सोमवार, 21 अक्तूबर 2013

ख़ज़ाने हमको यां इतने मिलेंगे.....






ख़ज़ाने हमको यां इतने मिलेंगे
सुबह से शाम तक हंसते रहेंगे

नया कह-कहके देते हो पुराना
हम अपने-आप ही अब ढूंढ लेंगे

डराने से ख़ुशी मिलती है तुमको !
डराओ हमको, हम हंसने लगेंगे

बदलती जाएगी ये सारी दुनिया
और हम बस पैंतरे बदला करेंगे

वो ख़ुद ही सीढ़ियां हैं, ख़ुद ही मंज़िल
वो अपने सर की चोटी पर चढ़ेंगे


-संजय ग्रोवर

17/21-10-2013

 

शुक्रवार, 4 अक्तूबर 2013

कुछ भगवान नास्तिकों के


जब ‘नास्तिकों का ब्लॉग’ पर पहली बार लिखा कि बच्चा जन्म से नास्तिक ही होता है, आस्तिकता यानि ईश्वर और धर्म से संबंधित सारा ज्ञान उसपर ज़बरदस्ती थोपा जाता है तो नास्तिकों को यह बात ख़ूब जमी। लेकिन मज़ेदार बात यह है कि नास्तिकों ने भी बहुत सारे थोपे गए मूल्य स्वीकार कर रखे हैं। उन मूल्यों में शादी है, सफ़लता या मंज़िल है, नाम, अवार्ड, प्रतिष्ठा है, इतिहास में नाम है, कैरियर है.....
ये सारी चीज़ें भी हम पर बचपन से थोपी गईं हैं। बहुत कम लोग इन मूल्यों पर पुनर्विचार करते हैं। जैसे कि कुछ दस साल पहले तक भी भारतीय लड़कियों के लिए आखि़री मंज़िल विवाह होती थी। आज भी स्थिति कोई बहुत ज़्यादा नहीं बदल गई। कभी-कभार कोई लड़की कहती थी कि मैं शादी नहीं करुंगी। मगर साथ देनेवाला कोई नज़र नहीं आता था, ख़ुद मांएं-बहिनें भी डरातीं थीं। सच तो यह है कि जिस समाज में कुंवारें मर्दों के लिए भी जीना सूली पे लटकने जैसा हो, उसमें स्त्री की हिम्मत भी कैसे हो सकती थी कि वह अकेले रहने की सोचे। और सोचने की बहुत ज़्यादा जगह इस समाज में थी ही कहां। कोई मर्द भी सोचने लगे तो स्त्रियां ही परेशान कर देतीं थीं कि आप दूसरों की तरह क्यों नहीं हैं, ऐसा क्यों नहीं करते जैसा सब करते हैं, वहां क्यों नहीं जाते जहां सब जाते हैं, वगैरह........।

स्त्री पढ़ती भी थी तो इसलिए कि शादी अच्छी जगह हो सके। बी.ए, एम.ए. कर लेगी तो लड़का अच्छा मिल जाएगा, जल्दी मिल जाएगा......। वह रात-दिन अपने घरवालों के साथ, शादी की चिंता में घुलती थी। मैं सोचता हूं तो भयानक हैरानी होती है कि बचपन के थोपे हुए संस्कार आदमी को किस तरह जकड़ लेते हैं कि लड़कियां इंतज़ार करतीं थीं कि वह दिन कब आएगा जब वह उस घर को छोड़कर, जिसमें उन्होंने 20-30 साल बिताए, हमेशा के लिए छोड़कर किसी अनदेखे, अनजाने घर में चली जाएंगी। क्या कोई लड़का ऐसा सोच सकता है ? क्या यह कोई आसान काम है ?

मगर बचपन के दिए संस्कार ही आपके सपनों को भी रचते हैं। सपने क्या सभी लोगों के एक जैसे होते हैं? एक आदमी सपना देखता है कि सारी दुनिया उसकी सोच या उसके धर्म वगैरह के हिसाब से चले तो दूसरा आदमी सपना देखता है कि एक ऐसी दुनिया बने जिसमें सब तरह के लोगों के लिए जगह हो। लड़कियां और उनके घरवाले चाहते थे कि उनकी शादी अगर पढ़ाई के दौरान ही हो जाए तो कहना ही क्या। अगर यह न हो सके तो पढ़ाई पूरी होने के एक-दो साल में तो हो ही जानी चाहिए। वरना लोग जीना मुश्क़िल कर देंगे।


मुझे तो कई बार लगता है कि बचपन से यह सोच न थोपी गई होती और लोग परेशान न करते होते तो लड़कियों को ऐसी क्या आफ़त आ रही होती थी कि शादी को मरी जातीं !? शादी में ऐसा क्या ख़ज़ाना छुपा है !? जो ख़ज़ाना छुपा भी था वो आज सभी को मालूम है। भारतीय लड़के-लड़कियों को शादी के बिना विपरीत-लिंगी का प्रेम और यौन-सुख उपलब्ध नहीं था। वरना सास-ससुर की सेवा को कौन मरा जा रहा था!? अपने घर में ही मां-बाप और अन्य बुज़ुर्ग उपलब्ध थे, उनकी ही सेवा कब पूरी पड़ती थी। पुरुषों को भी इस सेवा में बराबरी से शामिल कर लिया जाता तो बची-ख़ुची गुंजाइश भी ख़त्म थी। आप मेरे मां-बाप की सेवा करो, मैं किसी और के मां-बाप की सेवा के लिए अपना घर हमेशा के लिए छोड़ दूं, इस तमाशे की ज़रुरत क्यों आ पड़ी !? कुवारे लड़के भी ज़्यादा उम्र में शादी न होने पर मां-बाप के घर में रहते ही थे। फ़िर भी लड़कियां ही क्यों काटती हुई लगतीं थीं !?

फ़िर समाज का दिया हुआ, बचपन का थोपा हुआ एक और मूल्य है-प्रतिष्ठा, ख़ानदान की इज़्ज़त। प्रतिष्ठा क्या होती है ? क्या इसे नापने का कोई एक पैमाना संभव है!? लेकिन लोग इसके लिए लड़ते-मरते हैं, एक-दूसरे की टांग भी खींच लेते हैं, धोखा करते हैं, झूठ बोलते हैं, पाखंड करते हैं, पैसा ख़र्च कर-करके या ‘इस हाथ दे उस हाथ ले’ के आधार पर अपनी तारीफ़ लिखवाते-कराते हैं। और फ़िर इन्हीं ऊटपटांग चीज़ों के जोड़ से जो कचरा पैदा होता है उसे कहते हैं प्रतिष्ठा। जैसे आप तरह-तरह के ज़हर जमा कर लें फ़िर उन्हें हिला-मिला लें, फ़िर कहें कि लो अमृत तैयार हो गया, आंखें बंद करके इसे पी जाओ। सचमुच के अमृत का ही नहीं पता कि उससे कुछ होता था या नहीं होता था मगर यह एक और अमृत हमने पैदा कर लिया।

लड़कियां डरतीं थीं कि जल्दी शादी न हुई तो औरों की तो छोड़ो, अपनी क़रीबी सहेलियों में ही इमेज गिर न जाए। क्योंकि अपनी खोपड़ी तो यहां कोई इस्तेमाल करता नहीं। जिसकी शादी हो जाती, और किसी आई.ए.एस., पी.सी.एस., इंजीनियर, डॉक्टर, सी.ए., उद्योगपति-वति से हो जाती, उससे कोई पूछने की ज़रुरत भी न समझता कि तेरे क्या हाल-चाल हैं, पति कैसा व्यवहार करता है, काम कितना करना पड़ता है वगैरह.......। उसकी ज़रुरत भी क्या है? क्योंकि प्रतिष्ठा की जो शर्त्तें हैं, वो तो पूरी हो चुकीं। व्यक्तिगत का अपने यहां कोई कॉलम है नहीं। हम ठहरे सामाजिक लोग। तो लो जी, भारतीय स्त्री को तो यहां मिल गई अपनी ‘मंज़िल‘। अब वो ऐसी-तैसी कराए, भाड़ में जाए। हमें जो सिखाया-पढ़ाया गया था, उसके हिसाब से हमने तो अपनी ज़िम्मेदारी कर दी पूरी।

फ़िर एक और मूल्य आदमी ने पैदा किया-सफ़लता। ये प्रतिष्ठा की भी माताजी ठहरीं। ये, ख़ानदानी इज़्ज़त जैसे कई बच्चों के पिताजी ठहरे।
(जारी)
-संजय ग्रोवर
04-10-2013

मंगलवार, 1 अक्तूबर 2013

आईने सब ख़राब कर डाले

ग़ज़ल

दफ़्न बेहूदे ख़्वाब कर डाले
कुछ पुराने हिसाब कर डाले

एक मंज़िल तो तुमने पाई मगर
कितने रस्ते ख़राब कर डाले !

