गुरुवार, 19 मार्च 2009

व्यंग्य-कक्ष में *****एक संपूर्ण पुरूष*****

वह एक संपूर्ण पुरूष था।

‘अ कंपलीट मैन‘। मर्दों में मर्द। पतियों में पति। दोस्तों में दोस्त। रिश्तेदारों में रिश्तेदार। स्वस्थों में स्वस्थ। बीमारों में बीमार। लेखकों में लेखक। कलाकारों में कलाकार। प्रगतिशीलों में प्रगतिशील। रूढ़िवादियों में रूढ़िवादी। आधुनिक। परंपरावादी। देशप्रेमी। सहिष्णु। तेजतर्रार। विनम्र। आक्रामक। नाराज़। संतुष्ट। सभी कुछ। एक संपूर्ण पुरूष। ‘अ कंपलीट मैन‘ं।


पत्नी उससे खुश थी। चूंकि वह पत्नी को खुश रखता था, इसलिए पत्नी को खुश रहना पड़ता था। पत्नी के अलावा भी वह कई पत्नियों और दूसरी स्त्रियों को खुश रखता था। इस संबंध में उसके अपने तर्क भी थे। जब वह दूसरी स्त्रियों के बीच होता तो कहता कि मैं मर्द हूं। स्मार्ट हूं। लड़कियां मुझ पर मरती हैं। मैं कितना प्रगतिशील हूं। जब दूसरे मर्द दूसरी स्त्रियों या उसके घर की स्त्रियों के साथ होते तो वह परंपरावादी हो जाता। कहता कि वे जनानियां हैं। औरतों में घुसे रहते हैं। दूसरी स्त्रियों से अपनी घनिष्ठता के बीच आने वाले उनके पतियों, भाइयों और दूसरे लोगों को वो किसी-न-किसी तरह पटाए-फुसलाए-बहलाए रखता। जबकि अपनी स्त्रियों से घनिष्ठता बनाने वाले हर पुरूष को कोई-न-कोई चाल चलकर संबंध तोड़ने पर मजबूर कर देता।


वह एक संपूर्ण पुरूष था। ‘अ कंपलीट मैन‘।


समाज में उसकी इज़्ज़त थी, प्रतिष्ठा थी, सम्मान था। किसी के घर बच्चा पैदा होता तो वह किलकारियां मारता सबसे पहले बधाई देने पहुंच जाता। बच्चे के मां-बाप को भेंट देता, शाबासी देता, हर तरह से प्रोत्साहित करता। बाहर निकलकर दूसरे लोगों से कहता कि साले, मूर्ख और गंवार कहीं के, बच्चे पैदा किए चले जा रहे हैं। न देश का खयाल है, न समाज का, न बच्चों के भविष्य का। लोग सुनकर खुश होते कि देखो अगले को सभी की कितनी चिंता है। कोई मरता तो सबसे पहले लटकने वाला चेहरा उसी का होता। अर्थी को दिए जाने वाले चार कंधों में एक उसका होना लगभग निश्चित था। जैसे वह रोज इंतजार ही कर रहा होता कि कोई मरे और वह दुःख बांटने जाए। आदमी से प्रेम करने की बजाय समाज को खुश रखना उसका दर्शन था।


वह एक संपूर्ण पुरूष था। अ कंपलीट मैन।


लोगों से बाते करते हुए उसकी ‘स्मार्टनेस‘ देखते ही बनती थी। वह जानता था कि ‘करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान‘। अर्थात् ‘प्रैक्टिस मेक्स अ मैन परफैक्ट‘। सो दिन-रात अभ्यास करके उसने कमीनेपन, दोमुंहेपन, पाखंड, नीचता, लंपटता, लुच्चई जैसे अत्यावश्यक चारित्रिक गुणों का विकास अपने अंदर कर लिया था। अपनी वाक्पटुता को वह तर्क कहकर खुश रहता, तो दूसरों के तर्कों को वाग्जाल कहकर भी वह ही खुश रहता। ‘फूट डालो और राज करो‘ इस स्वर्णिम सूक्ति ने उसे दोस्तों, रिश्तेदारों व सहकर्मियों के बीच पाॅपुलर व अमर बना दिया था। उसके संबंध मूलतः दो तरह के लोगों से थे। एक तो वे जिनकी चमचागिरी वह कर सके। दूसरे वे जो उसकी चमचागिरी कर सकें। दूसरों के बिना वह इसलिए नहीं रह पाता था कि बिना उन्हें छोटा किए खुद को बड़ा नहीं मान पाता था। यूं वह महान था कि अपने महान होने के लिए उसने दूसरों को इतना महत्व दे दिया था।


