13-07-2013
अकेले भारत में जितना चरित्र पाया जाता है शायद दुनिया के सारे देशों के चरित्रों को जोड़ लेने से भी उतना चरित्र न पैदा हो पाए। चप्पा-चप्पा चरित्र से भरा पड़ा है। भारत के चरित्र के साथ समस्या बस एक ही है--यह शर्मीला बहुत है, क़िताबों, अख़बारों, दीवारों, टीवियों से बाहर ही नहीं आता, वहीं छुपा, पड़ा रहता है। इसी शर्मीलेपन की वजह से यह व्यवहार में कहीं दिखाई नहीं पड़ता। लोग भी अपने यहां के बिज़ी बहुत हैं ; वे भी चरित्र की बातें ख़ाली वक्त में करते हैं। काम के वक्त काम करते हैं। वैसे भी काम से चरित्र का क्या लेना। या तो काम कर लो या चरित्र के पौधे में पानी लगा लो। लगभग सभी भारतीय जानते हैं कि ये दोनों काम एक साथ संभव नहीं हैं। आप उन दुकानों पे जाईए जो दुर्भाग्यवश लोकपाल जैसे पवित्र क़ानून के दायरे में न आ सकी, मगर फिर भी पवित्रता मेंटेन कर रहीं हैं; यहां आपको चरित्र सामने ही कहीं टंगा मिल जाएगा--‘क्या लेकर आए थे, क्या लेकर जाओगे’....ऐसे तरह-तरह के वाक्य आपको कील पे टंगे फड़फड़ाते मिलेंगे; जैसे कोई मसीहा सूली पे लटक रहा हो। जिस ग्राहक के पास फ़ालतू टाइम रहता है वह इन्हें देखकर ख़ुश होता है। कई ग्राहक अवचेतन मन में तो कई चेतन मन में यह जानते होते हैं कि यह सिर्फ़ देखकर ख़ुश होने की चीज़ है। असल में यहां लिखा होना चाहिए था--‘मूर्खो! अगर आए ख़ाली हाथ थे तो क्या जाओगे भी ख़ाली हाथ!! फिर तुमसे बड़ा उल्लू का चरख़ा कौन होगा!? अरे, किसलिए तुम्हे ख़ाली हाथ भेजा गया? इसीलिए कि कुछ भर-वरके लौटो।’ और थोड़ी देर बाद जब ग्राहक और दुकानदार में ख़ुसुर-पुसुर या घिसिर-घिसिर शुरु होती है तो चरित्र ख़ुद ही समझ जाता है कि अब मेरा रोल ख़त्म ; और वह साइड में हो जाता है।
कई दुकानों में जगह कम होती है इसलिए नौकर या दुकानदार बाहर स्टूल डालके बैठ लेते हैं, चरित्र अंदर ही अकसर सामने की दीवार पर चिपका रहता है। चरित्र को कोई बाहर नहीं बिठाता ; उठके न जाने किसके साथ चल पड़े। चरित्र के चरित्र पर कोई भरोसा नहीं करता। मालूम ही है कि अभिनय छोड़ अपनी पर आ गया तो नुकसान के सिवाय और तो कुछ होने नहीं वाला।
पिछले कुछ साल से मैंने चरित्र ख़रीदना बंद कर दिया है। लेकिन लोग आज भी काफ़ी मात्रा में चरित्र ले रहे हैं। सुबह का वक्त चरित्र के लिए इसलिए मुफ़ीद है कि इस वक्त भारत के कई संस्थान और एजेंसियां भारी मात्रा में चरित्र सप्लाई करते हैं। सुबह-सुबह अख़बारवाला लोगों के घरों में चरित्र फ़ेंक जाता है। अख़बार में तरह-तरह के नीतिवाक्य, संपादकीय, कार्टून, लेखादि डले रहते हैं। चरित्र के कई शौकीन इससे आनंद पाते हैं। सबको मालूम है कि चरित्र अख़बार में ढूंढना होता है, अख़बारवाले