‘‘यह क्या है ?’’ वे बोले।
‘‘शुरु हो जाओ।’’ मैंने कहा।
मेरे साथ गए स्व-अर्थी सेवकों ने अपने-अपने हथियार हाथ में ले लिए और विनम्र कोरस में गाने लगेः-
‘‘भेज रहे हैं नेह-निमंत्रण, यादव तुम्हे बुलाने को
हे मानस के राजहंस तुम भूल न जाना आने को''
उसके बाद मैंने राजेंद्र यादव के हाथ जोड़े। तत्पश्चात पैर छुए। फ़िर उन्हें ऐसे घूरा जैसे क़त्ल कर दूंगा।
फिर कहा, ‘‘देखिए, यादवजी, हम आपकी बड़ी इज़्ज़त करते हैं और हम चाहते हैं कि आप कार्यक्रम में आकर यह परचा पढें।’’
‘‘पर यह परचा तो आपका लिखा है, मैं तो अपने विचारों के लिए जाना जाता हूँ !’’ उन्होंने आश्चर्य प्रकटा।
मैंने उन्हें फ़िर घूरा। फ़िर हाथ जोड़कर कहा, ‘‘ देखिए यादवजी, हम इंस बात को जानते हैं मगर फ़िर भी आपकी बड़ी इज़्ज़त करते हैं। देखिए, हमारे यहाँ कोई भी तुम्मन खां आ जाए,उसे यही पर्चा पढ़ना होता है।’’
‘‘तो मुझे क्यों बुला रहे हो ? जिसने लिखा है उसी से पढ़वाओ’’, वे बोले।
‘‘वो कोई यहाँ बैठा हुआ है। पीढ़ियां गुज़र गई। और क्या एक ही आदमी ने लिखा है!’’, मैंने सवाल टाइप का जवाब दिया।
‘‘मौसम आएंगे जाएंगे.......हम उसको भूल न पाएंगे ऽऽऽऽऽ..’’स्व-अर्थी सेवकों ने हथियार हिलाते हुए विनम्र कोरस गाया।
वे सिगार मुंह में डालकर धुंआ छोड़ने लगे।
‘‘देखिए धुंए से हमें मत डराईए, हमारे स्व-अर्थी सेवकों की पहुँच घर-घर में है। किसी भी घर में घुसकर किसी भी तरह की आग लगा या लगवा सकते हैं.....’.मैंने बताया....‘हिंसक आग, अहिंसक आग, घरेलू आग, बाज़ारु आग, प्रकट आग, छुपी आग, सहिष्णु आग, क्रूर आग........’’
‘‘मुझे पता है,‘ वे बोले, ‘देखता आया हूँ।’’
मैंने कई फोटुओं में उन्हें पाइप पीते हुए देखा था।
‘‘ज़रा दिखाईए तो’’ मैंने आज्ञादार आवाज़ में कहा।
उन्होंने चुपचाप पाइप दे दिया।
मैंने एक सूंटा खींचा,‘‘यादवजी भांग-धतूरे वाला मज़ा इसमें नहीं है, फ़िर भी चीज़ बढ़िया है। पर प्रोग्राम में आप इसे नहीं पीएंगे।’’
‘‘क्यों भई, जब पीता हूँ और सबको पता है कि पीता हूँ तो क्यों नहीं पीऊंगा।‘‘
‘‘देखिए यादवजी‘, मैंने समझाया, ‘‘हमारे यहाँ ‘करो सब कुछ, कहो मत कुछ’’ का सिद्धांत चलता है। हमारे यहाँ उन बच्चों को बड़ा संस्कारी माना जाता है जो सिगरेट पीते तो हैं, शराब पीते तो हैं, छेड़खानी करते तो हैं, पर माँ-बाप के सामने नहीं करते ........ करते हैं कि नहीं करते, इसका महत्व नहीं है, महत्व इस बात का है कि किधर करते हैं किधर नहीं करते। समझे कि नहीं। आप सिगार पीकर भी होशो-हवास में रहते हुए मौलिक विचार झाड़ेंगे तो कौन पसंद करेगा। आप भांग खाकर पर्चा पढ़िए, देखिए कित्ती तारीफ़ होती है।’’
‘‘अरे भई सिगार से ज्यादा नुकसान तो मुझे अचार खाने से होता है। अचार क्यों न छोड़ूं !’’
