शनिवार, 15 अगस्त 2009

क्या हमें ‘सच का सामना’ नहीं ‘सच का परदा’ चाहिए !?

नैतिकता पर बहस शायद आज की सबसे मुश्किल बहस है। क्योंकि ज़्यादातर लोग ‘चली आ रही नैतिकता’ पर अड़े रहते हैं, भले व्यवहार में इसका उल्टा करते हों। थोड़े-से लोग नैतिकता के नियमों को बदलने की कोशिश करते हैं। उनमें से कुछ ऐसे होते हैं जिन्हें पुराने नियम अमानवीय व अलोकतांत्रिक लग रहे होते हैं तो कुछेक ऐसे भी होते हैं जो व्यक्तिगत स्वार्थों या ‘नयी भीड़’में शामिल होने की खातिर ऐसा करते हैं। उनमें से कुछ की नैतिकता को लेकर अपनी एक तार्किक सोच भी हो सकती है। मुझे लगता है कि ‘जो करना वही कहना’ या ‘जो किया, कह दिया’ नैतिकता है। इस दृष्टि से मुझे ‘सच का सामना’ एक बेहद मामूली सीरियल लगता है जिसपर इतना हल्ला-गुल्ला होना हैरान करता है। मुझे याद आता है कि 25-30 साल पहले सरिता-मुक्ता जैसी आर्य-समाजी पत्रिकाओं में लगभग यही सब बातें ‘पाठकों की समस्याएं’ में बतौर प्रश्न छपा करती थीं। फ़र्क बस इतना है कि वहां पाठकों के नामों की जगह कखग वगैरह लिखा रहता था। ज़ाहिर है कि यह सब सरिता के संपादक गण अपने मन से बनाकर तो लिखते नहीं होंगे। एक दिलचस्प तथ्य मैं देख रहा हूं कि जहां भी इस कार्यक्रम पर टिप्पणी, लेख आदि आ रहे हैं हर जगह ऐतराज़ यही है कि यह सब पर्दे पर कहा क्यों जा रहा है ! ‘यह सब किया क्यों गया’ इसपर अभी तक कोई आपत्ति मेरे देखने में नहीं आयी। क्या नैतिकता यह है कि विनोद कांबली अपनी एक टीस, एक शिकायत को मन में दबाए रखकर झूठी दोस्ती बनाए रखें !? यह कैसी दोस्ती है जिसमें अपने दिल की बात दोस्त से कह देने भर का भी स्पेस नहीं !? और यह दबी हुई कुण्ठा इस दोस्ती के लिए आगे चलकर किसी और शक्ल में और ज़्यादा ख़तरनाक साबित नहीं हो सकती !? अगर एक महिला वहां जाकर झूठ बोलती है कि वह अपने पति के अलावा किसी अन्य से संबंध बनाने की ख्वाहिशमंद नहीं रही और वह झूठ पकड़ा जाता है तो सवाल यह भी तो उठता है कि क्या उस महिला को पता नहीं था कि वह ‘सच का सामना’ करने जा रही है ? वह क्यों गयीं वहां अगर उसमें सच का सामना करने की हिम्मत नहीं थी ? इसके अलावा कोई बेईमान आदमी ही यह कह सकता है कि 13-14 की उम्र तक आते-आते उसे विपरीतलिंगियों के प्रति आकर्षण होना (जिसे आज की प्रचलित भाषा में ‘क्रश आना’ कहते हैं) नहीं शुरु हो गया था। फिर हम क्यों चाहते हैं कि हम लगातार झूठ भी बोलते रहें ऊपर से अपने देश को ‘सच्चाई का पुजारी’, ‘नैतिकता की सबसे पुरानी/प्रतिष्ठत कर्मशाला’ भी कहते रहें !? या तो हम मान लें कि हम झूठे हैं। कम-अज़-कम एक यही सच बोल दें।

या फिर हम अपने सच का इस्ते माल वहीं तक करना चाहते हैं जहां तक वो हमारे झूठ का परदा बन सके !?

9 टिप्‍पणियां:

  1. ऐस नहीं है. किसी ने नही कहा ... यह देखिये आपकी बात भी इसमे है और कुछ अलग तरीके से किया गया विरोध भी
    http://samadhanhai.blogspot.com/2009/07/blog-post.html

