यह असम्भव ही लगता है कि किसी को हमारे देश की महानता के बारे में पता न हो। फिर भी कोई भूल न जाए इसलिए 15 अगस्त और 26 जनवरी के अलावा भी कई अन्य उपयुक्त अवसरों पर बताया जाता है कि देश महान है। रेडियो, टीवी, अखबारादि अक्सर घोषणा करते रहते हैं कि हमारी सभ्यता, संस्कृति, परम्पराएं वगैरह सब महान हैं। शायद इस तरह की घोषणाएं भी हमारी परम्परा का एक हिस्सा है। वैसे भी अच्छी बातें बताने वालों को बस अवसर मिलना चाहिए, उपयुक्त तो वे उसे बना ही लेते हैं। बल्कि अवसर मिलने का भी इन्तज़ार नहीं करते और ऐसी स्थितियां पैदा कर देते हैं कि अवसर खुद-ब-खुद निकल आता है। तो जब इतने सालों से और इतने तरीकों और तरक़ीबों से समझाया जा रहा हो कि देश महान है तो मान ही लेना चाहिए कि देश महान है। वैसे भी व्यक्ति का फर्ज़ यह है कि जिस देश में वो पैदा हो जाए उसी को महान मानने लगे। दुनिया के सभी लोग ऐसा ही करते हैं। फिर हम क्या कोई आसमान से टपके हैं!
देश के महान होने का कोई निश्चित वक़्त नहीं होता। यह महानता सुबह-सवेरे ही शुरू हो जाती है। सुबह-सुबह ही हलवाई की दुकान पर पारम्परिक पकवान जलेबी, कचैड़ी या समोसा खाने पधारे ‘न्यू प्राचीन एण्ड कं.‘ के मालिक लाला लपेटचंद जी सभ्यता और संस्कृति की चिन्ता में सूखना शुरू हो जाते हैं। वे एक ‘देशद्रोही’ अंग्रेजी फिल्मी पत्रिका के मुखपृष्ठ पर ममता कुलकर्णी द्वारा अपने निर्लज्ज नग्न चित्र छपवाने के कारण उससे बहुत नाराज हैं। लाला जी नितांत प्राकृतिक वेषभूषा में सुबह की हवाखोरी के हल्के मूड में इधर को निकल आए हैं। अपवादस्वरूप उन्होंने कमर के निचले हिस्से में एक अधोवस्त्र पहना हुआ है जोकि उनके घुटनों से नीचे के इलाके को ढकने में किन्हीं अपरिहार्य कारणों से असमर्थ हैं। बोलचाल की भाषा में इस अधोवस्त्र को कच्छा, जांघिया या कभी कभार घुटन्ना भी कहते हैं। ऐसी दशा में लाला की यह चिन्ता स्वाभाविक ही लगती है कि ममता को पुरूषों के बारे में नहीं तो कम से कम देश की बहू-बेटियों के भविष्य के बारे में तो सोचना चाहिए।
लाला बैंच पर बैठे हुए हैं। विवाद खड़ा हुआ है। लोग हां, हूं करते हुए सुन रहे हैं। और कचैड़ियां खाते जा रहे हैं। तिस पर भी लाला तैश में आ जाते हैं और पास खड़े मरियल कुत्ते पर लात जमा कर दोना बीच सड़क पर फेंक देते हैं। साथ ही धुर्र, फटाक की पारम्परिक आवाज़ के साथ सड़क पर ज़ोेर से थूकते हैं और सभ्यता और संस्कृति की चिंता में दो और वाक्य बोलकर घर के लिए प्रस्थान करते हैं।
लाला जल्दी में हैं। उन्हें अपनी पत्नी की चिंता है। जब तक वे घर नहीं पहुंचेंगे, पत्नी नाश्ता छुएगी तक नहीं, भले ही उन्हें लौटने, नहाने, धोने में कितना ही वक़्त लग जाए। पत्नी भूखी न रह जाए, इसी वजह से उन्हें रोेज़ इसी तरह दो-दो बार नाश्ता करना पड़ता है।
ऐसा भी नहीं कि लाला अकेले ही सभ्यता और संस्कृति के लिए परेशान हैं। दरअसल ऐसे लोग तो बहुत सारे हैं, अनगिनत। अक्सर देखने में आता है कि लोगों को कितनी भी जोर से ‘लगी‘ हुई हो मगर वे कोई दीवार या गली नज़र आ जाने तक धैर्य बनाए रखते हैं और जल वितरण नहीं करते। शायद सभ्यता और संस्कृति की खातिर ही वे इस जल वितरण में ज्यादा देर तक रूकावट डालने से होने वाले शारीरिक और मानसिक कष्ट को पी जाते हैं और बीच सड़क पर कोई ऐसी हरकत नहीं करते जिससे कि आम ज़ुबान में ‘पेशाब करना‘ या ‘मूतना‘ कही जाने वाली इस नैसर्गिक क्रिया पर कोई आंच आए। अनेकानेक पर्यावरण प्रेमी सड़क किनारे लगे पेड़ों को इस परोपकारी क्रिया से नवाज कर पुण्य प्राप्त करते हैं। कुछ अत्यन्त उत्साही युवा जन तो रात-बिरात ही इतने जोश में आ जाते हैं कि पक्की सड़क पर ही ‘बर्फ में आग लगा देंगंे‘ के अंदाज़ में धारा-प्रवाह करना शुरू कर देते हैं।
