बुधवार, 8 अगस्त 2012

पागल है क्या!


व्यंग्य




मानसिक रोगों का इतिहास शायद उतना पुराना तो होगा ही जितना इंसानियत, धर्म, सभ्यता, संस्कृति, नस्लवाद, वर्ण व्यवस्था आदि का है। यह तो इतिहासकार ही बता सकते हैं कि मनोरोग पहले आए या धर्मग्रंथ पहले आए। ‘ऊंच-नीच’ और ’छोटा-बडा़’ पहले आए या पागलपन पहले आया। कृपया इस सबमें मुर्गी और अंडे का संबंध न ढूंढा जाए। वरना बात वाद और धारा पर भी आ सकती है। 

अपने यहां मानसिक रोगों को लेकर समाज का रवैय्या काफ़ी उदार रहा है। मैं बचपन से ही देखता आया हूं कि जिन लोगों से किसी बदमाश या बेईमान का बाल भी बांका नहीं हो पा़ता, सड़क पर बाल बिखराए घूमती किसी पगली औरत के कपड़े खींचने में पूरी वीरता के साथ संकोच नहीं करते। एक बार एक ऐसे ही सामूहिक-चीत्कार के दौरान एक विदेशी ने पूछा, ‘हू इज़ मैड? दिस वुमॅन ऑर द मॉब?’ मैं छोटा था, मैंने सोचा कि विदेशी पागल है, फ़ालतू सवाल पूछ रहा है! बाद में मैंने देखा कि यहां पागलपन इतना बड़ा पागलपन नहीं है जितना उसके बारे में गंभीरता से बात करना। आप किसीसे कहके देखिए कि ‘यार मनोचिकित्सक के पास जा रहा हूं या वहां से आ रहा हूं’ या ‘कई महीनों से डिप्रेशन है’ या ‘यार, मुझे फ़लां चीज़ से फ़ोबिया है’ बस....ऐसा आदमी जिसकी मामूली और जेनुइन बातों पर भी समाज का विरोध करने में टट्टी निकलती है, एकदम क्रांतिकारियों वाली मुद्रा में आ जाएगा कि ‘बेट्टा! अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे’। बुद्धिजीवी या समाजसेवी क़िस्म का आदमी हुआ तो छुपाएगा और हमदर्दी जताएगा। मगर आप भी बेशर्मी से उसकी आंखों में झांकिए, आप पाएंगे कि वहां ख़ुशी का समंदर ठाठें मार रहा है और एक पत्थरमार बड़ी तेज़ी से पत्थर इकट्ठे कर रहा है। वह हड़बड़ी में है क्योंकि उसे जाकर ये पत्थर आपके और अपने दोस्तों में भी बांटने हैं।

शायद यह उदारवादी समाजों की ही ख़ासियत होती होगी कि एक बड़ा पागल जो अपने पागलपन को लेकर बिलकुल बेहोश है, न सिर्फ़ एक सफ़ल और ‘स्वस्थ’ ज़िंदगी गुज़ार सकता है बल्कि छोटे मगर अपने पागलपन को लेकर होशमंद पागलों को बड़ा पागल घोषित करके निर्विकार भाव से उनका ख़ून भी चूस सकता है। यह एक सहिष्णु और सर्वोदयी समाज में ही संभव है कि अधिकांश बुद्धिजीवी मनोरोगी को लगभग उसी नज़रिए से देखता है जैसे गांव का ओझा डायन घोषित कर दी गयी औरत को। इतना फ़र्क ज़रूर है कि ज़्यादा सयाना ओझा भी झाड़-फूंक पर पत्रिका या विशेषांक नहीं निकालता। यह अलग बात है कि शहरी बुद्धिजीवी को मनोरोग और मनोचिकित्सा पर पत्रिका निकालने का साहस और प्रेरणा भी परंपरा और पुराने ग्रंथों से मिलते हैं। बाज दफ़ा लगता है कि यह समाज सोचने से डर कर भागे हुए लोगों का चिंतन शिविर है।

