सोमवार, 10 अगस्त 2009

‘व्यंग्य-कक्ष’ में पढ़िए **साहित्य में आतंकवाद** श्रृंखला का तीसरा व्यंग्य

*****अकादमी, अनुदान और नया लेखक*****
$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$
आज से कोई 5 या 10 या 15 या 20 साल पहले (5 से 10, 15 या 20 तक मैं इसलिए पहूंच रहा हूं कि पता नहीं मुझ जुगाड़हीन का यह व्यंग्य कितने साल बाद छपे, सो कम-अज़-कम इस अर्थ में तो इसकी प्रासंगिकता बनी रहे) होता यह था कि फिल्म इण्डस्ट्री में नई-नई आयी हीरोइन कहती थी कि न न अंग प्रदर्शन तो मैं हरगिज़ नहीं करूंगी। घाघ, अनुभवी और दूरदर्शी निर्माता-निर्देशक तड़ से समझ जाते थे कि ज़रूर करेगी और भरपूर करेगी। कुछ दिन बाद जब फिल्में मिलना कम होने लगता या मीडिया में चर्चा बंद होने लगती तो हीरोइन ठण्डी पड़ने लगती। उसूलों के बोझ को कपड़ों की तरह उतार फेंकती और कहती,‘कहानी या दृश्य की मांग पर ऐसा करने में मैं कोई हर्ज नहीं समझती।‘ धीर-धीरे उसके तर्कों का जुलूस जोर-शोर से आगे बढ़ने लगता, ‘भई, अब स्विमिंग-पूल में नहाने का दृश्य है तो स्विमिंग-काॅस्ट्यूम नहीं पहनूंगी तो क्या सलवार-सूट पहनूंगी‘ या ‘कैबरे-डांसर का रोल क्या साड़ी लपेट कर करूंगी‘ वगैरह।

मैं भी कई साल तक भीष्म-प्रतिज्ञा जैसा कुछ किए बैठा रहा कि अपने पैसों से अपनी किताब हरगिज नहीं छपवाऊंगा। साथ ही यह भी रटता रहा कि अखबार में व्यंग्य का काॅलम तो हरगिज़-हरगिज़ नहीं लिखूंगा (और तब तक रटता रहूंगा जब तक किसी अच्छे अखबार से आॅफर नहीं आ जाती)। मुद्दतों इंतजार करता रहा कि कोई प्रतिभा का पारखी प्रकाशक आएगा, कहेगा,‘अजी कहाँ छुपे बैठे हैं आप। अपना भी नुकसान कर रहे हैं और हमारा भी। आईए, हम दिलाएंगे आपको आपकी सही जगह।‘ पर ऐसा कुछ न होना था न हुआ। मैं फैज़ की पंक्तियां पढ़-पढ़ कर दिल को तसल्ली देता व सोग मनाताः
अपने बेख्वाब किवाड़ों को मुकफल कर लो अब यहाँ कोई नहीं, कोई नहीं आएगा

दुख की इस बेला में एक दिन किसी अखबार में अकादमी का विज्ञापन देखा। नए लेखकों(नए लेखक भी कम-अज़-कम दो तरह के होते हैं-एक तो वे जो पाँच-पाँच बार अनुदान लेकर भी नए बने रहते हैं। दूसरे मेरे जैसे जो ‘अपरिहार्य’ कारणों से ताउम्र नए बने रहते हैं।) को दिए जाने वाले अनुदान की सुगन्ध उसमें से फूटी पड़ रही थी। मैं आदतन उस खुशबू की गहराई में घुस पड़ा। और मेरा विकृत मस्तिष्क अपनी औकात पर उतर आया।

