्कोप लेकर घूमते थे। सौन्दर्य प्रतियोेगिताओं के निर्णायकों की तरह आपने भी आदमी की एक आदर्श नाप बना ली थी। कोई अगर कम ज्यादा होता तो आप तुरन्त उस पर व्यंग्य लिख देते थे। अगर ऋषि अष्टावक्र आपके समय में हुए होते तो सात-आठ सौ व्यंग्य तो आपने उन्हीं पर लिख डाले होते। कुब्जा और मंथरा के शरीरों पर आपने एक भी व्यंग्य क्यों नही लिखा, शोध का विषय है।

छुटपन से ही आप बुरी तरह सृजनात्मक थे। बच्चों की पत्रिकाओं में आपने छियालीस व्यंग्य एक ऐसे पड़ोसी पर लिखे जो हकलाता था। तिरेपन व्यंग्य आपने उस महिला पर लिखे जो न को ल कहती थी। तीन सौ व्यंग्य अकेले आपने उस आदमी पर लिखे जिसका पेट मोटा था। ढाई सौ व्यंग्य आपने पतले आदमी पर और सवा दो सौ व्यंग्य गंजों पर लिखे। हांलांकि उक्त शारीरिक क्षेत्रों में से कईयों में आपका भी अच्छा-खासा दखल था। मगर उक्त सामाजिक प्रतिबद्धताओं की वजह से आप इतना व्यस्त रहते थे कि अपने लिए आपको समय ही नहीं मिलता था। एक बार आपके शहर में एक विकलांग बच्चा पैदा हो गया। तब कुछ लेखकों ने चिकित्सा-तंत्र पर लेख लिखे। कईयों ने प्रशासन के ढीलेपन पर व्यंग्य लिखे। कुछ ने बच्चे के माँ-बाप को लापरवाही बरतने का दोषी ठहराया। कई पत्रिकाओं ने इस बीमारी पर लेख छापे। मगर आपकी तो बात ही कुछ औैैर! आपने उस बच्चे पर और उसके विकल अंगों पर व्यंग्य लिखे। आपकी मौलिक सोच के अनुसार कसूर न प्रशासनिक अक्षमता का था, न चिकित्सा तंत्र का, न माँ-बाप का। खुद बच्चा इस सबके लिए दोषी था, क्यों कि जन्मजात विकलांग था। इस तरह बाल-पत्रिकाओं की मार्फत बच्चों में अच्छे संस्कार डालते-डालते कब आप बड़े हो गए, न तो आपको पता चला न ही दूसरों को।


बड़े हुए तो स्वाभाविक था कि लोगों से आपके विचार टकराने लगें। एक बार तो आपको कुछ लेखकों के विचार इतने बुरे लगे कि आपने फौरन सम्बद्ध शहरों में मौजूद अपनी ‘अमूत्र्त- साहित्यिक-गुप्तचर-संस्था’ के एजेण्टों से उन लेखकों के शरीरों और बीमारियों के ‘डिटेल्स‘ मंगाए। तब आपने तिहत्तर व्यंग्य उनके शरीरों पर और पिच्यासी उनकी बीमारियों पर लिखे। हरियाणवी बोली पर एक सौ सैंतीस और बिहारी बोली पर दो सौ एक व्यंग्य आपने इसलिए लिखे कि इन प्रदेशों में रहने वाले कुछ लेखकों व राजनेताओं से आपके ‘वैचारिक मतभेद‘ थे। इसी क्रम में छप्पन व्यंग्य आपने एक मुख्यमंत्री की नाक पर और चैवालीस एक प्रधानमंत्री के बालों पर लिखे। एक पड़ोसी के चश्मे पर आप अभी तैंतीस व्यंग्य ही लिख पाए थे कि उसने चश्मा लगाना छोड़ दिया। आपके दिल को ठेस पहुंँची। तब आपने उसकी आँखों पर बाईस व्यंग्य लिख डाले और डिप्रेशन से बाहर आ गए। अण्डा होती जा रही आपकी सृजनात्मकता फिर से चूज़े देने लगी। इसी सृजनात्मकता को निचोड़ कर आपने तकरीबन डेढ़ हज़ार व्यंग्य लोगों के नामों को बिगाड़ते हुए लिखे और लगभग पौने दोे हजार व्यंग्य पत्नी की कथित मूर्खताओं पर लिखे।


आपके दोस्ती के सर्किल में ज्यादातर लोग प्रतिभावान थे। और अलग-अलग ढंग से अपनी मेधा का इस्तेमाल करते थे। उदाहरणार्थ आपके एक मनोचिकित्सक मित्र तनाव के क्षणों में ओझा से झाड़-फूंक करवाते थे। ‘अंध-विश्वास हटाओ‘ समिति में मौजूद आपके कई मित्रों ने शताब्दी की सर्वाधिक ऐतिहासिक चमत्कारिक घटना के तहत गणेश जी को कई लीटर दूध पिलाया था। ‘दहेज उन्मूलन संस्था‘ के आपके कुछ मित्र किसी भी आपात-स्थिति के लिए हर वक्त किरोसिन तेल के पीपों से लैस रहते थेे। आपके एक राष्ट्र-प्रेमी मित्र दंगों को देश-भक्ति का पर्याय मानते थे। आपके एक कामकाजी मित्र नाइन-टू-फाइव अपने दतर में टांगे मेज पर और धड़ कुर्सी पर फैला कर पड़े रहते थे। महीने के महीने दस हजार तनख्वाह के और बीस हजार ऊपर के ले आते और मेहनती होने का खिताब पा जाते थे। एक अन्य मित्र जो अमीरों से बहुंत नफरत करते थे, सिर्फ उन्हीं माफियाओं से संबंध रखते थे जो ग़रीब से अमीर बने होते थे। दिन में उनके प्रेम के पट्टे में बंधे सामाजिक असमानताओं पर नज़र रखते और नाइट-शिट में पट्टा खुला कर अन्य कलात्मक धंधों पर निकल जाया करते थे। आपके एक मानवतावादी मित्र जो मनुष्य की भलाई के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार थे, रात को जिस बदनाम चिंतन को कांट-छांट कर अपना बना लेते थे, दिन में उसे दुत्कार कर दूर भगा देते थे। मानव जाति के हित में जब मन आए व्यक्तिवादी बन जाना और जब इच्छा हो सामाजिक हो जाना उनकी मीठी सी मजबूरी थी। सभ्यता-संस्कृति के कट्टर संरक्षक आपके एक मित्र जो सामने हर स्त्री को माँ-बहन-बेटी-देवी जपते थे, पीछे उनका ज़िक्र एक आँख दबा कर कादर खानीय मुद्रा में द्विअर्थी संवादों के ज़रिए किया करते थे।


सामाजिक कार्य आपको बचपन से ही माफिक आते थे। आपको बड़ा अरमान था कि आप कुछ विधवाओं को पालें। ‘विधवा-पालन‘ का शौक आपको जुनून की इस हद तक था कि आप दूसरी सामाजिक समस्याओं को ठीक से समझ तक नहीं पाते थे। मगर आपकी बदक़िस्मती कि कई सालों तक कोई स्त्री विधवा न हुंई। कई सालों के लम्बे इंतजार के बाद एक बार जब आप कश्मीर में थे, आपको सूचना मिली कि कन्याकुमारी में एक स्त्री विधवा हो गयी है। आपकी खुशी का ठिकाना न रहा। किसी ने ठीक ही कहा है कि धैर्य का फल मीठा होता है। आप पूरे इन्तजाम के साथ वहाँ गए और उस विधवा को साथ ले आए। हालांकि उसने पचासियों बार कहा कि उसे मदद की कोई ज़रूरत नहीं है।, वह पढ़ी-लिखी है, हर तरह से सक्षम है, आप से ज्यादा कमा सकती है, आपसे बेहतर ढंग से परिवार को पाल सकती है। मगर आप नहीं माने। इतने सालों की लम्बी प्रतीक्षा के बाद अच्छा काम करने का जो इकलौता मौका हाथ लगा था, आपसे छोड़ते न बना।


इन्हीं सब महानताओं की वजह से आप बचपन से ही मेरे प्रेरणा-स्रोत रहे। मुझे इस बात का सख्त अफसोस है कि आपका यह ‘एकलव्य-शिष्य‘ आपकी तरह लायक नहीं बन पाया। बड़ी इच्छा थी कि आपसे मिलकर अपने शरीर में कमियां निकलवाऊं और बीमारियां गिनवाऊं। (मगर इस कशमकश में भी हूँ कि आपसे अंगूठा कटवाऊं या आपको अंगूठा दिखाऊं!?!?)

काश! आप जीवित होते!


