व्यंग्य
मानसिक रुप से परतंत्र आदमी की मनोदशा इतनी विचित्र होती है कि कई बार वह स्वंतंत्रता और स्वतंत्र आदमी की कल्पना भी ठीक से नहीं कर पाता। किसी भी सत्ता को ग़ाली देने से पहले भी वह ठीक वैसी ही एक सत्ता तलाशता है। उसे लगता है कि दुनिया में आदमी और विचार बाद में पैदा हुआ, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, मार्क्सवाद, गांधीवाद, अंबेडकरवाद, क्रेमलिन, व्हाइट हाउस, संसद भवन, जे एन यू, पटेल चौक, आई टी ओ मार्ग आदि-आदि पहले पैदा हुए। वह सोचता है चूंकि मैं इसलिए ‘स्वतंत्र’ हूं क्योकि किसीकी गोद में बैठा हूं इसलिए दूसरा आदमी बिना मेरे जैसी तरक़ीब किए स्वतंत्र कैसे हो सकता है, वह बेचारा तो गोदविहीन है ! यह आदमी हैरान होता रहता है कि हाय सत्ता में आते ही सब एक जैसे क्यों हो जाते हैं !? यह आदमी थोड़ा ख़ुद पर नज़र डाल लिया करे तो इसे समझ में आ जाए कि इसमें हाय-बाय करने जैसा कुछ नहीं है, ऐसे लोग सत्ता में आने से पहले भी एक जैसे होते हैं। और दरअसल ऐसे लोग अकसर सत्ता में आने से पहले भी किसी न किसी छोटी-मोटी या अमूर्त्त सत्ता का पूरा लुत्फ़ ले रहे होते हैं। कहने को ये ज़िंदगी-भर सत्ता में न आएं पर दरअसल ये हमेशा किसी न किसी सत्ता में रहते है। यह शीशे की तरह साफ़ है कि जो लोग स्पष्टतः किसी विचारधारा के घोषित समर्थक होते हैं, ज़्यादातर उन्हींके हर विचारधारा में ‘बढ़िया संबंध’ और अच्छा ‘आना-जाना’ होता है। ऐसा आदमी कभी कहता है कि ‘मैं इसके-उसके साथ मंच शेयर नहीं करुंगा’ तो कभी कहता है कि ‘लोकतंत्र में बिना बात-चीत के गाड़ी कैसे चलेगी !’ यह आदमी पैसा शेयर करता है, शादी-समारोह शेयर करता है, त्यौहार शेयर करता है पर मंच शेयर नहीं करता।
लगता तो यही है कि इस आदमी को व्यक्तिगत और सार्वजनिक रुप में क्या-क्या और कैसा-कैसा होना चाहिए से ज़्यादा चिंता इस बात की होती है कि दिखना कहां कैसा चाहिए। परेशानी एक यह भी है कि सामाजिक या सार्वजनिक रुप से तो आदमी दिख भी सकता है मगर ‘व्यक्तिगत रुप से दिखने’ का तो कोई तरीक़ा अभी तक ईजाद हुआ नहीं है ! ऐसा कैसे हो जाएगा कि वही क्षण व्यक्तिगत भी रहें और वही दिख भी जाएं! ऐसे में साफ़ है कि व्यक्तिगत रुप में तो आदमी ऐसा ही ‘दिखेगा’ जैसा दिखना चाहेगा। और जैसा ख़ुद दिखना चाहे वैसा तो आजकल कोई नेता को भी नहीं दिखाता तो इस तथाकथित पवित्र साहित्यकार को क्यों दिखाए!! ऐसा आदमी कभी तो कहता है कि ‘देखो मेरा कुछ भी व्यक्तिगत नहीं है, सब कुछ लोगों के सामने है, मैं तो ख़ुली क़िताब हूं’ तो कभी कहता है कि ‘व्यक्तिगत पर बात मत करो, इससे ज़्यादा घटिया कोई बात नहीं होती’। कई तो मैं ऐसे देखता हूं कि उनका बस चले तो किसीसे पहली बार हाथ मिलाने से पहले भी उसका सारा व्यक्तिगत बायोडाटा मंगा लें। यही सबसे ज़्यादा व्यक्तिगत के