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  2. या फिर हम अपने सच का इस्ते माल वहीं तक करना चाहते हैं जहां तक वो हमारे झूठ का परदा बन सके !?
    संजय जी आपकी इस बात से सहमत हुआ जा सकता है ..मैंने हाल ही में प्रीतिश नंदी जी का आलेख ..सच का सामना ,इसी विषय पर पढा है में वहां भी सहमत हूँ मनोविज्ञान कहता है मन में कोई भी गाँठ नहीं रहना चाहिए सच का सामना मेरे ख्याल से एक सच्चे समाज को गढ़ने की तमीज सिखा रहा है ...बे इन्तहा झूट से निजात पाने का एक कारगार नुस्खा ...फिर हिंदी में लिखी जारही आत्म्कथाये हो या सरिता मुक्ता में का खा गा द्वारा अपनी मानसिक उलझने सुलझाने का जवाब देकर रास्ता सुझाना ...बहुत पहले लिखे गये जैनेन्द्र जी के उपन्यास इन हो हल्ला मचाने वालों ने नहीं पढ़े ...और वहां कोई जबरदस्ती नहीं

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  3. bahut sahi hai bhai|
    sach kaha tumne,ye akela ek mudda nahi hai jis per hum dohri baat karte hai,such ko to her koi dawana cahata hai,kyonki her aadmi hi galat hai kahi na kahin se.
    sab ye cahate hai ki such thik thak hai per jab tak subidha ho.
    jayda such to ubke liye hajma gadbad ker deta hai.

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  4. समदर्शी जी आप कहते हैं भारतवर्ष में एक से ज़्यादा संबंधों को कभी मान्यता नहीं रही। मगर ऐसा नहीं है। ‘युवा’ ब्लाग पर पिछले दिनों एक पोस्ट आयी थी ‘समलैंगिकता पर बाबा रामदेव से असहमति’।
    (http://yuva-jagat.blogspot.com/2009/07/blog-post_4624.html)
    पढ़ेंगे तो आपकी काफ़ी समस्याओं का समाधान तो वहीं हो जाएगा। दूसरे, अगर हम सभी चीज़ों को इसी नज़रिए से हल करने लगे तो मुश्किलात और बढ़ जाऐगी। फिर सती-प्रथा का क्या कीजिएगा आप? फिर वंृदावन की विधवाओं का क्या कीजिएगा आप ? फिर कंम्प्यूटर का और सारे विज्ञान का क्या कीजिएगा आप ?
    फिर आपने जिन बातों को बेझिझक/बेहिचक गुनाह ठहरा दिया है, किसी दूसरे देशकाल में वही बातें बेहद सामान्य मानीं जा सकतीं हैं। आप भगवान कृष्ण का जीवन ही ले लीजिए। मेरी उम्र कोई बहुत ज़्यादा नहीं है मगर मुझे याद है कि हमारे वक्त में लड़कियों का सायकिल चलाना, सह-शिक्षा वाले स्कूल में पढ़ना, होस्टल में रहना, नौकरी करना, लड़कों से बातें करना/दोस्ती करना आदि गुनाह की तरह ही देखे जाते थे। आज वो सब सामान्य बातें हैं।
    कुत्ता या अन्य पशु तो खाना भी खाते हैं, हंगते भी हैं, बच्चे भी जनते हैं, तो क्या मनुष्य को उनसे अलग दिखने के लिए यह सब काम बंद कर देने चाहिए ?
    आप कत्ल और प्रेम या यौन-आकर्षण को एक ही तराजू पर तौल रहे हैं जो कि कतई वाजिब नहीं है।
    आपने संचालक की बहन का उदाहरण दिया है, भाई का नहीं। क्यों ?
    आखिर हम मनुष्य के चरित्र को सिर्फ उसके सैक्स-जीवन से जोड़कर क्यों देखते हैं ? हिटलर ने दुनिया भर में शायद सबसे ज़्यादा हत्याएं करवायीं। मगर क्या हम उसे सिर्फ इस लिए चरित्रवान मान लें कि उसके किसी से यौन-संबंध नहीं थे ?

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  5. पाखंडी न होना नैतिकता है | पाखंड अंहकार को जगह देता है |
    पाखंड को स्वीकार कर लेना पाखंड से मुक्त होना है |
    ऐसे काम न करना नैतिकता है जिससे अशुभ की वृद्धि हो |
    चोरी, बेईमानी इत्यादि की अपेक्षा यौन व्यवहार को नैतिकता से ज्यादा जोड़ा जाता है |

    यहाँ पाखण्ड ज्यादा है | हकीकत को स्वीकार नहीं करना चाहते |

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  6. naree blog par ma pitaji se puchhkar likhte hain aur yahan kisse puchhte hain?

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  7. Aapne bahut achchha kiya ye sawaal puchhkar, Sushilaji. Jald hi CHoKher Bali par diye comment ka matlaba saaf karunga.

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कहने को बहुत कुछ था अगर कहने पे आते....

देयर वॉज़ अ स्टोर रुम या कि दरवाज़ा-ए-स्टोर रुम....

ख़ुद फंसोगे हमें भी फंसाओगे!

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ढूंढो-ढूंढो रे साजना अपने काम का मलबा.........

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