Sushant Singhal said...
संवादघर ( www।samwaadghar।blogspot।com) में नारी की दैहिक स्वतंत्रता व सामाजिक उपयोगिता पर जो बहस चल रही है वह रोचक तो है ही, बहुत महत्वपूर्ण भी है । एक ऐसा एंगिल जिससे अभी तक किसी ने इस विषय पर बात नहीं की है, मैं सुधी पाठकों के सम्मुख रख रहा हूं ! बहस को और उलझाने के लिये नहीं बल्कि सुलझाने में मदद हो सके इसलिये ! नारी देह के डि-सैक्सुअलाइज़ेशन (de-sexualization) की दो स्थिति हो सकती हैं । पहली स्थिति है - जहरीला फल चखने से पहले वाले आदम और हव्वा की - जो यौन भावना से पूर्णतः अपरिचित थे और शिशुओं की सी पवित्रता से ईडन गार्डन में रहते थे। ऐसा एक ही स्थिति में संभव है - जो भी शिशु इस दुनिया में आये उसे ऐसे लोक में छोड़ दिया जाये जो ईडन गार्डन के ही समकक्ष हो । वहां यौनभावना का नामो-निशां भी न हो । "धीरे धीरे इस दुनिया से भी यौनभावना को पूरी तरह समाप्त कर दिया जाना है" - यह भी लक्ष्य हमें अपने सामने रखना होगा ।यदि यह संभव नहीं है या हम इसके लिये तैयार नहीं हैं तो दूसरी स्थिति ये हो सकती है कि हम न्यूडिस्ट समाज की ओर बढ़ें और ठीक वैसे ही रहें जैसे पशु पक्षी रहते हैं । सुना है, कुछ देशों में - जहां न्यूडिस्ट समाज के निर्माण के प्रयोग चल रहे हैं, वहां लोगों का अनुभव यही है कि जब सब पूर्ण निर्वस्त्र होकर घूमते रहते हैं तो एक दूसरे को देख कर उनमें यौन भावना पनपती ही नहीं । "सेक्स नग्नता में नहीं, अपितु कपड़ों में है" - यही अनुभव वहां आया है । इस अर्थ में वे पशु-पक्षियों की सेक्स प्रणाली के अत्यंत निकट पहुंच गये हैं । प्रकृति की कालगणना के अनुसार, मादा पशु-पक्षी जब संतानोत्पत्ति के लिये शारीरिक रूप से तैयार होती हैं तो यौनक्रिया हेतु नर पशु का आह्वान करती हैं और गर्भाधान हो जाने के पश्चात वे यौनक्रिया की ओर झांकती भी नहीं । पूर्णतः डि-सैक्सुअलाइज़ेशन की स्थिति वहां पाई जाती है । पशु पक्षी जगत में मादा का कोई शोषण नहीं होता, कोई बलात्कार का भी जिक्र सुनने में नहीं आता । मादा या पुरुष के लिये विवाह करने का या केवल एक से ही यौन संबंध रखने का भी कोई विधान नहीं है। उनकी ज़िंदगी मज़े से चल रही है । ये बात दूसरी है कि पशु - पक्षी समाज आज से दस बीस हज़ार साल पहले जिस अवस्था में रहा होगा आज भी वहीं का वहीं है । कोई विकास नहीं, कोइ गतिशीलता नहीं - भविष्य को लेकर कोई चिंतन भी नहीं ।हमारे समाज के संदर्भ में देखें तो कुछ प्राचीन विचारकों, समाजशास्त्रियों का मत है कि यौनभावना का केवल एक उपयोग है और वह है - 'संतानोत्पत्ति' । उनका कहना है कि प्रकृति ने सेक्स-क्रिया में आनन्द की अनुभूति केवल इसलिये जोड़ी है कि जिससे काम के वशीभूत नर-नारी एक दूसरे के संसर्ग में आते रहें और सृष्टि आगे चलती चली जाये । विशेषकर स्त्री को मां बनने के मार्ग में जिस कष्टकर अनुभव से गुज़रना पड़ता है, उसे देखते हुए प्रकृति को यह बहुत आवश्यक लगा कि यौनक्रिया अत्यंत आनंदपूर्ण हो जिसके लालच में स्त्री भी फंस जाये । एक कष्टकर प्रक्रिया से बच्चे को जन्म देने के बाद मां अपने बच्चे से कहीं विरक्ति अनुभव न करने लगे इसके लिये प्रकृति ने पुनः व्यवस्था की - बच्चे को अपना दूध पिलाना मां के लिये ऐसा सुख बना दिया कि मां अपने सब शारीरिक कष्ट भूल जाये । विचारकों का मानना है कि मां की विरक्ति के चलते बच्चा कहीं भूखा न रह जाये, इसी लिये प्रकृति ने ये इंतज़ाम किया है । सच तो ये है कि सृष्टि को आगे बढ़ाये रखने के लिये जो-जो भी क्रियायें आवश्यक हैं उन सभी में प्रकृति ने आनन्द का तत्व जोड़ दिया है। भूख लगने पर शरीर को कष्ट की अनुभूति होने लगती है व भोजन करने पर हमारी जिह्वा को व पेट को सुख मिलता है। अगर भूख कष्टकर न होती तो क्या कोई प्राणी काम-धाम किया करता ! क्या शेर कभी अपनी मांद से बाहर निकलता, क्या कोई पुरुष घर-बार छोड़ कर नौकरी करने दूसरे शहर जाता ?पर लगता है कि हमें न तो ईडन गार्डन की पवित्रता चाहिये और न ही पशु-पक्षियों के जैसा न्यूडिस्ट समाज का आदर्श ही हमें रुचिकर है । कुछ लोगों की इच्छा एक ऐसा समाज बनाने की है जिसमे यौन संबंध को एक कप चाय से अधिक महत्व न दिया जाये । जब भी, जहां पर भी, जिससे भी यौन संबंध बनाने की इच्छा हो, यह करने की हमें पूर्ण स्वतंत्रता हो, समाज उसमे कोई रोक-टोक, अड़ंगेबाजी न करे । यदि ऐसा है तो हमें यह जानना लाभदायक होगा कि ये सारी रोक-टोक, अड़ंगे बाजी नारी के हितों को ध्यान में रख कर ही लगाई गई हैं । आइये देखें कैसे ?