शुक्रवार, 17 सितंबर 2010

लेखन में रामराज्य

‘रामराज्य‘ रोके से न रूकता था। आए ही जा रहा था। एक विशेष राजनीतिक दल को इसे लाने का ठेका दिया गया था। व्यंग्यकार चिंतित थे कि राम राज्य आ गया तो लिखने को क्या रह जाएगा। और इसी चिंता में लिखे जा रहे थे। ऐसी ही किसी ‘सिचुएशन‘ में एक महिला ने अपनी सहेली से पूछा कि वह स्वेटर इतनी तेज़ रफ्तार से क्यों बुन रही है। महिला ने जवाब दिया कि ऊन बहुत थोड़ी बची है। और इसके खत्म हो जाने के पहले ही वह स्वेटर पूरा कर लेना चाहती है। इसके अलावा भी व्यंग्यकारों ने देख लिया था कि महाकवि ने भी ग्रंथ रचते समय गर्भवती पत्नियों को फिंकवा देने या छल से राजाओं को मार गिराने जैसे ‘निगेटिव प्वांइट्स‘ को ज़्यादा तूल नहीं दिया था। जरूर ग्रंथ लिखते समय महाकवि की मानसिकता ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा‘ और ‘आप भला तो जग भला‘ वाली रही होगी। व्यंग्यकारों ने निर्णय लिया कि एक पहुंचे हुए व सफल लेखक की यही पहचान है।
ऊपर से एक बार एक बड़ी और पुरानी इमारत को गिराए जाने के पश्चात् एक बड़े संपादक के गांव में भैंसें पूर्ववत् पगुरा रही थीं। ऐसे में व्यंग्यकार धोबी बनकर भी अपनी धुलाई करवाने का झंझट क्यों पालते? उनमें लगभग सभी गणितवीर थे। राजा, उसके दरबारी विद्वानों और कागज़ी व्यवस्था पर उंगली उठाने से ज्यादा आसान उन्हें अकेले धोबी की गरदन पकड़ना लगा। अतः उन्होंने सारी दुनिया छोड़कर एक धोबी के पीछे पड़ जाने का साहसिक निर्णय लिया। साथ ही वे नवोत्सुकों को व्यंग्य की परिभाषा समझाने लग पड़े। इनके जीते जी नवोत्सुकों को सदा नवोत्सुक ही रहना पड़ता था बशर्ते कि वे (नवोत्सुक) जीते जी न मर जाएं।

इधर अखबारों की चोटियां और दाढ़ियां निकल आईं और मुखपृष्ठों के माथों पर अपनी-अपनी परंपराओं के प्रतीक-चिन्ह पोते जाने लगे। देश में राजनेता इतने हो गए थे कि व्यंग्यकारों को रोज़ एक नया राक्षस मार गिराने का आनंद आ रहा था। इसलिए उन्होंने बाकी सभी विषयों से ध्यान हटाकर सारा यहीं केंद्रित कर दिया था। राक्षस चींटियों की तरह मर रहे थे। कलम के ब्रह्मास्त्रों के आगे उनकी एक न चलती थी। फिर मरे हुए राक्षसों को बटोरकर उनके पुतले बनाए जाते और उनकी छाती पर पैर रखकर हंसते हुए खिंचाई गई शब्दों की फोटुएं अपने-अपने कालमों में चेप दी जातीं।

इधर किसी सिरफिरे ने बताया कि जिन चींटों से आप पुरस्कार, पैसा व प्रतिष्ठा खींच रहे हैं वे उन्हीं चींटियों के धुले व फूले हुए संस्करण हैं जिन्हें आपने मरा समझ लिया है। मगर फालतू वक्त किसके पास था जो ऐसी गैर-पारंपरिक बातों पर ध्यान देता। फिर भी उनमें से कुछेक जागरूक थे। उन सबने एक-एक व्यंग्य उस सिरफिरे पर लिखा और फिर से रामराज्य की कल्पनाओं में खो गए।

और इतना खोए कि सो गए।


-संजय ग्रोवर


(हंस जनवरी, 1996 में प्रकाशित एवं व्यंग्य-संकलन ‘बीसवीं सदी की चर्चित व्यंग्य-रचनाएं‘ में संकलित)

22 टिप्‍पणियां:

  1. रामराज्य की कल्पनाओं में खो गए।
    और इतना खोए कि सो गए।
    सादगी के अंदाज में ताना मारती है....... ये पंक्तियां वक़्त की सच्चाई का बयान हैं। व्यंग्य अपना संदेश देने में सफ़ल है॥
    बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
    मशीन अनुवाद का विस्तार!, “राजभाषा हिन्दी” पर रेखा श्रीवास्तव की प्रस्तुति, पधारें

    अंक-9 स्वरोदय विज्ञान, आचार्य परशुराम राय, द्वारा “मनोज” पर, पढिए!

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  2. संजय साब,...और धीरे धीरे करवते बदल कर उठ बैठे हैं.देखिए आपके लिए नया व्यंग लिखने का सामान किस के पास से आता है.बहरहाल सिम्बल्स के साथ इतना गहरा व्यंग लिखा है कि समझ कर अपनी समझ की पीठ थपथपाई

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  3. nice posts!! ......you can visit my blog to see my arts


    http://atulssketchings.blogspot.com/

    -Atul Ojhal

    (VIA EMAIL)

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  4. व्यंगकारों पर एक बेहतरीन व्यंग

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  5. 1996 का है मगर आज भी मौज़ू है। बढ़िया, शानदार व्यंग्य ।

    प्रमोद ताम्बट
    भोपाल
    www.vyangya.blog.co.in
    http://vyangyalok.blogspot.com

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  6. Bahut hi sunder aur vakt to jaise thum sa ghaya tha
    Kaise naye vicharoon se mun ko bus bhigo gaya tha
    Bahut khoob,


    -Rajesh Gera,


    (VIA EMAIL)

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  7. ravn raj ke yug mai ramrajya sun ke acjha lga koi bat nhi agr yeh lekhn mai huwa khi to hai na .bhut acha likha hai

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  8. sanjayji requst hai apse oon bujurgo per kuch likhe jo akele rehte hai buche noukriyo ki vjh se bahr hai maa bap sirf apne pote potiyo ki photo aur video dekh ke khush ho jate hai.yeh bhi to ek jeeta jagta vyang hai na jin ongliyo ne chlna sikhaya onhi kampti ongliyo ko thamn ewala aaj koi nhiUMA SHRMA

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  9. @Rohit
    डीयर रोहित, जब कहने को अपने ही पास काफ़ी कुछ हो तो दूसरों का कहा क्यों दोहराएं !?

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  10. व्यंग पढने मे मजा आया महोदय. बहुत-बहुत पठनीय. जारी रहें.

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  11. 1996 ka satire hey lekin aaj bhi utna hi relevant hai. sanjayji bahut sadhuwaad. hindi type nahin aane ka bahut afsos hai so roman mein likh raha hoon.
    rakesh goswami, jodhpur,rajasthan

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  12. @rocky gajendra

    Hindi type na aana koi bahut badaa masla nahi. Bhasha sirf vicharoN ki vaahak hai. Antatah to vichaar hi maayne rakhte haiN.

    shubhkamnaoN sahit

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कहने को बहुत कुछ था अगर कहने पे आते....

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