पिछले दो-तीन सालों से अपने यहां सड़क ख़ासी चर्चा में है। लोग एक-दूसरे को अहिंसापूर्ण ढ्रंग से ललकारते
मिलते हैं कि बेट्टा सड़क पर नहीं उतरे तो ज़िंदगी में किया क्या !? अगला एकदम से घबरा जाता है कि सड़क पर जाकर दो-चार नारे नहीं मारे, मोमबत्ती की गरमी में हाथ शहीद नहीं किए, किसी बिल्डिंग को नहीं घेरा, किसीको चपत मारकर नहीं भागे तो मानो आदमी को डूबकर मर जाना चाहिए। और सिर्फ़ सड़क से काम नहीं चलता, सड़क पर संघर्ष करते हुए आपके विज़ुअल्स् और स्टिल फ़ोटोग्राफ़ भी हर एंगल से पर्याप्त मात्रा में होने चाहिए।
आप ज़रा मेरी बेशर्मी देखिए ; मुझे ऐसे तानों से रत्ती-भर काँपलैक्स नहीं होता। जैसे कई लोग कैमरा-संकोची होते हैं, मैं सड़क-संकोची हूं। बचपन से ही हूं। उस वक्त भी ऐसे लोग पर्याप्त से ज़्यादा मात्रा में पाए जाते थे जो सड़क पर किसी भी तरह के संघर्ष को लेकर अत्यंत मुखर होते थे। बिजली चली जाए तो मर्द लोग सड़क पर ही कमीज़-बनियान उतारकर हवा करना शुरु कर देते थे। घर में नल होते हुए भी कई संघर्ष-पसंद मर्द सड़क के नल पर इस मस्त अंदाज़ में बोल्डली नहाते थे कि मैं अपने बाथरुम में भी उनका मुक़ाबला नहीं कर सकता था। आपको तो मालूम है अपने यहां सड़के भले ग़रीब मिल जाएं, नालियां बराबर कीचड़-संपन्न रहतीं हैं। प्रकृति को सड़क पर प्रदर्शित करती नालियां प्रकृति-प्रेमी मर्दों का एक तरीके से अपरोक्ष आह्वान करतीं हैं कि आओ, कुछ कर जाओ। संघर्षवान मर्द आहलादित् हो उठते। कई बार तो वे नालियों का भी वेट नहीं करते। कुछ तो ऐसे साहसी कि पेड़ की आड़ या छोटी-सी झाड़ के भी मोहताज नहीं। ‘घटाओ तुम्हे साथ देना पड़ेगा ; मैं फिर आज........’। क्या तो चौराहा, क्या मैदान और क्या मेला.....
लोग थे और हैं कि सड़क पर ही बिना किसीकी परमिशन लिए गड्ढे-वड्ढे खोदकर तम्बू-बम्बू तान देते हैं, कई बार तो रास्ते-वास्ते भी बंद कर देते रहे। और कोई कुछ पूछ ले तो, अबे स्साल्ले, रिक्शा पीछेवाली सड़क से निकाल्ले ना, देखता नहीं कथा चल्लई है, आया बड़ा रिक्शेवाला.....। सड़क पर मंडप लगे हैं और वहीं आग़ जल्लई है और वहीं पवित्र रोशनी में लेना-देना भी चल रहा है। कल्लो क्या कल्लोगे ? कन्नेवाले ख़ुद ही दोस्तों और रिश्तेदारों में शामिल हैं। सड़क पर लेन-देन करना क्या मज़ाक़ है ? आंदोलन से कम नहीं लगता।
सड़क पर साहसपूर्ण अहिंसात्मक संघर्ष के हम आदी रहे।
झूठ नहीं बोलूंगा, उस वक़्त बड़ा अपराध-बोध होता था। कई बार लगता कि मैं मर्द ही नहीं हूं, मुझे जीने का हक़ क्या है, वगैरह...। बाद में पता नहीं कैसे, उल्टा-सीधा पढ़ते-सोचते, अपराध-बोध और शर्म-संकोच वगैरह कम होते गए।
लेकिन दुनिया ? उसका क्या करोगे ? देखता हूं कि सड़क को लेकर विद्वानों और आंदोलननुमांकारियों की अवधारणाएं आज भी उठान पर हैं। पर मुझे समझ में नहीं आता कि जो काम आप अपने घरों और दुकानों में कर सकते हैं उसके लिए सड़क पर क्यों नाचते हैं !? मान लीजिए आप एक अभिनेता हैं और आप ईमानदारी पर अपनी जान न्यौछावर कर देना चाहते हैं। तो सीधा उपाय है कि जो भी प्रोड्यूसर/डायरेक्टर/फ़ायनेंसर आपको बुक करने आया है उसको अपने ड्रॉइंग-रुम में ही बोल दीजिए न कि मैं तो सिर्फ़ और सिर्फ़ व्हाइट