फ़ॉलोअर
गली सुनसान थी और सड़क उदास.
मेरा ध्यान कैसे न जाता कि वह आदमी लगातार मेरा पीछा कर रहा था. इंटरनेट के प्रचलन के बाद जो भाषा प्रयोग की जाने लगी है उसमें कहूं तो वह मुझे ‘फॉलो’ कर रहा था.
मैं जानबूझकर उस गली में मुड़ गया जिसमें मुझे नहीं जाना था. पीछे मुड़कर देखा, वह वहां भी आ रहा था.
आखिर चाहता क्या होगा ! मुझपर ऐसा है क्या जो इसके काम आएगा !
कैसे पता करुं ? मैं एक जगह रुका और टांग खुजाने लगा. वह भी रुक गया और टांग खुजाने लगा.
‘अजीब आदमी है!’
कहीं मैं ख़्वामख्वाह शक तो नहीं कर रहा! कुछ और पता लगाना चाहिए.
एक दुकान दिखी. मैंने एक लस्सी ले ली. उसने भी लस्सी ले ली.
मैंने दुकानदार से पूछा-‘भैया, थोड़ा ज़हर है!’
वह हंसने लगा. ज़ाहिर था कि ज़हर उसपर कैसे होता.
मैं भी बस यूंही झुंझला गया था. देखना चाहता था कि यह किस हद तक फ़ॉलो करता है!
गली तक! घर तक! ज़िंदगी-भर!
यह ख़्याल ही मुझमें सिहरन पैदा कर रहा था कि इसने अगर ज़िंदगी-भर मुझे फ़ॉलो किया तो मैं जियूंगा कैसे. इसको तो लगता है किसी वजह से या बिना वजह ही फ़ॉलो करने की आदत है मगर मेरी प्राइवेसी का क्या होगा!
यह खिड़की में आंख दिए रहेगा तो मैं नहाऊंगा कैसे, कपड़े कैसे बदलूंगा्! यह भी वहीं नहाने लगा तो! कहीं कपड़े भी मेरे मांगने लगा तो! कलको मुझे सब कुछ इसीके अनुसार करना पड़ेगा कि ‘भाई साहब! आपकी इजाज़त हो तो मैं नहा लूं वैसे मेरा तो टाइम हो गया!’ ‘भाईसाहब! मैं फ़लां विचार व्यक्त करुंगा तो आप कम तो नहीं हो जाओगे ?’
इसकी तो पता नहीं पर मेरी ज़िंदगी क़ैद से भी बदतर हो जाएगी.
परेशान हूं कि पीछा कैसे छुड़ाऊं?
-संजय ग्रोवर