मंगलवार, 22 जून 2010

साहित्य में फिक्सिंग

साहित्य में फिक्सिंग अभी उस स्तर तक नहीं पहुंची जिस स्तर तक क्रिकेट में पहुंच गयी लगती है। यहां मामला कुछ अलग सा है। किसी नवोत्सुक उदीयमान लेखक को उठने के लिए विधा-विशेष के आलोचकों, वरिष्ठों, दोस्तों आदि को फिक्स करना पड़ता है। अगर वह ऐसा नहीं कर पाता तो उसके उदीयमान लेखक होने की संभावनाएं अत्यंत क्षीण हो जाती हैं। यहां तक कि उसे समाज से कटा हुआ, जड़ों से उखड़ा हुआ, जबरदस्ती साहित्य में घुस आया लेखक करार दिया जा सकता है।

जिस तरह नेतागण अकसर पूड़ी-साग-लड्डू का प्रलोभन देकर गांवों और कस्बों से भीड़ मंगवा कर रैली के नाम पर अपना शक्ति-प्रदर्शन करते हैं उसी तरह नवोदित लेखक अपने या प्रकाशक के खर्चे पर आलोचकों, अध्यक्षों, रूठे हुओं, जीभ-लपोरूओं और फोटू-खिंचवाईयों को मारूतियों में मंगवा कर अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करते हैं। यह बात दीगर है कि उसमें प्रतिभा कम प्रदर्शन ज़्यादा होता है।

इस तरह गोष्ठियों आदि से नया लेखक चर्चा में आने लगता है। जैसे कि नगर स्तर का कोई खिलाड़ी रणजी ट्राफी में स्थान पा गया हो। अब यह लेखक अपना प्रथम संग्रह छपवाने की तैयारी पर उतर आता है।

इसके लिए तरह-तरह के दाव-पेंच अपनाने होते हैं। मजबूरी में पचास तरह के झूठ भी बोलने पड़ते हैं। हर आलोचक को पितामह, हर वरिष्ठ साहित्यकार को गुरू, हर संपादक को अभिभावक और हर प्रकाशक को बाप बनाना पड़ता है। लेखक के दिल में एक यही तसल्ली रहती है कि कल को अगर मैं बड़ा और पॉपुलर लेखक बन गया तो यही पितामह, गुरू और बाप लोग मेरी चौखट पर माथा रगड़ेंगे। रिश्तों के विलोमांतर का मध्यांतर खुद-ब-खुद मर जाएगा।

साहित्यिक फिक्सिंग में मामला पैसों पर कम ही आधारित होता है। यहां सफलता का मंत्र होता है कि कौन किसको कब कितना ‘ऑब्लाइज‘ कर सकता है। एक संपादक अगर आपको सदी का सर्वाधिक चर्चित लेखक घोषित करता है तो आपका भी ‘फिक्स्ड-फर्ज़‘ बनता है कि आप ऐसा माहौल बनाएं कि उस संपादक का नाम पद्मश्री, ज्ञानपीठ या ऐसे ही किसी और तोप-सम्मान या पुरस्कार के लिए न सिर्फ नामित हो जाए बल्कि येन-केन-प्रकारेण उसे यह पुरस्कार मिल कर ही रहे।

इसी तरह एक विचारक आपको अपने घर पर एक गंभीर गोष्ठी में आमंत्रित करता है तो ज़ाहिर है कि आपको भी अपने घर पर होने वाली गोष्ठी को इतना ‘स्तरीय‘ बताना व बनाना पड़ेगा कि उसमें आपके महान विचारक वह मित्र भी निःसंकोच शिरकत कर सकें। आपका एक अन्य पत्रकार मित्र इसमें यह कर सकता है कि गोष्ठी की धांसू रपट बना कर सभी बड़े-बड़े अखबारों में छपवा दें। बदले में आप उसे शहर का सबसे बड़ा खोजी, प्रामाणिक और ईमानदार पत्रकार बता सकते हैं।