खि़लाफ़ होते है और इन्हींके पास सबसे ज़्यादा औरों की व्यक्तिगत जानकारियां होतीं हैं। इन्हें व्यक्तिगत रुप से एड्स् हो चाहे कैंसर हो, वो तो ‘ईश्वर की अनुकंपा’ और इनका ‘इम्तिहान’ होता है और दूसरे को सामाजिक रुप से ज़ुकाम या कब्ज़ भी हो जाए तो वो उसकी ’सामाजिक और साहित्यिक त्रुटि’ होती है। हिंदी तथाकथित साहित्य में व्यक्तिगत का लफ़ड़ा और मज़ेदार है। यह सारा लफ़ड़ा तब खड़ा होता है जब कोई सही-सही आलोचना कर दे। वरना आप किसीकी जितनी मर्ज़ी तारीफ़ करो, झूठी ही करो, कोई नहीं कहेगा कि भाई मेरा व्यक्तिगत क्यों लिख रहे हो। तारीफ़ तो इनका बस चले तो ये दूसरों को अपने ख़र्चे से इंजेक्शन देके भी करवा लें। क्या दिलचस्प नहीं है कि सच्चे लेखन का आधार तो अपना अनुभव ही होना चाहिए। और अनुभव और उसका आकलन तो ज़्यादातर व्यक्तिगत स्तर पर ही होता है। वरना लिखते रहो कथित पवित्र हवाओं में कथित पवित्रता की कविताएं।
मज़े की बात यह है कि यही लोग कभी एक ही आदमी की ‘अकेले पड़ जाओगे’ के महान ‘तर्क’ से हंसी भी उड़ा रहे होते हैं और फिर कभी उसी आदमी को ‘सत्ता के दलाल’ जैसे ‘तर्क’ से बदनाम करने की कोशिश में भी जुट जाते हैं। मुझे लगता है कि अब तो तोते भी जानने लगे होंगे कि ‘अकेले पड़ जाओगे’ या ‘सत्ता के दलाल’ कह देना, दोनों में से किसीको भी तर्क नहीं कहा जा सकता। मगर असली दलालों को तो सब कुछ रेडीमेड पाने की आदत होती है। उन्हें आप चाहे ‘कर्म’ के ‘फ़ील्ड’ में डाल दो चाहे ‘विचार’ के चाहे तर्क के, वे हर जगह दूसरों के बनाए माल पर मौज मारते हैं। मज़े-मज़े में एक और मज़े की बात यह भी है कि अकेले मरोगे तुम लेकिन ‘अकेले मरने’ का क्रेडिट भी वह ले जाएगा जिसके पास ख़ुदको मीडिया में ‘अकेला मरा’ घोषित करवा पाने की जुगाड़ होगी। इन अकेलों में भी कईयों के मकान स्थाई रुप से किसी सत्ता के क़रीब होते हैं तो कईयों के अस्थाई तौर पर। बच्चे भी जानने लगे हैं कि कई मकानों के लोग सत्ता के इतने क़रीब होते हैं कि वहां से बतौर विद्रोही विभिन्न मीडिया माध्यमों में आना-दिखना सबसे आसान होता है।
अपन के यहां ऐसे दूसरे रास्ते दोस्ती, जुगाड़ और चमचागिरी वगैरह रहते हैं। चमचागिरी कमरे के अंदर बैठकर अपना काम करती है तो स्वाभिमान कमरे के बाहर खड़ा पहरा देता है कि अंदर क्या देखने जा रहे हो, यहां मुझे देखकर काम क्यों नहीं चलाते ! ऐसा आदमी जिस भी पेशे या गुट या इमारत से जुड़ जाता है उसीके आस-पास तरह-तरह की नकली पवित्रताएं, शुद्धताएं और परिभाषाएं इकट्ठा करना शुरु कर देता है। मुसीबत जब हो जाती है जब वह कभी-कभार अपने ही पेशे, ख़ानदान, इमारत, मकान, दुकान वगैरह के किसी आदमी से किसी वजह से नाराज़ हो जाता है। अब तक वह इतना ज्यादा इस पवित्रता की घोषणा कर चुका होता है कि अब उसी मुंह से उस पवित्रता के खि़लाफ़ तर्क जुटाना