पहली बात तो हमें यह समझना चाहिये कि समाज को किसी व्यक्ति के यौन संबंध में आपत्ति नहीं है, निर्बाध यौन संबंध में आपत्ति है और इसके पीछे वैध कारण हैं ! हमारे समाजशास्त्रियों ने दीर्घ कालीन अनुभव के बाद ये व्यवस्था दी कि यौन संबंध हर मानव की जैविक आवश्यकता है अतः हर स्त्री - पुरुष को अनुकूल आयु होने पर यौन संसर्ग का अवसर मिलना चाहिये । चूंकि सेक्स का स्वाभाविक परिणाम संतानोत्पत्ति है, इसलिये दूसरी महत्वपूर्ण व्यवस्था यह की गयी कि संतान के लालन पालन का उत्तरदायित्व अकेली मां का न होकर माता - पिता का संयुक्त रूप से हो । यह व्यवस्था केवल मानव समाज में ही है । बच्चे का लालन पालन करना, उसे पढ़ाना लिखाना, योग्य बनाना क्योंकि बहुत बड़ी और दीर्घकालिक जिम्मेदारी है जिसमें माता और पिता को मिल जुल कर अपनी अपनी भूमिका का निर्वाह करना होता है, इसलिये विवाह संस्था का प्रादुर्भाव हुआ ताकि स्त्री पुरुष के संबंध को स्थायित्व मिल सके, समाज उनके परस्पर संबंध को पहचाने और इस संबंध के परिणाम स्वरूप जन्म लेने वाली संतानों को स्वीकार्यता दे। स्त्री-पुरुष को लालच दिया गया कि बच्चे का लालन-पालन करके पितृऋण से मुक्ति मिलेगी, बच्चे को योग्य बना दोगे तो गुरु ऋण से मुक्ति मिलेगी, ऐसी अवधारणायें जन मानस में बैठा दी गयीं। विवाह विच्छेद को बुरा माना गया क्योंकि ऐसा करने से बच्चों का भविष्य दांव पर लग जाता है । जो स्त्री-पुरुष इस दीर्घकालिक जिम्मेदारी को उठाने का संकल्प लेते हुए, एक दूसरे के साथ जीवन भर साथ रहने का वचन देते हुए विवाह के बंधन में बंधते हैं, उनको समाज बहुत मान-सम्मान देता है, उनके विवाह पर लोग नाचते कूदते हैं, खुशियां मनाते हैं, उनके प्रथम शारीरिक संबंध की रात्रि को भी बहुत उल्लासपूर्ण अवसर माना जाता है । उनको शुभकामनायें दी जाती हैं, भेंट दी जाती हैं । उनके गृहस्थ जीवन की सफलता की हर कोई कामना करता है ।दूसरी ओर, जो बिना जिम्मेदारी ओढ़े, केवल मज़े लेने के लिये, अपने शारीरिक संबंध को आधिकारिक रूप से घोषित किये बिना, क्षणिक काम संतुष्टि चाहते हैं उनको समाज बुरा कहता है, उनको सज़ा देना चाहता है क्योंकि ऐसे लोग सामाजिक व्यवस्था को छिन्न विच्छिन्न करने का अपराध कर रहे हैं ।अब प्रश्न यह है कि ये व्यवस्था व्यक्ति व समाज की उन्नति में, विकास में सहयोगी है अथवा व्यक्ति का शोषण करती है ? दूसरा प्रश्न ये है कि कोई पुरुष बच्चों के लालन-पालन का उत्तरदायित्व उठाने के लिये किन परिस्थितियों में सहर्ष तत्पर होगा ? कोई स्त्री-पुरुष जीवन भर साथ साथ कैसे रह पाते हैं ? जो स्थायित्व और बच्चों के प्रति जिम्मेदारी की, वात्सल्य की भावना पशु-पक्षी जगत में कभी देखने को नहीं मिलती, वह मानव समाज में क्यों कर दृष्टव्य होती है? जब कोई स्त्री पुरुष एक दूसरे की जरूरतों को पूरा करते हुए, एक दूसरे के साथ सहयोग करते हुए, साथ साथ रहने लगते हैं तो उनके बीच एक ऐसा प्रेम संबंध पनपने लगता है जो उस प्यार मोहब्बत से बिल्कुल अलग है - जिसका ढिंढोरा फिल्मों में, किस्से-कहानियों में, उपन्यासों में पीटा जाता है। एक दूसरे के साथ मिल कर घर का तिनका-तिनका जोड़ते हुए, एक दूसरे के सुख-दुःख में काम आते हुए, बीमारी और कष्ट में एक दूसरे की सेवा-सुश्रुषा करते हुए, स्त्री-पुरुष एक दूसरे के जीवन का अभिन्न अंग बन जाते हैं । वे एक दूसरे को "आई लव यू" कहते भले ही न हों पर उनका प्यार अंधे को भी दिखाई दे सकता है । यह प्यार किसी स्त्री की कोमल कमनीय त्वचा, सुगठित देहयष्टि, झील सी आंखों को देख कर होने वाले प्यार से (जो जितनी तेज़ी से आता है, उतनी ही तेज़ी से गायब भी हो सकता है) बिल्कुल जुदा किस्म का होता है। इसमे रंग रूप, शारीरिक गुण-दोष कहीं आड़े नहीं आते। इंसान का व्यवहार, उसकी बोलचाल, उसकी कर्तव्य-परायणता, सेवाभाव, समर्पण, निश्छलता, दया-ममता ही प्यार की भावना को जन्म देते हैं। ये प्रेम भावना पहले स्त्री-पुरुष के गृहस्थ जीवन को स्थायित्व देती है, फिर यही प्रेम माता-पिता को अपने बच्चों से भी हो जाता है। यह प्यार बदले में कुछ नहीं मांगता बल्कि अपना सर्वस्व दूसरे को सौंपने की भावना मन में जगाता है। ये सामाजिक व्यवस्था तब तक सफलतापूर्वक कार्य करती रहती है जब तक स्त्री-पुरुष में से कोई एक दूसरे को धोखा न दे । पुरुष को ये विश्वास हो कि जिस स्त्री पर उसने अपने मन की समस्त कोमल भावनायें केन्द्रित की हैं, जिसे सुख देने के लिये वह दिन रात परिश्रम करता है, वह उसके अलावा अन्य किसी भी व्यक्ति की ओर मुंह उठा कर देखती तक नहीं है। स्त्री को भी ये विश्वास हो कि जिस पुरुष के लिये उसने अपना समस्त जीवन समर्पित कर दिया है, वह कल उसे तिरस्कृत करके किसी और का नहीं हो जायेगा । बच्चों का अपने माता - पिता के प्रति स्नेह व आदर भी माता-पिता के मन में अपनी वृद्धावस्था के प्रति सुरक्षा की भावना जगाता है ।"