प्रशंसा सुनकर गद-गद होना या झूठी तारीफ सुनकर दूसरों का काम तुरत-फुरत कर देना-एक ऐसी कमजोरी है, जो ज्यादातर लोगों में पाई जाती है । मगर जिस वर्ग को इस विधि से सर्वाधिक छला गया है, वो है-स्त्री वर्ग । सुंदर और मोटे-मोटे शब्दों का जाल बिछाकर स्त्री को इस तरह फंसाया गया है कि इस जाल को स्त्रियों ने अपनी नियति ही मान लिया है । मगर आश्चर्य और दुःख की बात तो यह है कि इस सदियों पुराने भारी-भरकम शब्दजाल मे फंसी अधिकांश स्त्रियां, खुद को गौरवान्वित महसूस करती हैं । यहां तक तो गनीमत है, मगर जब यही स्त्रियां, आजादी की ख्वाहिश-मंद और इसके लिए प्रयासरत कुछ दूसरी, थोड़ी-सी, साहसी महिलाओं को तरह-तरह से रोकने की, उनके नैतिक साहस को डिगाने की, उन पर उलजुलूल, मनगढंत लांछन लगाकर उनका चरित्र-हनन करने कोशिश करती हैं, तो उनका यह कृत्य आपत्तिजनक, निंदनीय व व्यक्तिगत आजादी पर हमला तो होता ही है, साथ ही पुरूषवादी समाज के अमानुषिक, तानाशाह तौर-तरीकों को अप्रत्यक्ष रूप से बढ़ावा भी देता है । इज्जत, शील, मर्यादा, ममता, लज्जा आदि कितने ही ऐसे शब्द हैं, जो वर्षो से स्त्री को भरमाते आए हैं । ये शब्द और स्त्री संदर्भो में इनके प्रचालित अर्थ इस भयावह सचाई को बताते हैं कि महज चंद शब्दों की आड़ में एक बड़ी भीड़ का कितनी आसानी से शोषण किया जा सकता है । एक स्त्री व एक पुरूष विवाह से पहले या विवाह के बिना अगर संभोग कर लेते हैं, तो हमारा समाज व साहित्य बांग लगाता है कि हाय, बेचारी स्त्री का शील भंग हो गया । अब पूछिए इनसे कि ‘शील’ नामक इस सम्मान (?) से सिर्फ स्त्री को ही क्यों नवाजा गया है ? क्या पुरूष का ‘शील’ नहीं होता ?
एक अन्य उदाहरण में जब स्त्री के साथ बलात्कार होता है तो जबरन किए जाने वाले इस कृत्य के लिए बलात्कार एकदम उपयुक्त शब्द होता है । मगर, इससे सामाजिक संप्रभुओं का मतलब हल नहीं होता । सो वे कहते हैं कि स्त्री की इज्जत लुट गई, अस्मत लुट गई । कितनी हास्यास्पद है यह अलंकृत भाषा । जैसे कि आपके घर में डाका पडे़ और बजाय डाकुओं के हंसी भी आपकी ही उड़ाई जाए । आप शर्म के मारे घर से ही न निकलें, थाने में रिपोर्ट कराने न जाएं कि सब हंसेगे आप पर । लोग संदेहपूर्ण नज़रों से देखेंगे आपको कि आपके घर में डाका पड़ा, तो गलती भी आपकी रही होगी, आप ही चरित्रहीन होंगे ।
ऐसा ही एक और शब्द है ममता । इसका प्रचलित अर्थ है मां को अपने बच्चों (दरअसल बेटों) के लिए बेशर्त प्यार । यहां तक तो गनीमत है । अगर अधिकांश स्त्रियां अपने बच्चों पर ममता लुटाती हैं और उन्हें बच्चे पैदा करने और उन्हंे पालने में आनंद आता है तो निश्चय ही यह उनकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता है और किसी को उन्हें रोकने का कोई हक नहीं है । मगर, जब यही स्त्रियां और समाज इस मातृत्व को जबरन किसी पर थोपने की कोशिश करते हैं और उसके इनकार करने पर उसे असामान्य करार देते हैं, चरित्रहीन करार देते हैं, तो निश्चय ही यह आपतिजनक है । व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर हमला है । अगर कुछ स्त्रियां मातृत्व से इनकार कर रही हैं तो यह कैसे कहा ज सकता है कि हर स्त्री मां बनना चाहती है । सिर्फ पुरानी धारणाओं या ‘आंचल में है दूध और आंखों में पानी’ जैसी उक्तियों पर जीती-जागती स्त्रियों और उनके सपनों को बलि चढ़ा देने का हक किसे हो और क्यों हो । कैसी विडंबना है कि एक कुंवारी स्त्री अगर अपनी मर्ज़ी से मां बनती है या बनना चाहती तो उसे भी सताया जाता है । और शादीशुदा स्त्री माँ नहीं बनना चाहती तो उसे तो प्रताड़ित किया ही जाता है। प्रंसगवश पंजाबी लेखिका अजीत कौर के उपन्यास ‘गौरी’ से कुछ पंक्तियां उद्धृत करना उपयोगी होगा-’ममता का भी वैसे कुछ ज्यादा ही आडंबर रचा हुआ है कवियों-ववियों ने । ममता कोई पहाड़ी झरना नहीं होता कि एक बार धारा फूटी तो बस बहती ही चली जाएगी । ममता भी शेष मानवी भावनाओं की तरह रोज़-रोज़ पानी देकर सींचने-पालने वाली चीज़ है । नहीं तो सूख जाती है यह भी ।’
फिर कुछ और शब्द हैं । स्त्री देवी है, मां-बहन और बेटी है । भारतीय संदर्भो में स्त्री की दुर्दशा को देखते हुए उसे देवी कहा जाना बिल्कुल ऐसा ही है जैसे कि एक मुहावरे के अनुसार किसी को पोदीने के पेड़ पर चढ़ाकर उससे अपना काम निकलवा लेना । बार-बार स्त्री को मां-बहन-बेटी कहते रहने में जो अर्थ छुपा है, उसकी धुरी भी पुरूष है । निहितार्थ इसके भी यही हैं कि वो पुरूष की मां, बहन और बेटी है । उसकी परवरिश, सुरक्षा या परवाह चूकि पुरूष को ही करनी है, अतः हर मामले में उसे अनुमति या सलाह भी पुरूष से ही लेनी चाहिए । इस कारक ने भी स्त्री को बौद्विक या मानसिक रूप से अपंग बनाए रखने में बड़ी भूमिका निभाई है । अगर ऐसा न होता तो अकसर हमें यह भी सुनने को मिलता कि ‘पुरूष हमारा भाई है, बेटा है, देवता है, इसलिए उसे हमें घर में, एक कोने में संभालकर रखना चाहिए । स्त्री को देवी कहने वाला समाज वास्तव में उसे क्या मानता है, इसका पता हमें इसी बात से चल जाता है कि हमारे यहां प्रचलित लगभग सभी गालियां स्त्री को लक्ष्य करके कही गयी हैं। स्त्री की वास्तविक हैसियत बताने वाले ऐसे कितने ही शब्द हैं । जैसे अर्धान्गिनी । निहितार्थ है पुरूष का आधा भाग, वो भी अनिवार्य रूपेण स्त्री ही, क्योंकि पुरूष को तो ‘अर्धान्गिना’ हम कहते नहीं ।
-संजय ग्रोवर
{7 मार्च 1997 को अमरउजाला (रुपायन) में प्रकाशित}
(जारी)
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बहुत मुश्किल है ये मुक्कती अभी ''आवारा मसीहा '' पढ़ रहा था.किस ज़माने के थे शरद चन्द्र लेकिनं जो बाते तब थीं वही बाते आज भी तो हैं..स्त्री और सतीत्व पे बहसें आज भी आज भी उसी जगह खड़े हो कर की जा रही ...आखिर इतने सालों में बदला क्या है...हम कहाँ किस तरफ बढे हैं मुझे तो लगता है हम आज भी वहीँ खड़े हैं जहान सदियों पहले थे...
जवाब देंहटाएंsanjay ji...aapko padh kar lagta hai ki haan abhi kuch log hain jo...achha sochte hain...aapne hamesha ki tarah bahut hi achha likha hai
जवाब देंहटाएंAAPKEE LEKHNI SE EK AUR UMDAA LEKH.MEREE BADHAEE
जवाब देंहटाएंSWEEKAR KIJIYE.
