शनिवार, 8 अगस्त 2009

‘व्यंग्य-कक्ष’ में पढ़िए #~~~साहित्य में आतंकवाद~~~# श्रृंखला का दूसरा व्यंग्य *****एक कॉलम व्यंग्य*****

*****एक कॉलम व्यंग्य*****
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कृपया निम्न लेख को पढ़ते समय ध्यान रखें कि यह एक व्यंग्य है।

श्रीमती जी को कद्दू पसंद है और मुझे टिण्डा। बोलीं कि कई दिन से टिण्डा खा रहे हैं आज कद्दू बना लेती हूं। मैं हंसा, गंवार कहीं की। रूंआसी हो बोली कि गंवार हूं तो मुझसे शादी क्यों की थी। मैंने कहा, मूर्ख कहीं की, तू न होती तो मैं हंसी किसकी उड़ाता, चुटकुले किस पर लिखता, (यानि कि) व्यंग्य किस पर लिखता। पत्नियां तो होती ही इसलिए हैं कि उन पर कुछ भी लिख दिया जाए। वे उसे व्यंग्य मान कर अपराध बोध महसूस करने लगती हैं। पत्नी सचमुच शर्मिन्दा हो गई। टिण्डा फिर कद्दू पर हावी हो गया।

पुराने लोग बहुत अच्छे होते हैं। नए बहुत ही ज्यादा गंदे होते हैं। एक बार मैं नई पीढ़ी था। तब पुरानी पीढ़ी काफी घटिया थी। अब मैं पुरानी पीढ़ी होता जा रहा हूं और नई पीढ़ी खराब होती जा रही है। मैंने सुबह ग्रंथादि का पाठ शुरू कर दिया है। धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा। पहले भी कई बार हुआ है। (ऐसा मैंने सुना है।)।

दूसरे बहुंत ही गंदे हैं। हम बहुत ही अच्छे हैं। दूसरे एकदम खराब। हम एकदम अच्छे। दूसरे खराब। हम अच्छे। टाॅँय टू। टाँॅय टू। टाँॅय टू। टाँॅय टू। टू-टू। एक साल बाद। टाँॅय-टाँॅय। दस साल बाद। टू-टू। सौ साल बाद। टाँॅय-टू। हजार साल बाद। टाँॅय टू। दसियों हज़ार साल बाद। टाँॅय टू। दूसरे खराब। हम अच्छे। टाँॅय टू। टाँॅय टू।

जनता बहुत अच्छी है। लोग बहुत अच्छे हैं। नेता सब नालायक हैं। जनता जमीन से पैदा होती हैं। नेता आसमान से टपकते हैं। न जाने कब अच्छे नेताओं की बारिश होगी। वैसे कुछ अच्छे नेता भी हैं। पर ऐसे नेता बस दो-चार ही हैं। एक ने मेरी क़िताब छपवाने में मदद की। एक ने उसका विमोचन किया। तीसरे ने मुझे एक जगह सस्ता प्लॉट दिलवा दिया है। लगभग मुफ्त का। चौथे के मेरे घर आते-जाते रहने से पड़ोसियों में मेरी छवि भी खासी दमदार बनी हुई हैं। राशन- गैस भी घर बैठे आ जाते हैं। अब क्या करूं। दुनियादारी भी तो कोई चीज़ है। ‘एडजस्ट‘ तो करना ही पड़ता है न। रोटी भी तो खानी है कि नहीं। आजकल कुछ लोग कहने लगे हैं कि जैसा समाज होता है वैसा ही उसका नेता होता है। लगता है इन लोगों ने अपने खाने-पीने रहने का ‘फुलप्रूफ‘ जुगाड़ कर लिया है। पर मेरे सामने तो सारी ज़िन्दगी पड़ी है। अपना ‘कैरियर‘ भी तो संवारना है। मैं ऐसी बातें खुलकर कैसे कह सकता हूँ।