आपकी पहली पुस्तक के लोकार्पण के वक्त ये सारी ‘फिक्सिंग‘ ही तो काम आती है। आप अपने विश्वासपात्र साहित्यकारों को लोकार्पण समारोह का मुख्य अतिथि, विशिष्ट अतिथि, अध्यक्ष, संचालक और वक्ता के तौर पर ‘फिक्स‘ कर सकते हैं। हल्के-फुल्के मित्रों, रिश्तेदारों और पड़ोसियों की ‘फिक्सिंग‘ बतौर श्रोता कर सकते हैं। इस फिक्सिंग का फायदा यह होता है कि आलोचक आपकी रचना की एक भी पंक्ति पढ़े बिना आपको कालजयी लेखक या महाकवि घोषित कर देता है। हार कर पड़ोसी, मित्र और रिश्तेदार भी आपको इंटेलैक्चुअल मान लेते हैं क्योंकि बदले में आप भी उन्हें इंटेलीजेण्ट कह देते हैं। आखिरकार वे आप जैसे महाकवि की रचनाएं जो पढ़ते हैं।

जो लेखक संपादक को तीन नए लेखकों की रचनाएं मुफ्त में मुहैय्या करवाता है, संपादक उसे अच्छा मेहनताना देने में संकोच नहीं करता। फिक्सिंग के इस फलसफे का नतीजा आखिरकार यह होता है कि वरिष्ठ बन चुका नया लेखक एक दिन संपादक की कुर्सी पर आ विराजता है। और उसके सामने फिक्सिंग की कई नयी संभावनाएं खुल जाती हैं। जो पेशकश वह लेखक होते समय संपादको/मालिकों के सम्मुख रखा करता था वैसी ही पेशकश उसके सामने रखी जाने लगती हैं।

शायद क्रिकेट में भी खिलाड़ी से कप्तान बने व्यक्ति के साथ भी कुछ-कुछ ऐसा ही होता हो। मगर क्रिकेट में जैसे ही राज़ खुलने लगते हैं तो कुछ दिन तो खिलाड़ियों को जनता को मुंह दिखाना मुश्किल हो जाता है। मगर साहित्य में ऐसा कुछ नहीं है। जो जितना ज्यादा विवादास्पद है उतना ही ज्यादा मशहूर है। तिस पर साहित्य में न तो अम्पायर होते हैं न कंट्रोल बोर्ड। अगर आलोचक को हम अम्पायर मानें तो मानना होगा कि फिक्सिंग साहित्य के खेल का एक अनिवार्य तत्व है।

-संजय ग्रोवर,

(जून 2000 में अप्रस्तुत फीचर्स द्वारा प्रसारित एवं कई छोटे-बड़े अखबारों में प्रकाशित)

28 टिप्‍पणियां:

  1. साहित्य में फिक्सिंग तो सब से अधिक प्राचीन है जी।

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  2. क्या बात है………………यहाँ भी फ़िक्सिंग ?
    जायें तो जायें कहाँ
    समझेगा कौन यहाँ
    दर्द भरे साहित्यकार की जुबाँ………।

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  3. व्यंग्यात्मक शैली में लिखा कटु सत्य....

    कहा जाता है ...जो है नाम वाला ,वही तो बदनाम है...पर साहित्य में तो बदनाम ही नामवाला होता है...

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  4. हम्माम में सब नंगे होते थे
    आजकल कपड़े पहन के गुसल करते हैं

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  5. ये सब बड़ी खराब चीज़ है... हर जगह वही चरण गहने और चापलूसी करने वालों की चलती है... कभी-कभी मन करता है कि चलकर खेती की जाए, पर ये तो पलायन होगा. इसलिए हम भी डेट हैं हायर एजुकेशन के मैदान में... बिना चापलूसी किये असिस्टेंट प्रोफ़ेसर बनने के लिए. देखें क्या होता है.

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  6. संजय ग्रोवर जी,आप का व्यग्य एक सच्छी को उद्घाटित करता है इस लिए सार्थक है बधाई.

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  7. संजय जी ! फिक्सिंग वाली बात तो मुझे लगता है हर क्षेत्र मे व्याप्त
    हो चुकी है । आपने सच कहने का साहस किया है ।

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  8. " sahi baat kardi aapne "

    plz read

    interesting post for indian "इसकी आँखों पर से पट्टी उतारनी है ..कोशिश तो करो |... http://eksacchai.blogspot.com/2010/06/blog-post.html

    ----- eksacchai { AAWAZ }

    http://eksacchai.blogspot.com

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  9. साहित्‍य में फिक्सिंग तो है, मगर इस बीच कुछ मौलिक प्रतिभाओं ने भी अपनी जगह बनाई है बिना फिक्सिंग. खैर अधिकांश मामलों में आपका व्‍यंग्‍य सटीक है.

