कन्फ़्यूज़न में रणनीति है या रणनीति में कन्फ़्यूज़न !?--2
जैसा कि वादा था कि दूसरे लेख के साथ इस क़िस्से को ख़त्म करेंगे। अगर ‘हंस’ में अलंकारिक भाषा में कोई प्रतिक्रिया आती भी है तो उसे नज़रअंदाज़ करने की कोशिश की जाएगी।
(जेंडर जिहाद, हंस, जून 2010)
शास्त्रीय गाल-वादन की बुनियादी समझ का हंगामा
बिना नाम लिए बात करने में कम-अज़-कम दो तरह की आसानियां हैं। एक तो आप असुविधाजनक सवालों से आसानी से कन्नी काट सकते हैं। दूसरे, हवा में आरोपों के गोले छोड़ सकते हैं। पाठक बैठे अंदाज़े लगाते रहेंगे कि यार यह इसके लिए छोड़ा गया होगा और वह उसके लिए। शास्त्रीय गाल-वादन में इस युक्ति का विशेष महत्व मालूम होता है। आखिर कोई गाल वादन इतना शास्त्रीय बनता कैसे होगा कि बिलकुल दूसरों जैसी या उनसे भी ‘बेहतर’ ‘चारित्रिक योग्यताओं’ के बावजूद ख़ुदको दूसरों से अलग दिखाकर पूरे आत्मविश्वास से दूसरों को गरिया सके।
मेरे किसी मित्र ने एक लिंक भेजा है जिसमें मेरे प्रिय एंकर रवीशकुमार कॉलमिस्ट का परिचय देते हुए कह रहे हैं कि ‘हंस’ में इनके लेख छपते ही हंगामा मच गया। कमाल है ! हम भी ‘हंस’ पढ़ते हैं। ब्लॉग और टी वी भी देखते हैं कभी-कभार। मगर.....
जंगल में मोर नाचा किसी ने न देखा !
हम (तुम?) जो थोड़ी-सी पीके ज़रा झूमें...सबने देखा....
ज़ाहिर है कि इसे समझने के लिए ‘बुनियादी समझ’ चाहिए। ‘पीली छतरी वाली लड़की’ पर हंगामा मचा, कोई मेरे घर पर बताने नहीं आया। ख़ुद ही पता चल गया। ‘खांटी’ पर हंगामा मचा। अभी अशोक चक्रधर हिंदी अकादमी के कुछ बने, हंगामा हुआ। उनके पुरस्कार किसीने लिए, किसी ने नहीं लिए। हंगामा मचा। सबकी ख़बर मिली। लेकिन उक्त ‘हंगामा’ बड़ा अद्भुत, अमूर्त्त और विलक्षण रहा होगा। सच है, शास्त्रीय गाल-वादन के लिए ‘बुनियादी समझ’, ‘मेहनत’ और ‘टीम-स्प्रिट’ तो चाहिए ही। चलिए, अब हम भी बिना नाम लिए कॉलमी जेण्डर जिहाद पर बात करते हैं। बीच में कोई ‘रणनीति’ हो जाए तो माफ़ कर दीजिएगा, कभी-कभी मैं भी तात्कालिक असर में आ जाता हूं।
(बीच-बीच में कॉलमिस्ट ने किन्हीं भावुक-हृदयों को संबोधित किया है। यहां मैंने उन भावुक-हृदयों की तरफ़ से किन्हीं फ़िल्मी-हृदयों को संबोधित किया है।)
स्त्री मित्र--अच्छे या अंधे !?