सुन्दर आलेख
जवाब देंहटाएंअनेक प्रश्न उठाती रचना
आपने बहुत खूबसूरत व्याख्या की है हम स्त्रियों से गुजरने वाली शब्दावली की ....हार्दिक आभार । मई के 'हंस' मे शायद आप ही का 'बीच बहस मे' मे लेख है ....बहुत मजेदार,
जवाब देंहटाएंसंजय जी आपको पढना अपने आप को नया करना होता है ! हर बात से सहमत है ! कृपया लिखते रहें --जड़ता दूर होगी ! शुभकामना !
जवाब देंहटाएंआपकी बातें अपनी सी लगती हैं...
जवाब देंहटाएंजैसा कि पुरी जी ने कहा...हंस में आज ही आपका लेख पढ़ा है...
उन्होंने शायद लगा कर हमें भी भ्रमित कर दिया है...
धन्यवाद...
Aap शायद hataa dijiye :-)
जवाब देंहटाएंसुन्दर आलेख
जवाब देंहटाएंपढ़कर अच्छा लगा।
बेहद सटीक विवेचन।
जवाब देंहटाएंऔरत और उसकी भावनाओं को जिस तरह आपने समझा है वैसा आज भी पुरुष तो छोडिये स्त्रियाँ भी नही समझतीं…………………अभी मैने अपने ब्लोग पर एक रचना लगाई तो देखिये कितना हंगामा खडा हो गया………………॥जो बात आपने कही है वो ही मैने भी कही मगर लोगो के हलक से नीचे नही उतरी सिर्फ़ कुछ आप जैसे गिने चुने समझदार लोगों को छोड्कर्।
जवाब देंहटाएंhttp://redrose-vandana.blogspot.com
ममत्व, देवीत्व, घर की इज्जत आदि आदि क्रूर अवधरणाएं दरअसल हैं केवल भाषिक निर्मिति... एक बार इन शब्दों के खोखलेपन का राज स्त्री पर पूरी तरह खुलने की देर है, उसके मातहतीकरण का पूरा ढॉंचा भरभराकर गिर पड़ेगा।
जवाब देंहटाएंशोषित और शोषणकर्ता का निर्धारण पूर्वाग्रहग्रसित परिभाषाओं से करने वाले समाज से आप क्या अपेक्षाऍं रखते हैं?
जवाब देंहटाएंसंजय जी,
जवाब देंहटाएंब्लॉग का लिंक मिला, लेख पढ़ने लगी, लगा कि ऐसी बातें और ये सोच... ज़रूर किसी स्त्री ने लिखा होगा| अंत में जब लेखक में पुरुष नाम पढ़ी तो अचंभित... और चौंक गई| स्त्री को वश में रखने की समाज की चाल का हीं परिणाम है कि कभी देवी का दर्ज़ा दिया जाता, कभी मन के कोमल भावना से खेल कर किसी रिश्ते के तहत अस्तित्वविहीन कर दिया जाता| ऐसा नहीं कि ये सब आज के परिवेश या इस युग की बात है, अगर आप पौराणिक कथाओं को भी पढ़ें तो द्रौपदी, सीता, अहिल्या, कुंती के चरित्र और उनके साथ हुए कृत्य से अनुमान लगा सकते कि स्त्री कि क्या स्थिति है| स्त्री को अधीन रखने केलिए कभी बल कभी छल के न जाने कितने तरीके ईज़ाद किये गये| दुखद स्थिति तब और लगती जब स्त्री की दुर्दशा में स्त्री भी पुरुष का सहयोग करती... जैसे दहेज़ के लिए प्रताड़ना, प्रेम-विवाह पर बंदिश, कन्या भ्रूण हत्या, पर्दा प्रथा को बढ़ावा देना...
आपका लेख पढ़कर इतना कुछ लिखती जा रही कि टिप्पणी नहीं लेख लिख जायेगा|
आपकी सोच और संवेदनशीलता को नमन, शुभकामनाएं!
sundar aalekh...!!
जवाब देंहटाएंआपकी बातें हमेशा मुझे लगता है कि जैसे मेरी ही बातें हों... आपकी एक-एक बात से सहमत हूँ. असहमत होने का सवाल ही नहीं. औरतों को इसी तरह मीठी-मीठी गोलियाँ देकर सदियों से भरमाया गया है... और अब भी यही किया जा रहा है. ये पितृसत्तात्मक समाज की विशेषता है कि वह औरतों को औरतों के खिलाफ़ खड़ा करता है और फिर कहता है कि औरत ही औरत की दुश्मन होती है.