‘‘यादवजी आपकी यही आदत खराब है, आप तर्क पर उतर आते हैं, तर्क-वर्क से कुछ नहीं होता।’’
‘‘फ़िर किससे होता है’’ वे पूछ बैठे।
‘‘अफ़वाहें फैलाओ, मुकदमें लगवाओ, बिज़निस गिरवाओ, आपस में लड़वाओ, तिकड़म करो, साजिश रचो.....पचासियों अंिहसक तरीके हैं...’’
‘‘इतनी शक्ति हमें देना दाता...मन का विश्वास कमज़ोर हो ना....’’स्व-अर्थी सेवकों ने फ़िर विनम्र कोरस गाया।
’’और यह काला चश्मा क्यों लगा रखा है आपने ?’’ उनकी चुप्पी ने मेरा आत्मविश्वास बढ़ाया, ‘‘किसी धर्म, जाति, वर्ण, संप्रदाय, रंग, गुट वगैरह का चश्मा लगाईए जिससे लोगों को छोटा-बड़ा, ऊँच-नीच जैसे भेद-भाव के तहत देखा जा सके। ऐसा चश्मा क्यों लगाते हैं जिससे सब एक जैसे दिखें !?’’ मैंने डपटा।
सच कहूँ तो ‘हम जैसे’ लोगों में आत्मविश्वास अपने विवेक और साहस से नहीं आता। दूसरों के डर और चुप्पी से आता है। तो इसी माहौल में मैंने बात आगे बढ़ाई, ‘‘देखिए जिन बातों को 20-30 साल के जवानों को सोचना-कहना चाहिए, उन्हें कहने के लिए आप क्यों अस्सी साल में मरे जा रहे हैं !’’
‘‘हुम....सोचना पड़ेगा.....अच्छा यह स्व-अर्थी सेवक का अर्थ क्या हुआ ?’’वही तर्क की उनकी गंदी आदत।
‘‘अपनी अर्थी खुद बनो..यह हमने बुद्ध के ‘‘अप्प दीपो भव’’ से लिया है। हमें जो अच्छा लगता है हम कहीं से भी उठा लेते हैं।’’
‘‘अच्छा....ज़रा खुलकर बताईए‘‘ उफ़! कैसा आदमी है!
‘‘पुराने को पकड़े रहो, नए का विरोध करो, फ़िर भी नया आ जाए तो उसे इंस तरह से अपनाओ कि उसकी हालत पुराने से भी बदतर हो जाए यानि अपनी अर्थी खुद बनो यानि दूसरा हमें क्या नुकसान पहुँचाएगा जितना हम खुद पहुँचा लेंगे।’’ मैंने समझाया।
‘‘सारी बातें छोड़ो..’’ मैंने पैंतरा बदला..‘‘ जो आपके यहाँ हुआ उससे कई गुना ज़्यादा दूसरों के यहाँ होता है। मानते हैं कि नहीं मानते ?’’
‘‘मानता हूँ।’’
‘‘लेकिन सारा कीचड़ आप पर उछाला जाता है। उन पर एक बूंद भी नहीं पड़ती। मानते हैं कि नहीं मानते ?’’