पुनश्चः- आपकी विनम्रता ऐसी कि आप हरिशंकर परसाईं, शरद जोशी, श्रीलाल शुक्ल, रवीन्द्र नाथ त्यागी आदि को अपने समकक्ष मानते थे। अगर नहीं भी मानते तो कोई क्या कर लेता!?


-संजय ग्रोवर

(जून 2000 में ‘समकालीन सेतु‘ में प्रकाशित)

बुधवार, 5 अगस्त 2009

अंततः एक गॉडफादर !?

TUMHARI KHOJ ME said...

बीमारी खोजन की खातिर तो हम यहां पहुंचल बा बबुआ। इ जो खिसियाए रहो हो, इ कि दरकार न बा। हम तुहार दुसमन न बा। और कीडा कव्‍वा हम तोहके न बोले रहिन इ तो मुहावरे हैं, अगर ठेस पहुंची हो तो बाइज्‍जत हम शर्मिंदा बा। पर बबुआ अब ऐंठ छोड दो और नाराजगी भी, क्‍योंकि हम इहां झगडा करन खातिर नहीं आइल। जब समय आइ तो पहचान भी हो जाइ और पोस्‍ट भी लग जाइ । और हम इहां अभिमन्‍यु को बचान खातिर आई शहीद करन खातिर नाहीं। अगर अब भी लगत है कि हम तो पे वार करत हैं तो इ तुहार बुद्वि, पर बबुआ आपन दिमाग और ऊर्जा अच्‍छे काम खातिर लगा। और ई गुल्‍लक, तिजोरी की बात छोडि के आपन हाथ फैलाओ और दुनिया को थोडे बडे चश्‍मे से देखन की कोसिस करो। इ दुनिया बहुत खूबसूरत बा।

(पिछली पोस्ट पर अब तक की आखि़री टिप्पणी)

सोमवार, 27 जुलाई 2009

उदयप्रकाश प्रकरण: कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना !?


उदयप्रकाश प्रकरण पर लगातार कुछ न कुछ छप रहा है। मैंने इस संदर्भ में ‘मोहल्ला’ पर एक पोस्ट लगाई थी। उसमें कुछ सवाल रखे थे जो लगातार मेरे मन में उठते रहे हैं। जैसे-जैसे यह बहस आगे बढ़ रही है सवाल भी गहरा रहे हैं, कुछ नए प्रश्न भी जुड़ रहे हैं। पहले मैं पिछले प्रश्नों को दोहरा दूं:-
1.किसी भी अखबार में उदय का काॅलम शुरु होता है तो हमेशा 2-3 किस्तों के बाद बंद क्यों हो जाता है ? क्या सारे के सारे कालमिस्ट उदय से बेहतर हैं ?
2.क्या हिंदी साहित्य-जगत में उदय, राजेंद्र यादव और उनके दस-पाँच मित्रों के अलावा सब दूध के धुले हैं ? कोई कभी किसी राजनेता के साथ किसी मंच पर नहीं जाता ? किसी ने कभी अपनी पत्नी/पति के अलावा अन्यत्र संबंध नहीं रखे ! क्या हिंदी के सारे दिग्गज पुरस्कारों/सम्मानों को ठोकर मारते आए हैं !
3.कौन है वो शूरवीर जिसने पत्नी-बच्चों-परिवार के नाम पर अपने समझौतों को जस्टीफाई न किया हो ?
4.पिछले कुछ सालों में उदयप्रकाश और राजेंद्र यादव के अलावा अन्य किन लेखकों से इस तरह की जवाब-तलबी की गयी है और किन वजुहात से ?
5. केदारनाथ जी के अलावा अशोक वाजपेई का ‘मुर्दों के साथ मरने को तैयार न होना’ और भारतीजी का ‘केडिया प्रकरण’ और प्रभाषजी का ‘सती-प्रसंग’ भी मुझे याद है। लेकिन इनमें से कोई भी उस दलित-प्रसंग से जुड़ा नहीं था जिसके द्वारा राजेंद्र यादव ने हिंदी जगत की ‘कोरी-सहानुभूतियों’ के मुखौटे उखाड़ फेंके हैं। दोस्ती से लेकर रोज़ी-रोटी तक बंद कर देने के लिए जैसी घेरेबंदी राजेंद्र यादव और उदय की की जाने लगती है, वैसी क्या उक्त में से किसी को ‘नसीब’ हुई होगी !
6.दलितों-वंचितों के लिए उदय जैसी पीढ़ा और विद्रोह उदय के विरोधिओं के लेखन में क्यों नहीं दिखाई पढ़ती ?
7.क्यों उनमें से कुछ पहला मौका मिलते ही मायावती और लालू यादव के लिए तू तड़ाक की भाषा पर उतर आते हैं ?
8.मोहल्ला. काम को उदयप्रकाश के तरह-तरह के रंगीन फोटो कौन उपलब्ध करा रहा है ?
9.कुछ लोगों के लिए ‘उदयप्रकाश, हमारे समय के बेहद महत्वपूर्ण लेखक‘ तब-तब ही क्यों हो जाते हैं जब-जब उनपर कुछ उछालने-फेंकने का मौका आता है। वैसे उदयप्रकाश उनके लिए जहां-तहां से सामग्री चुराकर लिखने वाले लेखक रहते हैं।
यहां से नए सवाल जो रोज़ाना की बहस को देखकर उठ रहे हैं:-
1.दरअसल किसने वामपंथ को विचारधारा की तरह नहीं मुखौटे और दुकान की तरह इस्तेमाल किया ?
2.अगर वामपंथ वर्ण-विशेष की बपौती नहीं था तो मायावती और बसपा के करीब आने में इतने साल क्यों लगे ? और दोबारा दूर जाने में इतना कम समय क्यों लगा ?
3.वैसे तो शत्रुता की बात ही अजीब लगती है मगर करनी ही थी तो ‘वर्गशत्रु’ के बजाय ‘वर्णशत्रु’ जैसे शब्द और सोच क्यों नहीं अपनाए गए ? आखिर हिंदुस्तान में ग़रीबी और विषमता का बड़ा कारक वर्ग था या वर्ण ?
4.आप जा-जाकर अपने जानकारों, रिश्तेदारों और आम जनता से पूछिए और फिर परसेंटेज़ निकालिए कि कितने प्रतिशत लोगों को पता है कि शहीद भगत सिंह नास्तिक थे !? अगर 100 में से 10 को भी पता हो तो बहुत समझिएगा। आखिर कौन लेगा इसकी जिम्मेदारी ? क्यों किसी की रुचि नहीं है कि लोग इस बात को जानें !?
5.जब बाबा रामदेव-वृंदा करात प्रकरण हुआ तो बाबा ने कहा ‘इनकी क्या है, ये तो भगवान को ही नहीं मानते’ तो जवाब में कम्युनिस्टों ने क्यों नहीं छाती ठोक कर कहा कि हां, हैं हम नास्तिक, और नास्तिक होना और होकर रहना बाबा होकर रहने से कई गुना ज़्यादा मुश्किल काम है।
6.व्यक्तिगत और नैतिक तौर पर मैं पूरी तरह से हिमांशु सभरवाल के साथ हूं पर यह देखकर अजीब भी लगता है और दुख भी होता है कि ग़रीबों-मजदूरों की हमदर्द कहलाने वाली पार्टी और उनसे जुड़े लोग अपने आंदोलनों में (शायद) सिर्फ फेसबुक और पेज़ थ्री से जुड़े लोगों को साथ लेते हैं। अपने नारों में नीतिश कटारा, मट्टू और जैसिका लाल के अलावा चैथा नाम नहीं इस्तेमाल करते !? ऐसे वक्त पर ऐसी बात कहते हुए मैं हिमांशु सभरवाल, नीलम कटारा व इन मामलों से संबद्ध सभी लोगों से हाथ जोड़कर माफी चाहूंगा मगर यह बात कहना उनकी लड़ाई के भी हक़ में ही है।
7.कुछ लोग कह रहे हैं कि भाजपा से फायदे ले लिए तो क्या, मंच शेयर करके किसी योदी-मोगी से पुरस्कार तो नहीं लिया ! अब चूंकि यह टेंªड पुराना हो गया तो इस पर क्यों कोई एतराज़ करे ! तो ठीक है भय्या करिए सेंटिग कि योदी-मोगी से कि देखिए पुरस्कार आपसे लेने में तो हमें कोई एतराज़ था ही नहीं पर मंच पर आप न आईए। मंच पर हमें राधामोहन किसान के हाथ पुरस्कार दिलवा दीजिए जिससे कि हमारा भी नाम रह जाएगा, आपका तो रहेगा ही क्यों कि पता तो सबको रहता ही है कि पुरस्कार का उद्गम कहां से हुआ है, साथ ही यह भी रहेगा कि देखिए आप ग़रीब किसान का कितना मान करते हैं। और राधामोहन तो मंच पर आने से खुश हो जाएगा, हाथ कुछ लगे न लगे।
8. क्यों हम पुरस्कारों के पीछे इतना पगलाए रहते हैं !? जब ये सारे पुरस्कार/कमेटियां/समितियां/अगैरह/वगैरह इसी धरती के इन्हीं इंसानों द्वारा बनाई जाती हैं जो कि गलतियों का पुतला है और राजनीतियों का ढेर है तो कोई भी पुरस्कार निर्विवाद कैसे हो सकता है ? भारतीय फिल्म/पुरस्कार समारोहों में जाने से बचने वाले आमिर खान क्यों आस्कर के लिए लाबिंग में एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा देते हैं ? कबीर, बुद्ध, एकलव्य या गैलीलियो को पुरस्कार नहीं मिलता था तो वे भी इनफीरियरटी काॅम्पलैक्स से ग्रस्त हो जाते थे क्या ? क्या इतिहास उन्हें भूल गया या उनका किया महत्वहीन हो गया ? क्या यह सच नहीं कि लगभग हर पुरस्कार देने वाली संस्था के पीछे कोई न कोई राजनीतिक दल, राजनीति, विचारधारा या पूर्वाग्रह मौजूद रहते हैं ? फिर इनके फैसले निष्पक्ष कैसे हो सकते हैं ?
इन बातों पर विचार करें। आगे बात करने का फायदा है बशत्र्ते कि हम सब अपने अंदर झांकने को, किसी नतीजे पर पहुंचने को तैय्यार हों,। सिर्फ गाली-गलौज, पुराने हिसाब-किताब करने हों, हार-जीत के खेल खेलने हों तो सादर नमस्ते।
[जहां तक मेरा व्यक्तिगत अनुभव है, जो लोग आत्मालोचना करते हैं, माफियां मांगते हैं, हमेशा घाटे में रहते हैं। सारे दोष उनपर मढ़ दिए जाते हैं। (उनमें से कुछेक को सौ-पचास साल बाद किसी गैलीलियो की तरह मान्यता मिल जाए, अलग बात है।) दोष मढ़ने वाले ज़्यादातर वे लोग होते हैं जिन्हें अपने बारे में न तो कुछ ठीक से पता होता है न वे पता करना चाहते हैं न उनमें हिम्मत होती है। उनके लिए राहत और जस्टीफिकेशन की सबसे बड़ी वजह यही होती है कि जिस समाज में वे रह रहे होते हैं उसमें ज़्यादातर लोग उन्हीं की तरह होते हैं। अन्यथा बिना कुण्ठाओं, कमियों, कमज़ोरियों के भी दुनिया में कोई आदमी, विचारधारा, सम्प्रदाय आदि हो सकते हैं, यह सोचना भी मुझे तो हास्यास्पद, मूर्खतापूर्ण और अहंकार का द्योतक ही लगता है।]