आप फिल्मी हृदयों को अच्छे स्त्री-मित्र चाहिए क्यों ? उसके लिए आपमें भी थोड़ी पात्रता होनी चाहिए या नहीं !? या सब कुछ हंगामें में चाहिए ! या इसलिए कि आप गंदे स्त्री मित्रों की हरकतों का बदला अच्छे स्त्री मित्रों से लेकर उसे उपलब्धि समझने लगें ! जिंदगी कोई फंतासी नहीं है कि एक दिन यकायक अच्छे स्त्री मित्रों की बारिश शुरु हो जाएगी। पहले अच्छे इंसान पैदा कीजिए (बतर्ज़ ‘तसलीमा नसरीन बनाईए), अच्छे मित्र अपने-आप पैदा हो जाएंगे। वैसे आप साहित्य नगरिया की पतली गलियों में भी झांके तो पाएंगे कि यहां वास्तव में न किसी को अच्छे स्त्री मित्र चाहिएं न अच्छे पुरुष मित्र न अच्छे मित्र। अच्छे के नाम पर सबको अंधे मित्र चाहिए। अभी मेरा एक लेख कहीं छपे और मेरा कोई मित्र अपने वास्तविक विचार प्रकट करते हुए असहमति में मेरे लेख की धज्जियां उड़ा दे तो ! कोई बड़ी बात नहीं कि मैं उससे दोस्ती तोड़ने तक पर आमादा हो जाऊं। दोस्ती के नाम पर सभी को अंधी सहमति चाहिए। कभी कोई शोध हुई तो यह भी निकलकर आ सकता है कि हिंदी साहित्य की सबसे ज़्यादा दुर्गति ‘मित्रवाद’ के चलते हुई है। फिर हमी चौराहे पर वंशवाद, भाई-भतीजावाद और पता नहीं किस-किसवाद को गालियां देते फिरते हैं। फिर औरतें क्यों अपवाद हों !? वे क्या आकाश से टपकी हैं ! उन्हें भी अंधे मित्र चाहिएं। कुछ उदाहरण रख रहा हूं। कोई फैसला नहीं दे रहा। आप सोचिए कि ऐसी महिलाओं की हां में हां मिलाने वाले मित्र अच्छे होंगे या अंधे:-
1.----एक बहिन अपने भाई से चाहती है कि वह ससुराल में उसपर होने वाले अत्याचारों के खिलाफ़ उसका साथ दे। भाई अपना बहुत कुछ दांव पर लगाकर ऐसा करता भी है। तत्पश्चात बहिन यह चाहती है कि भाई ससुराल के हर रीति-रिवाज को भी बिलकुल पारंपरिक ढंग से निभाए। भाई कहता है कि दोनों में से एक काम करा लो। या तो प्रगतिशील ही बना लो या रुढ़िवादी। बहिन को जवाब रास नहीं आता। धीरे-धीरे भाई उसे पागल लगने लगता है।
2.----एक पति घर आता है और चाहता है कि पत्नी किसी भी हालत में हो, तुरंत हाज़िर होकर उसकी ‘थकान’ मिटाए। हम कहते हैं कि ये ‘मेल शाविनिस्ट’ पत्नी को सेक्स ऑबजेक्ट से ज़्यादा कुछ समझते ही नहीं। मुझे इससे कोई असहमति नहीं। पर एक थोड़ी जुदा स्थिति में देखिए। पत्नी को करने को कुछ ख़ास नहीं है। घर में ज़्यादIतर काम नौकरों के हवाले हैं। पत्नी का अधिकांश समय किटी पार्टी में, सोशल नेट वर्किंग साइटस् पर, चैट में या अन्य समारोहों में बीतता है। थका-मांदा पति रात को घर में घुसता है। पर पत्नी के ‘मूड’ का साथ नहीं दे पाता। यह पत्नी यह भी चाहती है कि पति कुछ भी करे पर इतना कमाकर लाए कि शानो-शौकत में कोई कमी न रहे। कई बार ऐसी पत्नियां यह भी चाहतीं हैं कि उनके पति दूसरी औरतों से फालतू बात भी न करें। अब यह स्त्री पति को नपुंसक, नाकारा, बेवफा, पैसे का लालची आदि-आदि कहकर दूसरे पुरुषों से संबंध बनाना शुरु कर देती है। क्या यह स्त्री पुरुष को सेक्स ऑबजेक्ट से ज़्यादा कुछ समझ रही है !?
