मान लीजिए सौ साल बाद आदमी कम्प्यूटर की फ्लौपियां, सीडियां आदि खाना शुरु कर दे तो उस फ्लौपी-खाऊ समुदाय की भावनाएं इस तथ्य को जानकर कितनी आहत होंगीं कि सौ साल पहले हमारे लोग रोटी जैसी कोई पिलपिली, खुरदुरी और नरम चीज़ खाकर गुज़ारा करते थे। उनमें से कई लोगों को यह भी लगेगा कि यह एक ऐतिहासिक झूठ है। ऐसा सम्भव ही नहीं कि सीडी-खाऊ और सेलफोन-पीऊ हमारी महान जाति ने कभी रोटी-सब्ज़ी-दाल जैसी निकृष्ट व अर्द्धविकसित डिशें खाईं होें। इसलिए इन दुष्ट तथ्यों को इतिहास से निकाला जाए और हमारी नरमो-नाजु़क भावनाओं को आहत होने से बचाया जाए।
सौ/पचास/पाँच सौ साल बाद जब आदमी आदमी को खाने लगेगा (हो सकता है मैं ग़लत होऊँ और दस साल बाद ही ऐसा हो जाए। हो सकता है आज भी ऐसा हो रहा हो। ) तो यह जान कर उसके जज़्बात को कितनी ठेस पहुँचेगी कि कुछ साल पहले हमारे पुरखे पशुओं के माँस जैसी गलीज़ चीजें़ खाया करते थे। एकाध अपवाद ने कभी-कभार एकाध औरत को तंदूर में भूना ज़रुर पर खाने का पराक्रम नहीं दिखा पाया। अन्यथा मानव-भक्षण से ज़्यादा ‘ग्रेसफुल’ कार्य और क्या हो सकता था। अगर पशु को खाने से इंसान पशुवत हो जाता था तो मानव को खाने से ज़्यादा मानवीय क्यों नहीं हो जाएगा भला!
कई बार अपने देसी पाखाने में उंकडँ़ू बैठा मैं यह सोच-सोच कर काँप उठता हूँ कि जब सुलभ शौचालयों समेत हमारे सारे पाखाने विदेशी ढंग की सीटों से सुसज्जित हो उठेंगे तो मेरी भावी पीढ़ियों को यह जान कर कितना दुख होगा कि उनके पितर पाखाने में भद्दे स्टाइल में बैठ कर शौच-क्रिया का संचालन किया करते थे। पाठकगण, आप बात को हल्के ढंग से न लें। बहरहाल, मैं तो समझ गया हँू कि आज की हल्की-सी भी हरकत का सरोकार कल की भारी-भरकम भावुकताओं से है। आज कुछ भी करने से पहले यह नहीं देखना होगा कि आज स्थितियां क्या हैं, ज़रुरतें क्या हैं, उपलब्धताएं क्या हैं। बल्कि यह देखना होगा कि कल इसके क्या ऐतिहासिक अर्थ निकाले जाएंगे! सदियों बाद लोगों की भावनाओं पर इसका क्या असर पड़ेगा!
आगे की तो मैं पहले भी सोचता था पर अब कुछ ज़्यादा ही सोचने लगा हँू। मसलन जब गाता हँू तो दस साल आगे की सोचता हँू। जब जागता हँू तो पचास साल आगे की सोचता हँू। जब सोता हँू तो हज़ार साल आगे की सोचता हूँ।
जब बेईमानी करता हूँ तो कुछ नहीं सोचता!
पर सोचता हूँ कि कभी इन बातों पर भी हमारी आने वाली पीढ़ियों की भावनाएं आहत हुआ करेंगी जब उन्हें पता लगेगा कि हम बात-बात में झूठ बोलते थे, तिकड़म भिड़ाते थे, भ्रष्टाचार में सिर से पाँव तक लिप्त थे, चारा और ताबूत तक में कमीशन खा जाते थे, औरतों को नंगा घुमाते थे, आदमी तक से पशुवत् व्यवहार करते थे, किडनियां निकाल कर बेच देते थे, एक-दूसरे का खून पीने पर उतारु रहते थे!?
फिलहाल भावनाओं की वो किस्म ज़्यादा प्रचलन में है जो बात-बात पर आहत हो जाती है। भावनाओं पर इतना और ऐसा ही ज़ोर रहा तो डर है कि जल्दी ही भावनाएं भी ऐतिहासिक न हो जाएं!
फिलहाल भावनाओं की वो किस्म ज़्यादा प्रचलन में है जो बात-बात पर आहत हो जाती है। भावनाओं पर इतना और ऐसा ही ज़ोर रहा तो डर है कि जल्दी ही भावनाएं भी ऐतिहासिक न हो जाएं!
-संजय ग्रोवर
(‘समयांतर’ में प्रकाशित)
priy grover ji maine aapki etihaasik bhawnaaye padi ,aapki aasankaaye nirmool nahi hai mujhe to unme abhi se saarthktaa najar aa rahi hai aapki gahri soch ko meraa baar baar dhanywaad
जवाब देंहटाएंपशु को खाने से इंसान पशुवत हो जाता था तो मानव को खाने से ज़्यादा मानवीय क्यों नहीं हो जाएगा भला
जवाब देंहटाएंवाह वाह
ग्रोवर जी,
जवाब देंहटाएंइतना न सोचे आप,क्योकिं--आने वाली पीढीयों को सच के बारे मे कुछ पता ही नही चलेगा,तब तक तो यह शब्द शब्दकोश से भी हट जायेगा। वे पैदाइशी तिकड्मीं होंगे(मुहुर्त देख कर ही प्रसव होने लगे है)।भ्रष्टाचार के घर मे रहते हुए खुद ही कमीशन तो क्या,चारा और ताबूत ही खा जायेंगे। औरत और आदमी मे फ़र्क रहेगा क्या?,और किडनी क खरीदार बचेगा क्या? पानी के अभाव के बारे मे तो आप जानते ही होंगे।
ग्रोवरजी
जवाब देंहटाएंमजेदार व्यंग्य।
कम से कम फ्लोपी के मामले में सौ साल बहुत ज्यादा होंगे, फ्लोपी तो अभी से एन्टिक चीज बन गई है, मेरे साइबर कॉफे में कोई फ्लोपी लेकर प्रिंट करवाने आता है तो उसे मेरे साथ अन्य ग्राहक भी देखकर अचरज करते हैं कि यह सौ साल पुरानी चीज कहां से ले आया।
:)