शुक्रवार, 24 जुलाई 2009

ग़ज़ल जो अब तक छपी नहीं..पढ़ो कहीं तो पढ़ो यहीं..

ग़ज़ल

एक तरफ दुनिया है एक तरफ तू
लोग मुझे पूछे हैं किसकी तरफ तू

साथ में गर तू है तो दुनिया से क्या डर
दुनिया तो उसी की है जिसकी तरफ तू

मेरी तरफ होने की यह भी एक शक्ल
छोड़ मुझे, होजा बस अपनी तरफ तू

ख़ुदको ही मिटा डाला तूने जिस तरह
लगता है फैलेगा चारों तरफ तू

तेरी इस अदा को मैं फन कहूं कि ऐब
हर कोई ये समझे है उसकी तरफ तू




-संजय ग्रोवर

शुक्रवार, 17 जुलाई 2009

‘‘वेलकम टू बिच्छू.काम ’’! पर आप हैं कौन !?

संजय ग्रोवर को गूगल में डालकर सर्च करता हूं। चैथे पृष्ठ पर एक पंक्ति दिखाई पड़ती है ‘दरबारी दमनकारियों के लिए पांच ग़ज़लें’। लिंक पर क्लिक करता हूं। एक पृष्ठ खुलता है। एक सज्जन का फोटो है और मेरी 5 ग़ज़लें मेरे नाम के साथ अपने संपादकीय के रुप में दी गयी हैं। ऊपर वाले बार में लिखा है ‘वैलकम टू बिच्छू. काम’। मगर उसके बाद का कोई लिंक नहीं खुलता। जैसे कि ‘काँटेक्ट अस’, ‘अबाउट अस’। उन साहब का नाम पता भी कहीं दिखाई नहीं देता। इस साइट में ही कुछ प्राॅबलम है या मेरा पी.सी. बिगड़ गया है !?क्या आप मेरी मदद करेंगे ? लिंक है:-
http://74.125.153.132/search?q=cache:wg3ja_nMYrsJ:www.bichhu.com/index.php%3Fnews%3D1208+%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%9C%E0%A4%AF+%E0%A4%97%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%8B%E0%A4%B5%E0%A4%B0&cd=36&hl=en&ct=clnk&gl=in
हिम्मत से सच बात कहो तो बुरा मानते हैं लोग, रो-रो के कहने की हमें आदत नहीं रही। "बिच्छू डॉट कॉम" द्वारा लगातार सत्ता एवं व्यवस्था विरोधी खबरें एवं संपादकीय लिखने से सत्ता के दलालों और सत्ता के साकेत में बैठे लोगों के भाट और चारण लगातार मेरे बारे में विष वमन कर रहे हैं। कुछ लोगों को अखबार की आर्थिक व्यवस्था को लेकर चिंता है, तो कुछ महानुभावों को मेरे एवं मेरे परिवार के बारे में जानने की इच्छा है। मुख्यमंत्री निवास के एक अफसर को तो सिर्फ और सिर्फ मेरे बारे में जानने की जिज्ञासा है। ऐसे सभी महानुभावों के लिए संजय ग्रोवर की पांच गजलें प्रस्तुत हैं संपादकीय के रूप में...

एक...
कोई भी तयशुदा किस्सा नहीं हूं
किसी साजिश का मैं हिस्सा नहीं हूं

किसी की छाप अब मुझ पर नहीं है
मैं ज्यादा दिन कहीं रुकता नहीं हूं

तुम्हारी और मेरी दोस्ती क्या
मुसीबत में, मैं खुद अपना नहीं हूं

मुझे मत ढूंढना बाजार में तुम
किसी दुकान पर बिकता नहीं हूं

मुझे देकर न कुछ तुम पा सकोगे
मैं खोटा हूं मगर सिक्का नहीं हूं

तुम्हें क्यूं अपने जैसा मैं बनाऊं
यकीनन जब मैं खुद तुम सा नहीं हूं

लतीफा भी चलेगा गर नया हो
मैं हर इक बात पर हंसता नहीं हूं

जमीं मुझको भी अपना मानती है
कि मैं आकाश से टपका नहीं हूं
दो...
जाने मैं किस डर में था
फिर देखा, तो घर में था

जो ढब कट्टर लोगों का है
वही कभी बंदर में था

लोग नए थे बात पुरानी
क्या मैं किसी खण्डहर में था

बच निकला उससे, तो जाना
वो भी इसी अवसर में था

उनके जख्म सजे थे तन पर
मेरा दर्द जिगर में था
तीन...
जिस समाज में कहना मुश्किल है बाबा
उस समाज में रहना मुश्किल है बाबा

तुम्हीं हवा के संग उड़ो पत्तों की तरह
मेरे लिए तो बहना मुश्किल है बाबा

जिस गरदन में फंसी हुई हों आवाजें
उस गरदन में गहना मुश्किल है बाबा

भीड़ हटे तो हम भी देखें सच का बदन
भीड़ को तुमने पहना, मुश्किल है बाबा

अंधी श्रद्धा को, भेड़ों को, तोतों को
गर विवेक हो, सहना मुश्किल है बाबा

गिरे उठें, फिर चलें कि चलते ही जाएं
रुकें, सड़े तो सहना मुश्किल है बाबा
चार...
लड़के वाले नाच रहे थे लडक़ी वाले गुमसुम थे
याद करो उस वारदात में अक्सर शामिल हम-तुम थे

बोलचाल और खाल-बाल जो झट से बदला करते थे
सोच-समझ की बात करें तो अभी भी कुत्ते की दुम थे

बाबा, बिक्री, बड़बोलेपन, चमत्कार थे चौतरफा
तर्क की बातें करने वाले सच्चे लोग कहां गुम थे!