या संपादक वग़ैरह में नहीं। अगर ग़लत जगह चरित्र को सर्च किया तो भारी निराशा के साथ भारी मुसीबत का सामना भी करना पड़ सकता है। क्योंकि संपादकों के भी अपने चरित्र हैं। संपादक हो और उसका चरित्र न हो!! यह तो ऐसी ही बात होगी कि हाथी हो और उसके दांत न हों। बिना दांतों का हाथी क्या शोभा देगा!? वो भी ऐसी जगह पर जहां बहुत-से लोग तो चरित्र पालते ही शोभा के लिए हैं। चरित्र मुख्य द्वार पर ही जड़ा हो तो घर की सुंदरता ज़रा बैटर दिखाई पड़ती है। अब सोचिए कि संपादक के चरित्र के सामने आपका चरित्र क्या बेच लेगा! संपादकों के चरित्रों को अकसर तरह-तरह के दूसरे चरित्रों का भी सपोर्ट रहता है। इसलिए चरित्र ढूंढना वहीं ठीक रहता है जहां ढूंढने में कोई ख़तरा न हो। फ़िल्मों में आजकल थोड़ा कम हो गया है मगर टीवी में अभी भी काफ़ी चरित्र भरा रखा रहता है। सुबह ले लेना चाहिए क्योंकि दिन में तो व्यवहारिक ज़िंदगी शुरु हो जाती है। व्यवहारिक ज़िंदगी में नमक जितना चरित्र मिलाने पर भी सारा आटा बरबाद हो जाता है--मंचीय कवियों से लेकर..........(आप जो भी जोड़ना चाहें, जोड़ लें) तक सब जानते हैं। । चरित्र दिखाने की ज़्यादा खुजली उठे तो साल में एकाध बार स्टेज बांधकर चरित्र-चरित्र खेल लेना काफ़ी रहता है। इतने में ही चरित्र के लेन-देन के लिए अच्छा-ख़ासा स्पेस बन जाता है।
यह तो हुई चरित्र की प्रस्तावना। अब हम आते हैं मेन चरित्र पर। मेन चरित्र को अपने यहां स्त्रियों से जोड़ा गया है। अपने यहां पुरुष का बेचारे का अपना कोई चरित्र नहीं होता। घर की स्त्री क्या खा रही है, कहां जा रही है, किससे बात कर रही है, किसके साथ हंस रही है, कैसे कपड़े पहन रही है........इसीमें पुरुष और सारे परिवार का चरित्र, मर्यादा, शील, इज़्ज़त वगैरह सब इन्क्लूड कर दिए गए हैं। पुरुष बाज़ार में कच्छी पहनके घूमे तो भी भारत के चरित्र का बाल नहीं बांका होता। वह रात-भर होटल में न्यू ईयर मनाए, उसका चरित्र विद फ़ैमिली चौबीस कैरेट का रहता है। स्त्री नक़ाब उठाके भी झांके तो क़यामत आ जाती है-सारा कबीला हिलने लगता है, परिवारों की चूलें ढीली हो जातीं हैं, मर्यादा का बैंड बज जाता है, इज़्ज़त की खटिया खड़ी हो जाती है, धर्म पर संकट के बादल मंडराने लगते हैं, देश अस्थिर होने लगता है, लब्बो-लुआब यह कि काफ़ी कुछ ऐसा हो जाता है कि उसके बाद काफ़ी कुछ करने की गुंजाइश निकल आती है। इससे पता चलता है कि कुछ संस्कृतियों में स्त्रियों को कितनी भयानक जगह दी गयी है। इतनी जगह क्यों दी गयी है, नहीं देनी चाहिए थी। चरित्र जैसी अच्छी चीज़ का थोड़ा ठेका पुरुषों को भी लेना चाहिए था। सारा पुण्य स्त्रियों को क्यों लेने दे रहे हो!? थोड़ा