उसकी तस्वीर ज़रा धुंधली सही
सारे आंसू शराब कर डाले

रोने वाले बुरे न थे, तुमने
हंसते-हंसते ख़राब कर डाले

झूठ में सच को हमने यूं पाया-
सारे रिश्ते नक़ाब कर डाले

हर तरफ़ हाथ मारकर तुमने
आईने सब ख़राब कर डाले

-संजय ग्रोवर

28-09-2013

रविवार, 29 सितंबर 2013

ग़रीबी वगैरह के मामले में अमीर कम्युनिस्ट वगैरह




फ़ेसबुक इत्यादि के स्टेटस इत्यादि से पता चलता है कि भारत का कम्युनिस्ट अकसर भूखा-प्यासा रहता है। उसकी ज़िंदगी निरंतर, निहायत दयनीय, शौचनीय वगैरह बनी रहती है। ज़ाहिर है कि भूखा-प्यासा आदमी शारीरिक रुप से तो कमज़ोर हो ही जाता है। ऐसे में गाड़ी वगैरह चलाने में भी दिक्क़त होती होगी। ताक़त तो उसमें भी लगती है ; इग्नीशन में चाबी घुमानी पड़ती है, पैर से ऐक्सीलरेटर और ब्रेक वगैरह दबाने पड़ते हैं। इसमें काफ़ी संघर्ष लगता होगा। इंटरनेट इत्यादि से ही पता चलता है कि भारत में बहुत सारे कम्युनिस्टों के पास गाड़ियां वगैरह हैं। गाड़ियों का क्या, वो तो आजकल कई आम आदमियों के पास भी चार-चार हैं, एक-दो कम्युनिस्टों के पास भी हों तो आपको क्या तक़लीफ़ है! यू तो दान इत्यादि से तथाकथित कम्युनिस्ट को नफ़रत है मगर गाड़ी, शराब और लैपटॉप की बात अलग है। इस दान से विज्ञान और तकनीक़ का समुचित प्रचार-प्रसार वगैरह होता है। ग़रीबी और विज्ञान वगैरह के चक्कर में ही कम्युनिस्ट को दो-दो, चार-चार मोबाइल वगैरह ख़रीदने पड़ जाते हैं जिससे कि वह समय-समय पर अपनी ग़रीबी के सतत संघर्ष के ऐतिहासिक फ़ोटू इंटरनेट पर इधर-उधर डालकर विज्ञान का प्रसार कर सके। भारतीय तथाकथित कम्युनिस्ट की एक ग़रीबी कई बार मैंने व्यक्तिगत रुप से नोट की है कि अमीरों को ग़ाली देने के क्षेत्र में वह काटा-झिरला-खुंबानी को बेचारा अफ़ोर्ड नहीं कर पाता हांलांकि दिल्ली-बंबई में ये और संबंद्ध अख़बारी सेठ उसके ज़्यादा नज़दीक पड़ते होंगे। मगर किसी रहस्यमय मजबूरी के तहत वह आठ-दस हज़ार में काम चलानेवाले किसी दल-वाद-समर्थन विहीन आदमी को अमीर आदमी घोषित कर देता है और उसे ग़ालियां बक-बक के साम्यवाद का विस्तार करता है।

कम्युनिस्ट या तो गांव में और झोंपड़ी में रहता है या कंगारु की तरह छलांग लगाकर सीधे दिल्ली में जाकर एंकर या संपादक हो जाता है। इससे भी काम नहीं चलता तो बंबई चला जाता है और वहां दर्दनाक़ संघर्ष करने लगता है। ऐसे में कई बार उसका रहन-सहन देखकर लोगों को ग़लतफ़हमी हो जाती है कि कहीं यह आदमी सत्ताधारी, विपक्षी या कोई सेठ वगैरह तो नहीं है। इमेज हैंडल करना कोई आसान काम नहीं है, लेकिन कम्युनिस्ट वह भी कर दिखाता है। अपने संघर्ष के एक-एक क्षण के स्टिल फ़ोटोग्राफ़ और विज़ुअल उसके पास सुरक्षित रहते हैं जो उसीकी तरह ग़रीब और श्वेत-श्याम होते हैं। इस इमेज के लिए संघियों से अलग दिखना बहुत महत्वपूर्ण होता है। इसलिए वह संस्कृतनुमा हिंदी को लात मारकर संस्कृतनुमा उर्दू में प्रविष्ट हो जाता है। वह ऐसी-ऐसी ग़ज़लें सुनता है जो अपने अर्थों में भले ग़रीब हों मगर लफ्ज़ों में अमीरी से भरी रहती हैं। वह अध्यात्मिक भजन त्यागकर सूफ़ी संगीत में गोल-गोल घूमने लगता है। समाधियों के बजाय मज़ारों को पकड़ लेता है। कोई कह दे कि इन दोनों में फ़र्क़ क्या है तो वह या तो जवाब नहीं देता या उसे संघी घोषित कर देता है। ये दोनों हैं तो अदाएं हीं पर लाजवाब इसलिए हैं कि कम्युनिस्ट ख़ुदको यथार्थवादी मानता है। वह छंद को छोड़कर बहर पर लटक जाता है। ग़रीबी हटाने से ज़्यादा उसे रात-दिन यह चिंता खाए जाती है कि कोई उसे संघी न कह दे।

दस-बीस साल पहले तक अकसर लोग घर आए मेहमानों से दूध के बारे में पूछते डरते थे। दूध का मनोवैज्ञानिक असर भारतीय मानस पर कुछ ऐसा था कि लोग मेहमानों को उससे महंगी चीज़ खिला देते थे मगर घर में रात रुक गए मेहमान से दूध की बाबत इस तरह पूछते थे,‘‘भाईसाहब/बहिनजी, आप रात को दूध तो नहीं लेते ? नहीं ना। हां, वही तो मैंने सोचा, ,भाईसाहब/बहिनजी को तो मैंने दूध लेते कभी देखा नहीं।’’ इधर भाईसाहब/बहिनजी भी सोचते थे कि अगर आज मैंने इनके घर में पी लिया तो कलको ये भी तो मेरे घर आएंगे। यह कस्बों-शहरों की बात है। गांवों में भूले-भटके कोई चला जाए तो लोग दूध लेकर सवार हो जाते थे और कभी-कभी तो दवाई की तरह ज़बरदस्ती पिला देते थे। दूध शायद अमीरी का प्रतीक होगा और प्रतीकों में कथित भारतीयों की जान बसती है। कुछ-कुछ दूध जैसी खिचड़ी मानसिकता शराब को लेकर कम्युनिस्टों की है। उनकी फ़िल्मी और ग़ैरफ़िल्मी शायरी में शराब बिलकुल अध्यात्मिकता की तरह बहती है। अगर गानों से कम्युनिस्टों को जाना जाए तो लगता है कि शराब अगर कोई दूसरा पिलाए तो आदमी एकदम ख़ानदानी आवारा बन जाता है और ऊंची रुहानी शायरी करता है वरना अपने पैसे से पिए तो वह अमीरी की पंूजीवादी नालियों में सड़ता है। लगता है कम्युनिस्ट शायरों के लिए बंबई की फ़िल्म इंडस्ट्री ने व्हाइट मनी वाले सेठ अलग से रखे हुए हैं। जिस फ़िल्म में कम्युनिस्ट काम करते हैं उनमें सिर्फ़ व्हाइट मनी लगाई जाती है। या फ़िर ये पैसा उन्हें मजदूरों वगैरह के चंदे से दिया जाता है।