भारी पड़ जाता है (मैं यहां मुंह की जगह थूथन भी लिख सकता हूं मगर मुझे नहीं लगता कि इसमें कोई व्यंग्य या तर्क है।) ऐसे में किसी दोस्त विचारधारा से कुछ दिन के लिए उसका मुंह मांगना पड़ता है, भारी-भरकम, अटपटी पवित्रता से लिथड़ी रचनाओं से वक्त काटना पड़ता है। कई बार तो उसी अध्यात्मिक प्रभामंडल को विस्तार देना पड़ जाता है जिसके विरोध में पर्सनैलिटी निखरी होती है। ऐसा आदमी तब तक क्रांतिकारी रहता है जब तक उसे भरपूर प्रतिष्ठा और झोली-भर पुरस्कार न मिल जाएं। यह आदमी हीन-भावना से इस कदर ग्रस्त होता है कि रात-दिन जिस सत्ता को ग़ालियां देता है, जब तक उसीसे पुरस्कार, वजीफ़े वगैरह न पाले तब तक अपनी नज़रों में ही संदिग्ध बना रहता है। ठीक ये सब मिलते ही वह अपनी मुरझाई हुई डंडी को अपनी जगह लाने के लिए नक़ली दुश्मन तलाशने और नकली लड़ाईयां लड़ने निकल पड़ता है।
ऐसा आदमी अपने यहां, कहां नहीं होता !
-संजय ग्रोवर
02-08-2013
(कोई एक व्यक्ति इस व्यंग्य को अपने ऊपर लिखा समझकर ख़ामख़़्वाह ख़ुशफ़हमियां न पाले, यह कई व्यक्तियों पर लिखा गया है। और सब जानते हैं कि कई व्यक्तियों पर लिखते ही बात सामाजिक हो जाती है।)
मानसिक रुप से परतंत्र आदमी की मनोदशा इतनी विचित्र होती है कि कई बार वह स्वंतंत्रता और स्वतंत्र आदमी की कल्पना भी ठीक से नहीं कर पाता। किसी भी सत्ता को ग़ाली देने से पहले भी वह ठीक वैसी ही एक सत्ता तलाशता है। उसे लगता है कि दुनिया में आदमी और विचार बाद में पैदा हुआ, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, मार्क्सवाद, गांधीवाद, अंबेडकरवाद, क्रेमलिन, व्हाइट हाउस, संसद भवन, जे एन यू, पटेल चौक, आई टी ओ मार्ग आदि-आदि पहले पैदा हुए। वह सोचता है चूंकि मैं इसलिए ‘स्वतंत्र’ हूं क्योकि किसीकी गोद में बैठा हूं इसलिए दूसरा आदमी बिना मेरे जैसी तरक़ीब किए स्वतंत्र कैसे हो सकता है, वह बेचारा तो गोदविहीन है ! यह आदमी हैरान होता रहता है कि हाय सत्ता में आते ही सब एक जैसे क्यों हो जाते हैं !? यह आदमी थोड़ा ख़ुद पर नज़र डाल लिया करे तो इसे समझ में आ जाए कि इसमें हाय-बाय करने जैसा कुछ नहीं है, ऐसे लोग सत्ता में आने से पहले भी एक जैसे होते हैं। और दरअसल ऐसे लोग अकसर सत्ता में आने से पहले भी किसी न किसी छोटी-मोटी या अमूर्त्त सत्ता का पूरा लुत्फ़ ले रहे होते हैं। कहने को ये ज़िंदगी-भर सत्ता में न आएं पर दरअसल ये हमेशा किसी न किसी सत्ता में रहते है। यह शीशे की तरह साफ़ है कि जो लोग स्पष्टतः किसी विचारधारा के घोषित समर्थक होते हैं, ज़्यादातर उन्हींके हर विचारधारा में ‘बढ़िया संबंध’ और अच्छा ‘आना-जाना’ होता है। ऐसा आदमी कभी कहता है कि ‘मैं इसके-उसके साथ मंच शेयर नहीं करुंगा’ तो कभी कहता है कि ‘लोकतंत्र में बिना बात-चीत के गाड़ी कैसे चलेगी !’ यह आदमी पैसा शेयर करता है, शादी-समारोह शेयर करता है, त्यौहार शेयर करता है पर मंच शेयर नहीं करता।
