ग़ज़ल
देश को जुमलों से बहलाने निकले हैं
लगता यूं है देश बचाने निकले हैं
नाक पकड़ कर घूम रहे थे सदियों से
अंदर से जो ख़ुद पाख़ाने निकले हैं
नशा पिलाकर यारा इनका नशा उतार
ज़हन में जिनके दारुख़ाने निकले हैं
ज़िंदा लाशों की रहमत कुछ ऐसी है
चलते-फिरते मुर्दाखाने निकले हैं
बचके रहना, सामने मत इनके आना
आईने फिर अक़्स भुनाने निकले हैं
आम आदमी फिर कुछ खोने वाला है!
ख़ास आदमी फिर कुछ पाने निकले हैं
-संजय ग्रोवर
वाह.....
जवाब देंहटाएंबहुत खूब.
अनु
सादर अभिवादन!
जवाब देंहटाएं--
बहुत अच्छी प्रस्तुति!
इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (27-10-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
जवाब देंहटाएंThursday, October 25, 2012
आईने फिर अक़्स भुनाने निकले हैं
ग़ज़ल
देश को जुमलों से बहलाने निकले हैं
लगता यूं है देश बचाने निकले हैं
नाक पकड़ कर घूम रहे थे सदियों से
अंदर से जो ख़ुद पाख़ाने निकले हैं
नशा पिलाकर यारा इनका नशा उतार
ज़हन में जिनके दारुख़ाने निकले हैं
ज़िंदा लाशों की रहमत कुछ ऐसी है
चलते-फिरते मुर्दाखाने निकले हैं
बचके रहना, सामने मत इनके आना
आईने फिर अक़्स भुनाने निकले हैं
आम आदमी फिर कुछ खोने वाला है!
ख़ास आदमी फिर कुछ पाने निकले हैं
-संजय ग्रोवर
संजय ग्रोवर साहब सीधा संवाद है यह गजल आजकी बदकारी से व्यवस्था से .हर अश -आर .करता है मार ,बे -शुमार .
बहुत खूब। पाखाने का प्रयोग बहुत साहसी रहा।
जवाब देंहटाएंWhy users still use to read news papers when in this technological world
जवाब देंहटाएंeverything is existing on net?
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नशा पिलाकर यारा इनका नशा उतार
जवाब देंहटाएंज़हन में जिनके दारुख़ाने निकले हैं
वाह वाह वाह...
shailagrawala@gmail.com
जवाब देंहटाएंआँख खोलने वाला व्यंग्य संजय जी। बधाई।
आँख खोलने वाला व्यंग्य संजय जी। बधाई।
जवाब देंहटाएंआँख खोलने वाला व्यंग्य संजय जी। बधाई।
जवाब देंहटाएंI always used to read piece of writing in news papers but now as I am a user of net thus from now I
जवाब देंहटाएंam using net for articles or reviews, thanks to web.
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