उनपे हंसो जो बुद्ध कबीर के हश्र पे असर हंसते हैं
ईमां वाले लोगों को तो अपने नतीजे मालुम थे

अपनी कमियां झुठलाने को तुमने हमें दबाया था
जब हम खुद को जान चुके तब हमने जाना या तुम थे
पांच..
तुम देखना पुरानी वो चाल फिर चलेंगे
जिसकी लुटी है इज्जत उसको ही सजा देंगे

इक बेतुकी रवायत ऊपर से उनकी फितरत
तकलीफ भी वो देंगे, बदला भी वही लेंगे

वरना वो तुझको हंसके कमजोर ही करेंगे
उन पर जरूर हंसना जो आदतन हंसेंगे

जब आएगी मुसीबत टीवी के शहर वाले
झांकेंगे खिड़कियों से, घर से नहीं निकलेंगे

ये शे"र क्या हैं प्यारे, सब भर्ती का सामां हैं
गर पांच नहीं होंगे तो कैसे ये छपेंगे

वो ही है नूर वाले जो अक्ल के है अंधे
जलवा भी वही लेंगे फतवा भी वही देंगे।

सोमवार, 13 जुलाई 2009

ग़ज़ल,काफ़िया,माफ़िया.....


ग़ज़ल

अपनी तरह का जब भी उन्हें माफ़िया मिला
बोले उछलके देखो कैसा काफ़िया मिला

फ़िर नस्ल-वर्ण-दल्ले हैं इंसान पे काबिज़
यूँ जंगली शहर में मुझे हाशिया मिला

मुझ तक कब उनके शहर में आती थी ढंग से डाक
यां ख़बर तक न मिल सकी, वां डाकिया मिला

जब मेरे जामे-मय में मिलाया सभी ने ज़ह्र
तो तू भी पीछे क्यों रहे, आ साक़िया, मिला

मुझको जहाँ पे सच दिखा, हिम्मत दिखी, ग़ज़ब-
उनको वहीं पे फ़ोबिया.....सिज़ोफ्रीनिया मिला

-संजय ग्रोवर

बुधवार, 24 जून 2009

व्यंग्य-कक्ष में ‘आदरणीय जीजाजी’

सभ्य समाज में आदर झटकने के जो कुछेक तरीके मुझे जंचे हैं उनमें से एक है किसी का दामाद हो जाना। जिस घर के आप दामाद हो गए, अगर थोड़ी देर के लिए उस घर को हम राष्ट्र मान लें तो समझिए कि उस घर में आपकी हैसियत राष्ट्रपति जितनी हो जाती है। भारत के राष्ट्रपति जैसी नहीं कि जिसके पास ताम-झाम तो होता है पर काम-धाम नहीं होता। आप तो कम से कम अगला दामाद आ जाने तक, अमेरिका के राष्ट्रपति की तरह होते हैं जिसे कि भरे-पूरे अधिकार भी प्राप्त होते हैं।

आप सिर्फ दामाद ही नहीं होते, आप जीजाजी भी होते हैं। भारत में जीजाजी होना यानि कि हवा के घोड़े पर सवारी गांठना। यानि कि जलवों के हलवों पर जीभ लपोरते रहना। यानि कि भले ही पूरी दुनिया में आपको कोई न पूछे मगर एक घर सदा ऐसा होता है जो लाल कालीन बिछाए आपके स्वागत को सूखता रहता है। वहां घुसते ही आप महान हो जाते हैं। क्रिकेट की भाषा में कहें तो पिद्दी से पिद्दी बल्लेबाज के लिए भी दुनिया में कम से कम एक पिच तो ऐसी होती है जहां खेलना शुरू करते ही उसके जीवन की पारी जम जाती है।

जीजाजी होने की सुविधापूर्ण स्थिति को तो बड़े-बड़े कवियों ने भी कल्पनाओं तक के कद्दू-कस में कस कर खूब लच्छे बनाए भी हैं और बेचे भी हैं। भारतीय सभ्यता संस्कृति के अनुसार नारी की मर्यादा की रक्षा के लिए अपना पूरा जीवन कुर्बान कर देने वाले कई बुजुर्ग कवियों ने सालियों की सुंदरता, उनके स्वभावों की चपलता, उनके साथ अपने सभी प्रकार के सम्बन्धों की स्वायत्तता, स्वतंत्रता, उनकी विभिन्न प्रकार के क्रियाकलापों में कर्मठता, अपने जीजाओं के प्रति उनकी कर्तव्यनिष्ठा आदि का विस्तारपूर्वक वर्णन करते हुए अत्यन्त सुन्दर व सार्थक साहित्य का सृजन किया है।

यानि कि साली न हुई आपकी गली के पिछवाड़े की दीवार हो गई। जिस पर बड़े-बड़े शब्दों में आपने ही लोगों के सामने लिखा है ‘यहां पोस्टर लगाना मना है‘। फिर अकेले में आप ही हैं कि लगाए जा रहे हैं। तिस पर साहित्य में सार्वजनिक रूप से अपने दुष्ट-कर्म का महिमा-मण्डन भी कर रहे हैं। इधर लोग भी आपके लिखने और आपके लगाने पर समान भाव से तालियां बजा रहे हैं।

लगता है कि आपके भीतर के लिखने वाले को भी पता है कि कितना भी लिख लो मगर लगाने वाला लगाने से बाज नहीं आएगा। और अपने व्यवहार के इश्तहार से इस लिखे को मेट कर ही दम लेगा। और इधर लगाने वाला भी जानता है कि यह लिखने वाला फिर-फिर लिखता रहेगा और मैं बार-बार लगाता रहूंगा। यही इस दीवार की नियति है।

वहां पर चार दीवारें एक ख़ास स्थिति में इकट्ठी खड़ी होने के कारण एक घर जैसा बन गया है जहां कि मैं रहता हूं। एक दिन, जब सोचने को और कुछ न बचा तो मैंने सोचा कि एक महिला कर्मचारी रख लूं जो खाना बना दे, कपड़े धोए, बर्तन मांजे व अन्य छोटे-मोटे काम कर दे। पर जब मित्रमल से बात हुई तो कहने लगे कि क्यों दो-चार सौ रूपये महीने खर्चते हो। इससे तो अच्छा है शादी कर लो। पत्नी के पद पर नियुक्त महिला मुफ्त में सारा काम तो करेगी ही साथ में दहेज लाएगी सो अलग। ऊपर से ससुरालियों से रोज़ाना मिलने वाली भेंटे, नकदी, आदर, सम्मान, जलपान वगैरह ... .... ...।

बात मेरी समझ में आई और मैं तैयार हुआ। पत्नी पद की उम्मीदवार से बातचीत चली तो मैंने बताया कि कैसे मित्रमल के सुझाव पर मैं इस नेक ख्याल पर अमल के लिए तैयार हुआ। इतना सुनना था कि वे हत्थे से उखड़ र्गइं। कहने लगी कि आप पत्नी और नौकरानी में कोई फ़र्क नहीं मानते। मेरे भी पसीने छूटने लगे। कि तभी मेरे दिमाग में एक पुराने विचार का नवीनीकरण हुआ और स्थिति संभल गई। मैंने उन्हे समझाया कि मशहूर अंगे्रज विद्वान जॉर्ज बर्नाड शा के विचार भी पत्नियों के बारे में ऐसे ही थे। इतना सुनना था कि उनका हृदय परिवर्तन हो गया और वे बड़े आदर भाव से मुझे निहारने लगीं।

यही वह पल था जब मेरे दिल में यह ख्याल आया कि आदर हथियाने का यह उपाय भी कोई बुरा नहीं कि अपने लूले-लंगड़े विचारों को भी महापुरूषों के उद्धरणों की बैसाखियों के सहारे पार करा दिया जाए।

वैसे इन दोनों के अलावा भी अन्य कई तरकीबों से मैंने आदर बटोरा है। अगर साथ ले जा सका तो इसे साथ ले जाऊंगा नहीं तो वसीयत में अपने आदरणीय संबंधियों, मित्रों को बराबर-बराबर बांट जाऊंगा।

आपको इस लेख में कोई बात अटपटी या आपत्तिजनक न लगे इसके लिए बता दूं कि यह लेख कई बड़े लेखकों
के साहित्य और महापुरूषों की जीवनियों में से कांट-छांट कर बड़ी मेहनत व लगन से लिखा है।

क्या अब भी आप इस लेख को व मुझे आदर नहीं देंगे?

-संजय ग्रोवर

(18-03-1994 को पंजाब केसरी में प्रकाशित)


मंगलवार, 16 जून 2009

क्या ईश्वर मोहल्ले का दादा है !?