मित्रों ने कहा था कि अरे तुम्हारी रचनाओं पर तो अकादमी हंस कर अनुदान देगी। न जाने कैसे-कैसों को मिल जाता है फिर तुम्हारी रचनाएं तो अच्छी खासी हैं। तुम पाण्डुलिपि जमा करा दो। पाण्डुलिपि मंजूर हो गई तो छपने के बाद अमुक राशि का चैक तुम्हें अकादमी से मिल जाएगा। तब मेरे ऊलजुलूल चिंतन ने सोचा कि यार, पैसा तो प्रकाशक को फिर भी देना पड़ेगा। अपनी गाँठ से नहीं तो अकादमी से लेकर। अगर प्रकाशक मुझे छापने योग्य समझता है तो उसे अकादमी का सर्टीफिकेट क्यों चाहिए? क्या सीघे-सीधे मेरी पाण्डुलिपि देखकर वह यह निर्णय नहीं ले सकता। मुझे प्रकाशक के बौद्धिक स्तर पर संशय होने लगा। फलस्वरूप चिंतन और आगे बढ़ा। अगर मैं छपने लायक हूँ तो प्रकाशक को पैसे क्यों चाहिए, भले ही अकादमी दे। अगर पैसे ही देने हैं तो अकादमी दे या मैं दूं फर्क क्या पड़ता है। अगर प्रकाशक सरकारी खरीद में किताबें खपाना जानता है तो खपा ही देगा। सभी जानकार लोग यह भेद जानते हैं। फिर प्रकाशक को अमुक राशि का चैक खमख्वाह क्यों दिया जाए?

अकादमी तो लेखक की मदद कर रही है क्योंकि वो तो घोषित तौर पर बनी ही इसलिए है। प्रकाशक लेखक की मदद क्यों कर रहा है? क्योंकि उसे अमुक राशि का चैक मिलेगा। जब अकादमी ने लेखक पर अपना ठप्पा लगा ही दिया है और प्रकाशक ने अपनी बुद्धि की सीमाओं को स्वीकार करते हुए अकादमी के निर्णय के आगे घुटने टेक ही दिए हैं तो फिर प्रकाशक को चैक क्यों चाहिए? क्या प्रकाशक यह मानता है कि उक्त नए लेखक को छापने पर उसे उक्त राशि का घाटा होगा। घाटा होने के निहितार्थ यही तो हुए कि पुस्तक न तो बिकेगी, न सरकारी खरीद में जाएगी। अर्थात् कोई भी इसे नहीं पढ़ेगा। फिर इससे लेखक को क्या फायदा होगा? फायदा न लेखक को होगा न प्रकाशक को तो इस अनुदान का अर्थ क्या हुआ? क्या लेखक पर तरस खाया जा रहा है? तमाम तरस के बाद भी अनुदान अगर अपमान सिद्ध होता हो तो कोई स्वाभिमानी लेखक इसे क्यों लेगा?

कुछ समझे आप? उक्त सारी बौद्धिक कवायद क्यों की मैंने! नहीं समझे तो समझ लीजिए कि आखिरकार मैंने अपनी किताब अपने पैसों से छपा डाली। मगर उससे क्या होता है?

पुस्तक का प्रचार भी करना होता है। पत्र-पत्रिकाओं में समीक्षा भी छपानी होती है। पुस्तक बेचनी भी होती है। उसके लिए तो एक पूरा का पूरा तंत्र चाहिए। सुनते हैं प्रकाशक इस मामले में लगभग ‘तांत्रिक‘ होता है (लोकतांत्रिक हो न हो)। बहुतेरे इस अर्थ में प्रकाशक की तुलना चंद्रास्वामी या धीरेन्द्र ब्रहम्चारी से भी कर डालते हैं। लेखक अगर चं।स्वामी या धी।चारी होगा तो क्या वह इतना उल्लू का पट्ठा है कि किताब अपने पैसे से छपाएगा!?

चलो अपने पैसे से छपा ली लेखक ने क़िताब। पर किसी पत्र-पत्रिका में उसका कोई दोस्त तो है ही नहीं। तो फिर करे फोन पर फोन। ‘वो... ... भाई साहब ... ... वो ... ॥ दो साल पहले अपनी एक क़िताब भेजी थी समीक्षा के लिए ... ... उसका कुछ हुआ ... ... ज़रा देख लीजिए एक बार ... ...‘ आवाज़ में रिरियाहट भी हो तो पत्र/पत्रिका के दफ्तर में राजगद्दी के बगल में बैठे ओहदेदार साहित्यकार (नुमा) के अहंकार को अनोखा सुख मिलता है(होगा?)। जवाब में वे उनीदे से कुछ धकियाते हैं, ‘‘अब भाई, इतनी जल्दी तो समीक्षाएं छपती नहीं। अमुक जी की ही किताब साढ़े तीन साल से रखी है जबकि उनके भाई अखबार मालिक के साले के खास जीजा हैं। खुद अमुक जी मेरे मित्र के छोटे भाई के मित्र के बड़े भाई है।’’ लीजिए। अब अपना सा मुंह लेकर रह जाने के अलावा क्या चारा है आपके पास! ज्यादा हुआ तो यही बुदबुदा कर रह जाएंगे आप, ‘लो भई, अब तो अखबारी दफ्तर और सरकारी दफ्तर में कोई फर्क ही नहीं रह गया।‘ तत्पश्चात्, प्रकाशक की छत्रछाया के बिना और अपने ‘अव्यवहारिक‘ स्वभाव के चलते लोकार्पण या विमोचन के बारे में तो सोचते भी आपको झुरझुरी आने लगेगी।

