गुरुवार, 12 फ़रवरी 2009

पंाच पोंगे-कट्टर-मुल्ले-पंथी बनाएंगे सारे समाज का खाने-पीने-पहनने-नाचने का मैन्यू !?




सुशांत जी आप तो नाराज़ हो गए। यह क्या बात हुई कि जब आप अपने लेख का अंत ‘‘‘वहीं जाकर चार टांगों पर नंगे घूमते रहो, कौन मना कर रहा है।’’’ जैसे वाक्यों से करते हैं तो वो आपको बड़ी धार्मिक-आध्यात्मिक-सामाजिक-सभ्य भाषा लगती है। ऐसा क्यों, भाई ?


ऊपर से आप मुझे नयी व्यवस्था का मिशन-स्टेटमेंट बनाने को कह रहे हैं जैसे कि पिछली व्यवस्था का आपने तैयार किया था ! सारे यथास्थ्तििवादियों की तान यहीं आकर टूटती है। कल को कोई मजदूर या एन.जी. किसी टाटा-बिरला के यहाँ चल रहे शोषण का विरोध करेगा तो आप तो उससे यह कहेंगे कि पहले तुम खुद टाटा-बिरला जैसा कारखाना लगाओ या उसका कोई नक्शा बनाकर दो तब विरोध करना। अपने से अलग विचारों के लोगों को आप किस तरह से जंगल में जा बैठने का आदेश जारी करते हैं जैसे सारा समाज आपका जरखरीद गुलाम हो सारे लोग आपकी बातों से पूरी तरह सहमत हों और सारे देश का पट्टा आपके नाम लिखा हो। सब वही खाएं जो आप बताएं, वही पहनें जो आप कहें, वही बोलें जो आप उनके मुंह में डाल दें। वाह, कैसी हत्यारी भाषा, कितनी अहंकारी सोच (?), कितनी तानाशाह प्रवृत्ति मगर फिर भी धार्मिक ! फिर भी आध्यात्मिक ! फिर भी सामाजिक ! फिर भी सभ्य।आप कहते हैं कि मैं कोई व्यवस्था सुझाऊँ। मैं क्यों सुझाऊं भाई !?


हां, मुझे पता है कि एक दवा मुझे अत्यधिक नुकसान पहुँचा रही है। लेकिन क्या मै उसे सिर्फ इसलिए खाता जाऊं और तारीफ करता जाऊं कि बाज़ार में उसकी वैकल्पिक दवा उपलब्ध नहीं है और मैं खुद वह दवा बनाने में सक्षम नहीं हूँ ! मैं उस दवा के ज़हरीले असरात की बाबत आवाज़ उठाऊंगा तभी तो कुछ लोग नयी दवा बनाने के बारे में सोचेगे। तभी तो वे सब लोग भी आवाज़ उठाएंगे जो इंस दवा के ज़हरीले नतीजे तो भुगतते रहे हैं मगर सिर्फ इसलिए चुप हैं कि उन्हें लगता है कि वे अकेले हैं और उपहास के पात्र बन जाएंगे। स्त्री-विमर्श के मामले में ही देखिए, पहले विद्वान लोग कहते-फिरते थे कि ऐसी दो-चार ही सिरफिरी औरतें हैं जो धीरे-धीरे अपने-आप ‘‘ठीक’’ हो जाएंगी, नही ंतो हम कर देंगे। अब देखिए तो कहां-कहां से कितनी-कितनी आवाज़े उठ रही हैं। आरक्षण के मसले पर आप ही जैसे विद्वानों ने पूर्व प्रधानमंत्री वी. पी. सिंह को पागल तक कह डाला था। मगर आज सारी पार्टियां बढ़-चढ़कर आरक्षण दे रही हैं। इण्टरनेट के आगमन को लेकर आप ही जैसे लोगों ने तमाम हाऊ-बिलाऊ मचाई। मगर सबसे ज़्यादा फायदा भी आप ही जैसे लोग उठा रहे हैं। भले ही इंस नितांत वैज्ञानिक माध्यम का दुरुपयोग अपनी अवैज्ञानिक सोच को फैलाने के लिए कर रहे हों। इसलिए किसी भी नयी चीज़ का विरोध करने से पहले यह तो तय कर लीजिए कि अंत तक आप अपने स्टैण्ड पर कायम भी रह पाएंगे या नहीं !? और इंस ग़लतफहमी में तो बिलकुल मत रहिए कि सभी आपकी तरह सोचते (?) हैं और भेड़ों की तरह आप उन्हें जहां मर्ज़ी हांक ले जाएंगे।


कोई भी व्यवस्था तो एक दिन में बनती है और ही कोई एक आदमी उसे बनाता है। मगर आप मुझसे ऐसी ही उम्मीद रखते हैं। आप क्या समझते हैं कि मैं भी उन दस-पाँच पोंगापंथियों और कठमुल्लों की तरह अहंकारी और मूर्ख हूँ जो खुदको इतना महान विद्वान समझते हैं कि वही सारी दुनिया के लिए खाने-पीने-नाचने-पहनने का मैन्यू तय कर सकते हैं ! मेरी रुचि ऐसी किसी गैर-लोकतांत्रिक व्यवस्था में है ही नहीं कि सब मेरी तरह से जीएं। अगर मेरी टांगें पतली हैं और निक्कर मुझे सूट नहीं करता तो मै यह विधान बनवाने की कोशिश करुं कि सभी मेरी तरह फुलपैंट पहनेंगे। अरे जिसको जो रुचता है वो करे। आप कौन हैं तय करने वाले। दरअसल आपको किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में रहने की आदत ही नहीं जिसमें सबके लिए जगह हो जब तक कि वह किसी तीसरे के जीवन में नाजायज घुसपैठ कर रहे हों। आपको सिर्फ वही व्यवस्था समझ में आती है जो या तो आपके अनुकूल पड़ती हो या मेरे ! आपके हिसाब से तो फिर सती-प्रथा, बाल-विवाह, विधवा-दमन, कन्या-भ्रूण-हत्या भी चलते रहने चाहिए थे क्योंकि फुलप्रूफ वैकल्पिक व्यवस्था तो मेरे पास थी आपके ! अगर सती-प्रथा हटानी है तो वैसी ही कोई और प्रथा होनी चाहिए हमारे पास। नही तो, आपकी सोच के हिसाब से ही, सती-प्रथा का विरोध करने का हमारा कोई हक ही नहीं बनता।