मुझे जब शराब पीनी होती है तो मैं पांच सौ रुपए की बोतल के साथ सौ रुपए के काजू भी ख़रीद लेता हूं। एक तो मेरी प्रतीकात्मकता में कोई ज़्यादा दिलचस्पी नहीं है दूसरे मुझे पता है कि सड़ी हुई नमकीन भी आजकल बीस-तीस रुपए की आती है। पैसे भी मुझे ख़ुदही खर्च करने होते हैं इसलिए मुझे अपना बजट भी मालूम रहता है। पैदल जाकर ख़ुद ही लाइन में लगकर दारु ख़रीद लेता हूं और हाथ झुलाकर घर आ जाता हूं। कम्युनिस्ट होता तो शर्म के मारे गाड़ी में जाना पड़ता और मारे शर्म के जाने से पहले भी दो पैग़ मारने पड़ते। मैं इतना अमीर हूं कि मेरे दो पैग़ दो महीने चलते हैं। इतना अय्याश हूं कि दो पैग़ में दो सौ पैग़ों की बदनामी बिना किसी संपादकत्व, एंकरत्व, आयकनत्व, महापुरुषत्व, प्रोफ़ेसरत्व के अफ़ोर्ड कर सकता हूं। जहां फ़िल्मकारों, नेताओं, पत्रकारनुमाओं और यथार्थवादी साहित्यकारों को भी शराब छुपकर पीनी पड़ती हो वहां मुझसे ज़्यादा मस्त, असली और दोटूक जिंदगी क्या हो सकती है।

क्योंकि न तो मैं कम्युनिस्ट हूं न मैंने यह लेख हिंदूवादियों को ख़ुश करने को लिखा है। मैं महज़ आदमी हूं। जिस किसीको आदमी के लिखे से छूत लगती हो वो मंतर वगैरह मारकर ख़ुदको शुद्ध कर ले। या कुछ प्रतीक वगैरह घिस ले। लेख तो अब आपने पढ़ ही लिया है।

न तो मैंने इसके लिए ज़बरदस्ती की थी न आप नशे में थे।

-संजय ग्रोवर 

29-09-2013

बुधवार, 28 अगस्त 2013

एक नई जाति



हर आदमी चाहता है, जीवन में कुछ अच्छा काम करुं। इस चक्कर में कई लोग मंदिर-मस्ज़िद जाते हैं, दान-पुन्न वगैरह करते हैं, कई तरह से कई तरीक़े करते हैं। लेकिन कई बार फ़िर भी मन नहीं भरता। रात को नींद नहीं आती, जीवन खोखला-सा लगता है। इस चक्कर में मैंने भी काफ़ी सोचा और एक आयडिया निकल आया। अपने यहां प्रतीकात्मकता का बड़ा महत्व है। प्रतीकात्मकता नाम की इस महान अवधारणा में माना गया है कि आप बाहर कुछ प्रतीक सजा-धजा लेंगे तो ये आपके भीतर पवित्रता का सूखा हुआ सोता खोल डालेंगे। जैसे आप गांधी टोपी पहन लेंगे तो आप गांधीजी की तरह हो जाएंगे। टोपी में तो फिर भी पैसे लगते हैं। मुझे जो आयडिया सूझा है, उसमें कोई ख़र्चा भी नहीं है।

आप एक काम कीजिए। आजकल तो वैसे भी भ्रष्टाचार-विरोध का सीज़न है। मैं जो आयडिया दे रहा हूं, हर मौसम और हर काल में काम आएगा। आपको कुछ भी नहीं करना अपने नाम के साथ बस ईमानदार, सज्जन, शरीफ़, मासूम जैसा कोई शब्द लगा लेना है। फ़िर देखिए, किस तरह सब बदलने लगेगा। मान लीजिए आपने अपने नाम के आगे ईमानदार को जोड़ लिया। आप तो जानते ही हैं कि यहां लोग नाम से कम और उपनाम या सरनेम से ज़्यादा बुलाते हैं।

आप किसी मित्र के घर जाएंगे, वह दरवाज़े से झांकते ही बोलेगा, ‘अरे यार ईमानदार! बड़े दिन बाद आए।’ दोस्त के दोस्त भी कहेंगे कि हां यार, ईमानदारों की तो संख्या ही इतनी कम है, रोज़ाना आ भी कैसे सकते हैं, बड़े दिन बाद ही आएंगे। इस तरह आप देखेंगे कि पहले ही दिन से आपको एक राहत मिलनी शुरु हो जाएगी।
आप जहां से भी निकलेंगे, आपको जाननेवाले यही कहेंगे-‘देखो, ईमानदार आ रहा है। वो देख, ईमानदार जा रहा है।’

देखते-देखते यह उपनाम आपके बीवी-बच्चों के साथ जुड़ जाएगा। परंपरा जो ठहरी। लोग कहेंगे, ‘देखो, सबके सब ईमानदार हैं, बीवी-बच्चे सब। पहले भाईसाहब ईमानदार हुए, थोड़े दिन बाद भाभीजी और बच्चे भी ईमानदार हो गए।’ बात टैक्नीकली बिलकुल सही है। सुननेवाला कहेगा-‘कमाल का परिवार है, यार!’ इस तरह आपका एक स्टेटस बनना शुरु हो जाएगा।

इस जादू का असर ज़रुर आपके मित्रों, परिचितों, रिश्तेदारों पर भी पड़ेगा। उन्हें भी लगेगा यार ईमानदारी तो अच्छी चीज़ है, हमें भी बनना चाहिए। इस तरह समाज में ईमानदारों की संख्या बढ़ने लगेगी। यह आपका एक सामाजिक योगदान भी होगा। नींद ज़रा और अच्छी आने लगेगी।

जैसे-जैसे समाज की दशा बदलेगी और ईमानदारों की संख्या बढ़ेगी, दुर्घटनाओं पर लोग कुछ इस तरह बात करेंगे-

‘बॉस, रात एक आदमी ने दूसरे को ठग लिया ; ठगा हुआ बेचारा बहुत रो रहा था....’
‘अच्छा, किसने ठगा ?’
‘कोई ईमानदार था, बताते हैं।’
‘ईमानदार था! हुम....फ़िर तो ठीक ही ठगा होगा ; ईमानदार किसीको ग़लत क्यों ठगेगा।’

पोलिस थाने में पूछेगी,‘कौन हो भाई?’
‘जी, मैं तो ईमानदार हूं।’
‘कबसे ईमानदार है भाई ?’
‘जनम से ही हूं जी।’
बात यह भी टैक्नीकली सही है। अगले ने जबसे होश संभाला है, हर कोई उसे ईमानदार कहकर ही पुकारता है।
‘पिताजी, के बारे में बता।'
‘ईमानदार हैं जी’
टैक्नीकली बात यह भी ठीक है। सरनेम उनका भी ईमानदार है।

इस तरह समाज में ईमानदारों की संख्या तेजी से बढ़ती जाएगी। क्योंकि इनवेस्टमेंट तो कुछ है नहीं, फ़ायदा ठीक-ठाक है।

आप किसी चैनल पर डिबेट देखते होंगे। कितना अच्छा लगेगा जब देखेंगे कि अ पार्टी से बहस में भाग ले रहे हैं श्री ईमानदार, ब पार्टी से सुश्री ईमानदार, सामाजिक कार्यकर्त्ता श्री ईमानदार, अधिवक्ता श्री ईमानदार, फ़िल्म स्टार श्री ईमानदार और साथ में है वही आपका पुराना ऐंकर ईमानदार, जिसे आप करते हैं बहुत प्यार।
ज़ाहिर है कि आपके मुंह से ख़ुदबख़ुद निकलेगा,‘भई, मीडिया में तो ईमानदारी की कोई कमी नही; फ़िर भी जो हो रहा है पता नहीं क्यों हो रहा है!’

ज़्यादा बताने से क्या फ़ायदा, आप सब परिपक्व लोग हैं। आयडिया मेरा एकदम मौलिक है। फ़िर भी कई बार ऐसा होता है कि आप अपनी तरफ़ से मौलिक काम करते हैं मगर बाद में पता चलता है कि यह काम 2-4 या सौ या हज़ार-दस हज़ार साल पहले भी कोई कर चुका है। तो अगर यह स्कीम भी पहले से कहीं चल रही हो तो बता ज़रुर दीजिएगा। मैं विदड्रा कर लूंगा।

-संजय ग्रोवर

28-08-2013

शुक्रवार, 2 अगस्त 2013

हाय! पता नहीं ऐसा क्यों होता है!

