‘सरगुरु, आजकल महिलाएं बहुत संकट में हैं.....’
‘इन्हें ढंककर रखना चाहिए, सर से पांव तक....मैंने पहले भी कहा.....’
‘मगर सरगुरु....इसके बावजूद भी तो सब होता ही है....’
‘अकेले बाहर नहीं भेजना चाहिए.....कोई आई, भाई, माई, झाई, दाई...साथ होना चाहिए....’
‘पर केस तो तब भी होते हैं......’
‘दरअसल घर से बाहर नहीं निकलने देना चाहिए.....वही है मुसीबत की जड़...’
‘पर घर में भी हम लोग......मेरा मतलब है लोग बाज़ नहीं आते....’
‘देखो हमारी नयी तकनीक से कोई दुश्मनी तो है नहीं.....कुछ लॉकर टाइप बनाकर उसमें औरतों को रखा जा सकता है, चाबियां दो-तीन हों जो घर के दो-तीन बुज़ुर्गों के पास रहें.....’
‘क्या बात कर रहे हैं, लॉकर तो बहुत छोटे होते हैं....’
’नहीं वैसे नहीं.....दड़बे जैसे तो होने ही चाहिए......घर के सभी काम निपटाकर वे वहां आराम कर सकती हैं’
‘वहां उनका मन कैसे लगेगा, सरगुरु....’
‘वहां उन्हें धर्मग्रंथ दिए जाएं....उन्हें तो वे खुद भी छोड़ने को तैयार नहीं होतीं.....’
‘लेकिऩ मसला केवल शरीर का तो नहीं है, हम कोई भौतिकवादी तो हैं नहीं...अगर उन्हें वहां किसीका ख़्याल आ गया तो उनका मन, उनकी रुह, उनकी आत्मा इत्यादि भ्रष्ट नहीं हो जाएंगे......’
‘तो फ़िर.....उनके लिए बिल बनाए जा सकते हैं.....जब वे अंदर घुस जाएं तो बाहर से मिट्टी डाल दी जाए....'
‘अजी ऐसे तो वो मर ही जाएंगीं.......’
‘मर जाएंगी तो क्या हुआ, इज़्ज़त तो बची रहेगी।’
-संजय ग्रोवर