3.-----स्त्रिओं पर शारीरिक हिंसा होती है, मैं भी कहता हूं आप भी कहते हो, भई, यह तो बहुत बुरी बात है। मैं भी कहूंगा, आप भी कहेंगे कि और कहीं तो ज़ोर चला नहीं, कमज़ोर सामाजिक स्थिति वाली कमज़ोर बीवी पर गुस्सा निकाल लिया। पर क्या आपने स्त्रियों को अपने बच्चों को धुनते देखा है ! स्त्री उस मर्द से अलग क्या कर रही है ? आप बच्चे की तुलनात्मक स्थिति देखिए। बच्चा आपसे तलाक नहीं ले सकता। वह मां-बाप नहीं बदल सकता। 20-25 साल की स्त्री खुद भी समझदार हो गयी होती है। साथ में बहुत से मां-बाप कम-अज़-कम इतना विकल्प तो देते ही हैं कि इन-इनमें से एक चुन लो। बच्चे के पास यह भी नहीं है। उससे पूछा तक नहीं गया कि वह इस दुनिया और इस घर में आना चाहता है कि नहीं। उसे (अगर वह लड़का है) यह तक नहीं बताया गया कि ये जो बारह बहिनें तेरी पहले से पैदा हो रखीं हैं और जिनके पैदा होने में तेरा रत्ती भर भी लेना देना नहीं है, इनकी ज़िम्मेदारी भी तेरी है। अगर तू इनकी समाजानुसार व्यवस्था करने में चूक गया तो क्रांतिकारी से क्रांतिकारी और मौलिक से मौलिक लोग भी तुझे ही गालियां देने वाले हैं।
तिसपर हम यह तो न कहें कि स्त्री ज़्यादा संवेदनशील, ईमानदार वगैरह होती है। क्यों झूठ बोल-बोलकर उसे फिर से ‘देवी’ बनाएं और एक नए जाल में फंसा दें ! लेकिन नहीं। ज़्यादा संभावना यही है कि ऐसे में भी स्त्री को अंधी तारीफ़ करने वाला ही ‘सच्चा स्त्री-मित्र’ लगने वाला है। अपवादों को ज़रा एक तरफ रख लें।
तसलीमा नसरीन से आपकी (दयनीय) घृणा
वही पुराना राग विरोधाभास। पहले वे ‘आपकी प्रिय लेडी’ कहकर तसलीमा के प्रति अपनी घृणा व्यक्त करते हैं। फिर वे चार लाइनों बाद कहते हैं तसलीमा (और कुछ अन्य सफल महिलाओं के नाम) जैसी पढ़ी-लिखी, स्वाबलंबी, शहरी आधुनिकाएं बनाईए, चुनौती वे अपने-आप खड़ी कर देंगी। आंकड़ा और शोध-पसंद, सरलीकरण के प्रबल विरोधी, फिल्मी-हृदय आप यह नहीं सोच रहे कि पढ़ी-लिखी महिलाएं आज भी कुछ कम नहीं पर आज भी ज़्यादातर का लक्ष्य कैरियर और शादी पर ख़त्म हो जाता है। जिसका एक कारण, धर्म उनके और उनके घर वालों के सिर पर ख़ून की तरह सवार है। दूसरी तरफ भंवरीदेवी और फूलनदेवी जैसी गांव की बेपढ़ी-लिखी औरतें आपके दिए कई उदाहरणों से बड़ी चुनौतियां खड़ी कर दिखाती हैं। तसलीमाएं ‘बनाने’ से नहीं बनतीं (जैसा कि आज-कल कुछ लोगों ने समझ लिया है), पैदा होतीं हैं। कभी पेट से भी, परिस्थितियों से भी, निर्णय-क्षमता, विवेक, विद्रोह, सोच और साहस से भी। तसलीमा कोई आई.