गुरुवार, 9 सितंबर 2010

तुम्हारे हंसने पे आता है हंसना

ग़ज़ल


ज़ुबां तक बात गर आई नहीं है
कहूं क्या ! उसमें सच्चाई नहीं है


तुम्हारे हंसने पे आता है हंसना
ज़रा भी इसमें गहराई नहीं है


अदाकारी करे जो प्यार में भी
वो चालाकी है अंगड़ाई नहीं है


जो मेरी अक्ल को पत्थर बना दे
कि तुमने वो अदा पाई नहीं है


हैं मेरे पास सब नक्शों के नक्शे
तुम्हे आवाज़ तक आई नहीं है
तेरी आवारगी में भी गणित है
अक़ल ये हमको आज आई नहीं है


तू हिंदू हो या मुस्लिम, मैं ये जानूं
तुझे इंसानियत आई नहीं है


शुकर है कुछ तजुरबे काम आए
वगरना कौन हरजाई नहीं है


-संजय ग्रोवर

31 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत अच्छा लिखा है आपने। वैसे मेरा एक विचार था कि तुकबंदी में सभी लाइनों में 'नहीं है' शब्द आये हैं। इसे "है नहीं" कर देने से और अच्छा रहता। वैसे ये सिर्फ मेरा विचार है, कोई जरूरी नहीं कि ये सही ही हो।

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  2. तेरी आवारगी में भी गणित है
    अक़ल ये हमको आज आई नहीं है
    aapne sundar likha hai . badhayi

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  3. संजय साब , कई वक्त के बाद मुक्कमल हसीन गज़ल पढ़ी है.सभी शेर कमाल के हैं और मस्त कर रहे हैं.कई बार पढ़ चुका और दिल नहीं भरा है .ये दो शेर एक दम नए और पुरअसर ,डुबो गए साहब
    अदाकारी करे जो प्यार में भी
    वो चालाकी है अंगड़ाई नहीं है
    शुकर है कुछ तजुरबे काम आए
    वगरना कौन हरजाई नहीं है
    कुछ ख्याल सा आ रहा है , अर्ज कर रहा हूँ
    जरा हंस-मुस्करा कर बोले साहब
    फँस गए हम बेचारे भोले साहब
    दुनिया का मुझे तजुर्बा नहीं है
    तजुर्बे ने मुझे बता दिया है

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  4. तू हिंदू हो या मुस्लिम, मैं ये जानूं
    तुझे इंसानियत आई नहीं है bahut khub ..behtreen likha hai aapne

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  5. तुम्हारे हंसने पे आता है हंसना
    ज़रा भी इसमें गहराई नहीं है
    ...........
    लाजवाब !!!

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  6. बहुत ख़ूब!
    अँगड़ाई की अदाकारी हमें ख़ूब जमी। ग़ज़ल पूरी अच्छी है।

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  7. गुड्डोदादी (चिकागो अमेरिका से )10 सितंबर 2010 को 2:31 am बजे

    बहुत खूबसूरत शब्द

    नदीम अख्तर जी ने सही लिखा

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  8. umda ,bandhi hui mukammal ghazal.
    Manana hi padega aapki bhavpravanta aur samvedanaparak drishti ko.
    Badhai ,ek khoobsoorat rachna ke liye.
    sasneh,
    dr.bhoopendra
    jeevansandarbh.blogspot.com

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  9. तू हिंदू हो या मुस्लिम, मैं ये जानूं
    तुझे इंसानियत आई नहीं है
    बहुत अच्छा। हम सब बन जाते हैं, इंसान ही नहीं बनते।

    अंक-8: स्वरोदय विज्ञान का, “मनोज” पर, परशुराम राय की प्रस्तुति पढिए!

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  10. सच कहूँ तो आपकी ग़ज़लें पढने के बाद आपके कलम को चूमने को दिल करता है ...लेकिन लेकिन....एक दिक्कत है ....क्या है की मुझे पता लगा है की ये बैगेर keypaed के संभव नहीं है.. सो मजबूर हूँ सर...बाकी आपकी ग़ज़ल हर आवक सी कर जाती है...एक गहरा सन्नाटा छोड़ते हुए ...

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  11. अदाकारी करे जो प्यार में भी
    वो चालाकी है अंगड़ाई नहीं है

    -वाह! क्या बात है.

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  12. bahut achche sabdon ka uchit sthan per uchit prayog kiya hai badhai sweekaren.....

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  13. कई बार मेल से आपका लिंक मिला.. कभी इस बहाने, कभी उस बहाने छूत गया यहाँ आना.. आज सोचा क्लिक करता हूँ और क्लिक करते ही घंटी बजी दिलो दिमाग़ में.. सारे सारे शेर बेहतर, किसे कोट करूँ...

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  14. संजय, ये खूब रही:-

    शुकर है कुछ तजुरबे काम आए
    वगरना कौन हरजाई नहीं है

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  15. हर शेर शानदार...
    सुन्दर ग़ज़ल !!!!

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  16. your ghazal is good.congrats.
    please join my blog dil ki baat
    for ghazals please click here http://ntushar.blogspot.com

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कहने को बहुत कुछ था अगर कहने पे आते....

देयर वॉज़ अ स्टोर रुम या कि दरवाज़ा-ए-स्टोर रुम....

ख़ुद फंसोगे हमें भी फंसाओगे!

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ढूंढो-ढूंढो रे साजना अपने काम का मलबा.........

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