सरल मेरा दोस्त है। अपनी सरलता की ही वजह से मेरा दुश्मन भी है। मौलिक है, नास्तिक है, विद्रोही है। जाहिर है ऐसे आदमी के रिश्ते सहज ही किसी से नहीं बनते। बनते हैं तो तकरार, वाद-विवाद, तूतू मैंमैं भी लगातार बीच में बने रहते हैं। यानि कि रिश्ता टूटने का डर लगातार सिर पर लटकता रहता है।

अभी हाल ही में सरल के दो बहनोईयों का निधन 6-8 महीनों के अंतराल में हो गया। कुछेक मित्रों की प्रतिक्रिया थोड़ी दिल को लगने वाली तो थी पर सरल को वह स्वाभाविक भी लगी। संस्कारित सोच के अपने दायरे होते हैं। मित्रों का इशारा था कि अब भी तुम्हारी समझ में नहीं आया कि तुम ईश्वर को नहीं मानते, इसलिए यह सब हुआ ?


यह सोच सरल के साथ मुझे भी बहुत अजीब लगी।


पहली अजीब बात तो यह थी कि सरल माने न माने पर उसके दोनों बहनोई ईश्वर में पूरा विश्वास रखते थे। फिर ईश्वर ने सरल के किए का बदला उसके बहनोईयों और बहिन-बच्चों से क्यों लिया ?


दूसरी अजीब बात मुझे यह लगी कि अगर ईश्वर को न मानने से आदमी इस तरह मर जाता है तो फिर ईश्वर को मानने वाले को तो कभी मरना ही नहीं चाहिए ! वैसे अगर सब कुछ ईश्वर के ही हाथ में है तो ईश्वर नास्तिकों को बनाता ही क्यों है !? पहले बनाता है फिर मारता है ! ऐसे ठलुओं-वेल्लों की तरह टाइम-पास जैसी हरकतें कम-अज़-कम ईश्वर जैसे हाई-प्रोफाइल आदमी (मेरा मतलब है ईश्वर) को तो शोभा नहीं देतीं।


इससे भी अजीब बात यह है कि ईश्वर क्या किसी मोहल्ले के दादा की तरह अहंकारी और ठस-बुद्धि है जो कहता है कि सालो अगर मुझे सलाम नहीं बजाओगे तो जीने नहीं दूंगा ! मार ही डालूंगा ! क्या ईश्वर किसी सतही स्टंट फिल्म का माफिया डान है कि तुम्हारे किए का बदला मैं तुम्हारे पूरे खानदान से लूंगा !


क्या ईश्वर को ऐसा होना चाहिए ?


ईश्वर को मानने वालों की सतही सोच ने उसे किस स्तर पर ला खड़ा किया है!


वैसे अगर ईश्वर वाकई है तो क्या उसे यह अच्छा लगता होगा !?

(नयी पोस्ट लगा रहा हूं इसका मतलब यह नहीं कि पिछली पोस्ट पर बहस खत्म हो गयी।)

मंगलवार, 26 मई 2009

आध्यात्मिकता अमीरों की ट्रांक्विलाइज़र है.


जावेद अख्तर को मैं जब भी देखता-सुनता हूं, खुश भी होता हूं, हैरान भी। चाहे कोई रिएलिटी शो हो या कोई डिबेट। किस साहस और तार्किकता के साथ यह आदमी अपनी बात रखता है। तिसपर अंदाज़े-बयां ! ग़ज़ब ! अभी-अभी मैंने भाई अशोक कुमार पाण्डेय के ब्लाग पर उनका यह व्याख्यान पढ़ा। मुझे लगा कि अगर मुझमें ज़रा-सी भी मानवता, सामाजिकता, व्यवहारिकता और देशप्रेम है तो मुझे तुरंत ही इसे अपने ब्लाग पर पोस्ट करना चाहिए। ‘कबाड़खाना’ http://kabaadkhaana.blogspot.com से इसे मैं साभार ले रहा हूं।