कई बातें तो आप ऐसी मुझे समझा रहे हैं जो खुद आपको समझनी चाहिएं। जैसे कि फुल वाॅल्यूम पर रेडियो चलाने का उदाहरण। अपने एक पुराने व्यंग्य की कुछ पंक्तियां उद्धृत करना शायद बेहतर भी होगा और कारगर भी:- ‘‘क्यों! भावनाएं क्या सिर्फ आस्तिकों की होती हैं! हमारी नहीं!? हम संख्या में कम हैं इसलिए!? दिन-रात जागरण-कीर्तन के लाउड-स्पीकर क्या हमसे पूछकर हमारे कानों पर फोड़े जाते हैं? पार्कों और सड़कों पर कथित धार्मिक मजमे क्या हमसे पूछ कर लगाए जाते हैं? आए दिन कथित धार्मिक प्रवचनों, सीरियलों, फिल्मों और गानों में हमें गालियां दी जाती हैं जिनके पीछे कोई ठोस तर्क, तथ्य या आधार नहीं होता। हमनें तो कभी नहीं किए धरने, तोड़-फोड़, हत्याएं या प्रदर्शन!! हमारी भावनाएं नहीं हैं क्या? हमें ठेस नहीं पहुँचती क्या? पर शायद हम बौद्धिक और मानसिक रुप से उनसे कहीं ज्यादा परिपक्व हैं इसीलिए प्रतिक्रिया में बेहूदी हरकतें नहीं करते।’’


बाते अभी बहुत-सी बाक़ी हैं।

(जारी)

-संजय ग्रोवर


5 टिप्‍पणियां:

  1. क्या अब आपको ऐसा नहीं लग रहा है कि आपके पास कहने के लिये सार्थक कुछ शेष नहीं बच रहा है? अपनी बात को सही सिद्ध करने की चेष्टा में आप उन सब चीज़ों को गालियां देते चले जा रहे हैं जिनका मैं खुद भी कम से कम उतना विरोधी तो हूं ही, जितने आप लगते हैं। इन सब कमियों के लिये मुझे कोसते रहने से भला क्या समाधान निकलेगा ? ठीक है, हम दोनों चौराहे पर खड़े होकर लाउडस्पीकर पर चीखना शुरु कर देते हैं - ये दुनिया खराब है ! ये दुनिया खराब है। कोई कुछ भी कहे, कुछ भी पूछे और कुछ नहीं बोलेंगे सिवाय इसके कि ये दुनिया खराब है ! ये दुनिया खराब है।

    शायद इससे दुनिया सुधर जाये!

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  2. ये पाँच लाइन भी लिखने की क्या ज़रुरत भी ? कोई एक पुराना श्लोक ढूंढकर चेप देते। चूंकि वह एक महान ग्रन्थ में से निकला होता, इसलिए उसमें कोई तर्क होता न होता पर उसकी तार्किकता सवयंसिद्ध होती। वैसे तो गालियों की भाषा आपने ही शुरु की है पर आपकी गाली का भी स्वागत करुंगा बशर्ते कि तर्कपूर्ण हो। तर्कहीन बोगस श्लोकों का ज़माना चला गया। ‘‘दुनिया खराब है’’ की वजुहात को सकारण और सतर्क अपने लेखादि में उठाया जाना आपको अराजकता लगती है और पब में लड़कियों को पीटना और ऐसे लोगों को जंगल में भेज देने के आदेश जारी करना ‘‘सामाजिकता’’। तो फिर आप ही बताईए आपका किया क्या जाए ?

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  3. सही कहा आपने ! पांच लाइन लिखना भी व्यर्थ ही रहा। आप स्वयं से ही नाराज़ हैं, ख़फा हैं और मैं नासमझ यह सोच - सोच कर दुःखी हो रहा था कि आप मुझसे नाराज़ हो गये हैं !

    आपको आपके अभियान के लिये हार्दिक शुभेच्छायें। आपका अभियान क्या है, यह तो मैं समझ नहीं पाया, पर जो भी है - समाज हित की उदात्त भावना से ही होगा !

    इस अंतहीन बहस को मैं अपनी ओर से यहीं समाप्त मान रहा हूं। बौद्धिक विचार-विमर्श में कड़वाहट के लिये कोई स्थान नहीं होना चाहिये! यदि आपको संस्कृत जैसी भाषा से भी इतनी भयंकर एलर्जी है तो फिर कुछ कहने को बाकी ही नहीं रह जाता !

    सादर नमस्कार

    सुशान्त सिंहल

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  4. बाते अभी बहुत-सी बाक़ी हैं।

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  5. yeh dunia yeh mehfil mere kaam ki naheen mere kaam ki naheen

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कहने को बहुत कुछ था अगर कहने पे आते....

देयर वॉज़ अ स्टोर रुम या कि दरवाज़ा-ए-स्टोर रुम....

ख़ुद फंसोगे हमें भी फंसाओगे!

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ढूंढो-ढूंढो रे साजना अपने काम का मलबा.........

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