शनिवार, 28 फ़रवरी 2009

'व्यंग्य-कक्ष' में *****प्रोजेक्ट डॉक्टर*****


अर्सा पहले एक अखबार में एक कार्टून छपा था। कार्टून के ऊपरी कोने में पिछले दिन के अखबार की कटिंग लगी थी,‘‘एक डाॅक्टर की लापरवाही से एक प्रोफेसर की मौत‘‘। और नीचे कार्टून के नायक के माध्यम से कार्टूनिस्ट ने इस खबर पर अपनी प्रतिक्रिया इस वाक्य में व्यक्त की थी,‘‘... .... ... और जब एक प्रोफेसर की लापरवाही से इतने लोग डाॅक्टर बन जाते हैं तब ... ... ...‘‘

इस पर बहुत से लोग कह सकते हैं कि उस डाॅक्टर ने ऐसे ही बने सारे डाॅक्टरों की तरफ से बाकी सारे लापरवाह प्रोफेसरों की ग़लतियों की सज़ा उस एक प्रोफेसर को देकर कोई बुरा नहीं किया। कुछ और लोग इस पर ‘‘जैसे कर्म करेगा वैसा फल देगा भगवान‘‘ का दार्शनिक मूड अपना कर निर्लिप्त बने रह सकते हैं। और कुछ ‘‘जैसे को तैसा‘‘ के अंदाज़ में ले सकते है। पर अगर हम कार्टूनकार के नज़रिए को गंभीरता से लें और उसे सच मानें तो देश में आए दिन होने वाली डाॅक्टरों की हड़तालों को देखकर हमें मानना पड़ेगा कि हमारे देश के प्रोफेसर अतीत में तो ज़रूरत से (और इस देश की ग़ज़ब की सहन शक्ति से) ज्यादा ग़लतियां कर ही चुके हैं अभी भी ऐसा करने से बाज़ नहीं आ रहे हैं। इसकी एक वजह शायद यह हो सकती है कि बहुत सारे प्रोफेसर भी अपने प्रोफेसरों की लापरवाहियों की बदौलत ही प्रोफेसर बन पाए होते हैं।

हड़ताल पर गए सरकारी डाॅक्टर अक्सर यह दावा करते हैं कि उन्होंने सरकार की सारी स्वास्थ्य मशीनरी को ठप्प कर दिया है। दरअसल यह दावा सरकार के ही हित में जाता है। क्यों कि इससे तो साफ-साफ पता चलता है कि हड़ताल से पहले सरकारी स्वास्थ्य मशीनरी कार्य भी कर रही थी। क्या सरकार के लिये उसकी अब तक की स्वास्थ्य संबंधी उपलब्धियों को नकारने वाले विरोधियों पर चढ़-दौड़ने के लिये हड़ताली डाॅक्टरों का यह बयान काफी नहीं होना चाहिए?

डाॅक्टरों की दो किस्में हमारे देश में पायी जाती हैं - सरकारी और प्राईवेट। लोग इनके बारे में तरह-तरह की बातें करते हैं। कहते हैं कि बहुत से सरकारी डाॅक्टर ऐसे भी होते हैं और इसलिए भी होते हैं कि वे अपने दाखिले के वक्त इतना डोनेशन दे चुके होते हैं कि उनके पास अपना क्लीनिक खोलने के लिये पर्याप्त पैसे ही नहीं बचे होते। जो थोड़े बहुत पैसे बच रहते हैं उनका ‘‘यथोचित‘‘ उपयोग करके वे सरकारी हो जाते हैं। कुछ लोग तो यह भी कहते हैं कि प्राईवेट डाॅक्टर इसलिये कभी हड़ताल नहीं करते या अपनी दुकान (अर्थात् क्लीनिक) बन्द नहीं करते क्योंकि उन्हें अपने मनमाफिक तरीके से अपना व्यापार करने की आज़ादी हासिल होती है। सरकार अगर सरकारी डाॅक्टरों को ड्यूटी टाइम में भी ‘प्रैक्टिस‘ करने की छूट दे दे तो उनके द्वारा की जाने वाली हड़तालों की संख्या में कमी आ जाएगी। ऐसा कुछ लोगों का सुझाव है।

लोग और जो कुछ कहें, पर जब वे प्राईवेट डाॅक्टर की तुलना व्यापारी से करते हैं तो बिलकुल अच्छा नहीं लगता। अगर ऐसा है तो गाँवों के लोग आज भी डाॅक्टर को भगवान क्यों मानते हैं? शहरों और कस्बों के पढ़े-लिखे लोग मरीज देखने आए डाॅक्टर के रिक्शे से उतरते ही कुलियों की तरह उनकी अटैचियाँ क्यों ढोते हैं? ‘‘गारन्टी पीरियड‘‘ में पंखों, मशीनों या घड़ियों के खराब हो जाने पर विक्रेता व्यापारी से पैसा वापिस मांगने वाले लोग मरीज़ के ठीक न हो पाने की दशा में पिछले डाॅक्टर को यूं ही बख्श कर अगले की ओर क्यों बढ़ जाते हैं?