पी.एल का क्रिकेट मैच नहीं है कि इधर पचास प्रायोजक मिले और उधर तसलीमा तैयार। यह कोई प्रोपर्टी डीलर की डीलिंग भी नहीं है कि ‘‘ ओ बादशाहो, तुसी बस थोड़ी जई रणनीत्ति, थोड़ी डिग्री-डुगरी, थोड़ी इनफार्मेशन, थोड़ी फ़िलॉस्फी पाओ, तिन दिन विच तसलीम्मा बणाके त्वाडे हथ विच दे दांगे। अज-कल ते भतेरे लोग बणवा रए ने। गल्फ विच साडी सिस्टर कंसर्न हैगी, ओदर वी दो-तिन्न बणा के दित्तीयां ने। बड़ी डिमांड हैगी बाऊजी, हर संपादुक आपणी निजी तसलीम्मा चांदा ए। वेखणा बाऊजी, एक दिन्न एन्नीयां तसलीम्मा बजार विच उतार दांगे कि लोग असली तसलीम्मा नू भुल्ल जाणगे।’’ (‘‘साहिबान, आप बस थोड़ी-सी रणनीति, थोड़ी डिग्रीयां, थोड़ी सूचनाएं, थोड़ा दर्शन डालिए। तीन दिन में तसलीमा बनाकर आपके हाथ में दे देंगे। आज-कल तो बहुत लोग बनवा रहे हैं। गल्फ़ में हमारी सिस्टर कन्सर्न है, वहां भी दो-तीन बनाकर दी हैं। बहुत डिमांड है बाऊ जी, हर संपादक अपनी निजी तसलीमा चाहता है। देखना बाऊजी, एक दिन इतनी तसलीमाएं बाज़ार में उतार देंगे कि लोग असली तसलीमा को भूल जाएंगे।’’)
अच्छा माफ कीजिएगा, धर्म जब आप फ़िल्म-लिंकित-हृदयों के लिए सिर्फ एक रणनीति है फिर तसलीमा से इतना गुस्सा खाने का मतलब और मक़सद !? फ़िर तो दोनों एक ही बिरादरी के हुए ना !
पर मुश्किल यह है कि तसलीमा से आपकी घृणा छुपाए नहीं छुपती।
परफेक्ट बदल
यह क्या होता है ? और बिना इसे आज़माए आप स्टंट-फिल्म-लिंकित-हृदयों को पता कैसे चलता है कि यह परफेक्ट नहीं है ! क्या आपको लगता है कि दुनिया में आज जितनी भी व्यवस्थाएं लागू हैं सब एक ही बार में ‘परफेक्ट’ बना कर लागू कर दी गयीं थीं !?
नास्तिक और धर्म-विमुख
इशारों में दो-चार नास्तिकों की बात करके आपने ‘सिद्ध’ कर दिया कि नास्तिक भी स्त्री का शोषण करते हैं अतः यह ऑप्शन यहीं ख़त्म ! ऐसा ही करतब आपने पिछली क़िस्तों में पश्चिमी पुरुषों को लेकर कर दिखाया है। आप नास्तिकों से चमत्कार की उम्मीद क्यों रखते हैं ? इनमें से भी बहुत से आस्तिकों के घरों में पले-बढ़े होते हैं। बहुत से किन्हीं राजनीतिक दलों के संपर्क में आ जाने के चलते नास्तिक ‘बन’ गए होते हैं। फिर आप तो आंकड़ा और शोध-पसंद, सरलीकरण के विरोधी, फिल्मी-हृदय हैं। मैंने सुना है कि आप लोग कुछ परसेंटेज वगैरह निकाला करते हैं कि फलां समाज में नास्तिकों का प्रतिशत इतना है, फलां देश में इतना है। नास्तिकों में स्त्री-शोषकों का प्रतिशत इतना है, वगैरह। अपने ही सिद्धांतों के खिलाफ तो मत जाईए !