तुम भी लो भाई। अच्छी चीज़ लेने में शरमाना कैसा!? इधर चरित्र के मामले में स्त्रियां भी खुल रहीं हैं। इक्का-दुक्का पहले भी निकल आया करतीं थीं। स्त्रियों को अलग़ समझना वैसे भी ग़लत था। जब संस्कृति के पूरे ही कुंएं में पाखण्ड की भांग पड़ी हो तो औरतें क्या कहीं और से पानी पीकर आएंगीं!? चरित्र की हमारे यहां कहीं कोई कमी नहीं है, बस मौक़ा मिलने या मौक़ा पैदा कर लेने की बात है।
इस सारे चारित्रिक सिलसिले में मुझे बस एक ही बात समझ में नहीं आती। जिस देश के आदमी के कण-कण में चरित्र भरा है, वहां व्यक्तिगत जीवन और सार्वजनिक जीवन को अलग़-अलग़ रखने पर इतना ज़ोर क्यों दिया जाता है!? जब कहीं कुछ गंदगी है ही नही तो फ़िर क्या दिख जाने का डर है!? कहीं कुछ गड़बड़ है क्या!? छोड़ो यार, बहुत बात हो गई चरित्र पर।
जहां मुद्दे पर ख़ुलकर बात करनी चाहिए वहीं मुद्दे को छोड़कर भाग जाना.......
यह भी हमारा ही चरित्र है।
हर कहीं नहीं मिलता।
-संजय ग्रोवर
अकेले भारत में जितना चरित्र पाया जाता है शायद दुनिया के सारे देशों के चरित्रों को जोड़ लेने से भी उतना चरित्र न पैदा हो पाए। चप्पा-चप्पा चरित्र से भरा पड़ा है। भारत के चरित्र के साथ समस्या बस एक ही है--यह शर्मीला बहुत है, क़िताबों, अख़बारों, दीवारों, टीवियों से बाहर ही नहीं आता, वहीं छुपा, पड़ा रहता है। इसी शर्मीलेपन की वजह से यह व्यवहार में कहीं दिखाई नहीं पड़ता। लोग भी अपने यहां के बिज़ी बहुत हैं ; वे भी चरित्र की बातें ख़ाली वक्त में करते हैं। काम के वक्त काम करते हैं। वैसे भी काम से चरित्र का क्या लेना। या तो काम कर लो या चरित्र के पौधे में पानी लगा लो। लगभग सभी भारतीय जानते हैं कि ये दोनों काम एक साथ संभव नहीं हैं। आप उन दुकानों पे जाईए जो दुर्भाग्यवश लोकपाल जैसे पवित्र क़ानून के दायरे में न आ सकी, मगर फिर भी पवित्रता मेंटेन कर रहीं हैं; यहां आपको चरित्र सामने ही कहीं टंगा मिल जाएगा--‘क्या लेकर आए थे, क्या लेकर जाओगे’....ऐसे तरह-तरह के वाक्य आपको कील पे टंगे फड़फड़ाते मिलेंगे; जैसे कोई मसीहा सूली पे लटक रहा हो। जिस ग्राहक के पास फ़ालतू टाइम रहता है वह इन्हें देखकर ख़ुश होता है। कई ग्राहक अवचेतन मन में तो कई चेतन मन में यह जानते होते हैं कि यह सिर्फ़ देखकर ख़ुश होने की चीज़ है। असल में यहां लिखा होना चाहिए था--‘मूर्खो! अगर आए ख़ाली हाथ थे तो क्या जाओगे भी ख़ाली हाथ!! फिर तुमसे बड़ा उल्लू का चरख़ा कौन होगा!? अरे, किसलिए तुम्हे ख़ाली हाथ भेजा गया? इसीलिए कि कुछ भर-वरके लौटो।’ और थोड़ी देर बाद जब ग्राहक और दुकानदार में ख़ुसुर-पुसुर या घिसिर-घिसिर शुरु होती है तो चरित्र ख़ुद ही समझ जाता है कि अब मेरा रोल ख़त्म ; और वह साइड में हो जाता है।