Tuesday, May 26, 2009

आध्यात्मिकता अमीरों की ट्रांक्विलाइज़र है
हमारे समय के बड़े कवि-कहानीकार श्री कुमार अम्बुज ने मेल से यह ज़बरदस्त और ज़रूरी दस्तावेज़ भेजा है. बहुत सारे सवाल खड़े करता जावेद अख़्तर का यह सम्भाषण इत्मीनान से पढ़े जाने की दरकार रखता है. इस के लिए श्री कुमार अम्बुज और डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल का बहुत बहुत आभार. (जावेद अख्तर के इण्डिया टुडे कॉनक्लेव में दिनांक 26 फरवरी, 2005 को ‘स्पिरिचुअलिटी, हलो ऑर होक्स’ सत्र में दिए गए व्याख्यान का डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल द्वारा किया गया हिन्दी अनुवाद)मुझे पूरा विश्वास है देवियों और सज्जनों कि इस भव्य सभा में किसी को भी मेरी स्थिति से ईर्ष्या नहीं हो रही होगी. श्री श्री रविशंकर जैसे जादुई और दुर्जेय व्यक्तित्व के बाद बोलने के लिए खड़ा होना ठीक ऐसा ही है जैसे तेंदुलकर के चमचमाती सेंचुरी बना लेने के बाद किसी को खेलने के लिए मैदान में उतरना पड़े. लेकिन किन्हीं कमज़ोर क्षणों में मैंने वादा कर लिया था. कुछ बातें मैं शुरू में ही साफ कर देना चाहता हूं. आप कृपया मेरे नाम –जावेद अख्तर- से प्रभावित न हों. मैं कोई रहस्य उजागर नहीं कर रहा. मैं तो वह बात कह रहा हूं जो मैं अनेक बार कह चुका हूं, लिखकर, टी वी पर या सार्वजनिक रूप से बोलकर, कि मैं नास्तिक हूं. मेरी कोई धार्मिक आस्थाएंनहीं हैं. निश्चय ही मैं किसी खास किस्म की आध्यात्मिकता में विश्वास नहीं करता. खास किस्म की!एक और बात! मैं यहां बैठे इस भद्र पुरुष की आलोचना करने, इनका विश्लेषण करने, या इन पर प्रहार करने खड़ा नहीं हुआ हूं. हमारे रिश्ते बहुत प्रीतिकर और शालीन हैं. मैंने हमेशा इन्हें अत्यधिक शिष्ट पाया है. मैं तो एक विचार, एक मनोवृत्ति, एक मानसिकता की बात करना चाहता हूं, किसी व्यक्ति विशेष की नहीं.मैं आपको बताना चाहता हूं कि जब राजीव ने इस सत्र की शुरुआत की, एक क्षण के लिए मुझे लगा कि मैं ग़लत जगह पर आ गया हूं. इसलिए कि अगर हम कृष्ण, गौतम और कबीर, या विवेकानन्द के दर्शन पर चर्चा कर रहे हैं तो मुझे कुछ भी नहीं कहना है. मैं इसी वक़्त बैठ जाता हूं. मैं यहां उस गौरवशाली अतीत पर बहस करने नहीं आया हूं जिस पर मेरे खयाल से हर हिन्दुस्तानी को, और उचित ही, गर्व है. मैं तो यहां एक सन्देहास्पद वर्तमान पर चर्चा करने आयाहूं.इण्डिया टुडे ने मुझे बुलाया है और मैं यहां आज की आध्यात्मिकता पर बात करने आया हूं. कृपया इस आध्यात्मिकता शब्द से भ्रमित न हों. एक ही नाम के दो ऐसे इंसान हो सकते हैं जो एक दूसरे से एकदम अलग हों. तुलसीदास ने रामचरितमानस की रचना की. रामानंद सागर ने टेलीविज़न धारावाहिक बनाया. रामायण दोनों में है, लेकिन मैं नहीं सोचता कि तुलसीदास और रामानंद सागर को एक करके देख लेना कोई बहुत अक्लमन्दी का काम होगा. मुझे याद आता है कि जब तुलसी ने रामचरितमानस रची, उन्हें एक तरह से सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ा था. भला कोई अवधी जैसी भाषा में ऐसी पवित्र पुस्तक कैसे लिख सकता है? कभी-कभी मैं सोचता हूं कि किसम-किसम के कट्टरपंथियों में, चाहे वे किसी भी धर्म या सम्प्रदाय के क्यों न हों, कितनी समानता होती है! 1798 में, आपके इसी शहर में, शाह अब्दुल क़ादिर नाम के एक भले मानुस ने पहली बार क़ुरान का तर्ज़ुमा उर्दू में किया. उस वक़्त के सारे उलेमाओं ने उनके खिलाफ एक फतवा ज़ारी कर डाला कि उन्होंने एक म्लेच्छ भाषा में इस पवित्र पुस्तक का अनुवाद करने की हिमाक़त कैसे की! तुलसी ने रामचरितमानस लिखी तो उनका बहिष्कार किया गया. मुझे उनकी एक चौपाई याद आती है :”धूत कहौ, अवधूत कहौ, रजपूतु कहौ जौलाहा कहौ कोऊ.काहू की बेटी सौं बेटा न ब्याहब, काहू की जाति बिगारन सोऊ..तुलसी सरनाम गुलामु है राम को, जाको रुचै सो कहै कछु कोऊ.मांगि के खैबो, मसीत को सोइबो, लैबो एकू न दैबो को दोऊ..”रामानंद सागर ने अपने धारावाहिक से करोड़ों की कमाई की. मैं उन्हें कम करके नहीं आंक रहा लेकिन निश्चय ही वे तुलसी से बहुत नीचे ठहरते हैं. मैं एक और उदाहरण देता हूं. शायद यह ज़्यादा स्पष्ट और उपयुक्त हो. सत्य की खोज में गौतम महलों से निकले और जंगलों में गए. लेकिन आज हम देखते हैं कि वर्तमान युग के गुरु जंगल से निकलते हैं और महलों में जाकर स्थापित हो जाते हैं. ये विपरीत दिशा में जा रहे हैं. इसलिए हम लोग एक ही प्रवाह में इनकी बात नहीं कर सकते. इसलिए, हमें उन नामों की आड़ नहीं लेनी चाहिए जो हर भारतीय के लिए प्रिय और आदरणीय हैं. जब मुझे यहां आमंत्रित किया गया तो मैंने महसूस किया कि हां, मैं नास्तिक हूं और किसी भी हालत में बुद्धिपरक रहने की कोशिश करता हूं. शायद इसीलिए मुझे बुलाया गया है. लेकिन, उसी क्षण मैंने महसूस किया कि एक और खासियत है जो मुझमें और आधुनिक युग के गुरुओं में समान रूप से मौज़ूद है. मैं फिल्मों के लिए काम करता हूं. हममें काफी कुछ एक जैसा है. हम दोनों ही सपने बेचते हैं, हम दोनों ही भ्रम-जाल रचते हैं, हम दोनों ही छवियां निर्मित करते हैं. लेकिन एक फर्क़ भी है. तीन घण्टों के बाद हम कहते हैं – “दी एण्ड, खेल खत्म! अपने यथार्थ में लौट जाइए.” वे ऐसा नहीं करते. इसलिए, देवियों और सज्जनों मैं एकदम स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि मैं यहां उस आध्यात्मिकता के बारे में बात करने आया हूं जो दुनिया के सुपरमार्केट में बिकाऊ है. हथियार, ड्रग्स और आध्यात्मिकता ये ही तो हैं दुनिया के तीन सबसे बड़े धन्धे. लेकिन हथियार और ड्रग्स के मामले में तो आपको कुछ करना पड़ता है, कुछ देना पड़ता है. इसलिए वह अलग है. यहां तो आप कुछ देते भी नहीं.इस सुपर मार्केट में आपको मिलता है इंस्टैण्ट निर्वाण, मोक्ष बाय मेल, आत्मानुभूति का क्रैश कोर्स – चार सरल पाठों में कॉस्मिक कांशियसनेस. इस सुपर मार्केट की चेनें सारी दुनिया में मौज़ूद हैं, जहां बेचैन आभिजात वर्गीय लोग आध्यात्मिक फास्ट फूड खरीद सकते हैं. मैं इसी आध्यात्मिकता की बात कर रहा हूं.प्लेटो ने अपने डायलॉग्ज़ में कई बुद्धिमत्तापूर्ण बातें कही हैं. उनमें से एक यह है कि किसी भी मुद्दे पर बहस शुरू करने से पहले शब्दों के अर्थ निश्चित कर लो. इसलिए, हम भी इस शब्द- ‘आध्यात्मिकता’ का अर्थ निश्चित कर लेने का प्रयत्न करते हैं. अगर इसका अभिप्राय मानव प्रजाति के प्रति ऐसे प्रेम से है जो सभी धर्मों, जतियों, पंथों, नस्लों के पार जाता है, तोमुझे कोई दिक्कत नहीं है. बस इतना है कि मैं उसे मानवता कहता हूं. अगर इसका अभिप्राय पेड़-पौधों, पहाड़ों, समुद्रों, नदियों और पशुओं के प्रति, यानि मानवेत्तर विश्व से प्रेम से है, तो भी मुझे क़तई दिक्कत नहीं है. बस इतना है कि मैं इसे पर्यावरणीय चेतना कहना चाहूंगा. क्या आध्यात्मिकता का मतलब विवाह, अभिभावकत्व, ललित कलाओं, न्यायपालिका, अभिव्यक्ति की स्वाधीनता के प्रति हार्दिक सम्मान का नाम है? मुझे भला क्या असहमति हो सकती है श्रीमान? मैं इसे नागरिक ज़िम्मेदारी कहना चाहूंगा. क्या आध्यात्मिकता का अर्थ अपने भीतर उतरकर स्वयं की ज़िन्दगी का अर्थ समझना है? इसमें किसी को क्या आपत्ति हो सकती है? मैं इसे आत्मान्वेषण या स्व-मूल्यांकन कहता हूं. क्या आध्यात्मिकता का अर्थ योग है? पतंजलि कीकृपा से, जिन्होंने हमें योग, यम, यतम, आसन, प्राणायाम के मानी समझाए, हम इसे किसी भी नाम से कर सकते हैं. अगर हम प्राणायाम करते हैं, बहुत अच्छी बात है. मैं इसे हेल्थ केयर कहता हूं. फिजीकल फिटनेस कहता हूं. तो अब मुद्दा सिर्फ अर्थ विज्ञान का है. अगर यही सब आध्यात्मिकता है तो फिर बहस किस बात पर है? जिन तमाम शब्दों का प्रयोग मैंने किया है वे अत्यधिक सम्मानित और पूरी तरह स्वीकार कर लिए गए शब्द हैं. इनमें कुछ भी अमूर्त या अस्पष्ट नहीं है. तो फिर इस शब्द- आध्यात्मिकता- पर इतनी ज़िद क्यों? आखिर आध्यात्मिकता शब्द में ऐसा क्या है जो इन शब्दों में नहीं सिमट आया है? वो ऐसा आखिर है क्या?