वह एक संपूर्ण पुरूष था। ‘अ कंपलीट मैन‘।


जब वह लिखने पर उतारू हो जाता तो एक-से-एक चीज लिख मारता। ऐसे-ऐसे लेख जो दूसरे लिखें तो किसी अखबार में संपादक के नाम पत्र में भी न छपें। मगर उसके व्यावहारिक स्वभाव व सामाजिक संबंधों के चलते संपादकीय पृष्ठ पर बतौेर मुख्य लेख छप जाते।


आदमी को सामाजिक जानवर बनाने वाली सभी किताबें उसने घोंट रखी थीं। सो जानता था कि ‘आॅफेंस इज़ द बेस्ट डिफेंस‘ यानी ‘आक्रमण में ही सुरक्षा है‘। अतः किसी की रचना चुराता तो साथ ही उस पर चोरी का आरोप भी लगा देता। ऐसा जो कुछ भी करता सब दूसरों पर थोप देता। कवि सम्मेलनों के अलावा भी कवि सम्मेलन कर लेता।


जन्मोत्सवों में बधाई गायन और विवाहों में सेहरा गायन आदि के साथ-साथ मुर्दनी के माहौल को कवि मेले में बदल देने का हुनर भी उसमें था। अतः मुर्दों समेत सभी उससे खुश थे। यही उसकी कलाकारी थी कि वह कलाकार न होते हुए भी कलाकार था।


एक संपूर्ण पुरूष। अ कंपलीट मैन। जो कि वह था।


मगर जो शेर उसकी संपूर्णता में बाधक था, अभी भी हैः-


ये चलती-फिरती सूरतें जो देखते हैं आप,/

कितने हैं इनमें वाकई इंसा न पूछिए।


-संजय ग्रोवर



(25 अप्रैल, 1997 में को अमर उजाला में प्रकाशित)

15 टिप्‍पणियां:

  1. सचमुच अ(एक)पूर्ण पुरुष हैं.....

    एकदम सटीक सार्थक व्यंग्य......आभार...

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  2. चोखेर बाली से इधर का रुख किया है ..बहुत सही लिखा है आपने अ कम्प्लीट मैन ..मुश्किल होता है सच लिखना बोलना या स्वीकार करना ..बहुत बधाई आपको

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  3. वह एक संपूर्ण पुरूष था। अ कंपलीट मैन।
    .... :) :)

    बहुत ही सार्थक व्यंग्य

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  4. ............ग्रोवर भाई........आपने तो सचमुच लाजवाब कर दिया.......द कम्प्लीट मैन की ये बात कहीं मेरे लिए ही तो नहीं.....हा..हा..हा..हा..हा..!!.........बहुत गहरा व्यंग्य है भाई...!!

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  5. बहुत ही बढिया व्यंग्य और शेर तो कमाल का है
    "चलती-फिरती सूरतें जो देखते हैं आप
    कितने हैं इनमें वाकई इंसा न पूछिए"
    एक संपूर्ण पुरूष बनने की चाहत में लोग इन्सान भी नहीं रहते

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  6. वाकई सम्पूर्ण पुरुष है जी ये तो.....समाज में तो ओवरफ्लो है जी .

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  7. एक संपूर्ण पुरूष। अ कंपलीट मैन
    Kya baat hai...bahut khoob

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  8. बड़े अच्छे अच्छे गुर सिखाए आपने पारफेक्ट मैन बनने के ...आजमा कर देखेगें ...!!

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  9. आपको परफैक्ट मैन बनना है या परफैक्ट वुमैन, हरिकीर्तन ‘लकीर के फकीर’ जी !

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  10. ग्रोवर साहब, कभी हमारे ब्लॉग पर भी तशरीफ़ लायें.

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  11. ग्रोवर साहब, कभी हमारे ब्लॉग पर भी तशरीफ़ लायें. हमारा पता है : andaz-ae-byan.blogspot.com

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  12. व्यंग्य को गंभीरता की ओर मोड़ा-यह है साहित्य / आदमी तो बहुत है जहाँ में ,ऐसा लगता है इंसान कम है , जंग करने को दुनिया पडी है ,प्यार करने को मैदान कम हैं / यह शेर हमारे यहाँ की शायरा अंजुम रहबर का है

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  13. bahut khoob sanjay ji, maza aa gaya , bahut katil vyangya likha hai, badhai.

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  14. mera samast ka anusaran karne ke liye dhanyawad
    hamaare desh men jadi-bootiyon ka khajaana hai aur sharmnaak baat hai ki hum doosre deshon ke herbs use kar rahe hain
    wangya-widha bhut mehnat maangti hai mere bhaaii
    jai hind

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  15. Vyangya padhna-samajhna bhi badhi hoshiyaei-samajhdari ka kaam hai alkaji.
    Dhanyawad.

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कहने को बहुत कुछ था अगर कहने पे आते....

देयर वॉज़ अ स्टोर रुम या कि दरवाज़ा-ए-स्टोर रुम....

ख़ुद फंसोगे हमें भी फंसाओगे!

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ढूंढो-ढूंढो रे साजना अपने काम का मलबा.........

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