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  10. @प्रदीप जिलवाने
    MaiN sahmat huN aapse, magar un logoN ki saNkhya itni kam hai ki unheN apwaadoN me hi gina ja sakta hai. Dusre ye 10-11 saal purana vyangya hai, saNshodhan karne baith-ta to shayad aadhe se zyada vyangya badal jata. JyoN ka tyoN de dena thik samjha.

    जवाब देंहटाएं
  11. Aap ne theek bindu per ungli rakhi hai. Naye long agar bachen to achchja ho. Kuch patrikaon ne agency lee hui hai


    -giri kishore

    (VIA EMAIL)

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  12. सब जानते हैँ जो हो
    रहा है, लेकिन कहने
    का साहस कम लोग
    रखते हैँ। आपने साहस
    दिखाया, आप सराहना
    के पात्र हैँ। आवश्यकता है कि इस
    प्रवृत्ति पर चारोँ ओर
    से हमला किया जाए।

    जवाब देंहटाएं
  13. सब जानते हैँ जो हो
    रहा है, लेकिन कहने
    का साहस कम लोग
    रखते हैँ। आपने साहस
    दिखाया, आप सराहना
    के पात्र हैँ। आवश्यकता है कि इस
    प्रवृत्ति पर चारोँ ओर
    से हमला किया जाए।

    जवाब देंहटाएं
  14. क्या केने क्या केने, आप तो महान आलोचक हैं। मुझे टापमटाप व्यंग्यकार घोषित कीजिये ना।
    आलोक पुराणिक

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  15. @ALOK PURANIK
    mere ghoshit karne se kuchh hota to maiN zarur aapko vah ghoshit karta jo aap haiN. Vaise is bat ki itni chiNta kyoN ki koi aapko kuchh ghoshit kare !? Bina ghoshit huye kuchh adhurapan lagta hai kya !?

    जवाब देंहटाएं
  16. aapne jo likha sahi hai. yah to aaj har xetra me hota hai. aur iska khamiyaja unhe bhugtna padata hai jo pratibha ke dam par jagah banane ki koshish me barso gujar dete hai. lekin ye bhi sach hai...ki pratibha der se sahi pahachan bana hi leti hai.

    जवाब देंहटाएं
  17. aapne jo likha sahi hai. yah to aaj har xetra me ho raha hai. iska khamiyaja unhe bhugtna padata hai jo pratibha ke dam par imandari se jagah banane ki koshish me barson gujar dete hai. har koi chup hai....ye chuppi mazboori hai.....
    aaj bhi ye sawal usi unchaiyo par tanga hai ^^billi ke gale me.....

    जवाब देंहटाएं
  18. इस सुन्दर पोस्ट की चर्चा "चर्चा मंच" पर भी है!
    --
    http://charchamanch.blogspot.com/2010/06/193.html

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  19. बहुत ही सटीक व्यंग्य है.....साधुवाद।
    सद्भावी - डॉ० डंडा लखनवी

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  20. sanjay ji,
    baat to sahi hai. saahitya ho ya jiwan ka koi kshetra bina fixing maamla sahi salaamat chalta hin nahin.
    ab is bloging ko hin dekhiye, yahan bhi fixing...ha ha ha ha . tum rev do to hum rev denge warna...ek bhi rev nahin post par...kyunki blog fixing ka mantra aata nahin.
    bahut sach aur sateek likha hai aapne.
    badhai aapko.

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  21. Satire, but very true. Because of this fixing in Hindi Sahitya the true talent is not able to flourish and get recognition. As the result of this the Hindi writers are not known internationally, as Chinese, Spanish and other countries writers are known.

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कहने को बहुत कुछ था अगर कहने पे आते....

देयर वॉज़ अ स्टोर रुम या कि दरवाज़ा-ए-स्टोर रुम....

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