पलटकर कोई मुझी से पूछ सकता है कि आपको इस शब्द से क्या परेशानी है? क्यों मैं इस शब्द को बदलने, त्यागने, छोड़ देने, बासी मान लेने का आग्रह कर रहा हूं. आखिर क्यों? मैं आपको बताता हूं कि मेरी आपत्ति किस बात पर है. अगर आध्यात्मिकता का अर्थ इन सबसे है तो फिर बहस की कोई बात नहीं है. लेकिन कुछ और है जो मुझे परेशान करता है. शब्द कोष में आध्यात्मिकता शब्द, -स्पिरिचुअलिटी- की जड़ें आत्मा, स्पिरिट में हैं. उस काल में जबइंसान को यह भी पता नहीं था कि धरती गोल है या चपटी, तब उसने यह मान लिया था कि हमारा अस्तित्व दो चीज़ों के मेल से निर्मित है. शरीर और आत्मा. शरीर अस्थायी है. यह मरणशील है. लेकिन आत्मा, मैं कह सकता हूं, बायोडिग्रेडेबल है. आपके शरीर में लिवर है, हार्ट है, आंतें हैं, दिमाग है. लेकिन क्योंकि दिमाग शरीर का एक हिस्सा है और मन दिमाग के भीतर रहता है, वह घटिया है क्योंकि अंतत: शरीर के साथ दिमाग का भी मरना निश्चित है. लेकिन चिंता न करें, आप फिर भी नहीं मरेंगे, क्योंकि आप तो आत्मा हैं और क्योंकि आत्मा परम चेतस है, वह सदा रहेगी, और आपकी ज़िन्दगी में जो भी समस्याएं आती हैं वे इसलिए आती हैं कि आप अपने मन की बात सुनते हैं. अपने मन की बात सुनना बन्द कर दीजिए.. आत्मा की आवाज़ सुनिए – आत्मा जोकॉस्मिक सत्य को जानने वाली सर्वोच्च चेतना है. ठीक है. कोई ताज़्ज़ुब नहीं कि पुणे में एक आश्रम है, मैं भी वहां जाया करता था. मुझे वक्तृत्व कला अच्छी लगती थी. सभा कक्ष के बाहर एक सूचना पट्टिका लगी हुई थी: “अपने जूते और दिमाग बाहर छोड़ कर आएं”. और भी गुरु हैं जिन्हें इस बात से कोई ऐतराज़ नहीं होता है कि आप जूते बाहर नहीं छोड़ते. लेकिन दिमाग?.....नहीं.अब, अगर आप अपना दिमाग ही बाहर छोड़ देते हैं तो फिर क्या होगा? आपको ज़रूरत होगी ऐसे गुरु की जो आपको चेतना के अगले मुकाम तक ले जाए. वह मुकाम जो आत्मा में कहीं अवस्थित है. वह सर्वोच्च चेतना तक पहुंच चुका है. उसे परम सत्य ज्ञात है. लेकिन क्या वह आपको बता सकता है? जी नहीं. वह आपको नहीं बता सकता. तो, अपना सत्य आप खुद ढूंढ सकेंगे?. जी नहीं. उसके लिए आपको गुरु की सहायता की ज़रूरत होगी. आपको तो उसकी ज़रूरत होगी लेकिनवह आपको इस बात की गारण्टी नहीं दे सकता कि आपको परम सत्य मिल ही जाएगा... और यह परम सत्य है क्या? कॉस्मिक सत्य क्या है? जिसका सम्बन्ध कॉस्मॉस यानि ब्रह्माण्ड से है? मुझे तो अब तक यह समझ में नहीं आया है. जैसे ही हम अपने सौर मण्डल से बाहर निकलते हैं, पहला नक्षत्र जो हमारे सामने आता है वह है अल्फा सेंचुरी, और वह हमसे केवल चार प्रकाश वर्ष दूर है. उससे मेरा क्या रिश्ता बनता है? क्यों बनता है?तो, राजा ने ऐसे कपड़े पहन रखे हैं जो सिर्फ बुद्धिमानों को ही दिखाई देते हैं. और राजा लगातार बड़ा होता जा रहा है. और ऐसे बुद्धिमानों की संख्या भी निरंतर बढती जा रही है जिन्हें राजा के ये कपड़े दिखाई दे रहे हैं और जो उनकी तारीफ करते हैं. मैं सोचता था कि आध्यात्मिकता दरअसलधार्मिक लोगों की दूसरी रक्षा पंक्ति है. जब वे पारम्परिक धर्म से लज्जित अनुभव करने लगते हैं, जब यह बहुत चालू लगने लगता है तो वे कॉस्मॉस या परम चेतना के छद्म की ओट ले लेते हैं. लेकिन यह भी पूर्ण सत्य नहीं है. इसलिए कि पारम्परिक धर्म और आध्यात्मिकता के अनुयायीगण अलग-अलग हैं. आप ज़रा दुनिया का नक्शा उठाइए और ऐसी जगहों को चिह्नित कीजिए जो अत्यधिक धार्मिक हैं -चाहे भारत में या भारत के बाहर- एशिया, लातिन अमरीका, यूरोप.... कहीं भी. आप पाएंगे कि जहां-जहां धर्म का आधिक्य है वहीं-वहीं मानव अधिकारों का अभाव है, दमन है. सब जगह. हमारे मार्क्सवादी मित्र कहा करते थे कि धर्म गरीबों की अफीम है, दमित की कराह है. मैं उस बहस में नहीं पड़ना चाहता. लेकिन आजकल आध्यात्मिकता अवश्य ही अमीरों की ट्रांक्विलाइज़र है.आप देखेंगे कि इनके अनुयायी खासे खाते-पीते लोग है, समृद्ध वर्ग से हैं. ठीक है. गुरु को भी सत्ता मिलती है, ऊंचा कद और पद मिलता है, सम्पत्ति मिलती है..(जिसका अधिक महत्व नहीं है), शक्ति मिलती है और मिलती है अकूत सम्पदा. और भक्तों को क्या मिलता है? जब मैंने ध्यान से इन्हें देखा तो पाया कि इन भक्तों की भी अनेक श्रेणियां हैं. ये सभी एक किस्म के नहीं हैं. अनेक तरह के अनुयायी, अनेक तरह के भक्त. एक वह जो अमीर है, सफल है, ज़िन्दगी में खासा कामयाब है, पैसा कमा रहा है, सम्पदा बटोर रहा है. अब, क्योंकि उसके पास सब कुछ है, वह अपने पापों का शमन भी चाहता है. तो गुरु उससे कहता है कि “तुम जो भी कर रहे हो, वह निष्काम कर्म है. तुम तो बस एक भूमिका अदा कर रहे हो, यह सब माया है, तुम जो यह पैसा कमा रहे हो और सम्पत्ति अर्जित कर रहे हो, तुम इसमें भावनात्मक रूप से थोड़े ही संलग्नहो. तुम तो बस एक भूमिका निबाह रहे हो.. तुम मेरे पास आओ, क्योंकि तुम्हें शाश्वत सत्य की तलाश है. कोई बात नहीं कि तुम्हारे हाथ मैले हैं, तुम्हारा मन और आत्मा तो शुद्ध है”. और इस आदमी को अपने बारे में सब कुछ अच्छा लगने लगता है. सात दिन तक वह दुनिया का शोषण करता है और सातवें दिन के अंत में जब वह गुरु के चरणों में जाकर बैठता है तो महसूस करता है कि मैं एक संवेदनशील व्यक्ति हूं.लोगों का एक और वर्ग है. ये लोग भी धनी वर्ग से हैं. लेकिन ये पहले वर्ग की तरह कामयाब लोग नहीं हैं. आप जानते हैं कि कामयाबी-नाकामयाबी भी सापेक्ष होती है. कोई रिक्शा वाला अगर फुटपाथ पर जुआ खेले और सौ रुपये जीत जाए तो अपने आप को कामयाब समझने लगेगा, और कोई बड़े व्यावसायिक घराने का व्यक्ति अगर तीन करोड भी कमा ले, लेकिन उसका भाई खरबपति हो, तो वो अपने आप को नाकामयाब समझेगा. तो, यह जो अमीर लेकिन नाकामयाब इंसान है, यह क्या करता है? उसे तलाश होती है एक ऐसे गुरु की जो उससे कहे कि “कौन कहताहै कि तुम नाकामयाब हो? तुम्हारे पास और भी तो बहुत कुछ है. तुम्हारे पास ज़िन्दगी का एक मक़सद है, तुम्हारे पास ऐसी संवेदना है जो तुम्हारे भाई के पास नहीं है. क्या हुआ जो वह खुद को कामयाब समझता है? वह कामयाब थोड़े ही है. तुम्हें पता है, यह दुनिया बड़ी क्रूर है. दुनिया बड़ी ईमानदारी से तुम्हें कहती है कि तुम्हें दस में से तीन नम्बर मिले हैं. दूसरे को तो सात मिले हैं. ठीक है. वे तुम्हारे साथ ऐसा ही सुलूक करेंगे.” तो इस तरह इसे करुणा मिलती है, सांत्वना मिलती है. यह एक दूसरी तरह का खेल है. एक और वर्ग. मैं इस वर्ग के बारे में किसी अवमानना या श्रेष्ठता के भाव के साथ बात नहीं कर रहा. और न मेरे मन में इस वर्ग के प्रति कोई कटुताहै, बल्कि अत्यधिक सहानुभूति है क्योंकि यह वर्ग आधुनिक युग के गुरु और आज की आध्यात्मिकता का सबसे बड़ा अनुयायी है. यह है असंतुष्ट अमीर बीबियों का वर्ग.