रविवार, 19 अप्रैल 2015

तो यह वह चीज़ है प्यारे!

एक बड़ा-सा मैदान, चारों तरफ़ भीड़, शोर ही शोर, चीख़-चिल्लाहट।

कहीं एक कोने से दो आदमी निकलते हैं। आराम-आराम से चलते हुए। लगता नहीं कि भीड़ और शोर का उनपर कुछ असर हो रहा है। ख़ासे शांत और एकाग्रचित्त मालूम होते हैं। बीच मैदान में पहुंचकर आपस में कुछ बुदबुदाने लगते लगते हैं। फिर झुक-झुककर ज़मीन को देखते हैं, कहीं-कहीं हाथ भी मारते हैं, लगता है जैसे इनका कुछ खो गया है, ढूंढ रहे हैं। इस ढूंढा-ढांढी के बाद फिर सीधे खड़े हो जाते हैं। अब वे हवा में हाथ हिला रहे हैं, लगता है जैसे दूर कहीं किसीको कुछ सिगनल दे रहे हैं।

अब एक कोने से एक आदमी निकलता है। उसके पीछे एक और आदमी निकलता है। उसके पीछे कई आदमी निकलते हैं। ये कुल मिलाकर बहुत ज़्यादा तो नहीं हैं पर उतने ज़रुर हैं जितना राजनीति में नये-नये आए, असमंजस में पड़े नेता का छोटा-मोटा मंत्रिमंडल होता है। इनमें से एक आदमी ने हाथों और पैरों में कुछ भारी-भारी चीज़ें पहन रखीं हैं, जैसे पुराने सामानों के साथ नये ज़माने की कोई लड़ाई लड़ने जा रहा हो। एक और आदमी है जिसके आसपास बाक़ी सब घूम रहे हैं, उससे कुछ सुन रहे हैं, कुछ-कुछ कह भी रहे हैं। ये सब उस तरफ़ जा रहे हैं जहां वे दोनों पहले से मौजूद हैं। चलते-चलते ये अचानक उछलने लगते हैं, हाथ-पैर हवा में हवा में घुमाने-पटकने लगते हैं। ये सब करते-कराते ये भी वहीं पहुंच जाते हैं जहां वे दोनों खड़े हैं। अब ये सब मिलजुल कर कुछ बुदबुदा रहे हैं, कुछ कूदा-फ़ादी कर रहे हैं। वक़्त बीत रहा है। ये कूदा-फ़ांदी न भी करें तो भी उसे तो बीतना ही है।

फिर एक कोने से दो और आदमी निकलते हैं। दोनों ने अपने हाथों में कुछ उठा रखा है, लगता है जैसे कोई पाषाणकालीन हथियार हों। ये दोनों उन हथियारनुमां चीज़ों से बीच-बीच में ज़मीन को ठोंकते जाते हैं। ‘जल’ नाम की फ़िल्म याद आ जाती है जिसमें एक आदमी ज़मीन पीट-पीटके अंदाज़ा लगाता है कि पानी कहां से निकलेगा। इन दोनों ने भी वैसे ही कुछ सामान अपने तन पर लाद रखे हैं जैसे उनमें से एक ने लाद रखे हैं। ये दोनों अपना सर झुकाए हैं, बात भी करते हैं तो एक-दूसरे को देखते हैं, इधर-उधर नहीं देखते। ऐसा लग रहा है जैसे इन्हें मालूम ही नहीं है कि यहां इनके अलावा भी कोई और है। जबकि पहलेवाले लोग इन दोनों को देखकर इधर-उधर खि़सकना शुरु हो गए हैं। ख़रामा-ख़रामा चलते हुए ये दोनों भी उन दोनों के पास पहुंच जाते हैं जो सबसे पहले आए थे। अब ये मिलकर कई आदमी हो गए हैं। ये क्या करनेवाले हैं!? वैसे अभी तक होने जैसा कुछ हुआ नहीं है। दो और दो आपस में कुछ बातचीत कर रहे हैं। बाक़ी पूरे मैदान में फ़ैल गए हैं और उछल-कूद जारी रखे हैं।

