मौलिकता तो वो है मेरे दोस्त
जिसे जानकर तुम्हारे छक्के छूट जाएं
हवा ख़राब हो जाए
सारी दुनिया से तुम्हारा विश्वास उठ जाए
अपनी सारी ज़िन्दगी पर
दोबारा सोचने को मजबूर हो जाओ तुम
जिसे सुनते ही
पहले-पहल यही कहो तुम
कुतर्क करता है साला
अनगढ़ है इसका सारा सृजन
यहाँ तुम बिल्कुल सही हो मेरे दोस्त
सारे गढ़े गए को ध्वस्त करके ही
फ़ूटते हैं मौलिकता के अंकुर
जो दलीलें तुमने न कभी पढ़ी न सुनी
वही तुम्हे लगती हैं कुतर्क
( पर इसका क्या करें कि ज़्यादातर वही होती हैं मौलिक
और तर्क कुतर्क की परिभाषाएं आज तक नहीं बन पायीं )
दुनिया में
बिलकुल दुनिया की ही तरह
होकर और रहकर भी
दुनिया से अलग क्यों दिखना चाहते हो मेरे दोस्त
क्यों ओढ़ना चाहते हो सम्मानों की शाल
क्या छुपा लेगी तुम्हारे पुरस्कारों की ढाल
इनके बिना ख़ुदको निर्वस्त्र और अविश्वसनीय
क्यों समझते हो मेरे दोस्त
अपने लिए गढ़े गए सुरक्षित कोने में
यह कौन-सी बदबू है
जो तुम्हे तुम्हारी उपलब्धियों का मज़ा नहीं लेने देती
गढ़े गए मूल्य
गढी गयी साजिशें
गढ़ी गयी सफ़लता की कसौटियां
गढ़ी गयी मंज़िल की परिकल्पनाएं
गढ़ा गया सामाजिक ढांचा
गढ़े गए अच्छाई और बुराई के मानक
और गढ़े हुए तुम
आखि़र समझोगे भी कैसे
अपनी बेचैनी को
और इसकी अविश्वसनीयता को
पहले अनगढ़ तो बनो मेरे दोस्त
पर मुसीबत तो यह है कि
अनगढ़ तो बना भी नहीं जा सकता
और बनाया भी नहीं जा सकता
क्योंकि मौलिकता बहुत सारी
कथित सुंदर चीज़ों के ढेर से नहीं बनती
बल्कि
बहुत सारी असुंदर और गढ़ी गयी चीज़ों के
न होने से होती है
-संजय ग्रोवर
(‘युद्धरत आम आदमी’ में प्रकाशित)
रचना तिथि: 04-05-2007