व्यंग्य



मानसिक रुप से परतंत्र आदमी की मनोदशा इतनी विचित्र होती है कि कई बार वह स्वंतंत्रता और स्वतंत्र आदमी की कल्पना भी ठीक से नहीं कर पाता। किसी भी सत्ता को ग़ाली देने से पहले भी वह ठीक वैसी ही एक सत्ता तलाशता है। उसे लगता है कि दुनिया में आदमी और विचार बाद में पैदा हुआ, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, मार्क्सवाद, गांधीवाद, अंबेडकरवाद, क्रेमलिन, व्हाइट हाउस, संसद भवन, जे एन यू, पटेल चौक, आई टी ओ मार्ग आदि-आदि पहले पैदा हुए। वह सोचता है चूंकि मैं इसलिए ‘स्वतंत्र’ हूं क्योकि किसीकी गोद में बैठा हूं इसलिए दूसरा आदमी बिना मेरे जैसी तरक़ीब किए स्वतंत्र कैसे हो सकता है, वह बेचारा तो गोदविहीन है ! यह आदमी हैरान होता रहता है कि हाय सत्ता में आते ही सब एक जैसे क्यों हो जाते हैं !? यह आदमी थोड़ा ख़ुद पर नज़र डाल लिया करे तो इसे समझ में आ जाए कि इसमें हाय-बाय करने जैसा कुछ नहीं है, ऐसे लोग सत्ता में आने से पहले भी एक जैसे होते हैं। और दरअसल ऐसे लोग अकसर सत्ता में आने से पहले भी किसी न किसी छोटी-मोटी या अमूर्त्त सत्ता का पूरा लुत्फ़ ले रहे होते हैं। कहने को ये ज़िंदगी-भर सत्ता में न आएं पर दरअसल ये हमेशा किसी न किसी सत्ता में रहते है। यह शीशे की तरह साफ़ है कि जो लोग स्पष्टतः किसी विचारधारा के घोषित समर्थक होते हैं, ज़्यादातर उन्हींके हर विचारधारा में ‘बढ़िया संबंध’ और अच्छा ‘आना-जाना’ होता है। ऐसा आदमी कभी कहता है कि ‘मैं इसके-उसके साथ मंच शेयर नहीं करुंगा’ तो कभी कहता है कि ‘लोकतंत्र में बिना बात-चीत के गाड़ी कैसे चलेगी !’ यह आदमी पैसा शेयर करता है, शादी-समारोह शेयर करता है, त्यौहार शेयर करता है पर मंच शेयर नहीं करता।

लगता तो यही है कि इस आदमी को व्यक्तिगत और सार्वजनिक रुप में क्या-क्या और कैसा-कैसा होना चाहिए से ज़्यादा चिंता इस बात की होती है कि दिखना कहां कैसा चाहिए। परेशानी एक यह भी है कि सामाजिक या सार्वजनिक रुप से तो आदमी दिख भी सकता है मगर ‘व्यक्तिगत रुप से दिखने’ का तो कोई तरीक़ा अभी तक ईजाद हुआ नहीं है ! ऐसा कैसे हो जाएगा कि वही क्षण व्यक्तिगत भी रहें और वही दिख भी जाएं! ऐसे में साफ़ है कि व्यक्तिगत रुप में तो आदमी ऐसा ही ‘दिखेगा’ जैसा दिखना चाहेगा। और जैसा ख़ुद दिखना चाहे वैसा तो आजकल कोई नेता को भी नहीं दिखाता तो इस तथाकथित पवित्र साहित्यकार को क्यों दिखाए!!  ऐसा आदमी कभी तो कहता है कि ‘देखो मेरा कुछ भी व्यक्तिगत नहीं है, सब कुछ लोगों के सामने है, मैं तो ख़ुली क़िताब हूं’ तो कभी कहता है कि ‘व्यक्तिगत पर बात मत करो, इससे ज़्यादा घटिया कोई बात नहीं होती’। कई तो मैं ऐसे देखता हूं कि उनका बस चले तो किसीसे पहली बार हाथ मिलाने से पहले भी उसका सारा व्यक्तिगत बायोडाटा मंगा लें। यही सबसे ज़्यादा व्यक्तिगत के खि़लाफ़ होते है और इन्हींके पास सबसे ज़्यादा औरों की व्यक्तिगत जानकारियां होतीं हैं। इन्हें व्यक्तिगत रुप से एड्स् हो चाहे कैंसर हो, वो तो ‘ईश्वर की अनुकंपा’ और इनका ‘इम्तिहान’ होता है और दूसरे को सामाजिक रुप से ज़ुकाम या कब्ज़ भी हो जाए तो वो उसकी ’सामाजिक और साहित्यिक त्रुटि’ होती है। हिंदी तथाकथित साहित्य में व्यक्तिगत का लफ़ड़ा और मज़ेदार है। यह सारा लफ़ड़ा तब खड़ा होता है जब कोई सही-सही आलोचना कर दे। वरना आप किसीकी जितनी मर्ज़ी तारीफ़ करो, झूठी ही करो, कोई नहीं कहेगा कि भाई मेरा व्यक्तिगत क्यों लिख रहे हो। तारीफ़ तो इनका बस चले तो ये दूसरों को अपने ख़र्चे से इंजेक्शन देके भी करवा लें। क्या दिलचस्प नहीं है कि सच्चे लेखन का आधार तो अपना अनुभव ही होना चाहिए। और अनुभव और उसका आकलन तो ज़्यादातर व्यक्तिगत स्तर पर ही होता है। वरना लिखते रहो कथित पवित्र हवाओं में कथित पवित्रता की कविताएं।  

मज़े की बात यह है कि यही लोग कभी एक ही आदमी की ‘अकेले पड़ जाओगे’ के महान ‘तर्क’ से हंसी भी उड़ा रहे होते हैं और फिर कभी उसी आदमी को ‘सत्ता के दलाल’ जैसे ‘तर्क’ से बदनाम करने की कोशिश में भी जुट जाते हैं। मुझे लगता है कि अब तो तोते भी जानने लगे होंगे कि ‘अकेले पड़ जाओगे’ या ‘सत्ता के दलाल’ कह देना, दोनों में से किसीको भी तर्क नहीं कहा जा सकता। मगर असली दलालों को तो सब कुछ रेडीमेड पाने की आदत होती है। उन्हें आप चाहे ‘कर्म’ के ‘फ़ील्ड’ में डाल दो चाहे ‘विचार’ के चाहे तर्क के, वे हर जगह दूसरों के बनाए माल पर मौज मारते हैं। मज़े-मज़े में एक और मज़े की बात यह भी है कि अकेले मरोगे तुम लेकिन ‘अकेले मरने’ का क्रेडिट भी वह ले जाएगा जिसके पास ख़ुदको मीडिया में ‘अकेला मरा’ घोषित करवा पाने की जुगाड़ होगी। इन अकेलों में भी कईयों के मकान स्थाई रुप से किसी सत्ता के क़रीब होते हैं तो कईयों के अस्थाई तौर पर। बच्चे भी जानने लगे हैं कि कई मकानों के लोग सत्ता के इतने क़रीब होते हैं कि वहां से बतौर विद्रोही विभिन्न मीडिया माध्यमों में आना-दिखना सबसे आसान होता है।