पुरुष भी स्त्री के साथ बच्चे के लालन-पालन में बराबर का सहयोग दे" -इस परिकल्पना, व इस हेतु बनाई गई व्यवस्था की सफलता, इस बात पर निर्भर मानी गयी कि पुरुष को यह विश्वास हो कि जिस शिशु के लालन-पालन का दायित्व वह वहन कर रहा है, वह उसका ही है, किसी अन्य पुरुष का नहीं है। इसके लिये यह व्यवस्था जरूरी लगी कि स्त्री केवल एक ही पुरुष से संबंध रखे । कोई स्त्री एक ही पुरुष की हो कर रहने का वचन देती है तो पुरुष न केवल उसके बच्चों का पूर्ण दायित्व वहन करने को सहर्ष तत्पर होता है, बल्कि उस स्त्री को व उसके बच्चों को भी अपनी संपत्ति में पूर्ण अधिकार देता है। इस व्यवस्था के चलते, यदि कोई पुरुष अपने दायित्व से भागता है तो ये समाज उस स्त्री को उसका हक दिलवाता है ।स्त्री ने जब एक ही पुरुष की होकर रहना स्वीकार किया तो बदले में पुरुष से भी यह अपेक्षा की कि पुरुष भी उस के अधिकारों में किसी प्रकार की कोई कटौती न करे । दूसरे शब्दों में स्त्री ने यह चाहा कि पुरुष भी केवल उसका ही होकर रहे । पुरुष की संपत्ति में हक मांगने वाली न तो कोई दूसरी स्त्री हो न ही किसी अन्य महिला से उसके बच्चे हों ।शायद आप यह स्वीकार करेंगे कि यह सामाजिक व्यवस्था न हो तो बच्चों के लालन पालन की जिम्मेदारी ठीक उसी तरह से अकेली स्त्री पर ही आ जायेगी जिस तरह से पशुओं में केवल मादा पर यह जिम्मेदारी होती है । चिड़िया अंडे देने से पहले एक घोंसले का निर्माण करती है, अंडों को सेती है, बच्चों के लिये भोजन का प्रबंध भी करती है और तब तक उनकी देख भाल करती है जब तक वह इस योग्य नहीं हो जाते कि स्वयं उड़ सकें और अपना पेट भर सकें । बच्चों को योग्य व आत्म निर्भर बना देने के बाद बच्चों व उनकी मां का नाता टूट जाता है । पिता का तो बच्चों से वहां कोई नाता होता ही नहीं ।इसके विपरीत, मानवेतर पशुओं से ऊपर उठ कर जब हम मानव जगत में देखते हैं तो नज़र आता है कि न केवल यहां माता और पिता - दोनो का संबंध अपनी संतान से है, बल्कि संतान भी अपनी जन्मदात्री मां को व पिता को पहचानती है । भारत जैसे देशों में तो बच्चा और भी अनेकानेक संबंधियों को पहचानना सीखता है - भाई, बहिन, ताऊ, ताई, चाचा - चाची, बुआ - फूफा, मामा - मामी, मौसा - मौसी, दादा - दादी, नाना - नानी से अपने संबंध को बच्चा समझता है और उनकी सेवा करना, उनका आदर करना अपना धर्म मानता है । ये सब भी बच्चे से अपना स्नेह संबंध जोड़ते हैं और उसके शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आर्थिक विकास में अपने अपने ढंग से सहयोग करते हैं ।बात के सूत्र समेटते हुए कहा जा सकता है कि यदि कोई स्त्री या पुरुष सेक्स को "महज़ चाय के एक कप" जैसी महत्ता देना चाहते हैं; उन्मुक्त सेक्स व्यवहार के मार्ग में समाज द्वारा खड़ी की जाने वाली बाधाओं को वह समाज की अनधिकार चेष्टा मानते हैं; यदि उन्हें लगता है कि उनको सड़क पर, कैमरे के सामने, मंच पर नग्न या अर्धनग्न आने का अधिकार है, और उनका ये व्यवहार समाज की चिंता का विषय नहीं हो सकता तो इसका सीधा सा अर्थ है कि वह इस सामाजिक व्यवस्था से सहमत नहीं हैं, इसे शोषण की जनक मानते हैं और इस व्यवस्था से मिलने वाले लाभों में भी उनको कोई दिलचस्पी नहीं है । यदि स्त्री यह विकल्प चाहती है कि वह गर्भाधान, बच्चे के जन्म, फिर उसके लालन-पालन की समस्त जिम्मेदारी अकेले ही उठाए और बच्चे का बीजारोपण करने वाले नर पशु से न तो उसे सहयोग की दरकार है, न ही बच्चे के लिये किसी अधिकार की कोई अपेक्षा है तो स्त्री ऐसा करने के लिये स्वतंत्र है । बस, उसे समाज द्वारा दी जाने वाली समस्त सुख-सुविधाओं को तिलांजलि देनी होगी । वह समाज की व्यवस्था को भंग करने के बाद समाज से किसी भी प्रकार के सहयोग की अपेक्षा भी क्यों रखे ? अस्पताल, डॉक्टर, नर्स, दवायें, कपड़े, कॉपी-किताब, स्कूल, अध्यापक, नौकरी, व्यापार आदि सभी सुविधायें समाज ही तो देता है । वह जंगल में रहे, अपना और अपने बच्चे का नीड़ खुद बनाये, उसक पेट भरने का प्रबंध स्वयं करे। क्या आज की नारी इस विकल्प के लिये तैयार है?यदि समाज द्वारा दी जा रही सेवाओं व सुविधाओं का उपयोग करना है तो उस व्यवस्था को सम्मान भी देना होगा जिस व्यवस्था के चलते ये सारी सुविधायें व सेवायें संभव हो पा रही हैं । सच तो ये है कि शोषण से मुक्ति के नाम पर यदि हम अराजकता चाहते हैं तो समाज में क्यों रहें, समाज से, समाज की सुविधाओं से दूर जंगल में जाकर रहें न ! वहां न तो कोई शोषणकर्ता होगा न ही शोषित होगा ! वहां जाकर चार टांगों पर नंगे घूमते रहो, कौन मना करने आ रहा है ?- सुशान्त सिंहल
No east or west,mumbaikar or bihaari, hindu/muslim/sikh/christian /dalit/brahmin… for me.. what I believe in logic, rationality and humanity...own whatever the good, the logical, the rational and the human here and leave the rest.
