मंगलवार, 11 अगस्त 2009

‘व्यंग्य-कक्ष’ में पढ़िए **साहित्य में आतंकवाद** श्रृंखला का चौथा व्यंग्य


***** बिना जुगाड़ के छपना*****


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कस्बे में यह खबर अफवाह की तरह फैल गई कि एक नवोदित लेखक एक राष्ट्रीय अखबार में बिना किसी जुगाड़ के छप गया। सभी हैरान थे कि आखिर यह हुआ कैसे। तरह-तरह की अटकलें लगाई जाने लगीं। कोई कहता कि यह चमत्कारों का युग है, इसमें कुछ भी हो सकता है, तो किसी का मानना था कि संयोगवश इस नवोढ़े कस्बाई लेखक और उस छपित राष्ट्रीय लेखक के नाम मिलते-जुलते से है। असल में दोनों अलग-अलग व्यक्ति है। बहुत सारे लोगों का अनुमान यह भी था कि यह सब खुद इसी लेखक की स्टंटबाजी है और यह अपनी ‘इमेज‘ बनाने के लिए झूठ बोल रहा है। वो दिन हवा हुए जब भारत सोने की चिड़िया था और लेखक बिना जुगाड़ के छपा करते थे। खैर! बंद कस्बे की ऊंघती सड़कों पर यह खबर खुले सांड की तरह दौड़ने लगी और अनुमानों के कुत्ते-बिल्ली गलियों-गलियों होते हुए घरों कें खिड़की-दरवाज़ों और यहां तक कि रसोइयों-पाखानों तक में जा घुसे।

पत्रकार-नगर के साहित्य मोहल्ले में तो दिन में ही रात्रि-जागरण जैसा मौसम बन चुका था। वरिष्ठ कवि ददुआ शहरी जी के यहां एक आपात्कालीन गोष्ठी चालू हो चुकी थी। अपने संघर्ष के दिनों को याद करते हुए ददुआ शहरी जी की आंखें भर आई। रूआंसे स्वर में वे बोले, ‘एक वो भी समय था जब साप्ताहिक ‘जुगनू का बच्चा’ में छपने के लिए मै सारी-सारी रात संपादक जी के पैर दबाया करता था। दैनिक ‘पैसे का दुश्मन‘ को तो मैंने दस-दस रूपए वाले पांच सौ विज्ञापन ला कर दिए। तब कहीं जाकर उन्होंने मेरी एक रचना छापी। एक यह कल का छोकरा है, जो बिना कोई संघर्ष किए, बिना पैर दबाए, बिना जुगाड़ किए ही राष्ट्रीय अखबार में छपने लगा। अगर ऐसा ही होने लगा तो हम संघर्ष करने वाले लेखकों का क्या होगा, जिन्होंने जुगाड़ लगाने में संघर्ष करते-करते अपनी सारी उम्र गुज़ार दी ... ...।‘‘ कहते-कहते उनका गला रूंध गया। पीड़ा के अतिरेक से उनका चेहरा जो पहले ही खूब लाल था, और लाल हो गया। अपना वक्तव्य यहीं पर समाप्त करके वे नीचे बिछी दरी पर जा बिछे।

उनके गिरने से ठीक पहले श्री अजीबो-गरीब ‘प्रौढ़‘ उठकर खड़े हो चुके थे। और एक बार खड़े हो जाने का मतलब था, अपना भाषण समाप्त करके ही बैठना। ‘प्रौढ़‘ जी अपेक्षाकृत सधे हुए स्वर में बोले, ‘‘संघर्ष की रवायत के ये कीमती हीरे जो हमारे बुजर्गों ने बड़ी हिफाज़त और नफासत से हमे सौंपे थे, क्या हम उन्हें यूं ही बिखर जाने देंगे। क्या एकाध मामूली और ग़ैर ज़िम्मेदार नया लेखक हमारी इस समृद्ध परम्परा को तोड़ डालेगा। नहीं! हम ऐसा नहीं होने देंगे। हम एक प्रतिनिधिमंडल लेकर उस राष्ट्रीय अखबार के संपादक के पास जाएंगे और सामूहिक व सार्वजनिक रूप से उसकी सेवा करके बताएंगे कि एक लेखक और एक संपादक के रिश्ते में संघर्ष का क्या महत्व है। किस तरह से और किस तरह का संघर्ष एक साहित्यकार के जीवन को उपलब्धियों से भर देता है।‘‘ इतना कहकर उन्होंने अपनी बात के अनुमोदन की आशा में बाकियों की तरफ देखा तो पाया कि बाकी सब पहले से ही उनको निहार रहे हंै। इस प्रकार कुछ-कुछ खुश, कुछ-कुछ उत्तेजित ‘प्रौढ़‘ जी कुछ इस अंदाज में नीचे बैठ गए कि कहना मुश्किल था कि वे ढह गए हैं या बह गए है।