‘‘मानता हूँ।‘‘
‘‘तो भाई मेरे, करो कुछ भी पर कहो मत न लेख में न कहानी में, एक नारा पकड़ लो हमारा:-‘‘करो सब कुछ, कहो मत कुछ’’। समझे।’’
‘‘समझा, ‘करो सब कुछ, कहो मत कुछ‘‘
‘‘शाबाश’’, मैंने उनकी पीठ थपथपाई। सिर पर भी थोड़ा हाथ रख दिया।
‘‘इतनी शक्ति हमें देना दाता....मन का विश्वास कमज़ोर हो ना..’’स्व-अर्थी सेवकों ने विनम्र कोरस गाया।
अब यादवजी सुधर गए हैं। वे या तो संस्कृत बोलते हैं या अंग्रेजी। और हिन्दी के प्रकाण्ड विद्वान माने जाते हैं। अब उनके अपने कोई विचार नहीं हैं। वे सभाओं में जाकर आयोजकों के दिए वे पर्चे पढ़ते हैं जो आयोजकों को भी कहीं से मिले होते हैं। जहाँ से मिले होते हैं वहीँ भी पता नहीं कहाँ से आए होते हैं। अब ब्लाॅगर्स और आलोचकस् द्वारा उनके परचा-वक्तव्यों की ‘‘ट्राल’’ कहकर उपेक्षा नहीं की जाती। ऐसे पर्चों की कोई उपेक्षा करे या सम्मान, उससे होना भी क्या है।
-संजय ग्रोवर
एक टिप्पणी जो बहुत ज़रुरी थीः-
Harkirat Haqeer said... संजय जी, आपके व्यंग में पैनी धारहै...बहुत बढिया लिखा आने... कुछ कुछ फैन्टेसी लिए हुए... पर राजेन्द्र जी को क्यों व्यंग का हिस्सा बनाया जा रहा है? क्या महज उनका सिगार पीना उनकी तमामसाहित्यिक प्रभुत्ता को नकार देता है? या किसी के साथ उनके जातिगत संबंधों से उनकीप्रतिभा कम हो जाती है? राजेन्द्र जी हिन्दी साहित्य जगत के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं इसे हमें मानना होगा...January 18, 2009 10:41 PM
हरकीरत जी,
अगर आप व्यंग्य पढ़ती रहती हैं तो आपको पता होगा कि व्यंग्य ज़्यादातर व्यंजना की यानि टेढ़ी भाषा में लिखे जाते हैं। मसलन हमारा कोई पतला-दुबला मित्र हमें काफी समय बाद मिलता है जो कि अब बहुत मोटा हो चुका है, तो हम मज़ाक में कहते हैं कि यार दिन पे दिन सूखते जा रहे हो, क्या बात है ? इसी ढंग से पढ़ेंगी तो आपको इंस व्यंग्य के सही मायने समझ में आने लगेंगे। मैने दरअसल वही कहा है जो आप कहना चाह रही हैं।दिलचस्प लेकिन दुखद यह है कि खुद यादवजी के एक लेख ‘‘होना/सोना एक ख़ूबसूरत दुश्मन के साथ’’ के साथ भी ऐसा किया जा चुका है। उन्होंने जो कहा था उसके विपरीत अर्थ निकाल लिए गए थे। फ़र्क बस यही है कि आप भ्रमवश ऐसा कर रही हैं जबकि यादवजी के लेख के साथ यही सब आलोचकों/विद्वानों द्वारा शरारतन किया गया था।अच्छा किया आपने यह टिप्पणी लिखकर क्योंकि जो दूसरे लोग इंस लेख के ग़लत अर्थ लगा रहे होंगे वे इसे दोबारा, इसके सही अर्थों के साथ, पढ़ेंगे।
-संजय ग्रोवर
बिना शरम किये अगर कहूं तो यह कहना चाहूंगा कि उक्त व्यंग्य पढ़ कर मजा तो बहुत आया, पर कुछ कुछ समझ आया, कुछ सिर के ऊपर से निकल गया। दर असल, पृष्ठभूमि का आइडिया न हो तो शायद ऐसा ही होता है।
जवाब देंहटाएंसुशान्त सिंहल
www.sushantsinghal.blogspot.com
waah kyaa baat hai !
जवाब देंहटाएंआप तकनीकि जानकर किन्तु आपका सहयोग चाहूँगा कि मेरे नये ब्लाग के बारे में आपके मित्र भी जाने,
जवाब देंहटाएंब्लागिंग या अंतरजाल तकनीक से सम्बंधित कोई प्रश्न है अवश्य अवगत करायें
तकनीक दृष्टा/Tech Prevue
waah kya baat hai...maza aa gaya padh kar....
जवाब देंहटाएंआपकी रचनाधर्मिता का कायल हूँ. कभी हमारे सामूहिक प्रयास 'युवा' को भी देखें और अपनी प्रतिक्रिया देकर हमें प्रोत्साहित करें !!
जवाब देंहटाएंसंजय जी
जवाब देंहटाएंसर्व प्रथम आभार इस बात का कि आपने मुझे अपने परिवार में शामिल किया.आपका संवादघर पहली बार पढ़ा अच्छा लगा.
व्यंग्य "‘व्यंग्य-कक्ष’ में ’’इस तरह मैंने राजेंद्र यादव को सुधारा !’’" पढ़ा. मज़ा आया.