शनिवार, 31 जनवरी 2009
टिप्पणी को पोस्ट बनाते हुए स्त्री-विमर्श
यह ब्लाॅग किसका है ? ज़ाहिर है कि मेरा।
मैं किसी और को इसपर आने क्यों दूं। छाने क्यों दूं !
मेरी पोस्ट पर कितनी टिप्पणियां आयीं ? इसका चर्चा कितनी बार कितने अखबारों में हुआ ?
क्या ब्लाॅगिंग का मकसद बस इतना ही है, होना चाहिए !?
विज्ञान और तकनीक ने हर सोचपूर्ण व्यक्ति को, अगर उसके पास एक अदद पी।सी। और एक ब्राॅड-बैण्ड कनेक्शन है, अपना एक अखबार दे दिया है जिसकी पहुँच दुनिया के हर कोने तक है। मुझे लगता है, ब्लाॅगिंग की यह अद्भुत विधा अखबार से भी ऊपर की कोई चीज़ है।
सुशांत सिंहल से मेरा कोई पूर्व-परिचय नहीं है। मुझे नहीं पता उनका संबंध किस गुट, किस दल, किस विचारघारा वगैरहा-वगैरहा से है। मैं उनसे वैचारिक रुप से सहमत होऊं या नहीं, पर मेरे काॅलम ‘‘मेरी नज़रों से आसमां देखो’’ की पहली पोस्ट पर उनकी टिप्पणी ऐसी तो है ही कि जिस पर चर्चा की जानी चाहिए। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में लोकतंत्र की मात्रा बढ़ाने की मेरी कोशिश के तहत भी इसे पढ़िए और राय दीजिए। (इंस दौरान यदि मैं सुशांत सिंहल से यह उम्मीद करने लगूं कि वे भी अपने ब्लाॅगस् और मंचों पर अपने से अलग तरह के विचारों को ऐसे ही खुले दिल और सहिष्णुता के साथ मौका देंगे, तो इसमें शायद कोई अतिश्योक्ति तो नहीं होगी !)
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वाकई एक विचारोतेजक लेख है...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर तरीके से समाज की महता समझाइ। सैक्स ही सब कुछ नहीं।
जवाब देंहटाएंप्रिय संजय ग्रोवर जी,
जवाब देंहटाएंमेरी टिप्पणी (कुछ ज्यादा ही लंबी टिप्पणी थी ये) को इतनी महत्ता देकर एक पोस्ट के रूप में स्थान देकर आपने जिस गरिमा व हृ्दय की विशालता का परिचय दिया है, उसके आगे मैं नत मस्तक हूँ। ब्लॉग्स की इस मनभावन दुनियां का नया-नया बाशिंदा हूं, आप जैसे गुणीजनों का साथ पाकर मन प्रफुल्लित है। आपसे प्रत्यक्ष भेंट का भी सुअवसर कभी न कभी मिलेगा ही, ऐसी आशा है।
आपने जो अपेक्षा मुझसे की है, उसे पू्रा कर मुझे निश्चय ही अच्छा लगेगा।
सुशान्त सिंहल
www.sushantsinghal.blogspot.com
शायद कहीं एक लघुकथा पढ़ी थी। बाद में उसमें मैंने थोड़ा-सा कुछ अपना भी जोड़ दिया। बज़रिए डार्विन हम इंस कहानी में पहुंचते हैं।
जवाब देंहटाएंपृथ्वी पर तब बंदर ही बंदर थे। आदमी नामक महान जीव का आगमन तब तक नहीं हुआ था। पता नहीं एक बंदर को क्या हुआ कि पट्ठा विद्रोही होना शुरु हो गया। कभी अगले पैर ऊपर उठा लेता और निचले दोनों पैरों पर सारे शरीर का बैलेंस साधते, चलने की कोशिश करता। कभी पेड़ के पत्ते उठाकर शरीर को जगह-जगह ढंकने की कोशिश करता। हांलांकि इन कोशिशों के चलते कभी उसकी कमर में दर्द भी होता तो कभी बंदर समाज में जोरदार खिल्ली भी उड़ती। शुरु में तो बंदर-समाज उसकी हरकतों को ‘‘लाइटली’’ लेता रहा। जब पानी सिर से गुजरने लगा तो बंदरों के सामाजिक आकाओं ने उसे अपने यहाँ तलब किया और पूछा कि भई आखिर तुम्हे हुआ क्या है, ये क्या अजीबो-ग़रीब हरकतें करते रहते हो ! बंदर बोला सर एक ऐक्सपेरिमेंट कर रहा हूँ। क्या पता इंस में कामयाब हो जाऊँ। ‘‘उससे क्या होगा ?’’ बंदराधिपति ने धैर्य बनाए रखते हुए पूछा। ‘‘ तब शायद हम अगले दोनों हाथों से कुछ दूसरे काम कर पाएं जैसे खाना खाना, खाना बनाना, कलम पकड़कर लिखना, कपड़े बनाना-पहनना...वगैरहा.......‘‘.......‘‘अच्छा तभी पत्ते उठा-उठाकर शरीर पर लपेटते फिरते हो.....’’ बंदराचार्य ने उपहास करते हुए कहा....।‘‘ ‘‘सर ठंड के दिनों में शरीर कांपने लगता है ना, शरीर ढंकने से थोड़ी राहत मिलती है.....’’