अपन के यहां ऐसे दूसरे रास्ते दोस्ती, जुगाड़ और चमचागिरी वगैरह रहते हैं। चमचागिरी कमरे के अंदर बैठकर अपना काम करती है तो स्वाभिमान कमरे के बाहर खड़ा पहरा देता है कि अंदर क्या देखने जा रहे हो, यहां मुझे देखकर काम क्यों नहीं चलाते ! ऐसा आदमी जिस भी पेशे या गुट या इमारत से जुड़ जाता है उसीके आस-पास तरह-तरह की नकली पवित्रताएं, शुद्धताएं और परिभाषाएं इकट्ठा करना शुरु कर देता है। मुसीबत जब हो जाती है जब वह कभी-कभार अपने ही पेशे, ख़ानदान, इमारत, मकान, दुकान वगैरह के किसी आदमी से किसी वजह से नाराज़ हो जाता है। अब तक वह इतना ज्यादा इस पवित्रता की घोषणा कर चुका होता है कि अब उसी मुंह  से उस पवित्रता के खि़लाफ़ तर्क जुटाना भारी पड़ जाता है (मैं यहां मुंह की जगह थूथन भी लिख सकता हूं मगर मुझे नहीं लगता कि इसमें कोई व्यंग्य या तर्क है।) ऐसे में किसी दोस्त विचारधारा से कुछ दिन के लिए उसका मुंह मांगना पड़ता है, भारी-भरकम, अटपटी पवित्रता से लिथड़ी रचनाओं से वक्त काटना पड़ता है। कई बार तो उसी अध्यात्मिक प्रभामंडल को विस्तार देना पड़ जाता है जिसके विरोध में पर्सनैलिटी निखरी होती है। ऐसा आदमी तब तक क्रांतिकारी रहता है जब तक उसे भरपूर प्रतिष्ठा और झोली-भर पुरस्कार न मिल जाएं। यह आदमी हीन-भावना से इस कदर ग्रस्त होता है कि रात-दिन जिस सत्ता को ग़ालियां देता है, जब तक उसीसे पुरस्कार, वजीफ़े वगैरह न पाले तब तक अपनी नज़रों में ही संदिग्ध बना रहता है। ठीक ये सब मिलते ही वह अपनी मुरझाई हुई डंडी को अपनी जगह लाने के लिए नक़ली दुश्मन तलाशने और नकली लड़ाईयां लड़ने निकल पड़ता है।

ऐसा आदमी अपने यहां, कहां नहीं होता !

-संजय ग्रोवर

02-08-2013

(कोई एक व्यक्ति इस व्यंग्य को अपने ऊपर लिखा समझकर ख़ामख़़्वाह ख़ुशफ़हमियां न पाले, यह कई व्यक्तियों पर लिखा गया है। और सब जानते हैं कि कई व्यक्तियों पर लिखते ही बात सामाजिक हो जाती है।)



बुधवार, 10 जुलाई 2013

भारत का चरित्र

13-07-2013
अकेले भारत में जितना चरित्र पाया जाता है शायद दुनिया के सारे देशों के चरित्रों को जोड़ लेने से भी उतना चरित्र न पैदा हो पाए। चप्पा-चप्पा चरित्र से भरा पड़ा है। भारत के चरित्र के साथ समस्या बस एक ही है--यह शर्मीला बहुत है, क़िताबों, अख़बारों, दीवारों, टीवियों से बाहर ही नहीं आता, वहीं छुपा, पड़ा रहता है। इसी शर्मीलेपन की वजह से यह व्यवहार में कहीं दिखाई नहीं पड़ता। लोग भी अपने यहां के बिज़ी बहुत हैं ; वे भी चरित्र की बातें ख़ाली वक्त में करते हैं। काम के वक्त काम करते हैं। वैसे भी काम से चरित्र का क्या लेना। या तो काम कर लो या चरित्र के पौधे में पानी लगा लो। लगभग सभी भारतीय जानते हैं कि ये दोनों काम एक साथ संभव नहीं हैं। आप उन दुकानों पे जाईए जो दुर्भाग्यवश लोकपाल जैसे पवित्र क़ानून के दायरे में न आ सकी, मगर फिर भी पवित्रता मेंटेन कर रहीं हैं; यहां आपको चरित्र सामने ही कहीं टंगा मिल जाएगा--‘क्या लेकर आए थे, क्या लेकर जाओगे’....ऐसे तरह-तरह के वाक्य आपको कील पे टंगे फड़फड़ाते मिलेंगे; जैसे कोई मसीहा सूली पे लटक रहा हो। जिस ग्राहक के पास फ़ालतू टाइम रहता है वह इन्हें देखकर ख़ुश होता है। कई ग्राहक अवचेतन मन में तो कई चेतन मन में यह जानते होते हैं कि यह सिर्फ़ देखकर ख़ुश होने की चीज़ है। असल में यहां लिखा होना चाहिए था--‘मूर्खो! अगर आए ख़ाली हाथ थे तो क्या जाओगे भी ख़ाली हाथ!! फिर तुमसे बड़ा उल्लू का चरख़ा कौन होगा!? अरे, किसलिए तुम्हे ख़ाली हाथ भेजा गया? इसीलिए कि कुछ भर-वरके लौटो।’ और थोड़ी देर बाद जब ग्राहक और दुकानदार में ख़ुसुर-पुसुर या घिसिर-घिसिर शुरु होती है तो चरित्र ख़ुद ही समझ जाता है कि अब मेरा रोल ख़त्म ; और वह साइड में हो जाता है।

कई दुकानों में जगह कम होती है इसलिए नौकर या दुकानदार बाहर स्टूल डालके बैठ लेते हैं, चरित्र अंदर ही अकसर सामने की दीवार पर चिपका रहता है। चरित्र को कोई बाहर नहीं बिठाता ; उठके न जाने किसके साथ चल पड़े। चरित्र के चरित्र पर कोई भरोसा नहीं करता। मालूम ही है कि अभिनय छोड़ अपनी पर आ गया तो नुकसान के सिवाय और तो कुछ होने नहीं वाला।

पिछले कुछ साल से मैंने चरित्र ख़रीदना बंद कर दिया है। लेकिन लोग आज भी काफ़ी मात्रा में चरित्र ले रहे हैं। सुबह का वक्त चरित्र के लिए इसलिए मुफ़ीद है कि इस वक्त भारत के कई संस्थान और एजेंसियां भारी मात्रा में चरित्र सप्लाई करते हैं। सुबह-सुबह अख़बारवाला लोगों के घरों में चरित्र फ़ेंक जाता है। अख़बार में तरह-तरह के नीतिवाक्य, संपादकीय, कार्टून, लेखादि डले रहते हैं। चरित्र के कई शौकीन इससे आनंद पाते हैं। सबको मालूम है कि चरित्र अख़बार में ढूंढना होता है, अख़बारवाले या संपादक वग़ैरह में नहीं। अगर ग़लत जगह चरित्र को सर्च किया तो भारी निराशा के साथ भारी मुसीबत का सामना भी करना पड़ सकता है। क्योंकि संपादकों के भी अपने चरित्र हैं। संपादक हो और उसका चरित्र न हो!! यह तो ऐसी ही बात होगी कि हाथी हो और उसके दांत न हों। बिना दांतों का हाथी क्या शोभा देगा!? वो भी ऐसी जगह पर जहां बहुत-से लोग तो चरित्र पालते ही शोभा के लिए हैं। चरित्र मुख्य द्वार पर ही जड़ा हो तो घर की सुंदरता ज़रा बैटर दिखाई पड़ती है। अब सोचिए कि संपादक के चरित्र के सामने आपका चरित्र क्या बेच लेगा! संपादकों के चरित्रों को अकसर तरह-तरह के दूसरे चरित्रों का भी सपोर्ट रहता है। इसलिए चरित्र ढूंढना वहीं ठीक रहता है जहां ढूंढने में कोई ख़तरा न हो। फ़िल्मों में आजकल थोड़ा कम हो गया है मगर टीवी में अभी भी काफ़ी चरित्र भरा रखा रहता है। सुबह ले लेना चाहिए क्योंकि दिन में तो व्यवहारिक ज़िंदगी शुरु हो जाती है। व्यवहारिक ज़िंदगी में नमक जितना चरित्र मिलाने पर भी सारा आटा बरबाद हो जाता है--मंचीय कवियों से लेकर..........(आप जो भी जोड़ना चाहें, जोड़ लें) तक सब जानते हैं। । चरित्र दिखाने की ज़्यादा खुजली उठे तो साल में एकाध बार स्टेज बांधकर चरित्र-चरित्र खेल लेना काफ़ी रहता है। इतने में ही चरित्र के लेन-देन के लिए अच्छा-ख़ासा स्पेस बन जाता है।