लगता तो यही है कि इस आदमी को व्यक्तिगत और सार्वजनिक रुप में क्या-क्या और कैसा-कैसा होना चाहिए से ज़्यादा चिंता इस बात की होती है कि दिखना कहां कैसा चाहिए। परेशानी एक यह भी है कि सामाजिक या सार्वजनिक रुप से तो आदमी दिख भी सकता है मगर ‘व्यक्तिगत रुप से दिखने’ का तो कोई तरीक़ा अभी तक ईजाद हुआ नहीं है ! ऐसा कैसे हो जाएगा कि वही क्षण व्यक्तिगत भी रहें और वही दिख भी जाएं! ऐसे में साफ़ है कि व्यक्तिगत रुप में तो आदमी ऐसा ही ‘दिखेगा’ जैसा दिखना चाहेगा। और जैसा ख़ुद दिखना चाहे वैसा तो आजकल कोई नेता को भी नहीं दिखाता तो इस तथाकथित पवित्र साहित्यकार को क्यों दिखाए!! ऐसा आदमी कभी तो कहता है कि ‘देखो मेरा कुछ भी व्यक्तिगत नहीं है, सब कुछ लोगों के सामने है, मैं तो ख़ुली क़िताब हूं’ तो कभी कहता है कि ‘व्यक्तिगत पर बात मत करो, इससे ज़्यादा घटिया कोई बात नहीं होती’। कई तो मैं ऐसे देखता हूं कि उनका बस चले तो किसीसे पहली बार हाथ मिलाने से पहले भी उसका सारा व्यक्तिगत बायोडाटा मंगा लें। यही सबसे ज़्यादा व्यक्तिगत के खि़लाफ़ होते है और इन्हींके पास सबसे ज़्यादा औरों की व्यक्तिगत जानकारियां होतीं हैं। इन्हें व्यक्तिगत रुप से एड्स् हो चाहे कैंसर हो, वो तो ‘ईश्वर की अनुकंपा’ और इनका ‘इम्तिहान’ होता है और दूसरे को सामाजिक रुप से ज़ुकाम या कब्ज़ भी हो जाए तो वो उसकी ’सामाजिक और साहित्यिक त्रुटि’ होती है। हिंदी तथाकथित साहित्य में व्यक्तिगत का लफ़ड़ा और मज़ेदार है। यह सारा लफ़ड़ा तब खड़ा होता है जब कोई सही-सही आलोचना कर दे। वरना आप किसीकी जितनी मर्ज़ी तारीफ़ करो, झूठी ही करो, कोई नहीं कहेगा कि भाई मेरा व्यक्तिगत क्यों लिख रहे हो। तारीफ़ तो इनका बस चले तो ये दूसरों को अपने ख़र्चे से इंजेक्शन देके भी करवा लें। क्या दिलचस्प नहीं है कि सच्चे लेखन का आधार तो अपना अनुभव ही होना चाहिए। और अनुभव और उसका आकलन तो ज़्यादातर व्यक्तिगत स्तर पर ही होता है। वरना लिखते रहो कथित पवित्र हवाओं में कथित पवित्रता की कविताएं।
मज़े की बात यह है कि यही लोग कभी एक ही आदमी की ‘अकेले पड़ जाओगे’ के महान ‘तर्क’ से हंसी भी उड़ा रहे होते हैं और फिर कभी उसी आदमी को ‘सत्ता के दलाल’ जैसे ‘तर्क’ से बदनाम करने की कोशिश में भी जुट जाते हैं। मुझे लगता है कि अब तो तोते भी जानने लगे होंगे कि ‘अकेले पड़ जाओगे’ या ‘सत्ता के दलाल’ कह देना, दोनों में से किसीको भी तर्क नहीं कहा जा सकता। मगर असली दलालों को तो सब कुछ रेडीमेड पाने की आदत होती है। उन्हें आप चाहे ‘कर्म’ के ‘फ़ील्ड’ में डाल दो चाहे ‘विचार’ के चाहे तर्क के, वे हर जगह दूसरों के बनाए माल पर मौज मारते हैं। मज़े-मज़े में एक और मज़े की बात यह भी है कि अकेले मरोगे