जिन मित्रों ने कहा होगा कि तुम्हारी रचनाओं पर तो अकादमी हंस कर अनुदान देगी वही कहने लगेंगे कि ‘कैसे-कैसे प्रतिभाहीन लोग अपने पैसे से क़िताब छपा कर लेखक बन जाते हैं।’ यानि पैसा अपना हो तो प्रतिभा, प्रतिभा नहीं रहती। और अकादमी से झाड़ा हो तो (पैसा झाड़ना भी तो प्रतिभा है) प्रतिभा-विरोधी को भी प्रतिभाशाली होने का सर्टीफिकेट मिल जाता है। कुछ और तरह की प्रतिभाएं भी अरसे से साहित्य में पांव जमाए हैं। तिकड़म, चाटुकारिता, संबंधबाजी, ‘इस हाथ दे उस हाथ ले‘, ‘तू मेरी किताब छाप, मैं तेरा कोई काम करवाऊंगा‘ जैसी प्रतिभाएं अगर आपमें हैं तो भी बतौर लेखक छपने, पुस्तक प्रकाशित करवाने और स्थापित होने में कोई परेशानी नहीं आएगी। तय है कि प्रकाशक या तो उक्त प्रतिभाशालियों को छापता है या फिर निर्मल वर्मा, राजेन्द्र यादव, कृष्णा सोबती, उदय प्रकाश, प्रेमचंद, श्रीलाल शुक्ल, यशपाल, परसाईं, शरद जोशी या शरतचन्द्र को छापता है जो कि स्थापित हैं, प्रतिभाशाली हैं, लोकप्रिय हैं व सबसे बड़ी बात, बिकते हैं। बीच के लोगों को प्रकाशक घास नहीं डालता। डालता है, तो शर्त वही होती है, पैसे दीजिए, चाहे अपनी गांठ के हों चाहे अकादमी के।

एक तरीका और भी है कि आप तस्लीमा नसरीन या ओशो रजनीश जितने विवादास्पद हो जाईए बशर्ते कि आपमें उतनी बौद्धिक व मौलिक ऊर्जा व साहस हो। मगर ‘भाई‘ लोगों से बच के।(जी हाँ, भाई लोग साहित्य में भी होते हैं मगर बड़े ही ‘सोफिस्टीकेटेड’ किस्म के। आप ज़िन्दगी भर हाथ-पाँव मारते रहिए मगर न तो ये कभी सीधे-सीधे सामने आएंगे न ही आप कभी आप इन पर सीधे-सीधे ऊँगली उठा पाएंगे।) ‘भाई’ लोगों को पता चला गया तो वे आपको छपने ही नहीं देंगे। बिना छपे विवादास्पद कैसे होंगे आप? बताईए! ‘भाई‘ लोग आपके विवादास्पद तो होने देंगे नहीं साथ ही साहित्य-समाज में संदेहास्पद और अछूत भी बना देंगे। आप देखें कि हिन्दी साहित्य में कभी कोई तस्लीमा, रशदी या मण्टो नहीं होते। बेचारे राजेन्द्र यादव कोशिश कर-कर के हार गए पर ... ... उखाड़ कुछ नहीं पाए।

बहरहाल, हीरोइन अगर स्थापित हो गई हो या आर्थिक रूप से अपने पैरों पर खड़ी हो गई हो तो वह अपने पसंदीदा विषय पर ऐसी फिल्म का निर्माण या निर्देशन कर सकती है जिसमें उसे किसी स्तर पर कोई समझौता न करना पड़े। अब यह उसके बौद्धिक स्तर और साहस पर निर्भर करता है कि वो अपने पैसे से ‘घर एक मंदिर‘ व ‘स्वर्ग से सुंदर‘ बनाती है या ‘फायर‘ और ‘द बैंडिट क्वीन‘।

-संजय ग्रोवर

(व्यंग्य-संग्रह ‘मरा हुआ लेखक सवा लाख का’ से साभार)

2 टिप्‍पणियां:

कहने को बहुत कुछ था अगर कहने पे आते....