‘‘चल पाखंडी, शरीर ढंकने के बहाने सैक्स का प्रचार कर रहा है।’’ बंदर-प्रमुख गुस्से में थर-थर कांपने लगे।
‘‘साला, समाज में अराजकता फैला रहा है, निकाल बाहर करो इसे‘‘ एक परंपरावादी बंदर चीखा।
‘‘हमारे धर्म-संस्कृति को भ्रष्ट कर रहा है।’’ एक संस्कृति-पसंद बंदर गुस्से में बाल नोच-नोंचकर कूदने लगा।
‘‘हां-हां, पेड़ से उतरना हमारी सभ्यता के खिलाफ है।’’
‘‘सिर्फ दो पैरों पर चलते हुए साले को ज़रा शर्म नहीं आती।’’
‘‘हरामखोर, शरीर के पवित्र अंगों को पत्तों से ढंकता है।’’
‘‘मारो, साले को छोड़ना मत।’’
और पत्थरों की बरसात शुरु हो गयी।
मगर वह भी अपनी तरह का एक ही बंदर था। चोट खाता रहा। हंसी उड़वाता रहा। मगर प्रयोग करना नहीं छोड़ा।
आखिरकार एक दिन निचले दोनों पैरो पर खड़ा हो गया। हाथों से तरह-तरह के दूसरे काम करने लगा। और आदमी बन गया। देखा-देखी, हंसी उड़ाने वाले, पत्थर मारने वाले, अराजक कहने वालों में से भी कई बंदर उसके रास्ते पर चल पड़े और वे भी आदमी बन गए। पुराना बंदर समाज अभी भी है और आज भी ‘‘माॅडर्न’’ बंदर-समाज की हंसी उड़ाता है।
बात कपड़े पहनने या उतारने की उतनी नहीं है सिंहल साहेब ! बात यथास्थ्तििवाद से विद्रोह और वक्त और ज़रुरत के हिसाब से खुदको और समाज को बदलने की है। भीड़ के पीछे चलने वाले, रुढ़िवादी और अपनी कोई सोच न रखने वालों ने तो विरोध ही करना होता है, चाहे वह कपड़े उतारना हो या पहनना। अभी सारी दुनिया के लोग कपड़े उतारकर घूमना शुरु कर दे और समाज इसे बहुत प्रतिष्ठा की बात मानने लगे तो यही नग्नता-विरोधी अपने सारे कपड़े फेंककर सबसे आगे खड़े हो जाएंगे और कहेंगे कि सबसे पहले तो यह हमने ही सुझाया थां, विश्वास न हो तो हमारे ग्रंथ-शास्त्र पढ़ लो। उनमें भी यही लिखा है।
आपकी एक ग़लतफहमी दूर कर सकूं तो खुदको सफल समझूंगा। समाज में गतिशीलता और परिवर्तन उन सैकड़ों बंदरों की वजह से नहीं आते जो प्रयोगवादी, विद्रोही और चिंतनशील बंदरों को अराजक, धर्मभ्रष्ट और असामाजिक वगैरहा-वगैरहा कहते हैं। बल्कि उन बंदरों की वजह से आते हैं जो यह सब सुन/सहकर भी अपनी धुन में लगे रहते हैं। सामाजिकता क्या होती है और असामाजिकता क्या, इसपर भी अगली किस्त में ज़रुर बात करेंगे। मेरे द्वारा आपकी टिप्पणी को बतौर पोस्ट छाप दिया जाना आपको मेरे हृदय की विशालता वगैरहा क्यों लग रहा है, इसपर भी बात करेंगे। मज़े की बात यह है कि मैंने अपने पूरे लेख में ‘‘डीसैक्सुअलाइजेशन’’ शब्द का इस्तेमाल ही नहीं किया। फिर भी आपको ऐसा क्यों लगा, इसपर भी बात करेंगे।
(जारी)
*****स्त्री को अपनी कई समस्याओं से जूझने-निपटने के लिए देह से मुक्त तो अब होना ही होगा और इसके लिए उसकी अनावृत देह को भी पुरूष अनावृत देह की तरह सामान्य जन की आदत में आ जाने वाली अनुत्तेजक अवस्था के स्तर पर पहुंचाना होगा ।*****
जवाब देंहटाएं(उक्त लेख में मैंने जो कहा)
इसके अलावा भी अपने कुछ पुराने लेखों के टुकड़े यहाँ पेश करना चाहूंगा जिससे मुझे अपनी बात कहने में आसानी हो जाएगी और व्यर्थ के दोहराव और वक्तखर्ची से भी बच जाऊंगा:-
*अश्लीलता को लेकर एक और मजेदार तथ्य यह है कि बढ़ते-बदलते समय के साथ-साथ इसको नापने-देखने के मापदंड भी बदलते जाते हैं। 1970 में जो फिल्म या दृश्य हमें अजीब लगते थे, अब नहीं लगते। आज बाबी पर उतना विवाद नहीं हो सकता, जितना ‘चोली के पीछे’ पर होता है। आज साइकिल, स्कूटर, कार चलाती लड़कियां उतनी अजीब नहीं लगतीं, जितनी पांच-दस साल पहले लगती थीं। मिनी स्कर्ट के आ जाने के बाद साधारण स्कर्ट पर एतराज कम हो जाते हैं। मध्यवर्गीय घरों में नौकरीशुदा स्त्रियों को लेकर तनाव व झगडे़ जितना पहले दिखते थे, उतना अब नहीं दिखते।*
6 दिसम्बर 1996 को अमरउजाला (रुपायन) में प्रकाशित
