शुक्रवार, 6 फ़रवरी 2009

कौन है सामाजिक और कौन असामाजिक ?

शायद कहीं एक लघुकथा पढ़ी थी। बाद में उसमें मैंने थोड़ा-सा कुछ अपना भी जोड़ दिया। बज़रिए डार्विन हम इंस कहानी में पहुंचते हैं।




पृथ्वी पर तब बंदर ही बंदर थे। आदमी नामक महान जीव का आगमन तब तक नहीं हुआ था। पता नहीं एक बंदर को क्या हुआ कि पट्ठा विद्रोही होना शुरु हो गया। कभी अगले पैर ऊपर उठा लेता और निचले दोनों पैरों पर सारे शरीर का बैलेंस साधते, चलने की कोशिश करता। कभी पेड़ के पत्ते उठाकर शरीर को जगह-जगह ढंकने की कोशिश करता। हांलांकि इन कोशिशों के चलते कभी उसकी कमर में दर्द भी होता तो कभी बंदर समाज में जोरदार खिल्ली भी उड़ती। शुरु में तो बंदर-समाज उसकी हरकतों को ‘‘लाइटली’’ लेता रहा। जब पानी सिर से गुजरने लगा तो बंदरों के सामाजिक आकाओं ने उसे अपने यहाँ तलब किया और पूछा कि भई आखिर तुम्हे हुआ क्या है, ये क्या अजीबो-ग़रीब हरकतें करते रहते हो ! बंदर बोला सर एक ऐक्सपेरिमेंट कर रहा हूँ। क्या पता इंस में कामयाब हो जाऊँ।




‘‘उससे क्या होगा ?’’ बंदराधिपति ने धैर्य बनाए रखते हुए पूछा।




‘‘ तब शायद हम अगले दोनों हाथों से कुछ दूसरे काम कर पाएं जैसे खाना खाना, खाना बनाना, कलम पकड़कर लिखना, कपड़े बनाना-पहनना...वगैरहा.......‘‘




.......‘‘अच्छा तभी पत्ते उठा-उठाकर शरीर पर लपेटते फिरते हो.....’’ बंदराचार्य ने उपहास करते हुए कहा....।‘‘




‘‘सर ठंड के दिनों में शरीर कांपने लगता है ना, शरीर ढंकने से थोड़ी राहत मिलती है.....’’


‘‘चल पाखंडी, शरीर ढंकने के बहाने सैक्स का प्रचार कर रहा है।’’ बंदर-प्रमुख गुस्से में थर-थर कांपने लगे।




‘‘साला, समाज में अराजकता फैला रहा है, निकाल बाहर करो इसे‘‘ एक परंपरावादी बंदर चीखा।




‘‘हमारे धर्म-संस्कृति को भ्रष्ट कर रहा है।’’ एक संस्कृति-पसंद बंदर गुस्से में बाल नोच-नोंचकर कूदने लगा।




‘‘हां-हां, पेड़ से उतरना हमारी सभ्यता के खिलाफ है।’’‘‘सिर्फ दो पैरों पर चलते हुए साले को ज़रा शर्म नहीं आती।’’


‘‘हरामखोर, शरीर के पवित्र अंगों को पत्तों से ढंकता है।’’


‘‘मारो, साले को छोड़ना मत।’’और पत्थरों की बरसात शुरु हो गयी।




मगर वह भी अपनी तरह का एक ही बंदर था। चोट खाता रहा। हंसी उड़वाता रहा। मगर प्रयोग करना नहीं छोड़ा।आखिरकार एक दिन निचले दोनों पैरो पर खड़ा हो गया। हाथों से तरह-तरह के दूसरे काम करने लगा। और आदमी बन गया। देखा-देखी, हंसी उड़ाने वाले, पत्थर मारने वाले, अराजक कहने वालों में से भी कई बंदर उसके रास्ते पर चल पड़े और वे भी आदमी बन गए।