हमारे परम्परा भी बड़ी समृद्ध है। सारे अविष्कार एवं खोजें हमारे यहां प्राचीन काल में ही किए जा चुके हैं। चूंकि इन आविष्कारों व खोजों को करने में हमें काफी श्रम करना पड़ा सो हम काफी थक गए हैं और पिछले कई सालों से आराम कर रहे हैं। अब करने को कुछ बचा भी नहीं। सिवाय इसके कि जब भी दुनिया में कोई अविष्कार होता है हम अपने प्राचीन ग्रंथों में से तुरन्त ढूंढ-ढांढ कर बता देते हैं कि फलां पन्ने की फलां पंक्ति में फलां व्यक्ति ने यह आविष्कार पहले ही कर लिया है। तत्पश्चात् हम विदेश में हुए किसी ताज़ा आविष्कार को अपने किसी नए नाम से घटिया और नकली पुर्जों के सहारे बनाने की तिकड़म सोचने लगते हैं। जिसमें कि हम अक्सर सफल होते हैं। और सिद्ध कर देते हैं कि हम अपने प्राचीन कालिक आविष्कार की आधुनिक विदेशी नकल की नकल करते हुए भी उतने ही मौलिक बने रहते हैं।
इस सब के अलावा अपने यहां स्त्रियों का भी बहुत सम्मान किया जाता है। उन्हें देवी माना जाता है। इसलिए अधिकाँश पुरूष चाहते हैं स्त्रियां मंदिर में स्थित देवी की मूर्ति की तरह शांत व स्थिर एक कोने में पड़ी रहें। ज्यादातर पुरूष जब अन्यान्य तरीकों से स्त्रियों का सम्मान करते रहने के बावजूद भी असंतुष्ट रह जाते हैं और उनमें महानता की भावना और भी बलवती हो उठती है तब वे विवाह कर लेते हैं। और स्त्रियों को व्यक्तिगत तौैर पर सम्मान प्रदान करते हैं। इससे उनका यह डर भी कम हो जाता है कि कोई अन्य व्यक्ति उनके लिए आरक्षित स्त्री का सम्मान न कर डाले। पर इधर सुनने में आया है कि स्त्रियां अब सम्मान करवाते-करवाते थक गई हैं। वे चाहती हैं कि अब उन्हें मौका दिया जाए। जिससे कि वे पुरूषों का यथोचित सम्मान करके यह कर्ज़ा उतार सकें।
इस प्रकार सभ्यता, संस्कृति, परम्परा, मर्यादा वगैरह से लबालब हमारे देश में कहने-सुनने को बहुत कुछ है। परन्तु एक ही लेख में सब कुछ कहते हुए तो मैं असभ्य ही दिखाई पड़ूंगा। और मेरी समझ में असभ्य होना इतनी बुरी बात नहीं जितना कि असभ्य दिखना। आपका क्या ख्याल है?
-संजय ग्रोवर
(12 अगस्त, 1994 को पंजाब केसरी में प्रकाशित)
No east or west,mumbaikar or bihaari, hindu/muslim/sikh/christian /dalit/brahmin… for me.. what I believe in logic, rationality and humanity...own whatever the good, the logical, the rational and the human here and leave the rest.
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जवाब देंहटाएंaajkal bahut form mei lagte ho. topic thoda sa badlo yar.
जवाब देंहटाएंहम आपके स्वास्थ्य के लिए चिंतित हो गए है ,क्यूंकि जो आदमी देश की चिंता करता है उसका भगवान् ही मालिक है
जवाब देंहटाएंBhagwaan ki to koi baat nahiN Anurag ji kahiN RamSena wale maalik na ho jayeN. Sunil bhai kahte haiN to topic badalna hi padegaa kyoNki Topic to bahutere mil jayenge par Sunil bhai jaise aur kahaN milenge. magar idhar Ishtdev ji aur Arvind mishra ji haiN jo guru aur lalkariya bataa raheN, inko thoda-thoda mak-khan lagakar topic badal duN kya ?
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