आप एक बार अगर अपने बारे में भी बता दें कि आप नास्तिक हैं, आस्तिक हैं, धर्म-प्रमुख हैं, विमुख हैं या कुछ और हैं तो आगे से आपको समझने में आसानी रहेगी। चलिए, छोड़िए। समझिए कि मेरी रणनीति थी।
आपकी पितृसत्ता
कई बार आपने कहा कि स्त्री-समस्याओं के लिए इस्लाम नहीं पितृसत्ता या दूसरे धर्म ज़िम्मेदार है। सवाल यह उठता है कि जिस वक्त ‘पवित्र ग्रंथ’ लिखे गए उस वक्त पितृसत्ता थी या मातृसत्ता ! लिखने वाला इंसान था या कोई अदृश्य शक्ति ? अगर इंसान ने लिखे तो सबको मालूम है कि इंसान की अपनी सीमाएं हैं और वह ग़लतियां करता है। सुघारता भी है। जो न सुधारने पे अड़ जाए, उसे क्या कहें ? अगर अदृश्य शक्ति ने ग्रंथ लिखे तो उसे पता होना ही चाहिए था कि भविष्य में पितृसत्ता भी होनी है और दूसरे धर्म भी। सो दूरदर्शिता तो यही होती कि धर्म ग्रंथ इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए लिखे जाते।
आपका युटोपिया
सारे मुसलमान अपने सारे काम-धंधे छोड़कर पहले अरबी सीखें। फिर कुरान पढ़ें। क्या गारंटी है कि अरबी सीखने के बाद भी कुरान के वे वही अर्थ पकड़ पाएंगे जो लिखने वाले ने लिखे ! जो नहीं समझेंगे वे किसकी मदद लेंगे ? मुल्ला-मौलवियों की या आपकी ! दूसरे लोग और दूसरे धर्म कैसे पता लगाएंगे कि आप लोग उन्हें सही अर्थ बता रहे हैं !? यानि कि वे भी अरबी सीखें और कुरान पड़ें। कितने सौ साल लगेगें इसमें ? यह युटोपिया है कि उसके भी पितामह !?
आपकी तर्कप्रणाली
कृष्णबिहारी का आपने बिना नाम लिए जवाब दिया और उन पर संघी होने का अप्रत्यक्ष आरोप भी लगा दिया। उनकी मूल आपत्ति का जवाब आज तक नहीं दिया कि दूसरे देशों में बुरक़ा कहां से आया। मैं समझता हूं कि कृष्णबिहारी का बड़प्पन है कि बदले में उन्होंने आप पर तालिबानी आतंकवादी, पाक़िस्तानी जासूस या इस्लाम प्रचारक होने का आरोप नहीं लगाया। बहुत ख़ूब तर्क प्रणाली है कि नाम लिए बिना आधा-अधूरा जवाब दो और नुक्ते जैसी कुछ ग़लती निकालकर अगले का पूरा विचार खारिज़ कर दो। जैसा कि इकबाल हिंदुस्तानी नामक पत्र लेखक के साथ किया गया।
(इस प्रसंग का बाक़ी हिस्सा एक रणनीति के तहत सुरक्षित।)
किसी को संघी, पंथी या तालिबानी बता देना कोई तर्क या जवाब है क्या ?
बच्चों को ऐसा करते तो देखा भी था। बहस के नाम पर चलाए जा रहे कालम में बहस से बचने की हर तरकीब करने से पाठकों को क्या संदेश मिलेगा आखि़र ?
आपकी भाषा
.................................
..................................