जवाब देंहटाएंसंजय जी ने बहुत अच्छा लिखा है और अगर हम में से कुछ लोग भी इस बात का बीड़ा उठा ले कि क्यूँ एक औरत अपनी मर्जी से जी नहीं सकती , समाज की बंदिशें क्यूँ उस पर लादी जाती है तो शायद कुछ सुधार आ जाए . अभी भी ज्यादातर लोग औरत को उसी आदर्श के लिबास में देखना चाहते है और ये कहना गलत नहीं होगा कि उनमे से ज्यादा औरते ही है , औरत ही औरत की दुश्मन है ये देखने में आया है. इसलिए पड़े लिखे लोग तो कम से कम अपनी विचार धारा बदले
जवाब देंहटाएंजनाब संजय ग्रोवर साहिब सादर अभिवादन
जवाब देंहटाएंआपकी रचना अर्थपूर्ण है आपके ह्र्दय में स्त्रियों के प्रति सम्मान अंकुरित हुआ जो इस बात का प्रतीक है कि स्त्रियों की दशा इतनी चिंता जनक भी नहीं जितना हम सोचते हैं आप की तरह और हमारी तरह सोचने वाले भी इस दुनिया में बहुत हैं.फ़र्क इतना है के हमारी नज़र सिर्फ़ नकारात्मक पहलुओं पर पड़ती है ,पूर्वकाल में किये हुए स्त्रियों के योगदान को कौन भुला पाएगा,राष्ट्र निर्माण में स्त्रियों का योगदान विशेष महत्व रखता है,आज भी स्त्रियों का सम्मान करने वालों की कोई कमी नहीं है आज अपने भारत में राष्ट्रपति के सिंहासन को कौन सुशोभित कर रहा है ?
ये सम्मान इस बात का सुबूत है कि इस देश में स्त्रियों का सम्मान करने वाले भी मौजूद हैं.
चिंता इस बात की होनी चाहिए कि आज भूण हत्या क्यों हो रही है ?
क्या स्त्रियों की इस में कोई हिस्सेदारी नहीं?
क्या सिर्फ़ पुरुष ही ज़िम्मेदार है ?
कहीं दहेज प्रथा भूण हत्या का कारण तो नहीं ?
दहेज प्रथा क्यों ?
शादियों में इतना आडंबर क्यों ?
अंत में यही कहूँगा कि इन सवालों के बावजूद फ़िक्र तो करनी ही पड़ेगी
एक शे’र अपना ही भूण हत्या पर आपकी ख़िदमत हाज़िर है
बिखर कब सका नूर उजली किरन का
बुझा दी गई शम’अ जलने से पहले
सटीक
जवाब देंहटाएं@ jenny shabnam , mukti, अलका सैनी, GOVIND GULSHAN
जवाब देंहटाएंबहुत बारीकी से सोचने का विषय है यह। अगर आज मैं इस लेख को लिखता तो शायद यह शीर्षक न देता। यह 13-14 साल पहले छपा लेख है। आजकी या अगले-पिछले कल की पीढ़ी की बाबत हम कह सकते हैं कि पुरुष शोषक और स्त्री शोषित की भूमिका में है। मगर यह शुरु कैसे हुआ, किसने किया, इस बाबत पक्के तौर पर हम कुछ नहीं कह सकते। आजकी स्त्री को अगर हीन-भावना, लज्जा, मर्यादा, शील डर, जैसी मानसिकता पिछली पीढ़ियों द्वारा किए अनुकूलन से मिली है तो आजके पुरुष को भी मर्दानगी, ‘दबाकर रखना’, ‘खानदान की आन-बान’, ‘ससुरालियों की आंखें नीची रखना’ की मानसिकता वहीं से मिली है। एक पके-पकाए मस्तिष्क को बदलना इतना आसान नहीं होता। पीढ़ियां बदलने के साथ ही यह सोच बदल पाएगी। वह भी तब, जब नयी पीढ़ियों में वैज्ञानिक और मानवीय संस्कार डाले गए।
स्त्रियां भी स्त्रियों की राह में रुकावटें खड़ी करतीं हैं, मैंने लेख की शुरुआत ही वहीं से की है। मगर ठीक उसी तरह पुरुष भी पुरुषों का दुश्मन है। कार्यालयों और अन्य जगहों पर पुरुष भी एक-दूसरे के खि़लाफ़ ख़ूब षड्यंत्र करते हैं। पंचायतें लड़कियों के साथ लड़कों को भी जला या मार देती हैं।