पर चूंकि समाज ऐसा करता है इसलिए स्पष्ट है कि डाॅक्टर भगवान का दूसरा रूप होता है। उसका हर काम निर्विवाद है, इंसानी मान्यताओं और धारणाओं से ऊपर है। हो सकता है कि कुछ लोग यहाॅँ-वहाँॅं मौजूद भगवान के ऐसे रूपों को देखकर पूजा करना ही छोड़ दें, पर इससे तथ्यों पर कोई असर नहीं पड़ने वाला।

अब उस दिन का किस्सा ही लीजिए। कलम कुमार जब डाॅ. अधपके की दुकान पर पहूॅँुंचा तो देखता क्या है कि डाॅ. अधपके मरीज़ों से घिरे बैठे हैं। सामने बैठे मरीज़ के मँुॅंह में थर्मामीटर लगा है। उसके बराबर बैठे मरीज़ से डाॅं0 अधपके हालचाल पूछ रहे हैं। तीसरा मरीज डा0 अधपके की बगल में बैठा है। डाॅ0 साहिब उसकी आॅंँखों का चैक अप करते हैं। पेट को टटोल कर देखते हैं। नब्ज़ देखते हैं। फिर जब पर्चे पर दवा लिखने लगते हैं तो मरीज़ टोकता है ‘‘डा0 साहब आपने मेरा गला तो देखा ही नहीं जिसे दिखाने मैं यहाॅंँ आया था‘‘।

कोई बात नहीं। डाॅ. अधपके की यह भूल क्षम्य है। सभी जानते है कि जब ग्राहक ज्यादा हों, दुकानदार अकेला हो और वक्त कम हो तो ग्राहकों को जल्दी-जल्दी निपटाने में ऐसी गड़बड़ियां आम तौर पर हो ही जाती है।

बुजुर्ग लोग फरमाते हैं कि हमारा समाज आज भी डाॅक्टरों की इतनी इज़्ज़त इसलिये करता है कि किसी जमाने में डाॅक्टर से बड़ा समाज सेवक दूसरा नहीं होता था। चूंकि हमारे समाज ने निस्वार्थ सेवा करने वालों को हमेशा सम्मान दिया है। और परम्पराओं को यथासम्भव व यथाशक्ति निभाया है तो इसका फायदा डाॅक्टरों को आज भी मिल रहा है।

पर समाज सेवा करने वाले डाॅक्टरों की यह तीसरी किस्म भारतीय चीतों की नस्ल की तरह इतनी तेजी से लुप्त क्यों होती जा रही हैं? कुछ अर्सा पहले सरकार ने चीतों की नस्ल को बचाने के लिए प्रोजेक्ट टाईगर नामक एक योजना शुरू की थी। क्या हम अपने समाज की खुशहाली के लिए महत्वपूर्ण अंग समझे जाने वाले समाज सेवी डाॅक्टरों की लुप्त होती नस्ल को बचाने के लिये भी सरकार से ‘‘प्रोजेक्ट डाॅक्टर‘ जैसी किसी योजना की उम्मीद करें?


इससे पहले कि कोई चीते के पंजों और डाॅक्टर के स्टेथस्कोप में समानता देखना शुरू करें, मैं इस लेख को यहीं खत्म किये देता हूं।
-संजय ग्रोवर


(6 अक्तूबर, 1995 को पंजाब केसरी में प्रकाशित)

(‘कस्बा‘ पर रवीश जी और ‘मेरे आस-पास’ पर मनविंदर भिंबर जी के अनुभव पढ़े तो अपने कई नए-पुराने अनुभव और यह व्यंग्य याद आ गया।)

5 टिप्‍पणियां:

  1. ठीक किया आपने इसे यहां खत्म कर, नहीं तो कोई आपको भी 'कुछ समझकर' यहां से ले जाता और...

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  2. ठीक पकडे हो भाई ...हमने तो कई डोक्टारो को एक साथ मल्टी स्पेसिलिटी के काम करते देखा है .....कुछ जबरन ...कुछ लक्ष्मी जी के मोह में ..वैसे भी इन दिनों इतने डोनेशन कॉलेज खुल रहे है की सड़क पर एप्रन पहनकर सब्जी खरीदते ओर जूस पीते लोग रोज दिख जाते है...वो दिन दूर नहीं.....एक मरीज ....सौ डॉ

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  3. aapke byang kasane ke tarike ke kya kahane ... bahot sahi likha hai aapne aaj ke pariwesh ke Dr. sahabon ke liye... dhero badhai aapko...

    apni nai post pe aapka pyar chahunga bahot dino se nai mila...


    arsh

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  4. sanjay grover ji pura lekh hi badhiya hai. lekin cartoon kafi shandar laga

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कहने को बहुत कुछ था अगर कहने पे आते....

देयर वॉज़ अ स्टोर रुम या कि दरवाज़ा-ए-स्टोर रुम....

ख़ुद फंसोगे हमें भी फंसाओगे!

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