यह तो हुई चरित्र की प्रस्तावना। अब हम आते हैं मेन चरित्र पर। मेन चरित्र को अपने यहां स्त्रियों से जोड़ा गया है। अपने यहां पुरुष का बेचारे का अपना कोई चरित्र नहीं होता। घर की स्त्री क्या खा रही है, कहां जा रही है, किससे बात कर रही है, किसके साथ हंस रही है, कैसे कपड़े पहन रही है........इसीमें पुरुष और सारे परिवार का चरित्र, मर्यादा, शील, इज़्ज़त वगैरह सब इन्क्लूड कर दिए गए हैं। पुरुष बाज़ार में कच्छी पहनके घूमे तो भी भारत के चरित्र का बाल नहीं बांका होता। वह रात-भर होटल में न्यू ईयर मनाए, उसका चरित्र विद फ़ैमिली चौबीस कैरेट का रहता है। स्त्री नक़ाब उठाके भी झांके तो क़यामत आ जाती है-सारा कबीला हिलने लगता है, परिवारों की चूलें ढीली हो जातीं हैं, मर्यादा का बैंड बज जाता है, इज़्ज़त की खटिया खड़ी हो जाती है, धर्म पर संकट के बादल मंडराने लगते हैं, देश अस्थिर होने लगता है, लब्बो-लुआब यह कि काफ़ी कुछ ऐसा हो जाता है कि उसके बाद काफ़ी कुछ करने की गुंजाइश निकल आती है। इससे पता चलता है कि कुछ संस्कृतियों में स्त्रियों को कितनी भयानक जगह दी गयी है। इतनी जगह क्यों दी गयी है, नहीं देनी चाहिए थी। चरित्र जैसी अच्छी चीज़ का थोड़ा ठेका पुरुषों को भी लेना चाहिए था। सारा पुण्य स्त्रियों को क्यों लेने दे रहे हो!? थोड़ा तुम भी लो भाई। अच्छी चीज़ लेने में शरमाना कैसा!? इधर चरित्र के मामले में स्त्रियां भी खुल रहीं हैं। इक्का-दुक्का पहले भी निकल आया करतीं थीं। स्त्रियों को अलग़ समझना वैसे भी ग़लत था। जब संस्कृति के पूरे ही कुंएं में पाखण्ड की भांग पड़ी हो तो औरतें क्या कहीं और से पानी पीकर आएंगीं!? चरित्र की हमारे यहां कहीं कोई कमी नहीं है, बस मौक़ा मिलने या मौक़ा पैदा कर लेने की बात है।

इस सारे चारित्रिक सिलसिले में मुझे बस एक ही बात समझ में नहीं आती। जिस देश के आदमी के कण-कण में चरित्र भरा है, वहां व्यक्तिगत जीवन और सार्वजनिक जीवन को अलग़-अलग़ रखने पर इतना ज़ोर क्यों दिया जाता है!? जब कहीं कुछ गंदगी है ही नही तो फ़िर क्या दिख जाने का डर है!? कहीं कुछ गड़बड़ है क्या!? छोड़ो यार, बहुत बात हो गई चरित्र पर।

जहां मुद्दे पर ख़ुलकर बात करनी चाहिए वहीं मुद्दे को छोड़कर भाग जाना.......

यह भी हमारा ही चरित्र है।

हर कहीं नहीं मिलता।

-संजय ग्रोवर


शनिवार, 15 जून 2013

तूने क्या-क्या न हमको दिखलाया

ग़ज़ल


मेरी आवारगी को समझेंगे
लोग जब ज़िन्दगी को समझेंगे

ऐसी शोहरत तुम्हे मुबारक हो
हमने कब तुमसे कहा हम लेंगे

गिरने वालों पे मत हंसो लोगो
जो गिरेंगे वही तो संभलेंगे

क्यूं खुदा सामने नहीं आता
जब मिलेगा, उसी से पूछेंगे

जब भी हिम्मत की ज़रुरत होगी
एक कोने में जाके रो लेंगे

वो अगर मौत से रहा डरता
लोग हर रोज़ उसको मारेंगे

तूने क्या-क्या न हमको दिखलाया
ऐ खुदा! हम तुझे भी देखेंगे


-संजय ग्रोवर

मंगलवार, 28 मई 2013

एक अलग़ तरह के सफ़ल का साक्षात्कार

व्यंग्य



परीक्षाओं के नतीज़े आ रहे हैं। सभी कुछ न कुछ दिखा रहे हैं। हमारी कोशिश रहती है कि कुछ अलग़, कुछ विशेष दिखाएं। आपने अन्य जगह उन सफ़ल छात्रों की कहानियां देखी होंगी जिनकी आंखें नहीं थीं, किसीका हाथ नहीं था, किसीकी टांग में समस्या थी, मगर अपनी इच्छा-शक्ति के बल पर उन सबने सफ़लता पाई। मगर हमारा आज का हीरो उन सबसे भी अलग़ है।
हमारे आज के हीरो श्री ने दिमाग़ न होते हुए भी ज्ञान के इम्तिहान में टॉप किया है। आईए हम श्री के मुख से ही जानते हैं उनकी सफ़लता की कहानी।
‘श्री, पहले तो वही घिसा-पिटा सवाल, आपको प्रेरणा कहां से मिलती है?’
‘जी.......मैं किसी एक का नाम लूंगा तो दूसरों के साथ अन्याय होगा, सच कहूं तो मुझे अपने आस-पास ऐसे लोग बहुत कम ही मिले जिनसे मैंने कुछ सीखा न हो.......आपको भी मैं अकसर देखता रहता हूं.........’
‘श्री, जब आप स्कूल में ऐडमिशन लेने गए होंगे तो काफ़ी परेशानी हुई होगी.....कैसे...मतलब कुछ बताएं........’
‘सच कहूं तो शुरु-शुरु में मैं बहुत डरा हुआ था मगर जब इंटरव्यू शुरु हुआ तो मेरे जवाब सुनकर वे आश्वस्त दिखने लगे। एक टीचर ने तो पापा से कहा भी कि यह तो बिलकुल हमारे जैसा है, एक-एक चीज़ इसे रटी हुई है....’
‘तो श्री यह बताएं कि आपको दिमाग़वाले बच्चों के साथ ही बिठाया गया?’
‘जी, मुझे उनके साथ ही बिठाया गया।’
‘वाह, स्कूल वालों के लिए तालियां तो बनतीं हैं, बच्चों का व्यवहार आपके साथ कैसा था?’
‘जी, एक-दो बच्चों को छोड़ दूं तो हमें कभी लगा ही नहीं कि हममें कोई फ़र्क है।’
‘यानि कभी किसी तरह की हीन-भावना महसूस नहीं की आपने?’
‘जी मुझे तो नहीं हुई पर वे लोग कभी-कभी गंभीर हो जाया करते थे ; कहते यार हमें लगता है हमारा भी नहीं है....’
‘आपको तब क्या लगता था?’
‘ठीक से नहीं कह सकता था कि इस्तेमाल नहीं करते थे या था ही नहीं !’
‘अच्छा जब आप बड़े हुए तो क्या आपकी सोच में.....बल्कि कहना चाहिए कि अ-सोच में लोगों के व्यवहार को लेकर कुछ बदलाव आया?’
‘मैं कहूंगा बाद के मेरे अनुभव ज़्यादा सुखद हैं, जैसे-जैसे हम बड़े होते हैं, दिमाग़ की ज़रुरत घटती जाती है। जो कुछ लोग मुझे बचपन में परेशान करते थे बाद में उनमें से भी कई लोग सम्मान करने लगे।’
‘श्री, यह आप किस आधार पर कह रहे हैं!?’
‘देखिए, पहले मां-बाप मुझे जो भी कहते थे, अड़ोसी-पड़ोसी जो कहते थे, बड़े जो कुछ कहते थे, टीचर जो क़िताबों में से बताते थे, मैं बिना सोचे-समझे करता जाता था। बाद में बिना दिमाग़ के ही मुझे समझ में आने लगा कि बिना सोचे-समझे कुछ करने के मामले में तो मैं ख़ुद ही आत्मनिर्भर हूं, मम्मी-पापा को परेशान करने की क्या ज़रुरत है! सीधी तो बात है-जो बड़ोंने बताया, जो सब कर रहे हैं वही करते जाओ। जैसे सब कैरियर बनाते हैं, सब शादी करते हैं, सब बच्चे पैदा करते है, सब शादी में जाते हैं, सब कमरा बनाते हैं.....बस वही करते चले जाना है, दिमाग़ का तो ख़ामख़्वाह नाम है, काम तो कुछ है ही नहीं! बस, मेरा आत्मविश्वास बढ़ गया।’
‘अच्छा अभी आपको कैसा लगता है, आगे आपका भविष्य क्या है?’
‘देखिए जैसा मैंने अब तक देखा है, 50-100 साल तो कुछ बिगड़ने वाला नहीं है। हां, इंटरनेट जैसी तकनीकें ज़रुर थोड़ा डरातीं हैं, अचानक बाहरी हवाएं कुछ वायरस वगैरह छोड़ दें और लोग अपने दिमाग़ इस्तेमाल करना शुरु कर दे तो बात अलग़ है।’
‘आपको लगता है कि ज़्यादातर लोग अपना दिमाग़ इस्तेमाल नहीं करते!? क्यों नहीं करते?’
‘हो सकता है वे दिमाग़ को इस्तेमाल न करना ही दिमाग़ का सबसे अच्छा इस्तेमाल समझते हों!’
‘अच्छा आप हमें यह बताएं कि पहली बार यह पता कैसे लगा कि आपके सर में दिमाग़ नहीं है?’
‘एक बार जब मैं बहुत छोटा था, हमारे घर कोई महापुरुष आए थे, पापा ने कहा कि इनके पांव छुओ, बट मैं उनके पांव पकड़कर लेट-सा गया। पापा बताते हैं कि उन्होंने उस वक्त तो कुछ नहीं कहा मगर थोड़ा डाउट उन्हें हो गया था कि यह तो कुछ ज़्यादा ही हो गया। जितना कह रहा हूं यह उससे ज़्यादा क्यों कर रहा हैं!? उन्होंने किसीको कुछ नहीं बताया बस वे चुपचाप मुझे अपने दोस्त डॉ. हक़ीम श्रेष्ठ के पास ले गए। उन्होंने ही सारे टैस्ट करके बताया।’
‘डॉ. हक़ीम इस अजीबोग़रीब टैस्ट के लिए राज़ी कैसे हुए?’
‘पापा कहते थे कि डॉ. हक़ीम भी बचपन से बेदिमाग़ थे। प्रैक्टिस उनकी बहुत अच्छी चलती थी। मम्मी को तो शक है कि उनको दिल भी नहीं था।’
‘अच्छा, हम वापस आते हैं आपके घर, आपके रिश्तेदार...दोस्त.....इनका क्या व्यवहार रहा, क्या योगदान रहा?’
‘मैं आपको क्या कहूं, मुझे कभी लगा ही नहीं कि मैं बेदिमाग़ हूं या वे दिमाग़दार हैं, सब बिलकुल अपने जैसे तो लगते थे, इतना अपनापन देते थे कि बस.....दिल की बात कहूं तो मुझे लग रहा है कि जैसे आप लोग बेकार ही मुझे इतना महत्व दे रहे हैं, मुझे तो लगता ही नहीं कि मैंने कुछ नया किया है, पता नहीं...ऐसा लगता है कि यहां हमेशा से ही ऐसा होता रहा है.....’
‘ठीक है श्री, हमारे पास इतना ही वक्त है; आगे वक्त मिला तो ज़रुर आपसे फ़िर बात करेंगे......’