स्त्रियों का अलग से विशेष सम्मान करना मुझे उन्हें अलग करके देखना लगता है। मुझे लगता है सम्मान मानवीय गुणों के आधार पर होना चाहिए फिर चाहे उन्हें धारण करने वाला स्त्री हो, पुरुष हो, दलित हो, लैंगिक विकलांग हो या अन्य कोई हो। हां, शोषित को अतिरिक्त सहयोग इसलिए ज़रुर मिलना चाहिए कि सालों-साल झेलते-झेलते वह इस (मानसिक) हालत में आ जाता है कि बिना प्रेरणा, प्रोत्साहन और सहारे के अपने हालात से उबरना उसके लिए खासा मुश्किल हो जाता है।
निश्चय ही कन्या-भ्रूण-हत्या के लिए दहेज सबसे बड़ी वजह है।
आपकी भावनाओं की कद्र करते हुए विनम्रता पूर्वक अनुरोध करुंगा कि मुझे नमन, सलाम आदि न करें। दूसरे इंसानों की तरह मैं भी कमियों और कमज़ोरियों का पुतला हूं। होता बस यही है कि मुझे लगता है कि जो बात शायद कोई नहीं कह रहा, मेरे ज़हन में वो आ रही है और लोगों तक पहुंचनी चाहिए तो मैं ब्लाग या दूसरे संभव माध्यमों से सबके सामने रखने की कोशिश करता हूं।
क्या कहने साहब
जवाब देंहटाएंजबाब नहीं निसंदेह
यह एक प्रसंशनीय प्रस्तुति है
धन्यवाद..साधुवाद..साधुवाद
satguru-satykikhoj.blogspot.com
बहुत ही अच्छा आलेख, और हर युग के लिए ताजा....
जवाब देंहटाएंMain aapke comment se sahmat hoon. Aisa naheen hai ki is system se purushon ka bahut fayada hota hai... Wo bhi naheen samajh pate shayad, ki woh anpnee jeevan sangini ko apnaa saathi samajhte hain to unhe 'joru ka gulaam' kyon kaha jaata hai.
जवाब देंहटाएंHumara samaaj yeh to sweekar kar leta hai ki koi ladka sarak par chalti ladkiyon se durvyavahar kare, par yadi apni pasand ki ladki se shaadi karna chahe to gharwalon ko lagta hai 'budhape ka sahara' chin jayega. Bete ki khushi se zyaada apna araam lagta hai.
Sabse ajeeb yeh hai ki ladki wo pasand karke late hain par ummeed ki jaati hai ki ladka dhyaan rakhega ki bahu apne career ya sapno se pahle, apne pati ke parivaar ki suvidhaon ka dhyaan rakhegee. Sab ek doosre ke saath mil jul kar chalen yeh naheen sochte, yeh maan kar chalte hain ki ghar ke is Equal Member se sewa karwana unka haq hai...
Aur yeh to khayal hi naheen aata ki agar unkee aulaad unke 'budhpe ka sahara' hai to kyaa jin maa baap ki sirf betiyan hain kyaa woh unke budhpe ka sahara naheen hain?
Aisa lagta hai is desh main betiyon ke parents to kabhi senior citizens hote hi naheen! Phir hum sochte hi bhroon hatya kyon hoti hai!
Aapki post bahut achchi lagi, mujhe lagta hai yeh baten sab samajhte hain, par sochte hain jaisa chal raha hai wahi hamaari parampara hai... aur kuch log shayad samajhte hain ki yeh system unhe suit karta hai...
यह लेख जो काफी समय पहले लिखा गया ,पर आज काफी बदलाव आ चुके है महिलाओं की स्थिति पहले की तरह नही है वह इतनी कमजोर भी नही है। कही कही तो स्त्री ही पुरूष का शोषण करती नजर आती है पर कही न कही अब भी उनकी हालत कुछ खास नही है बस तरीके बदले है
जवाब देंहटाएंवरना तो उसका शोषण होता ही आया है।