मनी वाली फ़िल्म में ही काम करुंगा, भले आप मेहनताना कम दे दें, पर मैं ब्लैक मनी किसी भी हालत में नहीं लूंगा। मेरे कई बंगले हैं, कई ज़मीनें हैं, पीढ़ियों का इंतज़ाम हो चुका है, अब मैं ईमानदारी से जीना चाहता हूं। अगर आप दहेज की बीमारी दूर करना चाहते हैं तो कार्ड लेकर आई सहेली से अपनी किचेन में ही धीरे से कहके देखिए कि बहिना, मैंने तो दहेजवाली शादियों में जाना बंद कर दिया है, कहीं तू भी इसी तरह की शादी तो नहीं कर रही ? अगर आपकी दिलचस्पी इक्वैलिटी में यानि कि जातिवाद को हटाने में है तो आप कह सकते हैं कि जिन्होंने अपने वैवाहिक विज्ञापन में अपनी जाति का ज़िक्र किया है, इन्वीटेशन कार्ड में भी जाति का ज़िक्र किया है, जो अपने वैवाहिक आयोजन या दूसरे समारोह जाति-आधारित रीति-रिवाज़ों पर चढ़कर गर्व से मनाते हैं, वे मुझसे ऐसी कोई कोई उम्मीद न रखें कि मैं मूर्खों की तरह, ख़ामख्वाह ही तुम्हें जाति-विरोधी या इक्वैलिटी-समर्थक मान लूंगा। होंगे दूसरे अक्ल के अंधे, मैं पाखण्ड को समझने में कोई भेद-भाव नहीं बरतता।
इस बात की गारंटी कोई भी ले सकता है कि जब आप ऐसा करेंगे तो कोई पुलिस आपको पकड़ने नहीं आएगी, कोई आप पर अश्रु-गैस के गोले नहीं छोड़ेगा, पानी की बौछार नहीं करेगा, लाठी चार्ज नहीं करेगा, जेल में बंद नहीं करेगा। यह सब आप घर बैठे बड़े मज़े से कर सकते हैं।
करके देखिए, तब समझ में आएगा कि सड़क पर ज़्यादा हिम्मत चाहिए कि घर में ज़्यादा चाहिए ?
अगर आप घर के कमरे में नहीं कर सकते तो सड़क से कैसे कर लेंगे ?
-संजय ग्रोवर
07-02-2014
मिलते हैं कि बेट्टा सड़क पर नहीं उतरे तो ज़िंदगी में किया क्या !? अगला एकदम से घबरा जाता है कि सड़क पर जाकर दो-चार नारे नहीं मारे, मोमबत्ती की गरमी में हाथ शहीद नहीं किए, किसी बिल्डिंग को नहीं घेरा, किसीको चपत मारकर नहीं भागे तो मानो आदमी को डूबकर मर जाना चाहिए। और सिर्फ़ सड़क से काम नहीं चलता, सड़क पर संघर्ष करते हुए आपके विज़ुअल्स् और स्टिल फ़ोटोग्राफ़ भी हर एंगल से पर्याप्त मात्रा में होने चाहिए।
आप ज़रा मेरी बेशर्मी देखिए ; मुझे ऐसे तानों से रत्ती-भर काँपलैक्स नहीं होता। जैसे कई लोग कैमरा-संकोची होते हैं, मैं सड़क-संकोची हूं। बचपन से ही हूं। उस वक्त भी ऐसे लोग पर्याप्त से ज़्यादा मात्रा में पाए जाते थे जो सड़क पर किसी भी तरह के संघर्ष को लेकर अत्यंत मुखर होते थे। बिजली चली जाए तो मर्द लोग सड़क पर ही कमीज़-बनियान उतारकर हवा करना शुरु कर देते थे। घर में नल होते हुए भी कई संघर्ष-पसंद मर्द सड़क के नल पर इस मस्त अंदाज़ में बोल्डली नहाते थे कि मैं अपने बाथरुम में भी उनका मुक़ाबला नहीं कर सकता था। आपको तो मालूम है अपने यहां सड़के भले ग़रीब मिल जाएं, नालियां बराबर कीचड़-संपन्न रहतीं हैं। प्रकृति को सड़क पर प्रदर्शित करती नालियां प्रकृति-प्रेमी मर्दों का एक तरीके से अपरोक्ष आह्वान करतीं हैं कि आओ, कुछ कर जाओ। संघर्षवान मर्द आहलादित् हो उठते। कई बार तो वे नालियों का भी वेट नहीं करते। कुछ तो ऐसे साहसी कि पेड़ की आड़ या छोटी-सी झाड़ के भी मोहताज नहीं। ‘घटाओ तुम्हे साथ देना पड़ेगा ; मैं फिर आज........’। क्या तो चौराहा, क्या मैदान और क्या मेला.....