*फिल्मांे में देखिए । वहां भी यही हाल है । हमारा नायक अक्सर बहन, बेटी या पड़ोसन के लिए कहीं-न-कहीं से दहेज जुटाकर समस्या की जड़ में जाने की बजाय उसे टालने में अपनी सार्थकता समझता है । इक्का-दुक्का फिल्मों में ही लालची वर-पक्ष को दुत्कार कर किसी आदर्श पुरूष से कन्या का विवाह करने के उदाहरण देखने को मिलते हैं । मुझे याद नहीं कि कभी किसी नारी संगठन ने ऐसे विज्ञापनों या ऐसी फिल्मों का विरोध किया हो । स्त्री का आंचल पौन इंच भर ढलक जाने पर हाय-तौबा मचाने वाले सभ्यजनों को उक्त दृश्यों का विरोध करने के नाम पर क्यों सांप सूंघ जाता है ? क्या कभी किसी नारी संगठन का ध्यान इस ओर नहीं गया कि फिल्मों में किस तरह नारी के अंतर्वस्त्र बे्रजियर को मजाक की वस्तु बनाया जाता रहा है (ताजा उदाहरण दिल वाले दुल्हनिया ले जाएंगे) । नारी का अंतर्वस्त्र आखिर हास्य का साधन क्यों और कैसे हो सकता है ? क्या यह सोच अश्लील और विकृत नहीं है ?*
7 मार्च 1997 को अमरउजाला (रुपायन) में प्रकाशित
*मान्यता है कि एकल अभिभावकों द्वारा पाले गए बच्चे बिगडे़ हुए होते हैं....... समाज उन्हें अच्छी नजर से नहीं देखता.....वगैरह(क्या अकेली सीता द्वारा पाले गए लव-कुश राम से कम पराक्रमी थे ?)। अब समाज अगर बड़ों की गलती की सजा बच्चों को देता है, तो यह समाज की नासमझी है। इसमें बच्चों का क्या कसूर है ? दूसरे, आज हमारे सामने नेताओं, नौकरशाहों, चिकित्सकों, प्राध्यापकों, वकीलों, युवाओं की एक पूरी भष्ट्र पीढ़ी आई है, तो ये संयुक्त परिवारों में से ही तो आई है। सब कुछ एकाएक तो नहीं बदल गया है। यह लेखक बचपन से ही देखता आ रहा है कि यहां ईमानदार और नैतिक लोगों की संख्या हमेशा से ही नगण्य रही है। हमारा समाज हमेशा से ही ईमानदार व मौलिक लोगों की हंसी उड़ाता आया है। जबकि प्रचलित अर्थो में व्यावहारिक (दरअसल भ्रष्ट व बेईमान) और किसी भी ग़लत-सही तरीके से अपना काम निकाल लेने वाले लोगों को तारीफ और प्रोत्साहन मिलते रहे हैं। अर्थात सामाजिक व नैतिक मानदंड भी दो तरह के हैं। एक तो वे जो घोषित हैं, यानी ऊपरी या बाहरी दिखावा यानी हाथी के दांत। दूसरे, व्यावहारिक व भीतरी तल पर, जिनसे ऊपरी तौर पर घृणा दिखाई जाती है, मगर भीतरी तौर पर वही सब कुछ किया जाता है या करने की इच्छा तो होती है, मगर समाज के डर से कहा नहीं जाता।*
*आज से तीस साल पहले की नारी विषयक पत्रिकाएं उठाकर ‘पाठको’ की समस्याएं’ में झांकिए। पता चलेगा कि हर शादीशुदा, बाल-बच्चों वाले मर्द का किसी स्त्री से अवैध संबंध है। हर शादी-शुदा स्त्री अपने देवर, पति के मित्र, किसी पड़ोसी या किसी अन्य रिश्तेदार से अवैध संबंध बनाए है। हर कुंवारा लड़का/लड़की चोरी-छिपे प्यार का चक्कर चलाए है। हर जीजा अपनी साली को नोंच खाने पर आमादा है और इसी सबसे हमारा समाज खुश और संतुष्ट है कि भीतर-भीतर से सब कारगुजारियां भी संपन्न होती रहें और ऊपरी सतह पर सभ्यता-संस्कृति के पवित्र-मीठे गाने गाए जाएं और सच्चे किस्से तकियों और दरियों के नीचे दबे रहें, ताकि मौका और एकांत मिलते ही उनके चटखारे लिए जा सकें।*
*अन्यथा तथ्य यह भी है कि संयुक्त परिवारों में पले बहुत से बच्चे बचपन से ही कुंठित, शर्मीले, आत्मविश्वास से हीन, असुरक्षा ग्रंथि से पीड़ित और विपरीत सेक्स के प्रति घृणा, डर, दुश्मनी, जुगुप्सा व अत्यधिक संकोच का भाव रखने वाले होते हैं, क्यों कि अब तक हमारे यहां एक उम्र के बाद लड़के-लड़कियों को साथ-साथ खेलने से रोका जाता रहा है। सर्वविदित है कि संयुक्त परिवारों में पलने वाली स्त्रियां और पुरुष अत्यधिक अनुशासन और विकृत वर्जनाओं के चलते दमित और कंुठित हो जाते हैं और इसका बदला जाने-अनजाने अगली पीढ़ी से लेते हैं और इस तरह यह चक्र निरंतर चलता रहता है। अतः संयुक्त परिवार की कमियों को छुपाते हुए उसकी झूठी तारीफ से काम चलने वाला नहीं है। भीड़ भरे स्थानों, मेलों, थिएटरों, रेलों में जैसा शत्रुतापूर्ण, अपमानजनक व्यवहार स्त्री के साथ किया जाता है, उसकी मानसिकता आखिर कैसे पैदा होती है, इसका पता लगाने की सख्त जरूरत है।*
