प्रतिष्ठा
मर्दाना और जनाना
दोनों तरह की कमज़ोरियों को
दूर करती है
पुरस्कार
खोयी हुई जवानी वापस लाते हैं
देखिए इस अखाड़े में
भांति-भांति के विद्रोही
नाना प्रकार की कसरतें कर रहे हैं
अभी गुरु लोग देने वाले हैं इन्हें
दीक्षा
कि कहां से कहां तक करना है विद्रोह
हमारी बताई लकीरों से इधर-उधर हुए तो
न तो कोई तुम्हे अख़बार में परसेगा
न चैनल पर जिमाएगा
हमारी मानोगे तो
जगह-जगह, तरह-तरह से
अडजस्ट करते हुए भी विद्रोही कहाओगे
ठीक वैसे ही जैसे
लौंडेबाज़ी करते हुए भी
ब्रहमचारी कहाते हैं पेलवान
हां हां क्यों नहीं
कैरियराकुल क्रांतिकारी तो पहले ही माने बैठे हैं
उन्हें तो बनना ही है विश्वसनीय विद्रोही
सामाजिक-मान्यता-प्राप्त-आवारा
उन्होंने देख ही लिया है
किस तरह टी.वी. का ऐंकर
हज़ारों साल पुराने विचारों में लिथड़े
लकड़बग्घों को
विस्फ़ोटक स्वर में
अनऑर्थोडॉक्स घोषित करता है
छोड़ो भी यार
तुम तो पीछे ही पड़ जाते हो
आधी ज़िंदगी तो तुम भी
इन्हीं खोखलों को ठोस मानते रहे
कमज़ोरों को बताते रहे ताक़तवर
इनकी तथाकथित उपलब्धियों से घबराकर
अपराध बोध में जलते रहे
अब ख़ुश होवो कि
वक्त रहते पता चल गया
एक के सर पर चढ़कर ही
दूसरा बड़ा कहलाता है
इधर कैरियर बनता है
उधर बग़ावत पूरी होती है
बधाई हो श्रीमान/मति/पति/सती इत्यादि
अब आप सेहतमंद हो गए हैं
-संजय ग्रोवर
अच्छी कविता।
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