आभार
- विजय
आपको लोहडी और मकर संक्रान्ति की शुभकामनाएँ....
जवाब देंहटाएंक्या बात है, आपकी धार बहुत पैनी है और सलीका भी अनूठा, आप तो नये प्रयोगो के लिए बने हो।। कुठ ट्राई व्राई किया या नही। टेलीविजन आपके लिए मुफिद जगह है। हाथ, किस्मत और पैसा सब अजमाए यहां। मेरे अपने ख्याल से आपके पास चीजों को देखने का अपना एक नजरिया है। और यही आपकी धरोहर और सम्पत्तिा भी है। अपनी ताकत का इस्तेमाल किजिए। और टेलितिवन के लिए कुठ बनाइये।। बहहुत बहुत इरशाद मुबारकबादों के साथ्र
जवाब देंहटाएंअच्छी पोस्ट के लिए बधाई।
जवाब देंहटाएंभई मान गये आपको क्या खूब लिखा है
जवाब देंहटाएंलाजवाब प्रस्तुति ...बधाई !!
जवाब देंहटाएंकभी हमारे ब्लॉग "शब्द सृजन की ओर" की ओर भी आयें.
LAGE RAHO SANJAY BHAI.
जवाब देंहटाएंHAME TO PURI TARAH SAMAJH NA AYEE
TUM NE PAROSI THI NAV VARSH KI NAYEE MITHAI.PAR MOODH MAN MERA NA PAKAR SAKA TUMRE VICHARON KI GAHRAYEE.
आपको लोहडी और मकर संक्रान्ति की शुभकामनाएँ....
जवाब देंहटाएंसंजय जी, आपके व्यंग में पैनी धारहै...बहुत बढिया लिखा आने... कुछ कुछ फैन्टेसी लिए हुए...
जवाब देंहटाएंपर राजेन्द्र जी को क्यों व्यंग का हिस्सा बनाया जा रहा है? क्या महज उनका सिगार पीना उनकी तमाम
साहित्यिक प्रभुत्ता को नकार देता है? या किसी के साथ उनके जातिगत संबंधों से उनकी
प्रतिभा कम हो जाती है? राजेन्द्र जी हिन्दी साहित्य जगत के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं इसे हमें
मानना होगा...
हरकीरत जी,
जवाब देंहटाएंअगर आप व्यंग्य पढ़ती रहती हैं तो आपको पता होगा कि व्यंग्य ज़्यादातर व्यंजना की यानि टेढ़ी भाषा में लिखे जाते हैं। मसलन हमारा कोई पतला-दुबला मित्र हमें काफी समय बाद मिलता है जो कि अब बहुत मोटा हो चुका है, तो हम मज़ाक में कहते हैं कि यार दिन पे दिन सूखते जा रहे हो, क्या बात है ? इसी ढंग से पढ़ेंगी तो आपको इंस व्यंग्य के सही मायने समझ में आने लगेंगे। मैने दरअसल वही कहा है जो आप कहना चाह रही हैं।
दिलचस्प लेकिन दुखद यह है कि खुद यादवजी के एक लेख ‘‘होना/सोना एक ख़ूबसूरत दुश्मन के साथ’’ के साथ भी ऐसा किया जा चुका है। उन्होंने जो कहा था उसके विपरीत अर्थ निकाल लिए गए थे। फ़र्क बस यही है कि आप भ्रमवश ऐसा कर रही हैं जबकि यादवजी के लेख के साथ यही सब आलोचकों/विद्वानों द्वारा शरारतन किया गया था।
अच्छा किया आपने यह टिप्पणी लिखकर क्योंकि जो दूसरे लोग इंस लेख के ग़लत अर्थ लगा रहे होंगे वे इसे दोबारा, इसके सही अर्थों के साथ, पढ़ेंगे।
व्यग्य बहुत अच्छा लगा।... पढ कर मजा आ गया।
जवाब देंहटाएंखूब लिखा है....
जवाब देंहटाएंभाई ऐसे ही कुछ पर्चे हमें भी पढ़ने को मिल जाएँ तो मज़ा आ जाए। कुछ जुगाड़ कीजिये न।
जवाब देंहटाएंगणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनायें
जवाब देंहटाएंगणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनायें
जवाब देंहटाएंbahot hi acchi lagi aapki rachna
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