*हमारे यहां घर बसाने या परिवार जोड़ने का (अघोषित) मतलब ही है स्त्री को जीते-जी मार डालना। उसके अरमानों, सपनों, इच्छाओं व व्यक्तित्व का गला घोंट देना। यहां सुखी परिवार उसे माना जाता है, जिसमें ऊपर-ऊपर सब कुछ अच्छा-अच्छा दिखाई दे। फिर भले ही अंदर-अंदर परिवार के सब सदस्य एक-दूसरे से लड़ते-कुढ़ते रहें। ऊपर से शांति दिखनी चाहिए, भले ही भीतर-भीतर परिवार का हर सदस्य दमित, कुंठित, अपमानित और उपेक्षित ही क्यों न महसूस करता रहे। घोषित मान्यताओं के हिसाब से हमारे यहां का मर्द मर्यादा पुरुषोतम राम दिखना चाहता है, तो अघोषित मान्यताओं के हिसाब से रासबिहारी कृष्ण भी होना चाहता है।*
*जिस समाज में व्यक्ति की निजता, स्वतंत्रता, वैज्ञानिकता, तार्किकता, मौलिकता और अस्मिता से ज्यादा महत्व थोथी मान्यताओं, रूढ़ियों, परंपराओं, कुप्रथाओं, अंधविश्वासों आदि को दिया जाता हो, उस समाज के नियम-कानूनों, सामाजिक-नैतिक मान्यताओं में आमूल-चूल परिवर्तन किए बिना स्त्री के मंगल की कामना करना सरासर नासमझी, चालाकी, नादानी या मूर्खता नहीं, तो क्या है?*
17 अक्तूबर 1997 को अमरउजाला (रुपायन) में प्रकाशित
*‘लोग क्या कहेंगे’ या ‘समाज क्या कहेगा’ आदि डरों की वजह से इन प्रक्रियाओं में अनुपस्थित रहने के बजाय हमें पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर अपने विवेक और तर्कबुद्धि से ही इस बाबत निर्णय लेने होंगे। इतिहास गवाह है कि जो लोग इन सामाजिक परिवर्तनों और सुधारों को धर्म व शास्त्र विरुद्ध कहकर इनकी आलोचना करते हैं, बदलाव आ चुकने और समाज के बहुलांश द्वारा इन्हें अपना चुकने के बाद वही लोग अगुआ बनकर इसका ‘क्रेडिट’ लेने की कोशिश भी करते हैं। विरोध, आलोचना और अकेले पड़ जाने के डर से अगर सभी चिंतक अपने चिंतन और उस पर पहलक़दमी करने के इरादों को कूड़े की टोकरी में डालते आए होते तो आदमी आज भी बंदर बना पेड़ों पर कूद रहा होता।*
7 मार्च 1997 को अमरउजाला (रुपायन) में प्रकाशित
(जारी)
blog follow karne ke liya aapki dil se aabhaari hoon..
जवाब देंहटाएंप्रिय श्री संजय ग्रोवर,
जवाब देंहटाएंसबसे पहले तो आपको आपकी उत्कृष्ट लेखन शैली के लिये बधाई दिये बिना मैं रह नहीं पा रहा हूं। मुझे लगता है कि यदि आप किसी को गाली भी देते होंगे तो उसे उसमे भी सुवाली जैसा ही आनंद आता होगा।
जैसा कि मैने पहले भी जिक्र किया था, मैं ब्लॉग्स की दुनिया में नया-नया बाशिंदा हूं । अभी एक ब्लॉग पर देखा कि उसके स्वामित्वाधिकार को लेकर मार-काट मची हुई है। लोग मिलते जुलते नाम वाले कई सारे ब्लॉग बनाने में जुटे हैं। ऐसे में आपने जिस प्रकार भूमिका बांधते हुए मेरी टिप्पणी को पोस्ट की तरह प्रकाशित किया तो मुझे लगा कि जरूर यह कोई विशेष घटना है। शायद आम तौर पर ऐसा नहीं होता होगा। इसीलिये आपकी दरियादिली की तारीफ में कुछ कह बैठा था । यदि कुछ अनुचित लिख बैठा था तो क्षमा प्रार्थी हूं ।
डी-सेक्सुअलाइज़ेशन शब्द मैने आपके ही कॉलम में पढ़ा था । हो सकता है, आपकी पोस्ट के उत्तर में आई हुई टिप्पणियों में से किसी एक में रहा हो । पर शब्द न भी सही, विचार तो आपके यही हैं न? "स्त्री को अपनी कई समस्याओं से जूझने-निपटने के लिए देह से मुक्त तो अब होना ही होगा और इसके लिए उसकी अनावृत देह को भी पुरूष अनावृत देह की तरह सामान्य जन की आदत में आ जाने वाली अनुत्तेजक अवस्था के स्तर पर पहुंचाना होगा ।"
मुझे लिखने से अधिक प्रिय पढ़ना लगता है। आपको पढ़ना तो वैसे भी बहुत आनंददायक है । आपके लंबे चौड़े आख्यान को पढ़ कर मैने एंजॉय तो बहुत किया पर यह स्पष्ट नहीं हो पा रहा है कि आखिर आप किस प्रकार की व्यवस्था के पक्षधर हैं। यह तो क्षण भर के लिये मान लिया कि हमारे समाज में सब कुछ गलत ही गलत है, पर क्या आप एक ऐसी वैकल्पिक सामाजिक व्यवस्था का ब्लू प्रिंट नहीं देंगे जिस पर चल कर व्यक्ति और समाज - दोनो का हित हो और दोनो एक दूसरे के लिये पोषक हों ? जैसे राष्ट्र का संविधान होता है, क्लब, सोसायटी, कंपनी आदि के जीवन लक्ष्य होते हैं, ऐसे ही आपसे यदि कहा जाये कि आप भी एक ऐसा "मिशन स्टेटमैंट" हमारे समाज के लिये तैयार करें और उस मिशन को कैसे प्राप्त किया जायेगा, यह मार्ग भी सुझायें तो आप क्या लक्ष्य देंगे और क्या मार्ग देंगे ?