तुम लेकिन ‘अकेले मरने’ का क्रेडिट भी वह ले जाएगा जिसके पास ख़ुदको मीडिया में ‘अकेला मरा’ घोषित करवा पाने की जुगाड़ होगी। इन अकेलों में भी कईयों के मकान स्थाई रुप से किसी सत्ता के क़रीब होते हैं तो कईयों के अस्थाई तौर पर। बच्चे भी जानने लगे हैं कि कई मकानों के लोग सत्ता के इतने क़रीब होते हैं कि वहां से बतौर विद्रोही विभिन्न मीडिया माध्यमों में आना-दिखना सबसे आसान होता है।
अपन के यहां ऐसे दूसरे रास्ते दोस्ती, जुगाड़ और चमचागिरी वगैरह रहते हैं। चमचागिरी कमरे के अंदर बैठकर अपना काम करती है तो स्वाभिमान कमरे के बाहर खड़ा पहरा देता है कि अंदर क्या देखने जा रहे हो, यहां मुझे देखकर काम क्यों नहीं चलाते ! ऐसा आदमी जिस भी पेशे या गुट या इमारत से जुड़ जाता है उसीके आस-पास तरह-तरह की नकली पवित्रताएं, शुद्धताएं और परिभाषाएं इकट्ठा करना शुरु कर देता है। मुसीबत जब हो जाती है जब वह कभी-कभार अपने ही पेशे, ख़ानदान, इमारत, मकान, दुकान वगैरह के किसी आदमी से किसी वजह से नाराज़ हो जाता है। अब तक वह इतना ज्यादा इस पवित्रता की घोषणा कर चुका होता है कि अब उसी मुंह से उस पवित्रता के खि़लाफ़ तर्क जुटाना भारी पड़ जाता है (मैं यहां मुंह की जगह थूथन भी लिख सकता हूं मगर मुझे नहीं लगता कि इसमें कोई व्यंग्य या तर्क है।) ऐसे में किसी दोस्त विचारधारा से कुछ दिन के लिए उसका मुंह मांगना पड़ता है, भारी-भरकम, अटपटी पवित्रता से लिथड़ी रचनाओं से वक्त काटना पड़ता है। कई बार तो उसी अध्यात्मिक प्रभामंडल को विस्तार देना पड़ जाता है जिसके विरोध में पर्सनैलिटी निखरी होती है। ऐसा आदमी तब तक क्रांतिकारी रहता है जब तक उसे भरपूर प्रतिष्ठा और झोली-भर पुरस्कार न मिल जाएं। यह आदमी हीन-भावना से इस कदर ग्रस्त होता है कि रात-दिन जिस सत्ता को ग़ालियां देता है, जब तक उसीसे पुरस्कार, वजीफ़े वगैरह न पाले तब तक अपनी नज़रों में ही संदिग्ध बना रहता है। ठीक ये सब मिलते ही वह अपनी मुरझाई हुई डंडी को अपनी जगह लाने के लिए नक़ली दुश्मन तलाशने और नकली लड़ाईयां लड़ने निकल पड़ता है।
ऐसा आदमी अपने यहां, कहां नहीं होता !
-संजय ग्रोवर
02-08-2013
(कोई एक व्यक्ति इस व्यंग्य को अपने ऊपर लिखा समझकर ख़ामख़़्वाह ख़ुशफ़हमियां न पाले, यह कई व्यक्तियों पर लिखा गया है। और सब जानते हैं कि कई व्यक्तियों पर लिखते ही बात सामाजिक हो जाती है।)
वाह
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रस्तुति को शुभारंभ : हिंदी ब्लॉगजगत की सर्वश्रेष्ठ प्रस्तुतियाँ ( 1 अगस्त से 5 अगस्त, 2013 तक) में शामिल किया गया है। सादर …. आभार।।
जवाब देंहटाएंकृपया "ब्लॉग - चिठ्ठा" के फेसबुक पेज को भी लाइक करें :- ब्लॉग - चिठ्ठा
संजय भाई...कमाल का लिखा है...सटीक और धारधार...
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