स्त्रियों से संवाद की आपकी समस्या
शाह बानो का हवाला देकर आपने जो समस्या और तत्काल पश्चात जो समाधान बताए, उन्हें फिलहाल अपनी एक रणनीति के तौर पर मैं स्वीकार कर लेता हूं। आपको मेरी एक सलाह है। जिन स्त्रियों को आप संबोधित कर रहे हैं, (वे जहां कहीं भी संबोधित हो रहीं हों) उन्हें चार पुरुषों की कामना के क़िस्से और स्त्री की भिन्न-भिन्न पुरुषों से शारीरिक संतुष्टि के तुलनात्मक अध्ययन वाले हिस्से संप्रेषित न करें (शौहर को दुनियावी ख़ुदा समझने वाली औरतों-मात्र को संबोधित कालम में ऐसी बातें ! तौबा ! तौबा !)। मुझे नहीं लगता कि इतने विराधाभासी विचार एक साथ अनपढ़ और धार्मिक स्त्रियां भी झेल पाएंगीं। कोई लफड़ा न खड़ा हो जाए ! और अगर चार पुरुषों वाले आयडियाज़ वे स्त्रियां बर्दाश्त कर सकतीं हैं तो आपकी ज़रुरत ही क्या है ! तसलीमा पहले ही सब कुछ कह गयीं हैं। और अगर मामला वैसा ही है जैसा आप कह रहे हैं और आपको वाकई उन स्त्रियों की चिंता है तो मेरी एक और सलाह है, माइंड मत कीजिएगा। मुझे नहीं लगता उन स्त्रिओं ने ‘हंस’ का नाम भी सुना होगा (यादव जी क्षमा करें)। कहीं एक साल बेकार न चला गया हो। मुझे लगता है वे स्त्रियां उन्हीं दुकानों से लाकर वही क़िताबें पढ़ती होंगीं जो आप टीवी में मेरे प्रिय एंकर रवीश कुमार को दिखा रहे थे। आप वैसी ही साज-सज्जा में अपने लेख छपवाकर उन दुकानों में रखवाईए, लोग ज़रुर पढ़ेंगे आपको। जावेद अख्तर तक को फतवा मिल गया पर आपके इतने हंगामें के बाद भी किसी ने दो शब्द न बोले। ब्लाग पर भी एक-दो लड़कियां लिख रहीं हैं आपसे मिलते-जुलते विषयों पर। एक कट्टरपंथ लानत-मलामत कर रहा है तो दूसरा समर्थन कर रहा है। कुछ ऐसे ‘सरफिरे’ युवा हौसला भी बढ़ा रहे हैं जो तसलीमा की ही तरह सब धर्मों को एक ही ठेंगे पर रखते हैं। आपको तो ब्लॉग पर भी शायद ऐसा वाक़या पेश नहीं आया। हो सकता है आपको मुल्ला-मौलवी भी सीरियसली श्रद्धापूर्वक लें। प्रयोग करने में क्या हर्ज़ है ?
विवाह संस्था से मुक्त कराएं !
वैसे एकाध सवाल से कन्नी काटने की इजाज़त अपन को भी नहीं होनी चाहिए क्या ? अपन चलते हैं। पर रणनीति !? क्यों भई, आप फ़िल्मी हृदय ऐसा क्यों चाहते है कि जो लड़कियां विवाह करना चाहती हैं उन्हें भी विवाह न करने दें हम ! अब क्या ‘प्रगतिशील खाप पंचायतें’ लगवाने का इरादा है !? यह क्या हुआ ? कौन-सा मानवाधिकार हुआ यह ? राइट टू इनफॉर्मेशन है ? अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है ? क्या है यह ? मेरी तो पूरी नालेज ही जवाब दे रही है। अरे, आपने कहा होता कि जो लड़कियां शादी नहीं करना चाहतीं, उनका साथ देकर दिखाएं । तब तो अपना सोचना भी बनता था। आपने तो सवाल ही उल्टा फेंक दिया। वैसे अपन पाठकों का भी पूछना बनता है कि आपने लिखने के अलावा, स्त्री-मुक्ति के संदर्भ में, ऐसे कौन-से क्रांतिकारी फैसले लिए हैं और उनपर अमल किया है ज़िंदगी में, कि आपके लेखन को गाल-वादन न माना जाए !?