लोग थे और हैं कि सड़क पर ही बिना किसीकी परमिशन लिए गड्ढे-वड्ढे खोदकर तम्बू-बम्बू तान देते हैं, कई बार तो रास्ते-वास्ते भी बंद कर देते रहे। और कोई कुछ पूछ ले तो, अबे स्साल्ले, रिक्शा पीछेवाली सड़क से निकाल्ले ना, देखता नहीं कथा चल्लई है, आया बड़ा रिक्शेवाला.....। सड़क पर मंडप लगे हैं और वहीं आग़ जल्लई है और वहीं पवित्र रोशनी में लेना-देना भी चल रहा है। कल्लो क्या कल्लोगे ? कन्नेवाले ख़ुद ही दोस्तों और रिश्तेदारों में शामिल हैं। सड़क पर लेन-देन करना क्या मज़ाक़ है ? आंदोलन से कम नहीं लगता।
सड़क पर साहसपूर्ण अहिंसात्मक संघर्ष के हम आदी रहे।
लेकिन दुनिया ? उसका क्या करोगे ? देखता हूं कि सड़क को लेकर विद्वानों और आंदोलननुमांकारियों की अवधारणाएं आज भी उठान पर हैं। पर मुझे समझ में नहीं आता कि जो काम आप अपने घरों और दुकानों में कर सकते हैं उसके लिए सड़क पर क्यों नाचते हैं !? मान लीजिए आप एक अभिनेता हैं और आप ईमानदारी पर अपनी जान न्यौछावर कर देना चाहते हैं। तो सीधा उपाय है कि जो भी प्रोड्यूसर/डायरेक्टर/फ़ायनेंसर आपको बुक करने आया है उसको अपने ड्रॉइंग-रुम में ही बोल दीजिए न कि मैं तो सिर्फ़ और सिर्फ़ व्हाइट मनी वाली फ़िल्म में ही काम करुंगा, भले आप मेहनताना कम दे दें, पर मैं ब्लैक मनी किसी भी हालत में नहीं लूंगा। मेरे कई बंगले हैं, कई ज़मीनें हैं, पीढ़ियों का इंतज़ाम हो चुका है, अब मैं ईमानदारी से जीना चाहता हूं। अगर आप दहेज की बीमारी दूर करना चाहते हैं तो कार्ड लेकर आई सहेली से अपनी किचेन में ही धीरे से कहके देखिए कि बहिना, मैंने तो दहेजवाली शादियों में जाना बंद कर दिया है, कहीं तू भी इसी तरह की शादी तो नहीं कर रही ? अगर आपकी दिलचस्पी इक्वैलिटी में यानि कि जातिवाद को हटाने में है तो आप कह सकते हैं कि जिन्होंने अपने वैवाहिक विज्ञापन में अपनी जाति का ज़िक्र किया है, इन्वीटेशन कार्ड में भी जाति का ज़िक्र किया है, जो अपने वैवाहिक आयोजन या दूसरे समारोह जाति-आधारित रीति-रिवाज़ों पर चढ़कर गर्व से मनाते हैं, वे मुझसे ऐसी कोई कोई उम्मीद न रखें कि मैं मूर्खों की तरह, ख़ामख्वाह ही तुम्हें जाति-विरोधी या इक्वैलिटी-समर्थक मान लूंगा। होंगे दूसरे अक्ल के अंधे, मैं पाखण्ड को समझने में कोई भेद-भाव नहीं बरतता।
इस बात की गारंटी कोई भी ले सकता है कि जब आप ऐसा करेंगे तो कोई पुलिस आपको पकड़ने नहीं आएगी, कोई आप पर अश्रु-गैस के गोले नहीं छोड़ेगा, पानी की बौछार नहीं करेगा, लाठी चार्ज नहीं करेगा, जेल में बंद नहीं करेगा। यह सब आप घर बैठे बड़े मज़े से कर सकते हैं।
करके देखिए, तब समझ में आएगा कि सड़क पर ज़्यादा हिम्मत चाहिए कि घर में ज़्यादा चाहिए ?
अगर आप घर के कमरे में नहीं कर सकते तो सड़क से कैसे कर लेंगे ?
-संजय ग्रोवर
07-02-2014