ग़ज़ल
आसमानों से दूर रहता हूं
बेईमानों से दूर रहता हूं
वो जो मिल-जुलके बेईमानी करें
ख़ानदानों से दूर रहता हूं
असलियत को जो छुपाना चाहें
उन फ़सानों से दूर रहता हूं
हुक़्म उदूली करुं,नहीं चाहता
हुक़्मरानों से दूर रहता हूं
मुझमें सच्चाईयों के कांटें हैं
बाग़वानों से दूर रहता हूं
प्यार के नाम पे जो चलतीं हैं
उन दुकानों से दूर रहता हूं
हिंदुओं तुम भी मुझसे दूर रहो
मुस्लमानों से दूर रहता हूं
कोई इंसान हो तो आ जाए
मैं बेगानों से दूर रहता हूं
-संजय ग्रोवर
04-01-2018
आसमानों से दूर रहता हूं
बेईमानों से दूर रहता हूं
वो जो मिल-जुलके बेईमानी करें
ख़ानदानों से दूर रहता हूं
असलियत को जो छुपाना चाहें
उन फ़सानों से दूर रहता हूं
हुक़्म उदूली करुं,नहीं चाहता
हुक़्मरानों से दूर रहता हूं
मुझमें सच्चाईयों के कांटें हैं
बाग़वानों से दूर रहता हूं
प्यार के नाम पे जो चलतीं हैं
उन दुकानों से दूर रहता हूं
हिंदुओं तुम भी मुझसे दूर रहो
मुस्लमानों से दूर रहता हूं
कोई इंसान हो तो आ जाए
मैं बेगानों से दूर रहता हूं
-संजय ग्रोवर
04-01-2018
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (06-01-2018) को "*नया साल जबसे आया है।*" (चर्चा अंक-2840) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'