कई दुकानों में जगह कम होती है इसलिए नौकर या दुकानदार बाहर स्टूल डालके बैठ लेते हैं, चरित्र अंदर ही अकसर सामने की दीवार पर चिपका रहता है। चरित्र को कोई बाहर नहीं बिठाता ; उठके न जाने किसके साथ चल पड़े। चरित्र के चरित्र पर कोई भरोसा नहीं करता। मालूम ही है कि अभिनय छोड़ अपनी पर आ गया तो नुकसान के सिवाय और तो कुछ होने नहीं वाला।
पिछले कुछ साल से मैंने चरित्र ख़रीदना बंद कर दिया है। लेकिन लोग आज भी काफ़ी मात्रा में चरित्र ले रहे हैं। सुबह का वक्त चरित्र के लिए इसलिए मुफ़ीद है कि इस वक्त भारत के कई संस्थान और एजेंसियां भारी मात्रा में चरित्र सप्लाई करते हैं। सुबह-सुबह अख़बारवाला लोगों के घरों में चरित्र फ़ेंक जाता है। अख़बार में तरह-तरह के नीतिवाक्य, संपादकीय, कार्टून, लेखादि डले रहते हैं। चरित्र के कई शौकीन इससे आनंद पाते हैं। सबको मालूम है कि चरित्र अख़बार में ढूंढना होता है, अख़बारवाले या संपादक वग़ैरह में नहीं। अगर ग़लत जगह चरित्र को सर्च किया तो भारी निराशा के साथ भारी मुसीबत का सामना भी करना पड़ सकता है। क्योंकि संपादकों के भी अपने चरित्र हैं। संपादक हो और उसका चरित्र न हो!! यह तो ऐसी ही बात होगी कि हाथी हो और उसके दांत न हों। बिना दांतों का हाथी क्या शोभा देगा!? वो भी ऐसी जगह पर जहां बहुत-से लोग तो चरित्र पालते ही शोभा के लिए हैं। चरित्र मुख्य द्वार पर ही जड़ा हो तो घर की सुंदरता ज़रा बैटर दिखाई पड़ती है। अब सोचिए कि संपादक के चरित्र के सामने आपका चरित्र क्या बेच लेगा! संपादकों के चरित्रों को अकसर तरह-तरह के दूसरे चरित्रों का भी सपोर्ट रहता है। इसलिए चरित्र ढूंढना वहीं ठीक रहता है जहां ढूंढने में कोई ख़तरा न हो। फ़िल्मों में आजकल थोड़ा कम हो गया है मगर टीवी में अभी भी काफ़ी चरित्र भरा रखा रहता है। सुबह ले लेना चाहिए क्योंकि दिन में तो व्यवहारिक ज़िंदगी शुरु हो जाती है। व्यवहारिक ज़िंदगी में नमक जितना चरित्र मिलाने पर भी सारा आटा बरबाद हो जाता है--मंचीय कवियों से लेकर..........(आप जो भी जोड़ना चाहें, जोड़ लें) तक सब जानते हैं। । चरित्र दिखाने की ज़्यादा खुजली उठे तो साल में एकाध बार स्टेज बांधकर चरित्र-चरित्र खेल लेना काफ़ी रहता है। इतने में ही चरित्र के लेन-देन के लिए अच्छा-ख़ासा स्पेस बन जाता है।