अब आप कहेंगे कि मैं आपको बोर कर रहा हूं। जी नहीं, मैंने तो जो देखा, वही बता रहा हूं। आप ठीक समझे, यह आपका एक पसंदीदा खेल है। अभी तो इसमें और बहुत कुछ होना है, हालांकि मेरा धैर्य चुक गया हैं। मगर आप तो देखेंगे। अभी लकड़ी के बल्लेवाला आदमी बल्ले को कभी एक टांग के आगे रखेगा, कभी लकड़ी की तीन डंडियों के आगे रख-रखकर अंपायर से सहमति मांगेगा। अंपायर जब सहमति देगा तो किस बात पर देगा, यह आपको समझ में न आए तो भी आप पूछेंगे नहीं। फिर दो बनाम ग्यारह का खेल शरु होगा। फिर बॉलर नाम का आदमी बॉलिंग मार्क लगाएगा, छः बार उछल-कूद करेगा, अपने ही किसी साथी को तीन बार फेंक के देखेगा। अब यह उधर को जाएगा जहां इसे बॉल नहीं फेंकनी। फिर यह ज़ोर-ज़ोर से अपनी हिप पर बॉल को रगड़ेगा, इतनी ज़ोर से कि पतलून अगर महंगे कपड़े की न हो तो उसमें से खिड़िकयां निकल आएं। फिर जितनी लंबी इसे बॉल फेंकनी है उससे ज़्यादा लंबाई से ये भागता हुआ आएगा। उससे पहले ये अंपायर को अपना टोपा, पसीनेवाला रुमाल, पसीनेदार स्वेटर, कुछ भी पकड़ा सकता है। अब ये एक तरफ़ से छै बार गेंद फेंकेगा। तब जाकर ओवर ख़त्म होगा। उसके बाद छै गेंदें दूसरे छोर से फेंकी जाएंगीं। सारे ग्यारह खिलाड़ी अपनी-अपनी पोज़ीशन बदलेंगे, इधर से उधर जाएंगे। और यह हर छै गेंदो के बाद होगा। जितनी देर में यह होगा उससे कम देर में तो लोग नई पार्टी बना लेते हैं।

आप अभी भी देख रहे हैं! मेरा तो लिखते-लिखते दिमाग़ दुख गया।

बुरा मत मानिएगा, मैं तो जो है वही लिख रहा हूं। जी हां, यह वही चीज़ है जिसपर आप जान देते हैं-क्रिकेट। इसे कहते रहे हैं जेंटलमैंन्स्‘गेम। इस शरीफ़ खेल के जजों को अंपायर कहा जाता है। पहले ये जज उसी देश के हुआ करते थे जहां टेस्ट मैच खेले जा रहे हों। बाद में जाकर समझ में आया कि पवित्रता (यह जो भी होती हो) का संबंध खेलों, बिल्डिंगों और संस्थाओं से नहीं, व्यक्तियों से होता है। तब तीसरे देश के जज बुलाने शुरु किए गए। अब तो कपड़े रंगीन हो गए हैं, चीयर-गर्ल्स आ गईं हैं (चीयर-ब्वॉएज़ भी आ ही जाएंगे), सट्टा पारंपरिक हो गया है, खिलाड़ियों पर बोली लगती है।

आप देखते रहिए। मैं जाते-जाते इतना ज़रुर कहूंगा कि आदमी ही शरीफ़ नहीं हो पा रहा तो खेल कैसे हो जाएंगे?

वे तो आदमी तक नहीं हैं।


-संजय ग्रोवर
19-04-2015


देयर वॉज़ अ स्टोर रुम या कि दरवाज़ा-ए-स्टोर रुम....

ख़ुद फंसोगे हमें भी फंसाओगे!

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ढूंढो-ढूंढो रे साजना अपने काम का मलबा.........

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