‘प्रौढ़‘ जी से पहले और बाद में भिन्न-भिन्न प्रकार के कई भाषण हुए मगर जो आखिरी भाषण हुआ वह युवा पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करने वाले श्री हमजवान ‘मैं‘ जी का था। हमजवान ‘मैं‘ जी काफी तैश में दिख रहे था। बोले,‘‘काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ती। मेरे पिता अक्सर कहते थे कि साहित्यकार को तो चिकनी मिट्टी का बना होना चाहिए, जिस पर अच्छी-बुरी परिस्थितियों का पानी ठहर ही न सके और वह अपनी चमक भी बरकरार रख सके। मुझे आशा ही नहीं, पूर्ण विश्वास है कि हम हमेशा की तरह इस संकट से भी उबर आएंगे और संघर्ष की अपनी पुरानी परम्परा को साफ बचा ले जाएंगे। मेरा दावा है और वायदा है कि जब तक हमारे युवा लेखकों के कंधों में दम है, हमारी इस संघर्षपूर्ण साहित्यिक यात्रा को कोई नहीं रोक सकता ... ...।‘‘ अभी वे शायद और भी कुछ कहते, मगर जब उन्होंने पचास से ऊपर के चार युवा साहित्यकारों को अपनी ‘कंधों‘ और ‘यात्रा‘ वाली बात का समर्थन करते देखा तो भावावेश में भाले की तरह अपनी ही धरती में जा धंसे।

इस सब और चाय-समोसों के मामूली अवरोध के उपरांत वातावरण को हल्का-फुल्का बनाने के लिए एक काव्य-गोष्ठी का आयोजन किया गया। इसमें तेरह कवि और बारह श्रोता थे। गणित इस प्रकार था कि जब एक पढ़ता तो बाकी बारह श्रोता बन जाते थे। इन बारह श्रोताओं में से दस स्थानीय, क्षेत्रीय और राष्ट्रीय अखबारों के संवाददातां थे, जिन्हें काफी संघर्ष करके कलके अखबारों में इस गोष्ठी की लगभग तीन, चार या पांच कालम की खबर छपवानी थी। इस संघर्ष के लिए उन्हें साहस मिलता रहे, इसके लिए वे बीच-बीच में समोसों का सहारा ले लेते थे।

समोसा-भोजन और गोष्ठी-समापन अपने ‘क्लाइमैक्स‘ पर थे कि तभी वे एक खलनायक की तरह वहां से गुजरे। वे जिनके कारण यह सारा आयोजन किया गया था। यानी कि बिना जुगाड़ के छपने वाले लेखक महोदय। गोष्ठी में मौजूद तेरहों साहित्यकारों ने स्वाभावानुसार उन्हें घृणा से घूरा और परम्परानुसार प्रेम से अपने पास बिठाया। फिर कुछ शर्माते हुए, कुछ हिचकिचाते हुए, कुछ लड़खड़ाते हुए उनके बीच एक पुल सा बना और आखिरकार तेरह-मंडली ने झिझकते हुए पूछ ही डाला कि बिना जुगाड़ के छपने के इस हैरतअंगेज कारनामे को उन्होंने कैसे अंजाम दिया। इस पर उन्होंने मुस्कराते हुए बताया कि यह बहुत ही आसान है। आप अपनी रचना साफ कागज के एक तरफ हाशिया छोड़कर लिखें या टाइप करवाएं और फिर उसे अपना पता लिखे टिकट लगे लिफाफे के साथ अखबार के संपादक को भेज दें।


एल्लो! खोदा पहाड़ निकली चुहिया। तेरह-मंडली ने अपना माथा पीटा कि उन्होंने चम्मच खाली होने का चमत्कार तो देखा मगर नाली से निकलते दूध को क्यों नहीं देखा। फिर भी तेरह मंडली यह राज़ जानकर फूली नहीं समाई। दुश्मन से दोस्त बन चुके लेखक को उन्होंने कई धन्यवाद दिए और दो समोसे भी जबरदस्ती खिलाए। तदुपरांत वे सब योजना बनाने में व्यस्त हो गए कि क्या जुगाड़ लगाई जाए जिससे कि रचना बिना जुगाड़ के ही छप जाए।

इधर बिना जुगाड़ छपने वाला लेखक एक बार फिर अकेला रह गया।

-संजय ग्रोवर


(18 अक्तूबर, 1996 को पंजाब केसरी में प्रकाशित)

2 टिप्‍पणियां:

कहने को बहुत कुछ था अगर कहने पे आते....

देयर वॉज़ अ स्टोर रुम या कि दरवाज़ा-ए-स्टोर रुम....

ख़ुद फंसोगे हमें भी फंसाओगे!

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ढूंढो-ढूंढो रे साजना अपने काम का मलबा.........

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