यह तो हुई चरित्र की प्रस्तावना। अब हम आते हैं मेन चरित्र पर। मेन चरित्र को अपने यहां स्त्रियों से जोड़ा गया है। अपने यहां पुरुष का बेचारे का अपना कोई चरित्र नहीं होता। घर की स्त्री क्या खा रही है, कहां जा रही है, किससे बात कर रही है, किसके साथ हंस रही है, कैसे कपड़े पहन रही है........इसीमें पुरुष और सारे परिवार का चरित्र, मर्यादा, शील, इज़्ज़त वगैरह सब इन्क्लूड कर दिए गए हैं। पुरुष बाज़ार में कच्छी पहनके घूमे तो भी भारत के चरित्र का बाल नहीं बांका होता। वह रात-भर होटल में न्यू ईयर मनाए, उसका चरित्र विद फ़ैमिली चौबीस कैरेट का रहता है। स्त्री नक़ाब उठाके भी झांके तो क़यामत आ जाती है-सारा कबीला हिलने लगता है, परिवारों की चूलें ढीली हो जातीं हैं, मर्यादा का बैंड बज जाता है, इज़्ज़त की खटिया खड़ी हो जाती है, धर्म पर संकट के बादल मंडराने लगते हैं, देश अस्थिर होने लगता है, लब्बो-लुआब यह कि काफ़ी कुछ ऐसा हो जाता है कि उसके बाद काफ़ी कुछ करने की गुंजाइश निकल आती है। इससे पता चलता है कि कुछ संस्कृतियों में स्त्रियों को कितनी भयानक जगह दी गयी है। इतनी जगह क्यों दी गयी है, नहीं देनी चाहिए थी। चरित्र जैसी अच्छी चीज़ का थोड़ा ठेका पुरुषों को भी लेना चाहिए था। सारा पुण्य स्त्रियों को क्यों लेने दे रहे हो!? थोड़ा तुम भी लो भाई। अच्छी चीज़ लेने में शरमाना कैसा!? इधर चरित्र के मामले में स्त्रियां भी खुल रहीं हैं। इक्का-दुक्का पहले भी निकल आया करतीं थीं। स्त्रियों को अलग़ समझना वैसे भी ग़लत था। जब संस्कृति के पूरे ही कुंएं में पाखण्ड की भांग पड़ी हो तो औरतें क्या कहीं और से पानी पीकर आएंगीं!? चरित्र की हमारे यहां कहीं कोई कमी नहीं है, बस मौक़ा मिलने या मौक़ा पैदा कर लेने की बात है।
इस सारे चारित्रिक सिलसिले में मुझे बस एक ही बात समझ में नहीं आती। जिस देश के आदमी के कण-कण में चरित्र भरा है, वहां व्यक्तिगत जीवन और सार्वजनिक जीवन को अलग़-अलग़ रखने पर इतना ज़ोर क्यों दिया जाता है!? जब कहीं कुछ गंदगी है ही नही तो फ़िर क्या दिख जाने का डर है!? कहीं कुछ गड़बड़ है क्या!? छोड़ो यार, बहुत बात हो गई चरित्र पर।
जहां मुद्दे पर ख़ुलकर बात करनी चाहिए वहीं मुद्दे को छोड़कर भाग जाना.......
यह भी हमारा ही चरित्र है।
हर कहीं नहीं मिलता।
-संजय ग्रोवर
चरित्र अंदर ही अकसर सामने की दीवार पर चिपका रहता है। चरित्र को कोई बाहर नहीं बिठाता ; उठके न जाने किसके साथ चल पड़े।
जवाब देंहटाएंअच्छी बात, बढ़िया व्यंग्य
शक्ति
वाह . बहुत उम्दा,सुन्दर व् सार्थक प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंकभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
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जवाब देंहटाएंबहुत बढिया व्यंग । आजकल तो भारत का यही चरित्र है ।
जवाब देंहटाएंcharitr par aapka likha yeh lekh bahut kuchh keh gayaa tatha kaphi gehri pakad bhee bnae rakhaa hai.
जवाब देंहटाएंpoore samay bandhe rakhne men saksham hai,badhai.
ashok andre