आपका गाल-वादन विशिष्ट क्यों ?
क्या सिर्फ इसलिए कि आप को तीन पन्ने मिले हुए हैं और अपन (यानि वे पाठक-लेखक जिन्हें ‘अपना मोर्चा’ और ‘बीच बहस में’ पहुंचने तक के लिए ड्रिबलिंग करनी पड़ रही है) को छपन तक के लाले हैं !? यह तो कोई बहुत लोकतांत्रिक एप्रोच नहीं मालूम होती ! राजसत्ता की तानाशाही टाइप लगती है। और कोई फ़र्क़ हो तो बताएं। इसी लिखे को आप सेमिनार में बोलने या भाषण देने को गाल-वादन से ऊपर की कोई चीज़ मानना चाहें तो यह आपकी ‘बुनियादी समझ’ है। वैसे नेता लोग भी भाषण देने को दूर-दराज़ के बीहड़ इलाकों में जाकर धूप में पसीना निकालते हैं। आइंदा उन्हें गलियाने से पहले तनिक सोचा जाए !
अपनी रणनीति
बिलकुल साफ है कि जब कोई कॉलमिस्ट बिना नाम लिए सवाल या आरोप दागेगा तभी जवाब देंगे, सिर्फ कॉलमिस्ट को। बाक़ी किसी से अपन को कोई मतलब नहीं।
अपन चलते हैं। पीछे संपादक जी जानें, कॉलमिस्ट जानें, वे स्त्रियां जानें। इससे ज़्यादा रिपीटाबाज़ी अपने बस की नहीं।
दुष्यंत के एक शेर का मलीदा पेश है:
हंगामा हो, ना भी हो, हमको लेना-देना क्या-
हंगामें की कहके, अपना नाम होना चाहिए।
वैसे कुछ नादान ऐसे भी होते हैं जो कहते हैं:
हंगामा है क्यूं बरपा, थोड़ी-सी जो पी ली है !
ज़ाहिर है इनमें ‘बुनियादी समझ’ नहीं होती।
-संजय ग्रोवर
No east or west,mumbaikar or bihaari, hindu/muslim/sikh/christian /dalit/brahmin… for me.. what I believe in logic, rationality and humanity...own whatever the good, the logical, the rational and the human here and leave the rest.
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एक सॉंस में पढ डाले । ऐसा लग रहा है कि उघाड दिया सब कुछ ।
जवाब देंहटाएंफिर आते हैं ठीक से पढने ।
‘साहिबान, आप बस थोड़ी-सी रणनीति, थोड़ी डिग्रीयां, थोड़ी सूचनाएं, थोड़ा दर्शन डालिए। तीन दिन में तसलीमा बनाकर आपके हाथ में दे देंगे। आज-कल तो बहुत लोग बनवा रहे हैं। गल्फ़ में हमारी सिस्टर कन्सर्न है, वहां भी दो-तीन बनाकर दी हैं। बहुत डिमांड है बाऊ जी, हर संपादक अपनी निजी तसलीमा चाहता है। देखना बाऊजी, एक दिन इतनी तसलीमाएं बाज़ार में उतार देंगे कि लोग असली तसलीमा को भूल जाएंगे।’
जवाब देंहटाएं-ये भूल है की लोग तस्लिमान बना लेंगे तसलीमा हकीकत की आग में ताप कर कोई कोई ही बनती है....
सवाल का जवाब वहां है ही नहीं ...बस इतना है... स्त्री मित्र--अच्छे या अंधे..आप सवाल उठाते हैं तो बुरे बन जाते हैं......वेस है बढियां ये भी जब सब अच्छे मित्र ही बन जायेंगे तो कुछ बुरे मित्र भी होने ही चहिये वरना मजा ही नहीं रह जायेगा...फिर कोसेंगे किसे भड़ास निकलने के लिए भी तो कोई चाहिए.............