सुशान्त सिंहल
www.sushantsinghal.blogspot.com
स्ुशांत जी आप तो नाराज़ हो गए। यह क्या बात हुई कि जब आप अपने लेख का अंत ‘‘‘वहीं जाकर चार टांगों पर नंगे घूमते रहो, कौन मना कर रहा है।’’’ जैसे वाक्यों से करते हैं तो वो आपको बड़ी धार्मिक-आध्यात्मिक-सभ्य भाषा लगती है। ऐसा क्यों, भाई ? दरअसल जिस समाज की सामाजिकता और असामाजिकता आप मुझे समझा रहे हैं उसके बारे में खुद आपको ज़्यादा पता है, ऐसा लगता नहीं।(यह वह समाज है जो कहता है कि उम्र के हिसाब से लोगों की इज़्ज़त करो, मगर यहां एक बूढ़े रिक्शेवाले या बूढें़ जमादार से किस तरह बात की जाती है, आप नहीं जानते !) ऊपर से आप मुझे नयी व्यवस्था का मिशन-स्टेटमेंट बनाने को कह रहे हैं जैसे कि पिछली व्यवस्था का आपने तैयार किया था ! सारे यथास्थ्तििवादियों की तान यहीं आकर टूटती है। अपने से अलग विचारों के लोगों को आप किस तरह से जंगल में जा बैठने का आदेश जारी करते हैं जैसे सारा समाज आपका जरखरीद गुलाम हो सारे लोग आपकी बातों से पूरी तरह सहमत हों और सारे देश का पट्टा आपके नाम लिखा हो। सब वही खाएं जो हम बताएं, वही पहनें जो हम कहें, वही बोलें जो हम उनके मुंह में डाल दें। वाह, कैसी हत्यारी भाषा, कितनी अहंकारी सोच (?), कितनी तानाशाह प्रवृत्ति । मगर फिर भी धार्मिक ! फिर भी आध्यात्मिक ! फिर भी सभ्य।
जवाब देंहटाएंआप कहते हैं कि मैं कोई व्यवस्था सुझाऊँ। मैं क्यों सुझाऊं भाई !? मुझे पता है कि एक दवा मुझे अत्यधिक नुकसान पहुँचा रही है। लेकिन मै उसे सिर्फ इसलिए खाता जाऊं और तारीफ करता जाऊं कि बाज़ार में उसकी वैकल्पिक दवा उपलब्ध नहीं है और मैं खुद वह दवा बनाने में सक्षम नहीं हूँ ! मैं उस दवा के ज़हरीले असरात की बाबत आवाज़ उठाऊंगा तभी तो कुछ लोग नयी दवा बनाने के बारे में सोचेगे। तभी तो वे सब लोग भी आवाज़ उठाएंगे जो इंस दवा के ज़हरीले नतीजे तो भुगतते आ रहे हैं मगर सिर्फ इसलिए चुप हैं कि उन्हें लगता है िक वे अकेले हैं और उपहास के पात्र बन जाएंगे। स्त्री-विमर्श के ही मामले में ही देखिए, पहले विद्वान लोग कहते-फिरते थे कि ऐसी दो-चार ही सिरफिरी औरतें हैं जो धीरे-धीरे अपने-आप ‘‘ठीक’’ हो जाएंगी, नही ंतो हम कर देंगे। अब देखिए तो कहां-कहां से कितनी-कितनी आवाज़े उठ रही हैं। इसलिए इंस ग़लतफहमी में मत रहिए कि सभी आपकी तरह सोचते (?) और भेड़ों की तरह आप उन्हें जहां मर्ज़ी हांक ले जाएंगे।
जब सब दुखी मिल बैठेंगे तो बन जाएगी कोई नयी व्यवस्था भी। लेकिन मेरी रुचि ऐसी किसी गैर-लोकतांत्रिक व्यवस्था में नहीं कि सब मेरी तरह से जीएं। अगर मेरी टांगें पतली हैं और निक्कर मुझे सूट नहीं करता तो मै यह विधान बनवाने की कोशिश करुं कि सभी मेरी तरह फुलपैंट पहनेंगे !!?? अरे जिसको जो रुचता है वो करे। आप कौन हैं तय करने वाले। आपके हिसाब से तो फिर सती-प्रथा, बाल-विवाह, विधवा-दमन, कन्या-भ्रूण-हत्या भी चलते रहने चाहिए थे क्योंकि फुलप्रूफ वैकल्पिक व्यवस्था तो न मेरे पास थी न आपके !
बाते अभी बहुत-सी बाक़ी है।
(जारी)
प्रिय श्री संजय ग्रोवर,
जवाब देंहटाएंसबसे पहली शिकायत तो ये कि आपको सत्य, सरल ह्रृदय से की हुई प्रशंसा भी मेरी नाराज़गी लगी, तीखा कमेंट लगी - इससे मैं बहुत क्लेश का अनुभव कर रहा हूं । कई बार पढ़ा है कि शब्द बहुत बेइमान होते हैं।
आगे पढ़ें http://sushantsinghal.blogspot.com/2009/02/blog-post_06.html
वाह वाह क्या बात है! बहुत ही उन्दा लिखा है आपने !
जवाब देंहटाएंmuje lekh se zyada sanjay grover ke comment padhne me achcha laga.. Sanjay ji ko dhanyawaad..
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