पीले पड़ गए पन्नों वाला वह ‘हंस’ मेरे घर में आज भी कहीं पड़ा होगा जिसके ‘आत्म तर्पण’ नामक स्तम्भ में उदयप्रकाश नाम के लेखक ने अपने मनोरोग का भी ज़िक्र किया था। मैंने तब भी सोचा था कि यह आदमी वाक़ई पागल है। यहां एक से एक धुरंधर बैठे हैं और यह अपनी छोटी-मोटी उपलब्धियों का ज़िक्र कर रहा है। क्या जीते-जी अपने आस-पास पत्थरों का मकबरा बनवाना चाहता है ! पोंगा-प्रगतिशीलों और बरसाती-बौद्धिकों के देश में यह कौन-सा राग छेड़ रहा है!? कुछ वक्त बाद इसीकी ख़ुदकी दी जानकारियों को कई महापराक्रमी और पुरुषार्थी ऐसे पेश करेंगे जैसे ब्रह्मांड की खुदाई करके किसी रहस्य का मौलिक उत्तर खोज लाए हैं। वही हुआ। मगर आरोपों, आक्षेपों और अफ़वाहों के पत्थर खा-खाकर भी वह पागलों का प्रिय लेखक बन गया।

कई बार तो ऐसा लगता है कि सामाजिकता के सारे नियम और लक्षण पागलों ने तय किए हैं। अगर आपको एक स्वस्थ मस्तिष्क का व्यक्ति कहलाना है तो सब कुछ तयशुदा मान्यताओं और परिभाषाओं के दायरे में करना होगा। यहां तक कि चिंतन के लिए भी खांचे और ढांचे तय हैं। कोई ऐसी बात जो पहले किसीने सोची नहीं या सोची तो बोलने-लिखने की हिम्मत नहीं की, आपने अगर लिख-बोल दी तो फ़िर देखिए तमाशा! प्रगतिशील से प्रगतिशील भी लट्ठ लेकर आपके पीछे दौड़ेगा, आपको पागल घोषित करेगा। कई बार लगता है कि कथित स्वस्थ व्यक्ति वह होता है जिसे परिभाषा रूपी पापा और मान्यता रूपी मम्मी ताउम्र गोद में उठाकर हल्की-हल्की सीटी बजाकर सुस्सू कराया करतीं हैं। उन्हें पता है कि ज़रा हम इधर-उधर हुए नहीं कि यह ग़लत जगह गंदगी मचा देगा। यह कभी मेच्योर ही नहीं होता। किसीको मारकस मामा बताया करते हैं कि बाएं हाथ कैसे चलना है तो किसी को गोलमोलकर चाचा निर्देशित करते हैं कि दाहिनी ओर चलने के क्या फ़ायदे हैं। ज़िंदगी क्या है कि बस धर्मों, वादों, गुटों, राष्ट्रों, सभ्यताओं, संस्कृतियों, मर्यादाओं, परिभाषाओं जैसी छोटी-बड़ी ख़ापों का जोड़ है। शादी-ब्याह जैसे बड़े मुद्दे तो छोड़िए, वृहत्तर समाज को छोड़िए, अगर किसी परिवार में दही और दाल साथ-साथ खाने चलन नहीं है मगर अचानक एक दिन घर का कोई सदस्य दाल के साथ दही खाना शुरू कर देता है तो यह लगभग असंभव है कि घर के बाक़ी सदस्य उसे उस नज़र से न देखें जिससे किसी पागल को देखा जाता है। 

आप सोचते होंगे कि पागलपन पर इतनी गंभीरता से लिख रहा यह आदमी भी छोटा-मोटा पागल होगा।
मैं कहूंगा छोटा और मोटा को जोड़ लीजिए।
-संजय ग्रोवर


गुरुवार, 2 अगस्त 2012

मुझको कुछ-कुछ गणित लगा..


ग़ज़ल

जो भी था सब अभिनय था
सब कुछ पहले से तय था


ख़ुद समझा हो, काफ़ी है
जो भी उसका आशय था


नीयत भी कुछ साफ़ न थी
भावुक भी वो अतिशय था


मुझको कुछ-कुछ गणित लगा
वो कहता है परिणय था



हम उसका करते भी क्या
उसको तो ख़ुदसे भय था



-संजय ग्रोवर

देयर वॉज़ अ स्टोर रुम या कि दरवाज़ा-ए-स्टोर रुम....

ख़ुद फंसोगे हमें भी फंसाओगे!

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ढूंढो-ढूंढो रे साजना अपने काम का मलबा.........

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