-संजय ग्रोवर


रविवार, 14 अप्रैल 2013

पिण्ड छोड़ भी कविता


चलो आज कुछ बता ही दिया जाए
कविता की पैदाइश के बारे में

उम्र, तजुर्बे और प्रतिष्ठा की ऊँची मीनार पर चढ़े
पिता के
भारी-भरकम आदेश, उपदेश और झिड़कियां
गिरते हैं मुझपर
रह-रहकर

मेरे ज़ख्मों से रिसती है कविता

बस-कंडक्टर की भाषा
ब्रेक फेल हुए ट्रक की तरह
चढ़ दौड़ती है मेरी घबराई छाती पर

पंक्चर टायर से हवा की तरह
निकल जाती है कविता
( कहीं ‘फुस्स’ तो नहीं हो जाती )

दिल्ली में घूमता हूं
दफ्तर दर दफ्तर
संपादक सब उड़ रहे हैं अपने-अपने कमरों में
कमरे में इतनी भी जगह नहीं कि
अपने सारे चेहरों को अलग-अलग रख सके
तो लगाएं हैं एक के ऊपर एक
सबकी नज़रें हैं आसमान पर
सब बड़े पैमाने पर काम कर रहे हैं
मैं मक्खी सा भिनक कर पहुंचता हूँ
उनकी नाक तक
मेरी भिनभिनाहट से जैसे
कोई टेप अपने आप ही बज उठता है
सरकाता है नपे-तुले वाक्य नपी-तुली ख़ुशबू के साथ
संपादकीय प्रतिबद्धता और निष्प्पक्षता के पक्ष में

शालीन गालियां बनकर
रद्दी काग़ज़ पर गिरती है कविता
कराहते हुए

इधर मैं बैठा  हूँ उस दिन के इन्तज़ार  में
जब विदा हो रही होगी ऐसी कोई कविता
और मैं होऊंगा स्वतंत्र और उन्मुक्त
गर्मजोशी से हाथ हिला और मिलाकर
यह कहने के लिए
‘अलविदा कविता’

-संजय ग्रोवर

रचना तिथि: 10-09-1994

गुरुवार, 7 मार्च 2013

वीपीसिंह, आरक्षण और पॉज़ीटिवता का ह्रास


इधर वीपी सिंह नाम के आदमी ने भारत को तबाह करके रख दिया। सब कुछ अच्छा-अच्छा पॉज़ीटिव चल रहा था कि टांग मार दी। परसांईं जी ‘हनुमान चालीसा’ लिख रहे थे, श्रीलाल शुक्ल ‘अहा! ग्राम्य-जीवन कित्ता पवित्र है’ लिख रहे थे, मनु महाराज ‘स्त्रियों और शूद्रों को प्रगतिशील बनाने के 501 उपाय’ बता रहे थे, उदयप्रकाश ‘ढीली कुर्त्ती वाली लड़की’ लिख रहे थे, राजेंद्र यादव पूरी रचनात्मकता के साथ, सकारात्मक ढंग से कलात्मक लोगों के बखिए उधेड़ रहे थे कि अचानक वीपी सिंह नाम का एक आदमी प्रकट हुआ और उसने सब तहस-नहस कर दिया। एकाएक सारे भारत की बुद्धि फिर गयी। फुलबगिया फ़ुल उजड़ गयी। लोग एकाएक भ्रष्टाचार, बलात्कार, अत्याचार वगैरह करने लगे। वरना इससे पहले भारत में किसीने इन चीज़ों का नाम तक नहीं सुना था। एकाएक सतीप्रथा शुरु हो गयी, लोग दहेज लेने लग पड़े, किसीके मरने तक में पूरी-कचौड़ी-लड्डू मांगने लगे। रातोंरात भारत बरबाद हो गया। बहुत सारे लोगों की थिंकिंग एकाएक निगेटिव हो गयी। जो लोग ज़्यादा सकारात्मक सोच के थे वे आत्महत्या और आत्मदहन वगैरह ट्राई कर-करके देखने लगे।
ख़ानदानी सोच के अनुसार इसके पीछे वीपी सिंह के छोड़े आरक्षण नाम के भूत का हाथ था।

असली पहेली यह है कि जब सब कुछ शुभ-शुभ, पवित्र-पवित्र चल रहा था तो इस आदमी को आरक्षण लगाने की सूझी ही क्यों? आरक्षण नाम का शब्द उस आदमी के ज़हन में आया ही कैसे? कहीं उस आदमी ने एक जाति के दूसरी जाति पर अत्याचार की कहानियां ख़ुदबख़ुद तो नहीं गढ़ लीं थीं!? भारत में जैसे लोगों को विद्वान कहा जाता है वैसे में से कई लोग अगर यह कहें कि ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, दलित, ओ बी सी, आदिवासी आदि भी वी पी सिंह ने बनाए थे तो बच्चों को कोई हैरानी नहीं होगी।

बच्चे भी अब समझने लगे हैं कि ऐसे पॉज़ीटिव विद्वान दरअसल कैसे होते हैं!