पुराना बंदर समाज अभी भी है और आज भी ‘‘माॅडर्न’’ बंदर-समाज की हंसी उड़ाता है।




बात कपड़े पहनने या उतारने की उतनी नहीं है सिंहल साहेब ! बात यथास्थ्तििवाद से विद्रोह और वक्त और ज़रुरत के हिसाब से खुदको और समाज को बदलने की है। भीड़ के पीछे चलने वाले, रुढ़िवादी और अपनी कोई सोच न रखने वालों ने तो विरोध ही करना होता है, चाहे वह कपड़े उतारना हो या पहनना। अभी सारी दुनिया के लोग कपड़े उतारकर घूमना शुरु कर दे और समाज इसे बहुत प्रतिष्ठा की बात मानने लगे तो यही नग्नता-विरोधी अपने सारे कपड़े फेंककर सबसे आगे खड़े हो जाएंगे और कहेंगे कि सबसे पहले तो यह हमने ही सुझाया थां, विश्वास न हो तो हमारे ग्रंथ-शास्त्र पढ़ लो। उनमें भी यही लिखा है।




आपकी एक ग़लतफहमी दूर कर सकूं तो खुदको सफल समझूंगा। समाज में गतिशीलता और परिवर्तन उन सैकड़ों बंदरों की वजह से नहीं आते जो प्रयोगवादी, विद्रोही और चिंतनशील बंदरों को अराजक, धर्मभ्रष्ट और असामाजिक वगैरहा-वगैरहा कहते हैं। बल्कि उन बंदरों की वजह से आते हैं जो यह सब सुन/सहकर भी अपनी धुन में लगे रहते हैं। सामाजिकता क्या होती है और असामाजिकता क्या, इसपर भी अगली किस्त में ज़रुर बात करेंगे। मेरे द्वारा आपकी टिप्पणी को बतौर पोस्ट छाप दिया जाना आपको मेरे हृदय की विशालता वगैरहा क्यों लग रहा है, इसपर भी बात करेंगे। मज़े की बात यह है कि मैंने अपने पूरे लेख में ‘‘डीसैक्सुअलाइजेशन’’ शब्द का इस्तेमाल ही नहीं किया। फिर भी आपको ऐसा क्यों लगा, इसपर भी बात करेंगे।
-संजय ग्रोवर

12 टिप्‍पणियां:

  1. शुरुआत तो पर्यापत रोचक है। इतनी कि इसकी अगली किश्‍त आपके लिखने से पहले ही पढ ली जाए।

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  2. एक रोचक,हास्य युक्त कहानी के माध्यम से
    क्या गूढ़ बात कही है,बहुत बढिया.............

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  3. बधाई! आपकी साहित्यिक संलग्नता एवं लेखनी ने आकर्षित किया…

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  4. पहली बार आपका ब्लौग पढ़ा हूँ.. इतने लम्बे-लम्बे पोस्ट देखकर साइड से ही निकल लेता था.. :)
    यह पोस्ट जबरदस्त लगा..

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  5. आपने सही लिखा। कई दिन से मैं भी सोच रहा था कि इतने लंबे पोस्ट पढ़ने और फिर उन्हें गुनने का वक्त और धैर्य आजकल किसके पास होता होगा ! आगे से छोटे रखने की कोशिश करुंगा।

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  6. प्रिय ग्रोवर जी, आजकल सक्रियता कुछ कम अनुभव हो रही है। कहीं और व्यस्त हैं?

    सुशान्त सिंहल

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  7. भाई सिंहल जी,
    शायद ही कोई ब्लाॅगर होगा जो कहीं और व्यस्त न होगा। इस बीच आपके पास भी पूरा वक्त है कि डीसैक्सुअलाइज़ेशन, सामाजिकता और हृदय की विशालता वगैरहा पर खुलकर विचार कर लें और जो श्लोकादि ढूंढने हैं ढूंढ कर रख लें।

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  8. अरे !, आपका तो प्रोफाइल ही गायब हो गया। आप भी गुमनाम ‘फरिश्तों’’ में शामिल हो गए क्या ?

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  9. Vo apne vichaaroN ki hi tarah ghayab ho gaye shayad.

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  10. Deewar se sir maarne se koi fayda hoga ? Groverji aap apna wakt barbaad kar rahen hain aise logoN ke chakkar men parh kar.

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कहने को बहुत कुछ था अगर कहने पे आते....

देयर वॉज़ अ स्टोर रुम या कि दरवाज़ा-ए-स्टोर रुम....

ख़ुद फंसोगे हमें भी फंसाओगे!

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ढूंढो-ढूंढो रे साजना अपने काम का मलबा.........

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