देयर वॉज़ अ स्टोर रुम या कि दरवाज़ा-ए-स्टोर रुम....

ख़ुद फंसोगे हमें भी फंसाओगे!

Protected by Copyscape plagiarism checker - duplicate content and unique article detection software.

ढूंढो-ढूंढो रे साजना अपने काम का मलबा.........

#girls #rape #poetry #poem #verse # लड़कियां # बलात्कार # कविता # कविता #शायरी (1) अंतर्द्वंद (1) अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस (1) अंधविश्वास (1) अकेला (3) अनुसरण (2) अन्याय (1) अफ़वाह (1) अफवाहें (1) अर्थ (1) असमंजस (2) असलियत (1) अस्पताल (1) अहिंसा (3) आंदोलन (4) आकाश (1) आज़ाद (1) आतंकवाद (2) आत्म-कथा (2) आत्मकथा (1) आत्मविश्वास (2) आत्मविश्वास की कमी (1) आध्यात्मिकता (1) आभास (1) आरक्षण (3) आवारग़ी (1) इंटरनेट की नयी नैतिकता (1) इंटरनेट पर साहित्य की चोरी (2) इंसान (4) इतिहास (2) इमेज (1) ईक़िताब (1) ईमानदार (1) ईमानदारी (2) ईमेल (1) ईश्वर (5) उत्कंठा (2) उत्तर भारतीय (1) उदयप्रकाश (1) उपाय (1) उर्दू (1) उल्टा चोर कोतवाल को डांटे (1) ऊंचा (1) ऊब (1) एक गेंद करोड़ों पागल (1) एकतरफ़ा रिश्ते (1) ऐंवेई (2) ऐण्टी का प्रो (1) औरत (2) औरत क्या करे (3) औरत क्या करे ? (3) कचरा (1) कट्टरपंथ (2) कट्टरपंथी (1) कट्टरमुल्लापंथी (1) कठपुतली (1) कन्फ्यूज़न (1) कमज़ोर (1) कम्युनिज़्म (1) कर्मकांड (1) कविता (68) कशमकश (2) क़ागज़ (1) क़ाग़ज़ (1) कार्टून (3) काव्य (5) क़िताब (1) कुंठा (1) कुण्ठा (1) क्रांति (1) क्रिकेट (2) ख़ज़ाना (1) खामख्वाह (2) ख़ाली (1) खीज (1) खेल (2) गज़ल (5) ग़जल (1) ग़ज़ल (28) ग़रीबी (1) गांधीजी (1) गाना (7) गाय (2) ग़ायब (1) गीत (7) गुंडे (1) गौ दूध (1) चमत्कार (2) चरित्र (4) चलती-फिरती लाशें (1) चांद (2) चालाक़ियां (1) चालू (1) चिंतन (2) चिंता (1) चिकित्सा-व्यवस्था (1) चुनाव (1) चुहल (2) चोरी और सीनाज़ोरी (1) छंद (1) छप्पर फाड़ के (1) छोटा कमरा बड़ी खिड़कियां (3) छोटापन (1) छोटी कहानी (1) छोटी बहर (1) जड़बुद्धि (1) ज़बरदस्ती के रिश्ते (1) जयंती (1) ज़हर (1) जागरण (1) जागरुकता (1) जाति (1) जातिवाद (2) जानवर (1) ज़िंदगी (1) जीवन (1) ज्ञान (1) झूठ (3) झूठे (1) टॉफ़ी (1) ट्रॉल (1) ठग (1) डर (4) डायरी (2) डीसैक्सुअलाइजेशन (1) ड्रामा (1) ढिठाई (2) ढोंगी (1) तंज (1) तंज़ (10) तमाशा़ (1) तर्क (2) तवारीख़ (1) तसलीमा नसरीन (1) ताज़ा-बासी (1) तालियां (1) तुक (1) तोते (1) दबाव (1) दमन (1) दयनीय (1) दर्शक (1) दलित (1) दिमाग़ (1) दिमाग़ का इस्तेमाल (1) दिल की बात (1) दिल से (1) दिल से जीनेवाले (1) दिल-दिमाग़ (1) दिलवाले (1) दिशाहीनता (1) दुनिया (2) दुनियादारी (1) दूसरा पहलू (1) देश (2) देह और नैतिकता (6) दोबारा (1) दोमुंहापन (1) दोस्त (1) दोहरे मानदंड (3) दोहरे मानदण्ड (14) दोहा (1) दोहे (1) द्वंद (1) धर्म (1) धर्मग्रंथ (1) धर्मनिरपेक्ष प्रधानमंत्री (1) धर्मनिरपेक्षता (4) धारणा (1) धार्मिक वर्चस्ववादी (1) धोखेबाज़ (1) नकारात्मकता (1) नक्कारखाने में तूती (1) नज़रिया (1) नज़्म (4) नज़्मनुमा (1) नफरत की राजनीति (1) नया (3) नया-पुराना (1) नाटक (2) नाथूराम (1) नाथूराम गोडसे (1) नाम (1) नारा (1) नास्तिक (6) नास्तिकता (2) निरपेक्षता (1) निराकार (3) निष्पक्षता (1) नींद (1) न्याय (1) पक्ष (1) पड़़ोसी (1) पद्य (3) परंपरा (5) परतंत्र आदमी (1) परिवर्तन (4) पशु (1) पहेली (3) पाखंड (8) पाखंडी (1) पाखण्ड (6) पागलपन (1) पिताजी (1) पुण्यतिथि (1) पुरस्कार (2) पुराना (1) पेपर (1) पैंतरेबाज़ी (1) पोल (1) प्रकाशक (1) प्रगतिशीलता (2) प्रतिष्ठा (1) प्रयोग (1) प्रायोजित (1) प्रेम (2) प्रेरणा (2) प्रोत्साहन (2) फंदा (1) फ़क्कड़ी (1) फालतू (1) फ़िल्मी गाना (1) फ़ेसबुक (1) फ़ेसबुक-प्रेम (1) फैज़ अहमद फैज़्ा (1) फ़ैन (1) फ़ॉलोअर (1) बंद करो पुरस्कार (2) बच्चन (1) बच्चा (1) बच्चे (1) बजरंगी (1) बड़ा (2) बड़े (1) बदमाशी (1) बदलाव (4) बयान (1) बहस (15) बहुरुपिए (1) बात (1) बासी (1) बिजूके (1) बिहारी (1) बेईमान (2) बेईमानी (2) बेशर्मी (2) बेशर्मी मोर्चा (1) बेहोश (1) ब्लाॅग का थोड़ा-सा और लोकतंत्रीकरण (3) ब्लैकमेल (1) भक्त (2) भगवान (2) भांड (1) भारत का चरित्र (1) भारत का भविष्य (1) भावनाएं और ठेस (1) भाषणबाज़ (1) भीड़ (5) भ्रष्ट समाज (1) भ्रष्टाचार (5) मंज़िल (1) मज़ाक़ (1) मनोरोग (1) मनोविज्ञान (5) ममता (1) मर्दानगी (1) मशीन (1) महात्मा गांधी (3) महानता (1) महापुरुष (1) महापुरुषों के दिवस (1) मां (2) मातम (1) माता (1) मानवता (1) मान्यता (1) मायना (1) मासूमियत (1) मिल-जुलके (1) मीडिया का माफ़िया (1) मुर्दा (1) मूर्खता (3) मूल्य (1) मेरिट (2) मौक़ापरस्त (2) मौक़ापरस्ती (1) मौलिकता (1) युवा (1) योग्यता (1) रंगबदलू (1) रचनात्मकता (1) रद्दी (1) रस (1) रहस्य (2) राज़ (2) राजनीति (5) राजेंद्र यादव (1) राजेश लाखोरकर (1) रात (1) राष्ट्र-प्रेम (3) राष्ट्रप्रेम (1) रास्ता (1) रिश्ता और राजनीति (1) रुढ़ि (1) रुढ़िवाद (1) रुढ़िवादी (1) लघु व्यंग्य (1) लघुकथा (10) लघुव्यंग्य (4) लालच (1) लेखक (1) लोग क्या कहेंगे (1) वात्सल्य (1) वामपंथ (1) विचार की चोरी (1) विज्ञापन (1) विवेक (1) विश्वगुरु (1) वेलेंटाइन डे (1) वैलेंटाइन डे (1) व्यंग्य (87) व्यंग्यकथा (1) व्यंग्यचित्र (1) व्याख्यान (1) शब्द और शोषण (1) शरद जोशी (1) शराब (1) शातिर (2) शायद कोई समझे (1) शायरी (55) शायरी ग़ज़ल (1) शेर शायर (1) शेरनी का दूध (1) संगीत (2) संघर्ष (1) संजय ग्रोवर (3) संजयग्रोवर (1) संदिग्ध (1) संपादक (1) संस्थान (1) संस्मरण (2) सकारात्मकता (1) सच (4) सड़क (1) सपना (1) समझ (2) समाज (6) समाज की मसाज (37) सर्वे (1) सवाल (2) सवालचंद के चंद सवाल (9) सांप्रदायिकता (5) साकार (1) साजिश (1) साभार (3) साहस (1) साहित्य (1) साहित्य की दुर्दशा (6) साहित्य में आतंकवाद (18) सीज़ोफ़्रीनिया (1) स्त्री-विमर्श के आस-पास (18) स्लट वॉक (1) स्वतंत्र (1) हमारे डॉक्टर (1) हयात (1) हल (1) हास्य (4) हास्यास्पद (1) हिंदी (1) हिंदी दिवस (1) हिंदी साहित्य में भीड/भेड़वाद (2) हिंदी साहित्य में भीड़/भेड़वाद (5) हिंसा (2) हिन्दुस्तानी (1) हिन्दुस्तानी चुनाव (1) हिम्मत (1) हुक्मरान (1) होलियाना हरकतें (2) active deadbodies (1) alone (1) ancestors (1) animal (1) anniversary (1) applause (1) atheism (1) audience (1) author (1) autobiography (1) awards (1) awareness (1) big (2) Blackmail (1) book (1) buffoon (1) chameleon (1) character (2) child (2) comedy (1) communism (1) conflict (1) confusion (1) conspiracy (1) contemplation (1) corpse (1) Corrupt Society (1) country (1) courage (2) cow (1) cricket (1) crowd (3) cunning (1) dead body (1) decency in language but fraudulence of behavior (1) devotee (1) devotees (1) dishonest (1) dishonesty (2) Doha (1) drama (3) dreams (1) ebook (1) Editor (1) elderly (1) experiment (1) Facebook (1) fan (1) fear (1) forced relationships (1) formless (1) formless god (1) friends (1) funny (1) funny relationship (1) gandhiji (1) ghazal (20) god (1) gods of atheists (1) goons (1) great (1) greatness (1) harmony (1) highh (1) hindi literature (4) Hindi Satire (11) history (2) history satire (1) hollow (1) honesty (1) human-being (1) humanity (1) humor (1) Humour (3) hypocrisy (4) hypocritical (2) in the name of freedom of expression (1) injustice (1) inner conflict (1) innocence (1) innovation (1) institutions (1) IPL (1) jokes (1) justice (1) Legends day (1) lie (3) life (1) literature (1) logic (1) Loneliness (1) lonely (1) love (1) lyrics (4) machine (1) master (1) meaning (1) media (1) mob (3) moon (2) mother (1) movements (1) music (2) name (1) neighbors (1) night (1) non-violence (1) old (1) one-way relationships (1) opportunist (1) opportunistic (1) oppotunism (1) oppressed (1) paper (2) parrots (1) pathetic (1) pawns (1) perspective (1) plagiarism (1) poem (12) poetry (29) poison (1) Politics (1) poverty (1) pressure (1) prestige (1) propaganda (1) publisher (1) puppets (1) quarrel (1) radicalism (1) radio (1) Rajesh Lakhorkar (1) rationality (1) reality (1) rituals (1) royalty (1) rumors (1) sanctimonious (1) Sanjay Grover (2) SanjayGrover (1) satire (30) schizophrenia (1) secret (1) secrets (1) sectarianism (1) senseless (1) shayari (7) short story (6) shortage (1) sky (1) sleep (1) slogan (1) song (10) speeches (1) sponsored (1) spoon (1) statements (1) Surendra Mohan Pathak (1) survival (1) The father (1) The gurus of world (1) thugs (1) tradition (3) trap (1) trash (1) tricks (1) troll (1) truth (3) ultra-calculative (1) unemployed (1) values (1) verse (6) vicious (1) violence (1) virtual (1) weak (1) weeds (1) woman (2) world (2) world cup (1)