मंगलवार, 23 अगस्त 2011

एक आज़ाद ग़ज़ल



हुकूमत करना चाहो हो..तो हिम्मत क्यूं नहीं करते ?
सियासत तुमको करनी है तो सीधे क्यूं नहीं करते ?

अगर बदमाश है राजा, तो तुम ही कौन-से कम हो ?
कभी फ़रियाद करते हो, कभी छाती पे चढ़ते हो

ये कैसी हड़बड़ी के गड़बड़ी का इल्म होता है !
ठहर के कैसे सोचोगे ? बहुत जल्दी में लगते हो

कभी घुसते हो चिलमन में, कभी चढ़ते हो टोपी पर
जो समझाया है औरों को, कहो ख़ुद भी समझते हो !

बग़ावत लफ्ज़ सुनने में, बहुत अच्छा तो लगता है
फिर उसके बाद जो होता है उसको भी समझते हो ?

हमारा नाम आगे करके हमसे ही नहीं पूछा
कभी इसके अलावा और कुछ तुम कर भी सकते हो ?

किसी की जान जाती है, तुम्हारी शान की ख़ातिर
ज़रा भी ख़ुद नहीं बदले, न जाने क्या बदलते हो !

-संजय ग्रोवर

मंगलवार, 9 अगस्त 2011

आह आरक्षण! वाह मेरिट!

क्या हम 20-30 मिनट के लिए उनका गला छोड़ सकते हैं जिन्हें नौकरियों और कुछ दूसरी जगहों पर आरक्षण मिलता है ? मेरा ख़्याल है इतना तो हम अफ़ोर्ड कर ही सकते हैं। जीवन के दूसरे क्षेत्रों में आईए ज़रा। याद करेंगे तो ज़रुर आपको ऐसा कोई न कोई संगी-साथी, जान-पहचान वाला याद आ जाएगा जो मुश्क़िल से पास होता था मगर आज सफ़ल बिज़नेसमैन है। या कोई ऐसा जो पढ़ाई में बस ठीक-ठाक था मगर आज नामी-गिरामी वक़ील है। सवाल है कि जीवन के दूसरे क्षेत्रों में जिनका कि फ़लक आरक्षण वाले क्षेत्रों से बहुत बड़ा है, वहां ‘मेरिट’ किस तरह काम करती है ? सिर्फ़ मेरिट ही काम करती है या कुछ और भी काम करता है ? या वहां सफ़लता को ही ‘मेरिट’ मान लिया जाना चाहिए ?
साहित्य में आईए। पत्र-पत्रिका में छपने के लिए किसीको अपनी मार्कशीट नहीं दिखानी होती। फ़िर क्या योग्यता है पत्र-पत्रिका में छपने की ? कया आप यह मानने को तैयार हैं कि वे सभी लोग जो रोज़ाना पत्र-पत्रिकाओं में छपते हैं, उन सभी लोगों से ज़्यादा ‘मेरिटवान’ होते हैं जो कभी-कभार छपते हैं ?
फ़िल्म बनाने के लिए कौन-सी ‘मेरिट’ आवश्यक है ? आखि़र सभी निर्देशक पूना फ़िल्म इंस्टीट्यूट से तो नहीं आए होते ! अगर ‘मेरिट’ का पंगा खड़ा कर दिया जाए तो बहुत-से सफ़ल निर्देशकों को घर बैठना नहीं पड़ जाएगा ? फ़िल्म सिर्फ़ 'मेरिट’ से नहीं, तरह-तरह के संबंधों, जुगाड़ों और पैसा जुटाने की क्षमता की वजह से भी बनती है। और पूरी बन चुकने के बाद सेंसर के पास जाती है। अगर ज़िंदगी में 'मेरिट’ ही सब कुछ हुआ करती तो कई बड़े अभिनेताओं के बच्चे इण्डस्ट्री छोड़ चुके होते।
क्या आप मानते हैं कि आज के जितने सफ़ल उद्योगपति हैं सबके सब वाणिज्य विषय में अच्छे नंबरों के साथ पास हुए होंगे !? एक सफ़ल उद्योगपति या एक सफ़ल राजनेता की सफ़लता में ‘मेरिट’ का कितना हाथ होता है और छल-कपट-प्रबंधन का कितना, इस विषय में हम कुछ देर बैठकर सोच लेंगे तो आसमान नहीं टूटकर गिर जाएगा !
नौकरियों में कौन-सी ‘मेरिटरानी’ सारी दौड़ें जीतती आयी है ? चमचे तरक्की पा जाते हैं और मेरिटचंद पप्पू बने देखते रहते हैं। किसीके पास अप्रोच है, किसीके पास पैसा है, किसीके पास और कुछ है, आप पड़े रटते रहो ‘मेरिट-मेरिट’। जिनके पास ‘मेरिट’ के नाम पर डिग्रियां हैं भी, कैसे पता करोगे, असली हैं कि नकली ? पढ़कर मिली हैं या नकलकर के ?
और बाबागण ! इन्हें प्रवचन देने के लिए किस डिग्री-डिप्लोमा की दरकार है ?
रोज़ना धरने-प्रदर्शन-अनशन वगैरह होते हैं। इसके लिए कौन-सा डिप्लोमा ज़रुरी है ? जिसे चार लोग स्वीकृत कर लेते हैं वही जाकर बैठ जाता है। और तो और पूरे देश की जनता का प्रतिनिधित्व करनेवाली सिविल सोसायटी में भी जो पांच लोग बिठाए जाते हैं, उनके जैसी ‘मेरिट’ वाले पूरे देश में तो क्या उनके आस-पास ही काफ़ी निकल सकते हैं। बताओ, ‘मेरिट’ को कौन-से थर्मामीटर से नापोगे ?
क्या अपने यहां ‘मेरिट’ का सफ़लता से इतना ही साफ़-सीधा संबंध  है जैसा दिखाने की कोशिश की जा रही है !?

-- संजय ग्रोवर

देयर वॉज़ अ स्टोर रुम या कि दरवाज़ा-ए-स्टोर रुम....

ख़ुद फंसोगे हमें भी फंसाओगे!

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ढूंढो-ढूंढो रे साजना अपने काम का मलबा.........

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