पत्रिका के नये अंक में एक और करिश्मा किया गया है। उसमें आपको कालमिस्ट का विस्तार बताया गया है। पता नहीं यह तथा कथित पत्र लेखक पेन और चश्मा भी कालमिस्ट का इस्तेमाल करते हैं या ख़ुद ही ऐसे पत्र लिख लिए जाते हैं। इस महान दृष्टि से देखें तो राजेंद्र यादव औरंगजेब का विस्तार हैं, अंबेडकर मनु महाराज का विस्तार हैं और ओशो रजनीश बाबा रामदेव का अवतार हैं। सच तो यह है कि आपके दिए झटके से उबरने में कालमिस्ट पत्रिका के दो अंक चाट चुका है। आपने कालमिस्ट की तर्क प्रणाली का भी उपयुक्त परिचय दिया था। इस अंक में फिर इन्होंने वही दंगाई मानसिकता वाले तर्क दिए हैं कि अपनी बहिन-बेटियों को नास्तिक मर्द ढूंढकर ब्याहें वगैरह। यह नहीं कहा कि आप नास्तिक हैं तो नास्तिक लड़की से शादी करें। बात-बात में वही फसादियों वाली दलीलें कि उन्होंने ‘हमारी औरतो’ से बलात्कार किया हम ‘उनकी औरतों’ से करेंगे। यादवजी को एक कालम अब करुण विजय का भी शुरु कर देना चाहिए। ऐसे तर्कों की काट ‘पाकिस्तान चले जाओ’ ही हो सकती है। अपनी इस्लाम-परस्ती में कालमिस्ट ऐसा डूबा है कि उसे सारे कट्टरता विरोधी हिंदुत्व-परस्त दिखाई दे रहे हैं। हर विरोधी विचार उसे ‘गाल बजाना’ लगता है मगर अपने बारे में बताने को तैयार नहीं कि उसने ‘गाल-वादन’ के अलावा किया क्या है। ‘नया-नया मुल्ला’ वाली कहावत चरितार्थ करते हुए कालमिस्ट अब ‘उन दूसरों’ से भी अपने समाजों में प्रगतिशील आंदोलन शुरु करने का ‘आह्वान’ कर रहा है जो बहुत पहले से यह करते आ रहे हैं। यह ऐसी ही आत्म-मुग्धता है जिसमें व्यक्तिव-विखण्डन के फलस्वरुप पड़ने वाले दौरों को ‘झूलना’ या ‘देवी आना’ समझा जाता है। तमाम ज़िन्दगी ऐसे दंगाई तर्कों का विरोध करने वाले यादवजी क्या बुढ़ापे में यह दिखाना चाहते हैं कि उन्होंने भग-वा भगवत्ता के मुस्लिम संस्करण के आगे हथियार डाल दिए हैं।
जवाब देंहटाएंआपके लेखों को पढ़ने के बाद मैंने इस कालम को पढ़ा (पहले नहीं पढ़ता था)। अंतत इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि अगर इनके लेखों में हिंदू के बजाय मुस्लिम और मुस्लिम की जगह हिंदू नाम कर दिए जाएं और ऐसे ही परिवर्तन संदर्भों-प्रसंगों में कर दिए जाएं तो उसे कट्टरपंथी हिंदू का लेखन करार दिया जाएगा। अब चूंकि इनका जुड़ाव शायद किसी वामपंथी दल से है तो लगातार ‘बेनीफिट आफ डाउट’ इन्हें मिल रहा है। इनके अजीबो-ग़रीब तर्क, बात-बेबात दूसरों की बहिन-बेटियों पर पहुंच जाना, अपनी कमी पर भी दूसरों पर चढ़ दौड़ना, किसी का जवाब न बनने पर उससे सहमत होने के बजाय उसे बेहूदा-भौंडा बता देना आदि-आदि प्रवृत्तियां देखकर मैं इन्हें ‘मुस्लिम उमा भारती’ से ज़्यादा कुछ मानने को तैयार नहीं।
जवाब देंहटाएं