एक ऐसा व्यक्तित्व जिसने अपनी सारी निजता, सारी आकांक्षाएं, सारे सपने, अपना सम्पूर्ण अस्तित्व विवाह की वेदी पर कुर्बान कर दिया और बदले में पाया है एक उदासीन पति, जिसने ज़्यादा से ज़्यादा उसे क्या दिया? कुछ बच्चे! वह डूबा है अपने काम धन्धे में, या दूसरी औरतों में. इस औरत को तलाश है एक कन्धे की. इसे पता है कि यह एक अस्तित्ववादी असफलता है. आगेभी कोई उम्मीद नहीं है. उसकी ज़िन्दगी एक विराट शून्य है; एकदम खाली, सुविधाभरी लेकिन उद्देश्यहीन. दुखद किंतु सत्य! और भी लोग हैं. ऐसे जिन्हें यकायक कोई आघात लगता है. किसी का बच्चा चल बसता है, किसी की पत्नी गुज़र जाती है. किसी का पति नहीं रहता. या उनकीसम्पत्ति नष्ट हो जाती है, व्यवसाय खत्म हो जाता है. कुछ न कुछ ऐसा होता है कि उनके मुंह से निकल पड़ता है: “आखिर मेरे ही साथ ऐसा क्यों हुआ?” किससे पूछ सकते हैं ये लोग यह सवाल? ये जाते हैं गुरु के पास. और गुरु इन्हें कहता है कि “यही तो है कर्म. लेकिन एक और दुनिया है जहां मैं तुम्हें ले जा सकता हूं, अगर तुम मेरा अनुगमन करो. वहां कोई पीड़ा नहीं है. वहां मृत्यु नहीं है. वहां है अमरत्व. वहां केवल सुख ही सुख है”. तो इन सारी दुखी आत्माओं से यह गुरु कहता है कि “मेरे पीछे आओ, मैं तुम्हें स्वर्ग में ले चलता हूं जहां कोई कष्ट नहीं है”. आप मुझे क्षमा करें, यह बात निराशाजनक लग सकती है लेकिन सत्य है, कि ऐसा कोई स्वर्ग नहीं है.ज़िन्दगी में हमेशा थोड़ा दर्द रहेगा, कुछ आघात लगेंगे, हार की सम्भावनाएं रहेंगी. लेकिन उन्हें थोड़ा सुकून मिलता है. आपमें से कोई मुझसे पूछ सकता है कि अगर इन्हें कुछ खुशी मिल रही है, कुछ शांति मिल रही है तो आपको क्या परेशानी है? मुझे अपनी पढ़ी एक कहानी याद आती है. किसी संत की कही एक पुरानी कहानी है. एक भूखे कुत्ते को एक सूखी हड्डी मिल जाती है. वह उसी को चबाने की कोशिश करने लगता है और इसी कोशिश में अपनी जीभ काट बैठता है. जीभ से खून आने लगता है. कुत्ते को लगता है कि उसे हड्डी से ही यह प्राप्त हो रहा है. मुझे बहुत बुरा लग रहा है. मैं नहीं चाहता कि ये समझदार लोग ऐसा बर्ताव करें, क्योंकि मैं इनका आदर करता हूं. मानसिक शांति या थोड़ा सुकून तो ड्रग्स या मदिरा से भी मिल जाता है लेकिन क्या वह आकांक्ष्य है? क्या आप उसकी हिमायत करेंगे? जवाब होगा, नहीं. ऐसी कोई भी मानसिक शांति जिसकी जड़ें तार्किक विचारों में न हो, खुद को धोखा देने के सिवा और कुछ नहीं हो सकती. कोई भी शांति जो आपको सत्य से दूर ले जाए, एक भ्रम मात्र है, महज़ एक मृग तृष्णा है. मैं जानता हूं कि शांति की इस अनुभूति में एक सुरक्षा-बोध है, ठीक वैसा ही जैसी तीन पहियों की साइकिल में होता है. अगर आप यह साइकिल चलाएं, आप गिरेंगे नहीं. लेकिन बड़े हो गए लोग तीन पहियों की साइकिलें नहीं चलाया करते. वे दो पहियों वाली साइकिलें चलाते हैं, चाहे कभी गिर ही क्यों न जाएं. यही तो ज़िन्दगी है.एक और वर्ग है. ठीक उसी तरह का जैसा गोल्फ क्लब जाने वालों का हुआ करता है. वहां जाने वाला हर व्यक्ति गोल्फ का शौकीन नहीं हुआ करता. ठीक उसी तरह हर वह इंसान जो आश्रम में नज़र आता है, आध्यात्मिक नहीं होता. एक ऐसे गुरु के, जिनका आश्रम दिल्ली से मात्र दो घण्टे की दूरी पर है, घनघोर भक्त एक फिल्म निर्माता ने एक बार मुझसे कहा था कि मुझे भी उनके गुरु के पास जाना चाहिए. वहां मुझे दिल्ली की हर बड़ी हस्ती के दीदार हो जाएंगे. सच तो यह है कि वे गुरु जी निर्माणाधीन दूसरे चन्द्रास्वामी हैं. तो, यह तो नेटवर्किंग के लिए एक मिलन बिन्दु है. ऐसे लोगों के प्रति मेरे मन में अगाध सम्मान है जो आध्यात्मिक या धार्मिक हैं और फिर भी भले इंसान हैं. इसकी वजह है. मैं मानता हूं कि किसी भी भाव या अनुभूति की तरह आपकी भी एकसीमा होती है. आप एक निश्चित दूरी तक ही देख सकते हैं. उससे आगे आप नहीं देख सकते. आप एक खास स्तर तक ही सुन सकते हैं, उससे परे की ध्वनि आपको सुनाई नहीं देगी. आप एक खास मुकाम तक ही शोक मना सकते हैं, दर्द हद से बढ़ता है तो खुद-ब-खुद दवा हो जाता है. एक खास बिन्दु तक आप प्रसन्न हो सकते हैं, उसके बाद वह प्रसन्नता भी प्रभावहीन हो जाती है. इसी तरह, मैं मानता हूं कि आपके भलेपन की भी एक निश्चित सीमा है. आप एक हद तक ही भलेहो सकते हैं, उससे आगे नहीं. अब कल्पना कीजिए कि हम किसी औसत इंसान में इस भलमनसाहत की मात्रा दस इकाई मानते हैं. अब हर कोई जो मस्जिद में जाकर पांच वक़्त नमाज़ अदा कर रहा है वह इस दस में से पांच इकाई की भलमनसाहत रखता है, जो किसी मदिर में जाता है या गुरु के चरणों में बैठता है वह तीन इकाई भलमनसाहत रखता है. यह सारी भलमनसाहत निहायत गैर उत्पादक किस्म की है. मैं इबादतगाह में नहीं जाता, मैं प्रार्थना नहीं करता. अगर मैं किसी गुरु के पास, किसी मस्जिद या मंदिर या चर्च में नहीं जाता तो मैं अपनेहिस्से की भलमनसाहत का क्या करता हूं? मुझे किसी की मदद करनी होगी, किसी भूखे को खाना खिलाना होगा, किसी को शरण देनी होगी. वे लोग जो अपने हिस्से की भलमनसाहत को पूजा-पाठ में, धर्म या आध्यात्म गुरुओं के मान-सम्मान में खर्च करने के बाद भी अगर कुछ भलमनसाहत बचाए रख पाते हैं, तो मैं उन्हें सलाम करता हूं.आप मुझसे पूछ सकते हैं कि अगर धार्मिक लोगों के बारे में मेरे विचार इस तरह के हैं तो तो फिर मैं कृष्ण, कबीर या गौतम के प्रति इतना आदर भाव कैसे रखता हूं? आप ज़रूर पूछ सकते हैं. मैं बताता हूं कि क्यों मेरे मन में उनके प्रति आदर है. इन लोगों ने मानव सभ्यता को समृद्ध किया है. इनका जन्म इतिहास के अलग-अलग समयों पर, अलग-अलग परिस्थितियों में हुआ. लेकिनएक बात इन सबमें समान थी. ये अन्याय के विरुद्ध खड़े हुए. ये दलितों के लिए लड़े. चाहे वह रावण हो, कंस हो, कोई बड़ा धर्म गुरु हो या गांधी के समय में ब्रिटिश साम्राज्य या कबीर के वक़्त में फिरोज़ शाह तुग़लक का धर्मान्ध साम्राज्य हो, ये उसके विरुद्ध खड़े हुए. और जिस बात पर मुझे ताज़्ज़ुब होता है, और जिससे मेरी आशंकाओं की पुष्टि भी होती है वह यह कि ये तमाम ज्ञानी लोग, जो कॉस्मिक सत्य, ब्रह्माण्डीय सत्य को जान चुके हैं, इनमें से कोई भी किसी सत्ता की मुखालिफत नहीं करता. इनमें से कोई सत्ता या सुविधा सम्पन्न वर्ग के विरुद्ध अपनी आवाज़ बुलन्द नहीं करता. दान ठीक है, लेकिन वह भी तभी जब कि उसे प्रतिष्ठान औरसत्ता की स्वीकृति हो. लेकिन आप मुझे बताइये कि कौन है ऐसा गुरु जो बेचारे दलितों को उन मंदिरों तक ले गया हो जिनके द्वार अब भी उनके लिए बन्द हैं? मैं ऐसे किसी गुरु का नाम जानना चाहता हूं जो आदिवासियों के अधिकारों के लिए ठेकेदारों से लड़ा हो. मुझे आप ऐसे गुरु का नाम बताएं जिसने गुजरात के पीड़ितों के बारे में बात की हो और उनके सहायता शिविरों में गया हो. ये सब भी तो आखिर इंसान हैं. मान्यवर, यह काफी नहीं है कि अमीरों को यह सिखाया जाए कि वे सांस कैसे लें. यह तो अमीरों का शगल है. पाखण्डियों की नौटंकी है. यह तो एक दुष्टता पूर्ण छद्म है. और आप जानते हैं कि ऑक्सफर्ड डिक्शनरी में इस छद्म के लिए एक खास शब्द है, और वह शब्द है: होक्स(HOAX). हिन्दी में इसे कहा जा सकता है, झांसे बाजी!.धन्यवाद.

देयर वॉज़ अ स्टोर रुम या कि दरवाज़ा-ए-स्टोर रुम....

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ढूंढो-ढूंढो रे साजना अपने काम का मलबा.........

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