लोग तो प्रकाशकों और पाठकों की भी बुराई करते हैं। मैं कहता हूं कि कौन कहता है किताबें नहीं बिकती। खुद मेरी किताबो ‘पेटदर्द चुटकुले‘, ‘हंसती हुई उबासियां‘, ‘घर में हंसो, बाज़ार में हंसो, पत्नी पर हंसो, सरदार पर हंसो’ के कई संस्करण छपे भी हैं और बिके भी हैं। मेरे नए कविता संग्रह ‘लड़की नहाई औंगन में‘ को छापने के लिए कई प्रकाशक अभी से दरवाज़ा पीट रहे हैं। कुछ पाठकों के तो प्रशंसा पत्र भी अभी से आ गए हैं।

मैं एक उद्योग हूँ। व्यंग्य एक उत्पाद है। अखबार बिचैलिया है। पाठक एक ग्राहक है। रोज़ाना सुबह आपको एक कॉलम व्यंग्य सप्लाई करना होता है। बड़ा ही मेहनत का काम है। एक भी पंक्ति कम या ज्यादा हो जाती है तो संपादक जी की नज़रों में मेरा रिकार्ड गिर जाता है। वैसे बहुत कम ही ऐसा होता है। इसलिए संपादक जी मुझसे खुश रहते हैं। मैं उनका चहेता व्यंग्यकार हूँ। वे अक्सर कहते हैं, ‘बेटा, लिखो चाहे कुछ भी पर कॉलम पूरा भर जाना चाहिए, बस।‘ उम्मीद है आज के लेख का शरीर भी तैयारशुदा कॉलम की यूनीफॉर्म में फिट बैठेगा। नहीं तो पिछले रिकार्ड के आधार पर मुझे फिर चांस दिया जाएगा।

पुनश्च: व्यंग्यकार दो तरह के होते हैं। पहली श्रेणी के वे जो व्यंग्यपूर्ण स्थितियों की समाप्ति के लिए व्यंग्य लिखते हैं। दूसरी श्रेणी के वे जो व्यंग्यपूर्ण स्थितियों को बनाए रखने के लिए लिखते हैं। मैं तीसरी श्रेणी का हूँ जो दूसरी श्रेणी की पूरक होती है। हम लोग खुद ही व्यंग्यपूर्ण स्थितियां भी होते हैं।

एक बार फिर याद दिला दूं कि यह एक व्यंग्य था।
-संजय ग्रोवर
(लेखक संपादक के मित्र, अखबार मालिक के रिश्तेदार व ऊंचे सरकारी ओहदे पर हैं)
(व्यंग्य-संग्रह ‘मरा हुआ लेखक सवा लाख का‘ से साभार)

7 टिप्‍पणियां:

  1. पहले अभय तिवारी का निर्मल आनन्द और उसके बाद बहुत दिनों के बाद आप के ब्लॉग पर आगमन। आज बहुत हँसा हूँ।

    "एक बार मैं नई पीढ़ी था।" पर तो अब भी जाने क्यों रुक रुक कर हँसी आ रही है।

    'नेता आसमान से नहीं टपकते' पर पढ़ाई के दौरान कविता लिखी थी। आप ने याद दिला दी। हम दोनों एक दूसरे से कभी नहीं मिले - एक दूसरे के 'नक्काल' कैसे हो गए?

    व्यंग्य की मारक धार क्या होनी चाहिए - इसके लिए कभी क्लास लगाने का विचार हो तो मेरा नाम भी शिष्यों में डाल लीजिएगा।

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  2. मज़ा आ गया
    अब हमहू सोच रहे हैं आर्थिक वार्थिक छोडकर नहाने धोने पर एक किताब लिख मारें…

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  3. लाजबाब व्यंग्य पढने को मिला....धन्यवाद ...

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  4. padhkar majaa aa gaya..!! ye hota hai vyangy!

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कहने को बहुत कुछ था अगर कहने पे आते....

देयर वॉज़ अ स्टोर रुम या कि दरवाज़ा-ए-स्टोर रुम....

ख़ुद फंसोगे हमें भी फंसाओगे!

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ढूंढो-ढूंढो रे साजना अपने काम का मलबा.........

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