-संजय ग्रोवर

इसी व्यंग्य को एक नए प्रयोग के रुप में यूट्यूब पर देखें :





गुरुवार, 14 फ़रवरी 2013

(फ़ेसबुक-पीतम के नाम एक लार्ज एस एम एस पाती)



हे प्रिय सन्नाटन्न लीलाधर,
नमस्ते, गुड मॉर्निंग प्लस कबूतर-कबूतरी के जोड़े का चित्र(समझ ही गए होगे)
पैलेंटाइन-पसंत त्वमेव बहुत मुबारक़
पैलेंटाइन दिवस को मैं बहुत गंदी चीज़ मानती थी मगर जबसे तुमने पुरानी-पीली-मृतप्रायः क़िताब में दिखाया कि हमारे यहां भी यह होता था, तबसे मैं एकदम चेंज हो गयी हूं जैसे पहले बिना सोचे-समझे इसमें लट्ठ बजाती थी वैसे ही बिना सोचे-समझे अब इसकी पूजा करती हूं। तुम्हारी संगत में लोगों की रंगत कुछ इसी अंदाज़ में निखरती है। आगे इसका और ज़्यादा वरनन करुंगी।

हे चिर-चीरकुमार, इधर फ़ेसबुक-पत्रिका का माहौल कुछ अजीब होने लगा है, लोग कुछ ज़्यादा ही विचार परकट करने लगे हैं। बाक़ी सब तो मैं निपट जाती पर इधर मन में तुम्हारे प्रति भी संदेह घिर-घिर आता है। जिन्हें तुम दानव कहते रहे उन्हीं के विचार अब मुझे मानवीय लगने लगे हैं। इधर फ़ेसबुक पर सखियां भी पूछने लगीं हैं कि लल्ला ख़ुद तो प्रतिसमय रधाओं और गुपिकाओं में घिरे रहते हैं पर कभी रोकमणि जी को भी तो फ़ेसबुक की हवा लगने दिया करें, रोकमणि जी की तो वे हवा भी नहीं लगने देते! क्या रोकमणि जी को भी इनकी हवा नहीं लगती? मैं क्या जवाब दूं लीला-च-आर्य?

कई फ़ास्ट-फ्रेंडिकाएं अब ऑबजेक्शन करती हैं कि ये जो तुम्हारे विवाहित-लिव-इन-आंकाक्षी चौबीस घंटे लार-निवेदन डालते फिरते हैं, उन अविवाहित फ़ेसबुकग़ामियों जिनकी संबंधी स्त्रियां फ़ेसबुक पर ओपन-विचरण करतीं हैं, को मर्यादा की रेखा बताते क्या भद्दे नहीं लगते!? फ्रेंडगण पूछते हैं कि ये तुम्हारे रसियाचारी हर हर जगह बिन बुलाए ऊंगली की तरह क्यों घुसते हैं, ये क्यों तय करते फिरते हैं कि किसको किस उम्र में प्रेम करना चाहिए!? इन्होंने कौन-सी जड़ी-बूटी खाई है कि ये किसी भी उम्र में कुछ भी निःशब्द करेंगे फिर भी विद्रोह-च-आर्य कहलाएंगे और दूसरे करेंगे तो ये स्वघोषित जज उसे लंपट घोषित कर देंगे। एक सखि यहीं खड़ी है और पूछ रही है कि अभी 62 बरस की बोल्ड नायिका ने 36 साल के लड़के से एक संबंध स्थापित किया है, क्या तुम्हारे धनाधीष द्वंदी उसे भी लंपटिका कहेंगे? इन द्विमुखियों-चौमुखियों के हर बात पर अपने लिए अलग और दूसरों के लिए कुछ और मानदण्ड क्यों रहते हैं!? ये बिलकुल ही ठस्सबुद्धि हैं क्या? एक अतिऐंग्री गुपिका पूछ रही है कि ये मूर्ख दस-पांच हज़ार साल पुराना, बिना जांघिए का नाड़ा पहने खड़े दूसरों को मूर्ख बना रहे हैं या ख़ुदको!?

ज़्यादा न लिखूंगी पीतम, अच्छा दिन है। पर इसका क्या करुं कि कुछ फ्रेंडिकाओं के सखालोग इस बात पर क्रुद्ध हैं कि ये(मतलब तुम) कुछ प्रिंटसंपादकों-विद्रोहियों के घरों में घुसि-घुसि जाते हैं, उनकी पत्नियों, नौकरों और रोटियों-सब्ज़ियों के हिसाब ले आते हैं पर अपना हिसाब हमेशा हिज़ाब में रखते हैं, ये कभी अपना भी हिसाब दूसरों को देंगे? झूठ न कहूंगी, क्षण-क्षण-रंगबदलाचार्य, मन मेरा भी अब शकाग्नि में जलने लगा है। और किसीको न सही, मुझे तो डिटेल में कुछ इन-शॉर्ट ही बता दो। और कुछ नहीं स्वतन रोकमनि जी और बहन द्रुपादि जी की फ्रेंड-रिक्वेस्ट ही भिजवा दो, बाक़ी हाल-चाल मैं ख़ुद ही ले लूंगी।
मिलते हैं, शाम को फ़ेसबुक-मंदर के पीछे
बाय-बाय-राम-राम-इनकीलाब जींदाबाद
फूल पर फूल का जोड़े का स्केच
(समझ ही गए होगे)
योर्स फूलली
गुपिका

--संजय ग्रोवर

मंगलवार, 15 जनवरी 2013

सुरक्षा की हद



‘सरगुरु, आजकल महिलाएं बहुत संकट में हैं.....’
‘इन्हें ढंककर रखना चाहिए, सर से पांव तक....मैंने पहले भी कहा.....’
‘मगर सरगुरु....इसके बावजूद भी तो सब होता ही है....’
‘अकेले बाहर नहीं भेजना चाहिए.....कोई आई, भाई, माई, झाई, दाई...साथ होना चाहिए....’
‘पर केस तो तब भी होते हैं......’
‘दरअसल घर से बाहर नहीं निकलने देना चाहिए.....वही है मुसीबत की जड़...’
‘पर घर में भी हम लोग......मेरा मतलब है लोग बाज़ नहीं आते....’
‘देखो हमारी नयी तकनीक से कोई दुश्मनी तो है नहीं.....कुछ लॉकर टाइप बनाकर उसमें औरतों को रखा जा सकता है, चाबियां दो-तीन हों जो घर के दो-तीन बुज़ुर्गों के पास रहें.....’
‘क्या बात कर रहे हैं, लॉकर तो बहुत छोटे होते हैं....’
’नहीं वैसे नहीं.....दड़बे जैसे तो होने ही चाहिए......घर के सभी काम निपटाकर वे वहां आराम कर सकती हैं’
‘वहां उनका मन कैसे लगेगा, सरगुरु....’
‘वहां उन्हें धर्मग्रंथ दिए जाएं....उन्हें तो वे खुद भी छोड़ने को तैयार नहीं होतीं.....’
‘लेकिऩ मसला केवल शरीर का तो नहीं है, हम कोई भौतिकवादी तो हैं नहीं...अगर उन्हें वहां किसीका ख़्याल आ गया तो उनका मन, उनकी रुह, उनकी आत्मा इत्यादि भ्रष्ट नहीं हो जाएंगे......’
‘तो फ़िर.....उनके लिए बिल बनाए जा सकते हैं.....जब वे अंदर घुस जाएं तो बाहर से मिट्टी डाल दी जाए....'
‘अजी ऐसे तो वो मर ही जाएंगीं.......’
‘मर जाएंगी तो क्या हुआ, इज़्ज़त तो बची रहेगी।’



-संजय ग्रोवर

देयर वॉज़ अ स्टोर रुम या कि दरवाज़ा-ए-स्टोर रुम....

ख़ुद फंसोगे हमें भी फंसाओगे!

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ढूंढो-ढूंढो रे साजना अपने काम का मलबा.........

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